रविवार, 20 जनवरी 2013

उर्दू बह्र पर एक बातचीत-5 [बह्र-ए-रजज़]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत -5

बह्र-ए-रजज़ [ 2 2 1 2 ]



[Disclaimer clause : -वही -[भाग -1 का]



[ अब तक ’बह्र-ए-मुतक़ारिब’, बह्र-ए-मुत्दारिक, बह्र-ए-हज़ज और बह्र-ए-रमल पर बातचीत कर चुका हूं और बात स्पष्ट करने के लिए उन की कुछ मिसालें भी पेश कर चुका हूँ । जो पाठकगण इन से वंचित रह गये हैं वो मेरे ब्लाग www.urdu-se-hindi.blogspot.com पर भी इन्हें पढ़ सकते हैं ।संक्षेप में एक बार दुहरा रहा हूँ कि बात ज़ेहननशीन हो जाय ।



बह्र मूल रुक्न वज़न तरकीब

मुत्क़ारिब फ़ऊ लुन 1 2 2 वतद + सबब =1 2 + 2 = 1 2 2 =5-हर्फ़ी

मुत्दारिक फ़ा इलुन 2 1 2 सबब + वतद = 2 + 12 = 2 1 2 = 5-हर्फ़ी



हज़ज मफ़ा ई लुन 1 2 2 2 वतद+सबब+सबब = 1 2+ 2+ 2 = 1 2 2 2 =7-हर्फ़ी

रमल फ़ा इला तुन 2 1 2 2 सबब+वतद +सबब = 2 +1 2+ 2 = 2 1 2 2 = 7-हर्फ़ी

रजज़ मुस तफ़ इलुन 2 2 1 2 सबब+ सबब+ वतद = 2+2+ 1 2 = 2 2 1 2 = 7-हर्फ़ी



आप ग़ौर फ़र्मायेंगे कि मूल रुक्न सबब और वतद के combination से बनते जा रहें हैं बस मुख़्तलिफ़ बहर में सबब (2-हर्फ़ी) वज़न के लिए कहीं ’लुन’ तो कहीं ’तुन’ तो कहीं ’मुस’ तो कहीं ’तफ़’ का इस्तेमाल हो रहा हैं ।मालूम नहीं क्यों?



उसी प्रकार वतद के लिए कहीं ’फ़ऊ’ तो कहीं तो कहीं ’मफ़ा’ ’इलुन’ तो कहीं इला’ का इस्तेमाल हो रहा है। मालूम नहीं क्यों?



शायद अरूज़ियों ने आहंग के लिए ऐसा ही तसव्वुर किया हो। खैर....



एक बात और..

हज़ज , रमल और रजज़ में ’वतद’ की location देखते चलिए और मात्रा 1-का वज़न कैसे अपनी जगह बदल रहा है इस बिना पर आप कह सकते हैं कि ’2 2 2 1 ’ भी कोई बह्र होगी । जी हां। आप बिल्कुल सही हैं इस वज़न की भी एक मूल रुक्न है और बह्र भी है .नाम बाद में बताऊंगा।...



अब मूल बात पर आते हैं -बह्र-ए-रजज़]



------ जी हाँ , उर्दू शायरी में एक बह्र है जिसका नाम है बह्र-ए-रजज़। जिसका बुनियादी रुक्न है -’मुस तफ़ इलुन’ [ 2 2 1 2 ]

इस का निर्माण कैसे होता है ऊपर बता चुका हूं। यह भी एक सबाई [7- हर्फ़ी] रुक्न है

डा0 कुँअर बेचैन जी ने इस बहर का हिन्दी नाम ..."वंश-गौरव’ छन्द दिया है । उन्हीं के शब्दों में -" ...’रजज़’ शब्द अरबी का है। इस शब्द का अर्थ है युद्ध क्षेत्र में अपने कुल की शूरता और श्रेष्ठता का वर्णन। इसी अर्थ के आधार पर हमने इस का नाम ’वंश-गौरव’ छन्द रखा है ।"

हमारे यहां शायद ’आल्हा’ में भी ऐसा ही कुछ वर्णन होता है

यह बह्र भी सालिम बह्र की हैसियत रखता है।

बह्र-ए-रजज़ की परिभाषा भी वही है जो अन्य सालिम बहूर [ब0ब0 बह्र] की है यानी

[1] बह्र--ए-रजज़ मुरब्ब: सालिम

यह रुक्न ’मुस तफ़ इलुन ’[ 2 2 1 2] अगर किसी शे’र में 4-बार (यानी मिसरा में 2-बार] आए तो शे’र की बह्र ’बह्र-ए-मुरब्ब: सालिम कहलायेगी

2 2 1 2 / 2 2 1 2 यानी मुस तफ़ इलुन /मुस तफ़ इलुन

2 2 1 2/ 2 2 1 2 मुस तफ़ इलुन /मुस तफ़ इलुन

[2] बह्र-ए-रजज़ मुसद्दस सालिम

अगर किसी शे’र में यह रुक्न [2 2 1 2 ] 6-बार [यानी मिसरा में 3-बार] आये तो बह्र ’ बह्र-ए-रजज़ मुसद्दस सालिम’ कहलायेगी



