शनिवार, 5 जनवरी 2013

उर्दू बह्र पर एक बातचीत -बह्र-ए-हज़ज (क़िस्त-3)


उर्दू बह्र पर एक बातचीत -3
बह्र-ए-हज़ज (1 2 2 2 )

[disclaimer clause ; वही क़िस्त -1) का

[पिछली बातचीत में दो बहूर (बह्र का ब0ब0) -बह्र-ए-मुत्क़ारिब(1 2 2) और बह्र-ए-मुतदारिक (2 1 2) का ज़िक्र कर चुका हूं
ये दोनों बहूर ’ख़्म्मास (5-हर्फ़ी) हैं और सालिम बह्र हैं

डा0 कुँअर बेचैन ने इनका हिन्दी नाम भी रखा है
(1) बह्र-ए-मुतक़ारिब =मिलन छन्द
(2) बह्र-ए-मुतदारिक़ =पुनर्मिलन छन्द

अब आगे बढ़ते हैं .....]

उर्दू में एक और मान्य प्रचलित बह्र है जिसका नाम है -बह्र-ए-हज़ज जिसका मूल रुक़्न है "मफ़ा ई लुन्" और जिसका वज़न है 12 2 2. यह भी एक सालिम बह्र है ।सालिम इस लिए कि इस बह्र की बुनियादी रुक़्न (मफ़ा ई लुन) (12 2 2) (बिना किसी काट छाँट के ,बिना किसी कतर ब्योंत के ,बिना किसी तब्दीली के) अपने इसी शकल में रिपीट (गिर्दान) होगी। यह एक (सुबाई)7-हर्फ़ी बह्र है
’हज़ज’ का लग़वी मानी(dictionary meaning) होता है ’सुरीला’ और सचमुच इस बह्र में कही गई ग़ज़ल बहुत ही सुरीली होती है इसी कारण डा0 कुँअर बेचैन ने इस छन्द का हिन्दी नाम "कोकिल छन्द" रखा है
 अज़ीम शो’अरा (मान्य शायरों ) की यह एक बड़ी ही मक़्बूल बहर है इसी बह्र में काफ़ी कलाम कहे गये हैं और अति प्रचलित (राईज़) भी है
यह रुक़्न भी ’वतद’(3-हर्फ़ी कल्मा) और ’सबब"(2 -हर्फ़ी कल्मा) के इश्तिराक (साझा) से बना है
मफ़ाईलुन   = मफ़ा         +ई       + लुन
=(मीम, फ़े अलिफ़)+ (ऐन,ये)+ (लाम,नून)
= वतद         +सबब     +सबब
=  1 2         +2        +2
                        = 1 2 2 2
एक बात ’वतद" और ’सबब’ की बारे में कहना चाहूँगा
उर्दू अरुज़ के लिहाज से वतद के 3-भेद हैं

(1) वतद-ए-मज़्मुआ
(2) वतद-ए-मफ़्रूक़
(3) वतद-ए-मौकूफ़

उसी प्रकार ’सबब" के भी 2-भेद हैं
(1) सबब-ए-ख़फ़ीफ़
(2) सबब-ए-शकील

मगर मैं यहां इसकी तफ़्सीलात (विस्तृत विवेचना) में नहीं जाना चाहता हूँ बस आप तो हिन्दी में ग़ज़ल के लिए इतना ही समझ लें कि ’सबब’ का वज़न 2 है और ’वतद’ का वज़न 12 या 21 होगा

बहर -ए-हज़ज की परिभाषा भी वही है
(1) अगर यह रुक़्न किसी शे’र में 4-बार (यानी मिसरा मे 2 बार ) आये तो बह्र-ए-हज़ज मुरब्ब: सालिम कहलायेगी
     1222       /     1222
     1222        /    1222
(2) अगर किसी शे’र में यह रुक़्न 6-बार (यानी मिसरा में 3 बार) आये तो "बह्र-ए-हज़ज मुसद्दस सालिम" कहलायेगी
     1222    /   1222  /   1222
     1222     /   1222  /  1222
(3)  अगर किसी शे’र में यह रुक्न 8-बार (यानी मिसरा में 4 बार) आये तो "बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम" कहलायेगी
1222   /1222   /1222  /1222
      1222   /1222   /1222  /1222
(4) अगर किसी शे’र में यह रुक़्न 16-बार (यानी मिसरा में 8 बार ) आये तो भी ये "बहर-ए-हज़ज मुज़िआफ़ी मुसम्मन सालिम) कहलायेगी ।कभी कभी इसे 16-रुक़्नी बहर भी कहते हैं
(इज़आफ़ मानी दूना करना)
      1222   /1222  /1222  /1222 /1222/   1222/ 1222/ 1222
      1222   /1222  /1222  /1222 /1222/   1222/ 1222/ 1222

इस बह्र में चन्द अश’आर पेश करता हूँ जिस से बात और साफ़ हो जाये..
इसी बह्र में अल्लामा इक़बाल की एक ग़ज़ल के चन्द अश’आर लगा रहा हूँ ,मुलाहिज़ा फ़र्मायें

ऎ पीराने-कलीसा-ओ-हरम! ऎ वाय मजबूरी
सिला इनकी क़दो-काविश का है सीनों की बेनूरी

कभी हैरत, कभी मस्ती,कभी आहे-सहरगाही
बदलता है हज़ारों रंग मेरा दर्दे-महजूरी

फ़क़ीराने-हरम के साथ ’इक़बाल’ आ गया क्योंकर
मयस्सर मीर-ओ-सुलतां को नहीं शाहीने-काफ़ूरी

अब इसकी तक़्तीअ भी कर के देख लेते हैं
1 2 2 2/ 1 2 2 2  / 12 2  2/ 1 2 2 2
ऎ पीराने/-कलीसा-ओ/-हरम! ऎ वा/य मजबूरी
सिला इनकी/ क़दो-काविश/ का है सीनों /की बेनूरी

कभी हैरत/, कभी मस्ती,/कभी आहे/-सहरगाही
बदलता है/ हज़ारों रन्/ ग मेरा दर्/दे-महजूरी

फ़क़ीराने/-हरम के सा/थ ’इक़बाल’ आ/ गया क्योंकर
मयस्सर मी/र-ओ-सुलतां/ को नहीं शाही/ने-काफ़ूरी

ऎ का की को  ने -देखने में तो सबब(2) के वज़न का  है मगर जब बह्र में इसे गुनगुनाइएगा तो बह्र के मांग के मुताबिक इसे 1 के वज़न में पढ़ना पड़ेगा।  मक़्ता के तीसरे नम्बर रुक्न /थ ’इक़बाल आ/ पर ग़ौर फ़र्माये ।यूँ तो इसका वज़न आप के ख़याल से /1 2 2 1 2/ होना चाहिए मगर नहीं/ ’ल’ के सामने ’आ ’ गया अत: ’ल’ और ’आ’ को एक साथ मिला कर पढ़ेंगे कि वज़न 1222 रहे और बह्र से ख़ारिज़ न हो। उर्दू अरूज़ के मुताबिक यह जायज है


इसी बह्र में अब्दुल हमीद ’अदम’ (अदम गोण्डवी नहीं) के चन्द अश’आर इसी सिल्सिले में लगा रहा हूँ

जो पहली मर्तबा आता है उनसे गुफ़्तगू कर के
बड़ा शादाब मिलता है ,बड़ा सरशार मिलता है

मुलाक़ात इस तरह होती है दो वाकिफ़ निगाहों में
कि जैसे झूमकर मयख्वार से मयख़्वार मिलता है

अब इसकी तक़्तीअ कर के भी देख लेते हैं
1  2  2  2 / 1 2 2 2 / 1 2 2 2   / 1 2 2 2
जो पहली मर्/तबा आता /है उनसे गुफ़्/तगू कर के
बड़ा शादा/ब मिलता है/ ,बड़ा सरशा/र मिलता है

मुलाक़ात इस/ तरह होती/ है दो वाकिफ़ /निगाहों में
कि जैसे झू/म कर मयख्वा/र से मयख़्वा/र मिलता है

जो, है में भी वही बात कि बह्र की मांग पर इसे 1-की वज़न पे पढ़ना पड़ेगा
"मुलाकात इस" को इस तरह पढ़ें कि इसका वज़न 1222 पे आ जाये यानी "त इस" को तिस की वज़न पे पढ़ना पड़ेगा

इसी बह्र में चन्द अश’आर इस हक़ीर (अकिंचन) का भी बर्दास्त कर लें

यहाँ लोगों की आंखों में नमी मालूम होती है
नदी इक दर्द की जैसे रुकी मालूम  होती  है

तुम्हारी फ़ाइलों में क़ैद मेरी रोटियां सपने
मेरी आवाज़ संसद ने ठगी ,मालूम होती है

अब इसकी तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
1 2 2  2 /1  2  2  2 /1 2 2 2 / 1 2 2 2
यहाँ लोगों /की आंखों में /नमी मालू/म होती है
नदी इक दर्/द की जैसे /रुकी मालू/म  होती  है

तुम्हारी फ़ा/इलों में क़ै/द मेरी रो/टियां सपने
मेरी आवा/ज़ संसद ने /ठगी ,मालू/म होती है

ये तो रही अदबी बातें
आप ने पुरानी हिन्दी फ़िल्म का यह गाना ्ज़रूर सुना होगा ’सूरज; फ़िल्म का है

बहारों फूल बरसाओ ,मेरा महबूब आया है
हवाओं रागिनी गाओ मेरा महबूब आया है

आप ने इस की लय भी सुनी होगी ,सुर ताल भी सुने होंगे मगर यह न सोचा होगा कि यह गाना ’बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम में है/
अब देखिए कैसे
अब मैं इसकी तक़्तीअ करता हूं
1 2 2 2/1 2  2 2 / 1 2 2  2/ 1 2 22
बहारों फू/ल बरसाओ/ ,मेरा महबू/ब आया है  (रफ़ी साहब ने मेरा में ’मे’ को दबा दिया है और मिरा की वज़न पे
हवाओं रा/गिनी गाओ/ मेरा महबू/ब आया है   (गाया है)
आप स्वयं फ़ैसला करें
अब आप यह पूछेंगे कि अदबी तज़्किरा (चर्चा) में फ़िल्मी गीत का क्या सबब ?
हमारा मक़सद सिर्फ़ यह दिखाना है कि अगर गीत बह्र में हो तो कितना दिल कश हो जाता है कैसे सुर ताल मिल जाते हैं कैसे ज़ेर-ओ-बम (उतार-चढ़ाव ,रिदम) से आहंग (लय) पैदा होता है। अगर आप ग़ौर फ़र्मायेंगे तो बहुत से फ़िल्मी गीत ऐसे मिल जायेंगे जो किसी न किसी बह्र में होंगे। पिछली बार मैने ऐसे ही 2-3 गानों का ज़िक्र किया था जैसे...

इशारों /इशारों/ में दिल ले/ने वाले/बता ये/हुनर तू/ने सीखा/कहां से
122  /122 /  122     / 122 / 12 2/ 1 2 2/ 1 2 2/ 1 2 2        (बह्र-ए-मुत्क़ारिब)

तेरे प्या/र का आ/सरा चा/हता हूँ /वफ़ा कर/ रहा हूँ /वफ़ा चा/हता हूं  (शायद ’धूल का फूल” )
122    /1 2    2    / 1 2   2   /  1 2 2  / 1 2     2   /  1 2 2   /   1  2  2 /  1 2   2            (बह्र-मुत्क़ारिब)

अब तो नई फ़िल्मों के गाने की बात ही छोड़िए...अब वो बात कहां? अब तो मयार (स्तर) ’खटिया’ ’मचिया’ झंडू बाम ’ फ़ेविकोल पर आ गया है।खैर..
मिसाल के तौर पर अज़ीम शो’अरा (शायरों) के कलाम लगाने का मक़सद यह भी है कि हम आप उनके मयार-ए-सुखन से वाक़िफ़ हों और वक़्तन-फ़-वक़्तन हम अपने अपने कलाम भी देखें कि उस Bench mark से हम कहाँ है और हमारी कोशिश अभी  कितनी मश्क़ तलब है
आप सभी कारीं (पाठकों) से गुज़ारिश है कि अपनी रहनुमाई से हमें आगाह करें

सादर
-आनन्द.पाठक
09413395592


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