शनिवार, 12 दिसंबर 2009

दिलचस्प अदबी बातें ( उर्दू की रोचक साहित्यिक बातें) भाग २/२

दिलचस्प अदबी बातें ( उर्दू की रोचक साहित्यिक बातें) भाग २/२
----सरवर आलम राज़ ’सरवर"
[नोट : यह लेख मोहतरम जनाब सरवर आलम राज़ ’सरवर’ द्वारा  उर्दू लिपि में लिखा गया है जो उनकी साईट www.sarwarraz.com से लिया गया है .जिसका सारा श्रेय सरवर साहब को और उनकी मेहनत को जाता है .यहाँ पर मात्र उसका हिन्दी तर्जुमा(ट्रान्सलिटरेशन) किया गया है तथा मुश्किल उर्दू अल्फ़ाज़ का कोष्ठक में हिंदी भावार्थ भी दिया गया है जिससे हिन्दी भाषी भी इस मज़्मून का लुत्फ़ उठा सकें---आनन्द.पाठक)

(१) तक़रीबन ४-५ सौ साल से ऐसे मौक़ों पर जब ज़िन्दगी की बे-सबाती (क्षण-भंगुरता) और उस में ऐश-ओ-आराम की कामयाबी का ज़िक्र मक़्सूद हो ,तो एक मिस्रा पढ़ा करते हैं’

बाबर ! बा ऐश कोश कि आलम दो-बारा नीस्त !

यह मिस्रा मुगल बादशाह ज़हीरुद्दीन बाबर का है जिसने हिन्दुस्तान में मुगलिया सल्तनत की दाग़-बेल (नींव) डाली थी."बाबर" फ़ारसी का अच्छा शायर भी था.पूरा शेर इस तरह है

नौ-रोज़-ओ-नौ-बहार-ओ-मय-ओ-दिलबरे खु़श अस्त
बाबर बा ऐश कोश कि आलम दो-बारा नीस्त !

(यानी नौ-रोज़ का दिन हो ,और बहार का मौसम भी,शराब-ए-साफ़ी हो और हसीन माशूक़ा भी तो ऐ बाबर ! जी भर के ऐश-ओ-इशरत कर ले क्योकि यह दुनिया दोबारा हाथ नही आएगी)

(२) किसी मौक़े पर बरजस्त:(तुरन्त) शे’र कहना या किसी दूसरे का शे’र पढ़ना भी एक फ़न है.इस की दो (२) मिसाल दर्ज की जाती है.
(अ) उर्दू के मशहूर शायर शेख़ क़लन्दर बख़्श "जुर्रत" ना-बीना (अंधे) थे.एक मर्तबा वो फ़िक्रे-सुख़न में बैठे थे कि उनके दोस्त इन्शा अल्लाह खाँ "इन्शा" आ पहुँचे और उन्होने ’जुर्रत" से पूछा कि शेख़ साहब किस फ़िक्र में ग़लताँ (दुविधा ग्रस्त)हैं?
"जुर्रत"ने कहा कि एक मिस्रा हो गया है,उसकी गिरह के फ़िक्र में हैं." और फ़िर वो मिस्रा सुनाया.

उस ज़ुल्फ़ पे फब्ती शब-ए-दीजूर की सूझी

[फब्ती=कुटिल मुस्कान, दीजूर= तारीक़ ,अँधेरा]
"इन्शा’ साहब ने फ़ौरन कहा "यूँ कह दीजिए"

"अन्धे को अन्धेरे में बड़ी दूर की सूझी ! "

(ब) मौलाना अबुल कलाम ’आज़ाद’अरबी और फ़ारसी के के ज़बर्दस्त आलिम(जानकार) थे.उनको हज़ारों अश’आर याद थे जिन को वो बार-महाल (समय व परिस्थिति पर)इन्तिहाई महारत से इस्तिमाल किया करते थे.एक मर्तबा एक सियासी मसले पर ’आज़ाद’ साहेब का मुहम्मद अली :जौहर" से इख्तिलाफ़ (विरोध) हो गया और "जोहर" साहब ने उनका साथ छोड़ कर दूसरों से जा मिले. मौलाना "आज़ाद" ने एक मज़्मून लिखा और उस में यह शे’र शामिल कर दिया

माशूक़-ए-मा बा-शेवा-ई हर कस मुवाक़िफ़ अस्त
बा मा शराब ख़ुर्द ,बा ज़ाहिद नमाज़ कर्द

(हमारा माशूक़ अपने सुलूक में हर एक का साथ दे लेता है .जहाँ उसने हमारे साथ बैठ कर शराब पी,वहीं उसने ज़ाहिद के साथ नमाज़ भी पढ़ ली !]
मौलाना "जौहर" ग़ुस्से में रात के वक़्त ही अपने एक दोस्त सैयद महफ़ूज़ अली के घर पहुँचे और उनको सोते से उठा कर कहा कि "देखो अबुल कलाम ने कैसा तंज़ (ताना) किया है .मुझे इसका जवाब भी चाहिये.
सैयद साहब भी ज़बर्दस्त आलिम थे.उन्होने उसी वक़्त यह शे’र जवाब में लिख कर दे दिया

"बर कफ़े जाम-ए-शरीअत, बर कफ़े संदान-ए-इश्क़
हर हवसनाक ना दानद जाम-ओ-सन्दाँ बा ख़तान

[मेरे एक हाथ में शराब का जाम है,और दूसरे हाथ में इश्क़ का बट्टा(कसौटी ).एक हवस परस्त इन्सान कब समझ सकता है कि शरी’अत और इश्क़ में किस तरह तवाज़ुन(सन्तुलन) बरक़रार रखा जा सकता है?

