रविवार, 21 फ़रवरी 2010

ग़ज़ल 013 : शब-ए-उम्मीद है

ग़ज़ल 013


शब-ए-उम्मीद है ,सीने में दिल मचलता है
हमारी शाम-ए-सुख़न का चिराग़ जलता है

न आज का है भरोसा ,न ही ख़बर कल की
ज़माना रोज़ नयी करवटें बदलता है

अजीब चीज़ है दिल का मुआमला यारों !
सम्भालो लाख, मगर ये कहाँ सम्भलता है

न तेरी दोस्ती अच्छी ,न दुश्मनी अच्छी
न जाने कैसे तिरा कारोबार चलता है

सुना है आज वहाँ मेरा नाम आया था
उम्मीद जाग उठी ,दिल में शौक़ पलता है

वही है शाम-ए-जुदाई , वही है दिल मेरा
करूँ तो क्या करूँ ,कब आया वक़्त टलता है !

मिलेगा क्या तुम्हें यूँ मेरा दिल जलाने से
भला सता के ग़रीबों को कोई फलता है ?

इसी का नाम कहीं दर्द-ए-आशिक़ी तो नहीं ?
लगे है यूँ कोई रह रह के दिल मसलता है

न दिल-शिकस्ता हो बज़्म-ए-सुख़न से तू ’सरवर’
नया चिराग़ पुराने दिये से जलता है !
-सरवर
दिल-शिकस्त =दिल का टूटना

4 टिप्‍पणियां:

  1. मिलेगा क्या तुम्हें यूँ मेरा दिल जलाने से
    भला सता के ग़रीबों को कोई फलता है ?

    इसी का नाम कहीं दर्द-ए-आशिक़ी तो नहीं ?
    लगे है यूँ कोई रह रह के दिल मसलता है

    न दिल-शिकस्ता हो बज़्म-ए-सुख़न से तू ’सरवर’
    नया चिराग़ पुराने दिये से जलता है !

    बहुत खूब ... शुक्रिया इस ग़ज़ल के लिए.

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  2. आ० अमिताभ जी/समीर लाल जी
    ’सरवर’ साहब के ग़ज़ल की सराहना के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
    सादर
    आनन्द.पाठक

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  3. शुक्रिया आनन्द जी,
    पूरी गज़ल ही जानदार है। मक़्ता खास तौर पर पसन्द आया।
    न दिल-शिकस्ता हो बज़्म-ए-सुख़न से तू ’सरवर’
    नया चिराग़ पुराने दिये से जलता है !

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