शनिवार, 22 मई 2010

ग़ज़ल 023 : इक ज़रा सी देर को --

ग़ज़ल 023 : इक ज़रा सी देर को ......


इक ज़रा सी देर को नज़रों में आने के लिए
तुम ने ’सरवर’ किस क़दर एहसान ज़माने के लिए !

इक तमन्ना, एक हसरत ,इक उम्मीद ,इक आरज़ू
है अगर कुछ तो यही है सर छुपाने के लिए

काम क्या आया दिल-ए-मुज़्तर मक़ाम-ए-ज़ीस्त में
एक दुनिया आ गई बातें बनाने के लिए

मेरी तन्हाई मिरे ग़म का मदावा बन गई
रात मैं खुद से मिला ,सुनने सुनाने के लिए

वक़्त जैसा भी गुज़र जाए ग़नीमत जानिए
क्या ख़बर कल आये कैसा आज़माने के लिए

बारगाह-ए-इश्क़ में है आजिज़ी मेराज-ए-शौक़
सर झुकाना है ज़रूरी सर उठाने के लिए

वो निगाह-ए-शर्मगीं और वो तबस्सुम ज़ेर--ए-लब !
इक सताने के लिए ,इक आज़माने के लिए

अहल-ए-दुनिया को कोई मिलता नहीं क्या दूसरा ?
रह गया हूँ मैं ही "सरवर" यूँ सताने के लिए ?

-सरवर
दिल-ए-मुज़्तर =बेचैन दिल
आजिज़ी =विनम्रता


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3 टिप्‍पणियां:

  1. दोनों गज़लें बहुत उम्दा!

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  2. आ० समीर जी
    ग़ज़लों की सराहना के लिए धन्यवाद
    सादर
    आनन्द.पाठक

    जवाब देंहटाएं
  3. Anand Pathak ji
    janab sarwar ji ki ghazal bahut hi achi lagi. Urdu alfaaz ke arth dekar Hindi aur Urdu adab ke judwepan ki gaanth aur mazboot ki hai aapne. Shubhkamanon ke saath
    Devi Nangrani

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