(३) मुगल बादशाह औरंगज़ेब अपनी तबियत का बहुत सख्त था.और हुकूमत उन उसूलों पर चलाना चाहता था जो उसके ख़याल में इस्लाम पर मब्नी (आधारित) थे.उसी के मुत्तलिक़ यह मशहूर है उस ने मोसूक़ी को मम्नूअ (संगीत को प्रतिबन्धित) क़रार दिया था.जब कुछ मिरासी(मर्सिया वाले) एक फ़र्ज़ी जनाज़ा लेकर उस के सामने से गुज़रे और उसके पूछने पर लोगों ने यह कहा-" यह मोसूक़ी (संगीत) का जनाज़ा है"तो उसने मुस्करा कर कहा था कि इसको ऐसा गहरा दफ़्न करना कि फिर निकल कर न आ सके. !. इसी का एक लतीफ़ा और सुन लीजिए:
औरंगज़ेब ने एक मर्तबा हुक्म जारी किया कि तमाम ज़नान-ए-बाज़ारी (तवायफ़ें) फ़लाना तारीख तक निकाह कर के अपनी मा’सियत (पाप) भरी ज़िन्दगी को खै़रबाद (अलविदा)कह दें वर्ना सब को एक कश्ती में बिठा कर दरिया में डुबो दिया जाएगा.!इस हुक्म से घबरा कर बहुत सी औरतों ने जल्दी जल्दी निकाह कर लिया.लेकिन कुछ बे-निकाह बाक़ी रह गईं.यहाँ तक कि उस मन्हूस तारीख के आने में सिर्फ़ एक दिन रह गया.उन औरतों में एक औरत थी जो एक मका़मी (स्थानीय) बुज़ुर्ग शेख़ कलीम-उल्लाह से अक़ीदत(श्रद्धा) रखी थी.और उनके पास रोज़ हाज़िर हुआ करती थी.उस दिन वो गई तो शेख़ साहेब से आब-दीदा(आँख में आँसू) हो कर कहा कि " बाँदी का आख़री सलाम क़ुबूल फ़रमाइये.
शेख़ साहेब के दरयाफ़्त करने पर उसने सारा हाल सुनाया तो आप ने कहा कि कल जब तुम लोग दरिया की तरफ़ ले जाई जा रही तो "हफ़ीज़’ शिराज़ी का यह शे’र बा-आवाज़-ए-बुलन्द पढ़ती जाना !

दर कू-ए-नेकनामी मा रा गुज़र ना दादंद
गर तू ना मी पसंदी तग़यीर कुन क़ज़ा रा !

(मानी; हम को नेक नामी के कूचे में तो जाने नही दिया गया.अब अगर तुझ को हमारी यह हालत पसंद नही है तो फिर क़ज़ा को बदल दे)!
दूसरे दिन जब सब औरतें ये ज़ोर-ज़ोर से पढ़ती हुई औरंगज़ेब के सामने से गुज़री तो वह इस क़दर मुतस्सिर(प्रभावित) हुआ उसने अपना हुक्म उसी वक़्त मन्सूख़ (रद्द) कर दिया !
(४) उर्दू शायरी के दो मर्कज़ (केन्द्र) मशहूर है : लखनऊ और दिल्ली।.लखनऊ के दो असातिज़ा (गुरु) ख़्वाज़ा हैदर अली"आतिश"और शेख इमाम बख़्श ’नासिख’ के शायराना चश्मकशीं (नोंक-झोंक) उर्दू अदब की तारीख में बहुत मारूफ़ हैं एक ज़माने में ’आतिश’ ने ’नासिख’की ग़ज़लों की ज़मीन में कई ग़ज़लें कहीं.उस पर ’नासिख’ने झुँझला कर तन्ज़न (ताने से) एक शे’र कहा कि

लिख रहा है एक जाहिल मेरे दीवान का जवाब
बू-मुसैलिम ने लिखा था जैसे क़ुरान का जवाब

(बू-मुसैलिम: एक शख्स जिसने पैगम्बर होने का दावा किया था)
जब "आतिश’ ने यह शे’र सुना तो फ़ौरन जवाब में यह शे’र कह दिया

क्यों ने दे हर मोमिन उस मुल्हिद के दीवान का जवाब
जिसने दीवान अपना ठहराया है "क़ुरान" का जवाब

(५) लखनऊ के एक मुशायरे में "नासिख" साहब ऐसे वक़्त पहुँचे जब महफ़िल तक़रीबन ख़त्म होने वाली थी.ख़्वाजा ’आतिश" और चन्द दूसरे शो’अरा मौजूद थे.मिज़ाज-पुर्सी(हाल-चाल) के बाद लोगो ने अर्ज़ किया कि "हुज़ूर ! मुशायरा तो ख़त्म हो चुका है लेकिन सब को आप का बड़ा इन्तिज़ार रहा."
शेख़ नासिख़ ने फ़ौरन यह मत्ला कह कर सुनाया और इस तरह अपने देर में आने का जवाज़(औचित्य) पैदा किया कि

जो ख़ास है वो शरीक-ए-गिरोह-ए-आम नही
शुमार -ए-दाना-ए-तस्बीह में इमाम नही

इस मत्ला में तस्बीह (एक किस्म की जपने की एक माला जिसमें छोटे-छोटे दाने लगे रहते हैं और इमाम लोग तस्बीह पढ़ते वक़्त गिना करते हैं)का ज़िक्र है जिस में जा-बजा छोटे दाने के बाद एक बड़ा दाना होता है जो इमाम कहलाता है और जिसका तस्बीह पढ़ते वक्त शुमार नहीं किया जाता है.यह भी याद रहे कि शेख़ नासिख़ का नाम इमाम बख्स था गोया इस शे’र में उन्होने अपने नाम से फ़ायदा भी उठाया है .सब ने शे’र की तारीफ़ की .’आतिश’ ने फ़ौरन जवाब में तंजन कहा -"

