गुरुवार, 29 मार्च 2012

ग़ज़ल 038: आफ़त हो ,मुसीबत हो...

ग़ज़ल 038

आफ़त हो, मुसीबत हो, क़ियामत हो, बला हो

मालूम तो हो मेरे लिये कौन हो ,क्या हो ?



कहने को तो बातें है बहुत शाम-ए-मुहब्बत

क्या कीजिए जब दिल ही यह मजबूर-ए-अना हो



मेराज-ए-मुहब्बत है यह मेराज-ए-वफ़ा है

मैं हूँ ,तिरी बस याद हो और हर्फ़-ए-दुआ हो



मैं अपने ही अल्फ़ाज़ में गुमकर्दा-ए-मंज़िल

तुम जान-ए-ग़ज़ल,जान-ए-सुख़न,हुस्न-ए-अदा हो



मजबूर-ए-मुहब्बत हूँ ,गुनहगार नहीं हूँ

तुम कौन सी अक़्लीम-ए-मुहब्बत के ख़ुदा हो?



हो जायेगा बतलाओ गज़ब कौन सा ऐसा ?

गर मंज़िल-ए-उल्फ़त में शिकायत भी रवा हो



गुमराही-ए-सद-राह-ए-मुहब्बत मुझे ख़ुश है

हाँ शर्त ये है तू ही मिरा राह-नुमा हो



दुनिया से जो उम्मीद-ए-वफ़ा तुम को है "सरवर"

इतना तो बताओ भला तुम चाहते क्या हो?



-सरवर

अक़्लीम-ए-मुहब्बत =मुहब्बत की दुनिया

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