शुक्रवार, 23 मार्च 2012

ग़ज़ल 037: हसरत-ओ-यास को.....


ग़ज़ल 037


हसरत-ओ-यास को रुख़सत किया इकराम के साथ

इश्क़ में अपनी तो गुज़री बड़ी आराम के साथ



लज़्ज़त-ए-कुफ़्र मिले लज़्ज़ते-ए-इस्लाम के साथ

नाम आ जाये अगर मेरा तिरे नाम के साथ





ऐतबार आये भी तो किस तरह आये तुझ पर ?

रंग-ए-ज़ुन्नार भी है तुहमत-ए-इहराम के साथ



पास आते गये वो ख़्वाब में लहज़ा लहज़ा

दूर होती गई मंज़िल मिरे हर गाम के साथ



वाह री ख़ूबी-ए-क़िस्मत कि सर-ए-शाम-ए-उम्मीद

उसका पैग़ाम जो आया भी तो इल्ज़ाम के साथ



आओ हम मिल के नई राह-ए-मुहब्बत ढूँढे

कब तलक कोई निबाहे राविश-ए-आम के साथ



हसरत-ओ-आरज़ू ,उम्मीद-ओ-तमन्ना ,अरमां

लाख आज़ार हैं मेरी सहर-ओ-शाम के साथ



क्या ही आते हैं मज़े दोनो जहां के "सरवर"

गर्दिश-ए-जाम भी है गर्दिश-ए-अय्याम के साथ



-सरवर



हसरत-ओ-यास =आशा-निराशा/उम्मीद-नाउम्मीद

रंग-ए-जुन्नार = हिन्दू के रंग में

तुहमत-ए-एहराम = हाज़ियों के ढंग में

रविश-ए-आम =आम लोगों का तरीका

गर्दिश-ए-अय्याम =बुरा वक़्त

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