यह बज़्म वो है कि ताखी़र का मक़ाम नहीं
हमारे गंजिफ़: में बाज़ी-ए-ग़ुलाम नहीं

गंजिफ़: =ताश का एक प्रकार का खेल
ताख़ीर का मक़ाम= देर से आने की जगह

उस के जवाब में ’नासिख़’ के ही एक शाग़िर्द ख़्वाज़ा ’वज़ीर’ ने एक शे’र पढ़ा जो आज भी ब-तौर-ए ज़र्ब-ए-उल-मिसाल (लोक-मुहावरे की तरह) इस्तेमाल होता है:

जो ख़ास बन्दे हैं वो बन्दा-ए-अवाम नहीं
हज़ार बार जो यूसुफ़ बिके ग़ुलाम नहीं !

(६) लखनऊ के एक मुशायरे में "नासिख’ और "आतिश’ अपने अपने शागिर्दों के साथ मौजूद थे."मुसाफ़ी" ("आतिश’ के उस्ताद) की आमद (आगमन) भी मुतवक़्की थी(उम्मीद थी) मगर वो अभी आये नहीं थे ,इस दौरान एक कमसिन(कम उम्र के, नौजवान) लड़के ने अपनी ग़ज़ल का एक मत्ला पेश किया :

जिस बे-दहन से मैं करुँ तक़रीर बोल उठे
मुझ में कमाल यह है कि तस्वीर बोल उठे

बे-दहन= ख़ामोश तक़रीर= भाषण ,बात-चीत

मुशायरे में शोर मच गया और मत्ले की सबने बहुत तारीफ़ की."नासिख" साहब ने उसे कई बार पढ़वा कर दाद दी.इतने में "मुशाफ़ी" साहब आ पहुँचे ."नासिख" किसी तरह "आतिश " को छेड़ना चाहते थे.चुनांचे जब शमा "मुशाफ़ी" के सामने आई तो "नासिख" ने उनसे कहा कि अभी आप के आमद से क़ब्ल (आने से पहले) एक लड़के ने एक बेमिसाल मत्ला पढ़ा है .मैं चाहता हूँ कि आप भी सुन लें"
शमा उठा कर उस लड़के के सामने रख दी गई और उस ने फिर अपना मत्ला पढ़ कर सुनाया."आतिश’ को अपने उस्ताद के सामने से शमा इस तरह उठाए जाने पर गुस्सा आ गया और उन्होने "नासिख़" के सामने कहा कि एक ग़लत मत्ला पर इस क़दर दाद के क्या मानी? तस्वीर को बे-दहन कहना बिल्कुल ग़लत है.इस को यूँ कहना चाहिए

जिस बे-ज़बां से मैं करूँ तक़रीर बोल उठे
मुझ में कमाल यह है कि तस्वीर बोल उठे

और इस तरह एक लफ़्ज़ को बदल कर शे’र बहुत बुलन्द कर दिया.

(७) एक शे’र ग़म-ओ-रंज के मौक़े पर पढ़ा जाता है

दिल का उजड़ना सहल सही, बसना सहल नहीं ज़ालिम
बस्ती बसना खेल नहीं ,बसते बसते बसती है

आम तौर पर इसे "मीर" का शे’र समझा जाता है.यह दर-अस्ल शोकत अली खान "फ़ानी" बदायूनी का शे’र है.इस ग़ज़ल के कुछ अश’आर और सुनिए:

दुनिया मेरी बला जाने ,मँहगी है या सस्ती है
मौत मिले तो मुफ़्त न लूँ ,हस्ती की क्या हस्ती है ?

जग सूना है तिरे बगै़र,आँखों का क्या हाल हुआ
जब भी दुनिया बसती थी ,अब भी दुनिया बसती है

आँसू थे सो ख़ुश्क हुए, जी है कि उम्दा आता है
दिल पे घटा सी छाई है खुलती है ना बरसती है

दिल का उजड़ना सहल सही ,बसना सहल नहीं ज़ालिम
बस्ती बसना खे़ल नहीं बसते बसते बसती है

’फ़ानी’ जिस में आँसू क्या, दिल के लुहू का काल न था
हाय वो आँख अब पानी की, दो बूँदों को तरसती है

(८) मीर तक़ी ’मीर’ के ये अश’आर एक क़िते की सूरत में पढ़ा जाता है :

कल पाँव एक कास-ए-सर पर जो आ गया
यकसर वो उस्तुख्वाँ -ए-शकस्ता से चूर था

कहने लगा कि देख कर चल राह बे-ख़बर !
मैं भी कभू कसू का सर-ए-पुर-गु़रूर था !

कासए सर= खोपड़ी

उस्तुख़्वाँ =हड्डियाँ
सर-ए-पुर-गु़रूर =अहंकारी.घमण्डी का सर

 कभू कसू का =कभी किसी का

यह अश’आर ’मीर’ की एक ग़ज़ल में क़िताबन्द की तरह आईं हैं. इस ग़ज़ल के चन्द और अश’आर मुलाहिज़ा फ़रमाईए

था मस्त’आर हुस्न से उस के जो नूर था
ख़ुर्शीद में भी उस का ही ज़र्रा ज़हूर था

पहुँचा जो आप को तो मैं पहुँचा ख़ुदा के ताईन
मालूम अब हुआ कि बहुत मैं भी दूर था

मजलिस में रात एक तिरे पर्तवे बगै़र
क्या शमा ,क्या पतंग हर इक बे-हुज़ूर था

हम ख़ाक मिले तो मिले ,लेकिन ऐ सिपह्र !
उस शोख़ को भी राह पे लाना ज़रूर था

कल पाँव एक कासए-सर पर जो आ गया
यकसर वो उस्तुख्वाँ -ए-शकस्ता से चूर था

कहने लगा कि देख कर चल राह बे-ख़बर !
मैं भी कभू कसू का सर-ए-पुर-गु़रूर था !

