शनिवार, 15 मई 2010

ग़ज़ल 022 : हम हुए गर्दिश-ए-दौरां.....

ग़ज़ल 022

हम हुए गर्दिश-ए-दौरां से परेशां क्या क्या !
क्या था अफ़्साना-ए-जां और थे उन्वां क्या क्या !

हर नफ़स इक नया अफ़्साना सुना कर गुज़रा
दिल पे फिर बीत गयी शाम-ए-ग़रीबां क्या क्या !

तेरे आवारा कहाँ जायें किसे अपना कहें ?
तुझ से उम्मीद थी ऐ शहर-ए-निगारां क्या क्या !

बन्दगी हुस्न की जब से हुई मेराज-ए-इश्क़
सज्दा-ए-कुफ़्र बना हासिल-ए-ईमां क्या क्या !

फ़ासिले और बढ़े मंज़िल-ए- गुमकर्दा के
और हम करते रहें ज़ीस्त के सामां क्या क्या !

धूप और छाँव का वो खेल ! अयाज़न बिल्लाह
रंग देखे तिरे ऐ उम्र-ए-गुरेजां क्या क्या !

हाय ये लज़्ज़त-ए-आज़ार-ए-शिकस्तापायी
हमने ख़ुद ढूँढ लिए अपने बयाबां क्या क्या !

हैफ़ "सरवर"! तुझे ऐय्याम-ए-ख़िज़ां याद नहीं
इश्क़ में है तुझे उम्मीद-ए-बहारां क्या क्या !

-सरवर
शहर-ए-निगारां =हसीनों का शहर
हासिल-ए-ईमां =ईमान(विश्वास)का नतीजा
गर्दिश-ए-दौरां =ज़माने का चक्कर
मंज़िल-ए-गुमकर्दा =खोई हुई मंज़िल
इयाज़न बिल्लाह =ख़ुदा खै़र करे !
लज़्ज़त-ए-आज़ार-ए-शिकस्तापायी=पाँवों के टूटने की तकलीफ़ का मज़ा

2 टिप्‍पणियां:

  1. हर नफ़स इक नया अफ़्साना सुना कर गुज़रा
    दिल पे फिर बीत गयी शाम-ए-ग़रीबां क्या क्या !

    जनाब-ए-सर्वर साहब की नायाब ग़ज़ल का
    एक और नायाब शेर ... वाह !
    और
    सज्दा-ए-कुफ़्र बना हासिल-ए-ईमां क्या क्या !
    एक मुकम्मिल और कामयाब मिसरा ...
    जो अपनी मिसाल आप ही है
    पाठक साहब ,,, आपका बहुत बहुत शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं