शनिवार, 17 जुलाई 2010

ग़ज़ल 027 : मुझे ज़िन्दगी पे अपनी ....

ग़ज़ल  027 : मुझे ज़िन्दगी पे अपनी अगर ....

मुझे ज़िन्दगी पे अपनी अगर इख़्तियार होता
तो मैं राह-ए-आरज़ू में यूँ खराब-ख़्वार होता ?

तुझे मेरा ,मुझ को तेरा अगर ऐतिबार होता
न तू शर्मसार करता ,न मैं शर्मसार होता !

किया तूने ये गज़ब क्या, दिया खोल राज़-ए-हस्ती?
न मैं आशकार होता ,न तू आशकार होता !

ग़म-ए-आरज़ू में जां पर मिरी यूँ अगर न बनती
कोई और तेरा साथी ,दिल-ए-बेक़रार ! होता ?

सर-ए-बज़्म मेरी जानिब जो तू उठती गाह गाहे
मुझे तुझ से शिकवा फिर क्यूँ ऐ निगाह-ए-यार!होता?

न मैं तुझसे आश्ना हूँ, न ही ख़ुद से बा-ख़बर हूँ
ये मज़े कहाँ से मिलते अगर होशियार होता ?

मिरी फ़िक्र दिल-कुशा है मिरी बात बे-रिया है
तुझे फिर भी ये गिला है मैं वफ़ा शि’आर होता

है ख़ता यह इश्क़ लेकिन ,ये गुनाह तो नहीं है!
मैं ख़ता से तौबा करता तो गुनहगार होता !

ग़म-ए-आशिक़ी हुआ है ग़म-ए-ज़िन्दगी में शामिल
: मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता :!

तिरी इक ग़ज़ल भी ’सरवर’ किसी काम की जो होती
तो ज़रूर शायरों में तिरा भी शुमार होता !

-सरवर-
ख़्वार =दीन-हीन
आश्कार =सरे आम ,जाहिर
गाहे-गाहे =कभी-कभी
दिल-कुशा =मनोहर
बे-रिया =मुख़्लिस.दिल का साफ
वफ़ा-शि’आर=वफ़ा करने वाला

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1 टिप्पणी:

  1. है ख़ता यह इश्क़ लेकिन ,ये गुनाह तो नहीं है!
    मैं ख़ता से तौबा करता तो गुनहगार होता !

    बाज़ औक़ात
    ग़ज़ल में फल्सेफाना किनाए
    कितना गहरा इस्तेआरा साबित हो जाते हैं
    ये बात आपके अश`आर पढ़ कर
    समझी जा सकती है ...
    खूबसूरत अंदाज़....
    दिलकश शाइरी....
    आप ही ने तो कहा है . . .
    "मीर"-ओ-’इक़्बाल’से,"ग़ालिब"से ये पूछें साहेब
    शायरी चीज़ है क्या ,शे’र की अज़मत क्या है

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