(९) एक मिस्रा अक्सर लोग तन्ज़न (व्यंग्य से) पढ़ते हैं

"आशिक़ का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले"

यह मत्ला आख़री मुगल बादशाह बहादुर शाह’ज़फ़र’ के ज़माने के शायर मिर्ज़ा मुहम्मद अली "फ़िदवी’ का है जो मिर्ज़ा "हज्व’ के नाम से भी मशहूर थे .पूरा शे’र यूँ है

चल साथ कि हसरत दिल-ए-महरूम से निकले
आशिक़ का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले

(१०) लोग किसी शख़्स को तन्बीह (चेतावनी) के तौर पे एक मिस्रा सुनाते हैं .आप ने इलेक्शन या ऐसे ही किसी और सियासी मौक़े पर इस को इधर-उधर लिखा देखा होगा

"दौड़ो ! ज़माना चाल क़यामत की चल गया !"

यह शे’र जस्टिस शाह दीन "हुमायूँ" का है .आप १२ अप्रिल १८६८ को बागबानपुरा (लाहौर) में पैदा हुए और २ जुलाई १९१८ को लाहौर में ही अल्लाह को प्यारे हुए.पूरा शे’र इस तरह है

उठ्ठो ! वगरना हस्र नहीं होगा फिर कभी
दौड़ो ! ज़माना चाल क़यामत की चल गया !

(११) किसी शख़्स का इन्तक़ाल हो जाए तो लोग यह मिस्रा पढ़ते है:

"क्या खूब आदमी था,ख़ुदा मग़फ़िरत करे"

 मगफ़िरत करे = आत्मा को शान्ति प्रदान करे

यह शेख मुहम्मद इब्राहिम "ज़ौक़" (१७८९-१८५४) का एक मक़्ता है."ज़ौक" और "गा़लिब" हम-अस्र (समकालीन) थे,दोनों ही मुख़्तलिफ़ वक़्तों में (विभिन्न समय में) बहादुर शाह "ज़फ़र’ के उस्ताद भी रहे थे.पूरा मक़्ता इस तरह है

कहते हैं आज "ज़ौक़" जहाँ से गुज़र गया
क्या खूब आदमी था ,ख़ुदा मगफ़िरत करे

(१२) एक मिस्रा तक़रीबन १८५६ से ज़र्ब-उल-मिसाल (लोक मुहावरे) के तौर पर मुस्तमिल है(प्रचलित है).और इन्सान के उरूज-ओ-ज़वाल (उत्थान-पतन)) के इब्रतनाक अक्सी (इबारती तौर पर अक्स ) करता है .इस को शायर ने मुगल सल्तनत की बुझती हुई शमा के पस-ए-मंज़र( सन्दर्भ) में कहा था लेकिन यह अब भी अपनी मुनयत(उद्देश्य) में यकता (बेमिसाल)है

"इक धूप थी कि साथ गई आफ़्ताब के !"

यह मुन्शी ख़ुशबख़्त अली खान "ख़ुर्शीद’ लखनवी के एक शे’र का माखूज़ है "खुर्शीद" साहेब मुहम्मद रज़ा "बर्क़"लखनवी के शागिर्द थे.मत्ला इस तरह से है

पीरी में वल्वले कहाँ है शबाब के
इक धूप थी कि साथ गई आफ़्ताब के !

पीरी में =बुढ़ापे में

 वल्वले = जोश ,उमंग

(१३) अब कोई शख़्स आधी को छोड़ पूरी के पीछे भागे और उसके हाथ उनमें से एक भी न लगे तो लोग हसरत या तंज़ से कहते हैं कि

"ना ख़ुदा ही मिला ,ना विसाल-ए-सनम.ना इधर के रहे ना उधर के रहे!"

यह मिस्रा मिर्ज़ा सादिक़ "शरार" का है पूरा शे’र सुनिए

गये दोनों जहान के काम से हम ,ना इधर के रहे ना उधर के रहे
ना ख़ुदा ही मिला ,ना विसाल-ए-सनम.ना इधर के रहे ना उधर के रहे!

(१४) किसी की वफ़ात (मृत्यु) हो जाए तो आम तौर पर लोग ताज़ियत (अर्थी) के वक़्त इज़हार-ए-हक़ीक़त (सच्चाई प्रगट करने)और तसल्ली के लिए कहते हैं

"वो आज ,कल हमारी बारी है !"

यह उर्दू के मशहूर मस्नवी (उर्दू की एक काव्य विधा) "ज़ेह्र-ए-इश्क़’(हकीम तसद्दुक़ हुसेन अल-मारूफ़ बा-मिर्ज़ा "शौक़" लख़नवी (१७८३-१८७१) के हैं.पूरा शे’र और इसी मस्नवी के चन्द और अश’आर दर्ज-ए-ज़ेल (नीचे दर्ज़) है

मौत से किस को रस्तगारी है
आज वो कल हमारी बारी है

इश्क़ में हमने यह कमाई की
दिल दिया ग़म से आशनाई की

जाये- इब्रत सराय-ए-फ़ानी है
मुरीद-ए-मर्ग-ए-नागिहानी है

ऊँचे ऊँचे मकान थे जिनके
आज वो तंग गोर में हैं पड़े
हर घड़ी मुन्क़लिब ज़माना है
यही दुनिया का कार खाना है

