शनिवार, 19 जून 2010

ग़ज़ल 025 : कहने को यूँ तो ज़िन्दगी

ग़ज़ल  025 : कहने को यूँ तो ज़िन्दगी ...........

कहने को यूँ तो ज़िन्दगी अपनी ख़राब की
लेकिन है बात और ही अह्द-ए-शबाब की !

इज़हार-ए-शौक़ पर ये निगाहें इताब की ?
"जो बात की ख़ुदा की क़सम ! ला-जवाब की"!

याँ जान पर बनी है मुहब्बत के फेर में
और आप को पड़ी है हिसाब-ओ-किताब की

क्या पूछते हो उम्र-ए-गुरेज़ां की कायनात
"दो करवटें थीं आलम-ए-ग़फ़लत में ख़्वाब की"

हम रोज़-ए-हश् र होंगे जो मस्रूफ़-ए-दीद-ए-यार
फ़ुर्सत किसे मिलेगी सवाल-ओ-जवाब की ?

देखा क़रीब से तो वहाँ और रंग था
तारीफ़ सुनते आये थे हम आँ-जनाब की !

उक़्बा की कौन फ़िक्र करे ,मेरे इश्क़ ने
दुनिया ख़राब की ,मेरी दुनिया ख़राब की !

ग़ैरों में ख़्वार है तो वो अपनों में ना-मुराद
क्या पूछते हो "सरवर"-ए-इज़्ज़त-मआब की !

-सरवर
निगाह-ए-इताब =गुस्से से भरी आँख
उम्र-ए-गुरेजा =भागती हुई ज़िन्दगी
उक़्बा =परलोक
इज़्ज़त-ए-म’आब =इज़्ज़तदार

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