शनिवार, 14 अप्रैल 2012

ग़ज़ल 039 : कूचा कूचा नगर नगर...

ग़ज़ल039


कूचा कूचा नगर नगर देखा

ख़ुद में देखा उसे अगर देखा!



किस्सा-ए-ज़ीस्त मुख़्तसर देखा

जैसे इक ख़्वाब रात भर देखा



दर ही देखा न तूने घर देखा

ज़िन्दगी तुझको खूबकर देखा



कोई हसरत रही न उसके बाद

उस को हसरत से इक नज़र देखा



हम को दैर-ओ-हरम से क्या निस्बत

उस को दिल में ही जल्वा-गर देखा



दर्द में ,रंज-ओ-ग़म में,हिरमां में

आप को ख़ूब दर-ब-दर देखा



हाल-ए-दिल दीदनी मिरा कब था?

देखता कैसे? हाँ ! मगर देखा



सच कहो बज़्म-ए-शे’र में तुम ने

कोई "सरवर" सा बे-हुनर देखा?



-सरवर



निस्बत =मतलब

हिर्मां में =बदक़िस्मती में

दीदनी =देखने की लायक