रस्तगारी = मुक्ति

सराय-ए-फ़ानी= नश्वर दुनिया(ठहरने की जगह)

तंग गोर=छोटी सी कब्र
मुन्क़लिब = उथल-पुथल







मिर्ज़ा "शौक" के पोते "एह्सान" लख़नवी का कहना है कि मस्नवी ’ज़ेह्र-इश्क़’ एक सच्ची वाक़िए पर मब्नी (आधारित) है.उनके बयान के मुताबिक़ मिर्ज़ा ’शौक़’ के बिरादर-ए-निस्बत (साले!)और एक ख़ातून "सितारा’ की मुहब्बत अपने अन्जाम में नाकाम साबित हुई थी.मिर्ज़ा ’शौक़’ ने दोनो की ग़म अंगेज़ गुफ़्तगू किसी तरह सुन ली थी और उस से मुत्तसिर (प्रभावित) हो कर अपनी मस्नवी का आग़ाज़ उसी रात दीवार पर कोयले से मस्नवी की इब्तदाई (शुरुआती) अश’आर लिख कर किया था

(१५) मौत और ज़िन्दगी के हवाले से दर्ज-ए-ज़ेल मिस्रा मुद्दत से ज़र्ब-ए-मसाल(मुहाविरा) हो कर रह गया है.

"ज़िन्दगी नाम है मर मर के जिए जाने का"

यह नामवर शायर शौकत अली खान "फ़ानी" के एक शे’र का मिस्रा है "फ़ानी" का कलाम अपनी हसरत-अमीज़ी और सोज़ के लिये निहायत मशहूर है और मौसूफ़ (श्रीमान) का शुमार ’जिगर मुरादाबादी’ ’असगर गोंडवी’ और हसरत मोहानी के साथ पिछली सदी के अज़ीम (प्रतिष्ठित) शो’अरा (शायरों) में किया जाता है."फ़ानी" क़स्बा इस्लाम नगर ज़िला बदायूँ में १३ सितम्बर १८७९ को पैदा हुए थे और आप ने २७ अगस्त १९४१ को हैदराबाद (डेक्कन) में इन्तेकाल फ़रमाया.आप अरबी फ़ारसी और उर्दू के आलिम (जानकार) थे और साथ ही १९०१ में बरेली कालेज से बी०ए० और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से एल०एल०बी० की अस्नाद(सनदें) भी हासिल कर रखी थी.उनका पूरा शे’र सुनिये

हर नफ़स उम्र-ए-गुज़स्ता की है मय्यत ’फ़ानी’
ज़िन्दगी नाम है मर मर के जिए जाने का!

हर नफ़स =हर श्वाँस,हर पल
उम्र-ए-गुज़स्ता= बीती हुई उमर

"फ़ानी" के ये ३ - अश’आर भी बहुत मशहूर हैं

ज़िक्र जब छिड़ गया क़यामत का
बात पहुँची तिरी जवानी तक

सुने जाते ना थे तुम से दिन रात के शिकवे
कफ़न सरकाओ मेरी बे-ज़बानी देखते जाओ

इक मुअम्मा है समझने का न समझाने का
ज़िन्दगी काहे को है ,ख़्वाब है दीवाने का

मुअम्मा =पहेली


 
(१६) सेहत और तन्दरुस्ती की अहमियत के हवाले से यह शे’र अकसर पढ़ा जाता है :

तंग्दस्ती अगर ना हो ’ग़ालिब’
तन्दरुस्ती हज़ार ने’मत है

यह शे’र मिर्ज़ा ’गालिब’ का नही है.बल्कि मिर्ज़ा कुर्बान अली बेग ’सालिक’ का है जो ’ग़ालिब’ के शागिर्द थे.दिल्ली में १८२४ में पैदा हुए थे और १८८१ में हैदराबाद (डेक्कन) में इन्तिक़ाल किया.आप की बेटी रुक़ैय्या बेगम हिन्द-ओ-पाक के मशहूर आलिम-ए-इस्लाम मौलाना अबुल अला मौदूदी की वालिदा (माँ) थीं सही शे’र यूँ है

तंग्दस्ती अगर ना हो ’सालिक’
तन्दरुस्ती हज़ार ने’मत है

(१७) मुगल हुकूमत के ज़वाल (पतन) के ज़माने में बादशाह मुहम्मद शाह :रंगीला:का नाम अपनी ऐय्याशियों के वजह से तारीख़ में बहुत मशहूर है.उसी का एक फ़ारसी मिस्रा भी ज़बान-ज़द-ए-ख़ास-ओ-आम(हर छोटे-बड़े की ज़बान पर) है कि

"शामते एमाल-ए-मा,सूरत-ए-नादिर गिरिफ़्त "

शामते-एमाल= किए हुए कुकृत्यों का फल

[हमारे शामते-एमाल ने हमें नादिर शाह दुर्रानी की सूरत में पकड़ लिया है]
लेकिन इस का पसे-ए-मंज़र (सन्दर्भ) कम लोगों को मालूम है.नादिरशाह दुर्रानी ने १७३९ के लगभग दिल्ली पर हमला किया था और वहाँ क़त्ल-ओ-ग़ारतगरी का बाज़ार गर्म कर रखा था.जब बादशाह के दरबारी मुहम्मद शाह :रंगीला: के हुज़ूर शिकायत ले कर आये कि शहर में यह सब हो रहा है तो बादशाह को अपनी बेबसी का अन्दाज़ा हुआ और उसने आह भर कर फ़िल बदीह (यानी उसी वक्त) यह शे’र कह दिया कि

