शनिवार, 16 जनवरी 2010

ग़ज़ल 006 : मेरे जब भी करीब आई बहुत

ग़ज़ल 006

मेरे जब भी क़रीब आई बहुत है
ये दुनिया मैने ठुकराई बहुत है !

मै समझौता तो कर लूँ ज़िन्दगी से
मगर ज़ालिम यह हरजाई बहुत है !

तुम्हें सरशारी-ए-मंज़िल मुबारक
हमें ये आबला-पाई बहुत है !

कहाँ मैं और कहाँ मेरी तमन्ना
मगर यह दिल ! कि सौदाई बहुत है

बला से गर नहीं सुनता है कोई
मजाल-ओ-ताब-ए-गोआई बहुत है

मैं हसरत-आशना-ए-आरज़ू हूँ
मिरी ग़म से शनासाई बहुत है !

मैं ख़ुद को ढूँढता हूँ अन्जुमन में
मुझे एहसास-ए-तन्हाई बहुत है

ना आई याद तो बरसों न आई
मगर जब आई तो आई बहुत है

मिरी रिंदी बा-रंग-ए-पार्साई
हरीफ़े-खौफ़-ए-रुस्वाई बहुत है

ज़माने को शिकायत है यह ’सरवर’
कि तुझ मे बू-ए-खुदराई बहुत है

-सरवर-

आबला-ए-पायी =पाँवों के छाले
सरशारी-ए-मंज़िल = मंज़िल की पहुँच
मजाल-ओ-ताब-ए-गोआई = मेरी बोलने की ताकत और क्षमता
शनासाई =जान-पहचान
रिंदी बा-रंग-ए-पार्साई = मेरा शराबीपन और संयम
हरीफ़े-खौफ़-ए-रुस्वाई =रक़ीब की बदनामी का डर
रक़ीब = एक प्रेमिका के दो परस्पर प्रेमी
बू-ए-खुदराई = स्वेच्छाचारिता की गंध

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