2 2 1 2/ 2 2 1 2 / 2 2 1 2 यानी मुस तफ़ इलुन/मुस तफ़ इलुन/मुस तफ़ इलुन

2 2 2 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 मुस तफ़ इलुन/मुस तफ़ इलुन/मुस तफ़ इलुन



[3] बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम



अगर किसी शे’र में यह रुक्न [ 2 2 1 2 ] 8-बार [यानी मिसरा में 4-बार] आए तो यह बह्र-ए-मुसम्मन सालिम’ कहलायेगी



2 2 1 2 /2 2 1 2 /2 2 1 2 /2 2 1 2 यानी मुस तफ़ इलुन/मुस तफ़ इलुन/मुस तफ़ इलुन/मुस तफ़ इलुन

2 2 1 2 / 2 2 1 2/ 2 2 1 2/ 2 2 1 2 मुस तफ़ इलुन/ मुस तफ़ इलुन /मुस तफ़ इलुन/मुस तफ़ इलुन



यही बात 16-रुक्नी बह्र में होगी यानी किसी शे’र में यह रुक्न 16 बार [यानी मिसरा में 8-बार ] आये तो उसका नाम बह्र-ए-रज़ज मुइज़ाफ़ी मुसम्मन सालिम कहलायेगी [ इज़ाफ़ी मानी 2- गुना और मुसम्मन मानी 8]



यूं तो यह रुक्न यदि कोई शायर किसी शे’र में 12 बार या 14 बार प्रयोग करना चाहे तो मनाही तो नहीं है मगर अमूमन शायर यही मुसद्दस और मुसम्मन शक्ल ही प्रयोग करते हैं। बात सिर्फ़ रुक्न और बह्र की ही नहीं होती बल्कि शे’र की शे’रियत और गज़लियत की भी होती है शे’र किसी बह्र में हो बस और दिलकश हो दिल पज़ीर हो।



गो, बह्र के मुसम्मन सालिम या मुसद्दस सालिम के ज़्यादा शे’र नहीं मिला ज़्यादातर शायरों नें इसकी मुज़ाहिफ़ शक्ल में ही शे’र कहें हैं। वात स्पष्ट कर ने कि लिए इस बह्र ् के सालिम शक्ल के कुछ शे,र लेते हैं और फिर तक़्तीअ कर के देखते हैं



मैं कह रहा हूँ यह कि अब ,तू क्या करे, मैं क्या करूं

तू भी मुझे देखा करे ,मैं भी तुझे देखा करूँ

-डा0 कुँअर बेचैन [ग़ज़ल के व्याकरण से साभार]



[डा0 साहब ने यह बात पहले ही साफ़ कर दी है कि यह ख़ुदसाख़्ता शे’र सिर्फ़ बह्र को समझाने के किए कहा है ,इसमें ’शे’रिअत न देखी जाए]



अब इसकी तक़्तीअ भी देख लेते हैं

2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2

मैं कह रहा /हूँ यह कि अब /,तू क्या करे, /मैं क्या करूं

2 2 1 2 / 2 2 1 2/ 2 2 1 2 / 2 2 1 2

तू भी मुझे /देखा करे /,मैं भी तुझे /देखा करूँ



चूंकि 2 2 1 2 [मुस् तफ़् इलुन्] शे’र में 8 बार (यानी मिसरा में 4-बार] आया है अत: यह ’बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम" की मिसाल हुई



एक मिसाल और लेते हैं



हम को भी क्या क्या नाज़ था टूटे हुए दिल पे मगर

उसने तो जिस पत्थर को ठुकराया वो इक दिल हो गया

[जनाब कमाल अहमद सिद्दिक़ी की किताब ’ आहंग और अरूज़ ’ से साभार]

अब इसके तक़्तीअ भी कर लेते हैं

2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2/ 2 2 1 2

हम को भी क्या/ क्या नाज़ था /टूटे हुए/ दिल पे मगर

2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2 / 2 2 1 2

उसने तो जिस/ पत्थर को ठुक/राया वो इक /दिल हो गया



[यहां पर भी वही बात ’ भी’ ’तो’ ’को’ ’वो’ कि देखने में तो सबब [2-हर्फ़ी] लफ़्ज़ लगता है मगर ’हर्फ़-ए-इल्लत’ के ज़ेर-ए-असर इसको गिरा कर [यानी दबा कर ] बह्र की माँग के मुताबिक 1-की वज़न पर पढ़ेगे]

इस बह्र के मुज़ाहिफ़ शक्ल की बात बाद में करेंगे जब रुक्न पे ’ज़िहाफ़’ की बातचीत करेंगे

अहबाब-ए-महफ़िल (मंच के दोस्तों से) गुज़ारिश है कि इस बह्र की सालिम शकल [ मुरब्ब: ,मुसद्दस, मुसम्मन } में अगर आप की नज़र से कोई ग़ज़ल गुज़रती है तो बराए मेहरबानी इस मंच पर लगायें ताकि दीगर कारीं इस से मुस्तफ़ीद हो सकें

आप सभी कारीं (पाठकों) से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अपनी रहनुमाई से हमें आगाह करें



-आनन्द.पाठक

09413395592

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