दीदाह-ए-इबरत -खु़शा ! क़ुद्रत-ए-हक़ रा बे-बीन
शामते-एमाल-ए-मा , सूरत-ए-नादिर ग़िरिफ़्त

[ऐ मेरी इबरत(बुरे काम का मिलने वाला फल) देखने वाली आँखे ! ज़रा अल्लाह की क़ुद्रत देख ! कि हमारे शामते-एमाल ने नादिर की सूरत में हमें पकड़ लिया है]
यह वो वक्त था जब नादिर शाह के हुक्म से दिल्ली में क़त्ले आम हो रहा था और हज़ारों आदमी मौत के घाट उतारे जा रहे थे.उस समय के दस्तूर के मुताबिक़ नादिर शाह दिल्ली की जामा मस्जिद मे तलवार सूंते(तलवार को म्यान से बाहर निकाल कर युद्ध के लिए तैयार) बैठा हुआ था .यह क़त्ल-ए-आम के हुक्म के मुतरादिफ़ (पर्यायवाची) था और जब तक वह इस सूरत में बैठा रहता क़त्ल-ए-आम जारी रहता.आख़िर मुहम्मद शाह :रंगीले: के वज़ीर-ए-आज़म नंगे सर और बे-चारगी (असहाय स्थिति) के इज़हार के तौर पर गले में अपनी तलवार लटका कर नादिरशाह के सामने हाज़िर हुआ और कहा कि

कसे ना मांद कि दीगर बा-तेग़-ए-नाज़ खुशी
मगर कि ज़िन्दा खूनी ख़ल्क़ रा वा बाज़ खुशी!

[अब तो कोई भी बाक़ी नहीं बचा कि तू अपने निग़ाह-ए-नाज़ से उस को क़त्ल करे,सिवाय इस के कि तू लोगो को दोबारा ज़िन्दा करे और फ़िर से उनको क़त्ल करे]
उसके बेकसी और बुढ़ापे को देख कर नादिरशाह ने अपनी तलवार म्यान में कर ली.और कहा कि

बा रीश-ए-सफ़ेदात बा ख़शीदम
(तुम्हारी सफ़ेद दाढ़ी को देख कर मैं मु’आफ करता हूँ)
उसी वक़्त इरानी नक़ीब (चोबदार) दिल्ली की सड़कों पर : अमान (शान्ति) ! अमान (शान्ति)! चिल्लाते हुए दौड़ निकले और क़त्ले आम रुक गया.
अगला ज़माना भी अजीब था लोगो में अदाबी और शे’री ज़ौक़ बहुत था और किसी सख़्त वक़्त भी उनको हरी हरी सूझती थी

(१८) एक मिस्रा बहुत मशहूर है जो लोग किसी अच्छे शख़्स के इन्तिकाल-ए-पुर मलाल (मृत्यु के दुख भरे) के मौक़े पर पढ़ते हैं

"ख़ुदा बख़्शे बहुत सी ख़ूबियाँ थी मरने वाले में !"

यह मिस्रा मिर्ज़ा खान "दाग" देहलवी का है और मुकम्मल शे’र यूँ है;

ख़बर सुन कर मेरे मरने की ,वो बोले रक़ीबो से
ख़ुदा बख़्शे बहुत सी ख़ूबियाँ थी मरने वाले में !

रक़ीबों से =अपने अन्य दूसरे प्रेमियों से



मिर्ज़ा ’दाग़’ (१८३१-१९०५) ’गा़लिब’ के शागिर्द थे और उर्दू के मुसल्लिम-उस-सुबूत असातिज़ा (पूर्ण रूपेण प्रामाणिक गुरु) में उनका नाम शुमार होता है.उनके चन्द और अश’आर मशहूर है और नीचे लिखे जाते हैं

राह पर उनको लगा लाए तो हैं बातों में
और खुल जाएंगे दो-चार मुलाक़ातों में

फ़लक देता है जिनको ऐश उनको ग़म भी होते हैं
जहाँ बजती हैं शहनाई वहाँ मातम भी होते हैं

उर्दू है जिसका नाम हमी जानते हैं ’दाग’!
सारे जहाँ में धूम हमारे ज़बाँ की है

(१९) एक जुमला मशहूर है जो लोग किसी ऐसे शख़्स के लिए कहते हैं जिस का कोई ठिकाना ना हो और दर-ब-दर मारा-मारा फिरता हो

"’धोबी का कुत्ता ,न घर का न घाट का’"
यह दर-अस्ल मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी ’सौदा’ (१७१३-१७८१) के दर्ज-ए-ज़ेल तीन(३) अश’आर का हिस्सा है और जो उन्होने मिर्ज़ा मज़हर ’जाने-जानाँ’ (फ़ारसी के मशहूर शायर थे और उर्दू में भी कहते थे लेकिन कम) की शायरी की ह्ज्व (बुराई) में कहे थे

"मज़हर " का शे’र फ़ारसी और रेख़्ता के बीच
"सौदा" यक़ीन जान कि रोड़ा है बात का

आगाह-ए-फ़ारसी तो कहें इस को रेख़्ता
वाक़िफ़ जो रेख़्ता का ज़रा होव ठाट का

अल क़िस्सा इस का हाल यही है तो सच कहूँ
कुत्ता है धोबी का कि न घर का न घाट का

(२०) जब कोई परेशान हो तो लोग उसकी तसल्ली के लिए कहते हैं कि

बाँट ले कोई किसी का ग़म यह मुमकीन ही नहीं
यार ग़म दुनिया में उठवाते नहीं मज़दूर से

यह शे’र लखनऊ के मशहूर उस्ताद शेख़ इमाम बख़्श ’नासिख" का है

२१) किसी पर हमेशा बुरा वक़्त ही रहे तो लोग कहते हैं कि

उम्र कटने को कटी पर क्या है ख्वा़री में कटी !
यह ख़्वाजा अमीनुद्दीन "अमीन’ अज़ीमाबादी का एक मत्ला है.नवाब मुस्तफ़ा खान ’शेफ़्ता’ (शागिर्द-ए-गा़लिब) के तज़्करे "गुलशन-ए-बे-ख़ार में इन का ज़िक्र है कि उस वक़्त मौसूफ़ (श्रीमान) ज़िन्दा थे (१८३४) ,पूरा मत्ला यूँ है

दिन कटा फ़रियाद में और रात ज़ारी में कटी
उम्र कटने को कटी पर क्या ही ख़्वारी में कटी

ज़ारी में कटी= रोने-धोने में कटी



(२२) एक मत्ला मीर तक़ी ’मीर’ के नाम से बहुत मशहूर है और उसकी आम शक्ल यूँ है

शिकस्त-ओ-फ़तह नसीबों से है वले अए ’मीर’
मुक़ाबला तो दिल-ए-नातवाँ ने खूब किया

दिल-ए-नातवाँ =कमजोर दिल ने
शिकस्त-ओ-फ़तह= हार-जीत


 

शे’र तो वाक़यी बहुत खूबसूरत है और इसका ’मीर’ के नाम से मन्सूब (निस्बत) हो जाना कोई हैरत की बात नहीं.लेकिन दर-अस्ल यह शे’र नवाब मुहम्मद यार ख़ान’अमीर’ रामपुरी का है.मौसूफ़ रियासत रामपुर के बानी नवाब फ़ैज़ुल्लाह ख़ान के छोटे भाई थे और उस्ताज़-उल-असातिज़ा (गुरुओं के उस्ताद) "क़ायम" चाँद्पुरी के शागिर्द थे. सही सूरत इस शे’र की यूँ है :

शिकस्त-ओ-फ़तह मियां इत्तिफ़ाक़ है लेकिन
मुका़बिला तो दिल-ए-नातवाँ ने खूब किया

इसी तरह एक और शे’र है जो ’मीर’ के नाम से मशहूर है हालां कि उनका नहीं है यह शे’र भी अपनी नज़ाक़त-ओ-बयाँ और खूबसूरती में ला-जवाब है

वो आए बज़्म में इतना तो’मीर’ ने देखा
फिर उसके बाद चिराग़ों में रोशनी न रही

एक किताब "कामिलान-ए-रामपुर" में "फ़िक्र" रामपुरी का बताया गया है. मज़े के बात यह है कि उसी किताब में इस को ’राज़’ याज़्दानी का भी लिखा गया है जो ’फ़िक्र’ रामपुरी के उस्ताद थे.सही शे’र सिर्फ़ तख़ल्लुस के फ़र्क के साथ यूँ है

वो आए बज़्म में इतना तो ’फ़िक्र’ ने देखा
फिर उसके बाद चिराग़ों में रोशनी न रही

(२३) अल्लामा ’इक़बाल’ की एक मशहूर ग़ज़ल के दो अश’आर यूँ है

कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र! नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में
तू बचा-बचा के न रख इसे तिरा आईना है वो आईना
कि शिकस्त हो तो अज़ीज़-तर है निगाह-ए-आईना-साज़ में

जबीन-ए-नियाज़ में =माथा टेकने की कामना में


[’आनन’ यानी यह ख़ाकसार ,अर्ज़ करता है कि यह पूरी ग़ज़ल ’बहर-ए-कामिल मुसम्मन सालिम ’ की एक मुस्तनद मिसाल है]
इसी ज़मीन और बह्र में एक शे’र मशहूर है जो ’इक़बाल’(१८६९-१९३८) का नहीं है बल्कि उनके एक हम-अस्र (समकालीन) शायर इकराम अहमद "लुत्फ़’ बदायूनी (१८७५-१९४३) का है

रूख़-ए-मुस्तफ़ा है वो आईना कि अब ऐसा दूसरा आईना
न हमारे बज़्म-ए-ख़्याल में ,न दुकान-ए-आईना-साज़ में

(मुस्तफ़ा= लकाब (उपाधि) है पैगम्बर मुहम्मद का)
२४) अब नीचे कुछ अश’आर और उनके लिखने वाले शायर का नाम दिए जा रहे है यह अश’आर किसी न किसी वजह से मशहूर है

सियाह बख्ती में कब कोई किसी का साथ देता है
कि तारीक़ी में साया भी जुदा होता है इन्सान से
-इमाम बख़्श ’नासिख़’

वे सूरत-ए-इलाही किस देश बस्तियाँ हैं
अब जिन के देखने को आँखे तरस्तियाँ हैं
-मिर्ज़ा रफ़ी ’सौदा’

गया वो हुस्न लेकिन रंग है रुख़्सार-ए-जानाँ पर
अभी बाक़ी है कुछ कुछ धूप दीवार-ए-गुलिस्ताँ पर
-"मुश्ताक़ देहलवी

ज़रा उनकी शोख़ी तो देखिए ,लिए ज़ुल्फ़-ए-ख़म-शुदा हाथ में
मिरे पीछे आ के दबे-दबे मुझे ’साँप’ कह के डरा दिया !

ज़ुल्फ़-ए-ख़म-शुदा =बल खाईं जुल्फ़ें

-मख़्फ़ी ; (’मुशाफ़ी’ की बेटी)

तुम्हे गै़रों से कब फ़ुर्सत ,मैं अपने ग़म से कब खाली
चलो बस हो चुका मिलना ,न तुम खाली, न हम खाली
-जफ़र अली ’हसरत’ देहलवी

सदा ऐश दौराँ दिखाता नहीं
गया वक़्त फ़िर हाथ आता नहीं
-मीर ’हसन’ देहलवी

लिख कर जो मेरा नाम ज़मीं पर मिटा दिया
उनका था खेल, ख़ाक में मुझको मिला दिया
-नवाब अख़्तर महल : (मुगल शाहजादी थीं)
(२५) एक दिन मिर्ज़ा ’गा़लिब’ के घर में उनके कुछ शागिर्द जमा थे और वो ख़ुद किसी काम से बाहर गये हुए थे.उनके एक शागिर्द ने न जाने किस तरंग एक मुहमल (अर्थहीन) मिस्रा कहा कि
"’शराब सींक पे डाली ,कबाब शीशे में’"
दूसरे शागिर्द खूब हँसे कि यह भी कोई बात हुई! इतने मे ’गालिब’ वापस आ गये.लोगों ने उनके सामने यह मिस्रा पेश किया.और उन्होने कहा कि ’इस मिस्रे ’पर यूँ गिरह लगा लो तो शे’र मुकम्मल हो जाए

किसी के सामने आने से साक़ी कि ऐसे होश उड़े
शराब सींक पे डाली ,कबाब शीशे में’

(२६) ’इक़बाल’ एक मर्तबा अलीगढ़ यूनिवर्सिटी गये हुए थे.चन्द लड़कों ने शोखी से एक मिस्रा मौजूं कर के उनकी ख़िदमत में पेश किया कि इस पर गिरह लगा दीजिए.मिस्रा यूँ था
"मछलियाँ दस्त में पैदा हो,हिरन पानी में"

’इक़बाल’ ऐसी बातों से परहेज़ करते थे.लेकिन लोगों की फ़रमाईश पर उन्होने फ़िलबदीह(तुरन्त) गिरह लगा कर शे’र मुकम्मल कर दिया

अश्क़ से दस्त भरे,आह से सूखे दरिया
मछलियाँ दस्त में पैदा हो,हिरन पानी में !

(२७) एक बार मीर ’अनीस’ ने एक शे’र का दूसरा मिस्रा मौजूं किया लेकिन पहला मिस्रा बन नहीं पा रहा था."अनीस’ के वालिद मीर ख़ालिक़ (जो खुद भी एक बुलन्द पाया मर्सियागो थे ) के इस्तिफ़्सार पर ’अनीस’ ने मिस्रा सुनाया

"अच्छा सवार होइए ,हम ऊँट बनते हैं"
{इस मिस्रा का पसे-मंज़र यह है कि ’अनीस’ वो वाक़िया क़लमबन्द करना चाह रहे थे जब एक बार इमाम हुसेन(जो अभी बच्चे थे) किसी बात पर ज़िद कर रहे थे तो हुज़ूर-ए-पाक ने उन्हे अपनी कमर पर बिठा कर सवारी करवाई थी.}
मीर ख़ालिक़ ने सुनते ही शे’र मुकम्मल कर दिया

जब आप रूठते हैं तो मुश्किल से मनते हैं
अच्छा सवार होइए ,हम ऊँट बनते हैं"

(२८) मीर ’अनीस’ ने एक बार किसी मर्सियाख़्वानी की महफ़िल में यह मिस्रा पढ़ा
’बह्रे अली के गौ़हर-ए-यक्ता हुसेन हैं’
इस पर सामयीन ने (सुनने वालों ने)शोर मचाया कि "बह्र-ए-अली" में ’ज़म’(खोट ,दोष) का पहलू निकलता है.क्योंकि "बह्र-ए-अली" तो "बहरे अली’(यानी कान से माज़ूर अली) पढ़ा या सुना जा सकता है और ज़ाहिर है कि यह बे-अदबी है.’अनीस’ ने फ़ौरन मिस्रा बदल दिया

"काने अली के गौ़हर-ए-यक्ता हुसेन हैं’

लोगों ने फ़िर शोर मचाया कि हज़रत अली "काने’(एक आँख वाले) नहीं थे.घबरा कर मीर ’अनीस’ ने एक बार फिर मिस्रा बदल दिया

"गंजे अली के गौ़हर-ए-यक्ता हुसेन हैं’
लोग फिर चीख उठे कि हज़रत अली "गंजे" भी नहीं थे.मीर ’अनीस’ ने एक बार फिर फ़ौरन मिस्रा बदल दिया
"कंजे़ अली के गौ़हर-ए-यक्ता हुसेन हैं’                                         (कंज़= खज़ाना)
और इस तरह उनकी जान छूटी
(२९) इन मिसालों से यह न समझा जाए कि हमेशा दूसरे ही "अनीस" की अश’आर मुकम्मल किया करते थे .मीर ’मुनीस’ (अनीस के छोटे भाई)ने एक दिन "अनीस’को अपना शे’र सुनाया.

न तड़पने की इजाज़त है न फ़रियाद की है
यूँ ही मर जाऊ ये मर्ज़ी मिरे सैयाद की है

मीर ’अनीस’ ने दूसरे मिस्रे में मामूली तरमीम (बदलाव) कर के शे’र को वो चार चाँद लगाया दिए जिस से यह शे’र ज़र्ब-ए-उल-मिसाल (लोक-मुहावरों) का दर्जा इख़्तियार कर गया

न तड़पने की इजाज़त है न फ़रियाद की है
घुट-घुट कर मर जाऊ ये मर्ज़ी मिरे सैयाद की है

---समाप्त----
(यह लेख २ भाग में है.पहला भाग दिनांक ३ दिसम्बर २००९..को इसी ब्लोग पर अपलोड किया गया है .)
प्रस्तुतकर्ता
-आनन्द.पाठक

1 टिप्पणी: