मंगलवार, 29 जनवरी 2013

उर्दू बह्र पर एक बातचीत -6 बह्र-ए वाफ़िर

उर्दू बह्र पर एक बातचीत -6

बह्र-ए वाफ़िर [1 2 1 1 2 ]



[Disclaimer clause : -वही -[भाग -1 का]



[ अब तक ’बह्र-ए-मुतक़ारिब’, बह्र-ए-मुत्दारिक, बह्र-ए-हज़ज , बह्र-ए-रमल और बह्र-ए-रजज़ पर बातचीत कर चुका हूं और बात स्पष्ट करने के लिए उन की कुछ मिसालें भी पेश कर चुका हूँ । अब बात आगे बढ़ाते हुए ......]



उर्दू शायरी में एक प्रचलित बह्र है -जिसका नाम है " बह्र-ए-वाफ़िर" जिसका मूल रुक्न है ..’मुफ़ा इल तुन्" [ 1 2 1 1 2 ].यह रुक्न भी सालिम रुक्न की हैसियत रखता है यह भी एक सुबाई (7-हर्फ़ी) रुक्न है । दर हक़ीक़त यह बह्र अरबी में काफी प्रचलित है मगर उर्दू में इतनी लोकप्रिय बह्र नहीं बन सकी जितनी कि अन्य बह्रें बनी। ’वाफ़िर’ का लग़वी (शब्द कोशीय अर्थ) मानी है प्रचुरता ,अधिकता और इसी आधार पर डा0 कुँअर बेचैन जी ने इस बह्र का नाम ’प्रचुरिका छन्द’ रखा है

डा0 साहब का उर्दू के बह्रों को हिन्दी नाम देना और हिन्दी के दशाक्षरी "य मा ता रा ज भा न स ल गा" के सूत्र से इन बह्रों को समझाना आप का मौलिक प्रयास है।

आप ने इस बह्र की व्याख्या त्रिकल अक्षर(वतद ) और एकल अक्षर (1-हर्फ़ी) से की है जैसे 1-वतद(3-हर्फ़ी लफ़्ज़) + 1 एकल (1-हर्फ़ी) +1 वतद(3-हर्फ़ी लफ़्ज़) =7 हर्फ़ी रुक्न से की है

उदाहरण के लिए उन्होने एक शे’र नीचे दिया है (उनकी किताब : ग़ज़ल का व्याकरण से साभार)[नोट:- डा0 साहब ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह शे’र सिर्फ़ समझाने की गरज़ से कहा गया है इस में आप शे’रियत न देखें]

दुआ न मिले ,दवा न मिले

रहो न ,जहां हवा न मिले

यह बह्र-ए-वाफ़िर मुरब्ब: सालिम का एक उदाहरण है -कारण कि रुक्न [1 2 1 1 2] शे’र में 4 बार [यानी मिसरा में 2-बार] आया है

अब इसकी तक़्तीअ कर के भी देख लेते हैं

1 2 1 1 2 / 1 2 1 1 2

दुआ न मिले /,दवा न मिले

रहो न ,जहां / हवा न मिले

हालांकि डा0 साहब ने इस की तक़्तीअ यूँ की है



दुआ+न+मिले , दवा+न+मिले

1 2 +1 +1 2 / 1 2+1 2

त्रिकल+एकल+त्रिकल / त्रिकल+एकल+त्रिकल

3-हर्फ़ी+ 1 हर्फ़ + 3-हर्फ़ी /3-हर्फ़ी+ 1 हर्फ़ + 3-हर्फ़ी

जो कि सही प्रतीत नहीं होता है

क्योंकि उर्दू की क्लासिकल अरूज़ की किताब में इसे या तो ’वतद’[3-हर्फ़ी] लफ़्ज़ और ’फ़ासिला’[4-हर्फ़ी] लफ़्ज़ = 7 हर्फ़ी रुक्न से समझाया गया है या तो फिर 1-वतद[3] +1-सबब[2] +1 सबब[2] = 7 हर्फ़ी से।

इस लिए ’बेचैन’ जी की तज़्वीज़ उचित प्रतीत नहीं हो रही है कारण कि 1-हर्फ़ से कोई रुक्न नहीं बनता ।यहाँ तक कि अगर सालिम रुक्न पे ज़िहाफ़ भी लगाते है तो न्यूनतम (सबसे छोटा से छोटा जुज़ (टुकड़ा) भी 2 हर्फ़ी ही रहता है। 1-हर्फ़ी नहीं होता।

एक बात और

’बेचैन’ जी के तज़्वीज़ में ’इ ल’ को ’इ’ मय हरकत अलग कर [1-हर्फ़] ’लाम’ को ’तुन्’ के साथ जोड़ कर ’लतुन्’[3-हर्फ़ी वतद्] बना दिया है। रुक्न् के वज़न में तो कोई फ़र्क नहीं पड़ा मगर तर्कीब में फ़र्क पड़ गया। कारण कि ’इल’ सबब है और ’तुन’ भी सबब है ्जब कि खाली ’इ’(ऎन) से कोई न रुक्न है और न ही कोई रुक्न का जुज़ है।

उर्दू के शो’अरा (शायरों ने] इस बह्र में ज़्यादा ग़ज़ल या शे’र नहीं कहे है शायद एक कारण यह भी हो कि बीच में 3 लगातार हरकत हर्फ़ [अलिफ़ एन और लाम ] आने से रवानी में ख़लल पड़ता है हालांकि उर्दू में तस्कीन-ए-औसत के लिहाज से बीच वाले हर्फ़ ’एन’ को साकिन कर के ही पढ़ते हैं

यह बह्र ’वतद’[3-हर्फ़ी कलमा] और ’फ़ासिला [4 हर्फ़ी कलमा] से बना है मगर कुछ अरूज़ी इसे वतद और सबब से भी बना कर बताते हैं। चूँकि हम ने अभी तक ’फ़ासिला’ की इस्तिलाह (परिभाषा) नहीं बयान की है तो अभी करेंगे भी नहीं । सिर्फ़ ’वतद’ और ’सबब’ के इश्तिराक (योग) से ही इस की भी व्याख्या करेंगे । आखिर ’फ़ासिला’ [4-हर्फ़ी कलमा] भी = ’सबब[2] + सबब[2] से भी दिखाया जा सकता है



पिछले अक़्सात (किस्तों में ) में मैने कहा था कि सबब के 2- भेद होते है । चलिए एक बार फिर दुहरा देते हैं

सबब-ए-ख़फ़ीफ़

सबब-ए-सक़ील

सबब-ए-ख़फ़ीफ़ = वो 2-हर्फ़ी कलमा जिसमे पहले हर्फ़ पर ’हरकत’ हो और दूसरा हर्फ़ ’साकिन’ हो

हिन्दी में ’साकिन’ का कन्स्पेट तो नही हैं फ़िलवक़्त ’साकिन’ हर्फ़ समझने के लिए आप संस्कृत का ’हलन्त’ का तसव्वुर करे

जैसे ’तुन्’ ’लुन्’ मुस्’ तफ़्’...यह् सब ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़’ है जिसका वज़न [2] होता है जिसमें पहले हर्फ़ तु’..’ल’...’मु’ ...त’पर हरकत है जब कि ’न्’ ’स्’ फ़्’ हर्फ़ साकिन है



सबब-ए-सक़ील = वो 2-हर्फ़ी कलमा जिसमे दोनो हर्फ़ पर हरकत हो इसका भी वज़न 2 होता है मगर इसे दिखाते है [1 1] की शकल में , अगर आप दोनो हर्फ़ पर बराबर वज़न से बोल रहे होते है तब



चलिए अब मुफ़ा इल तुन’ रुक्न कैसे बनती है, देखते हैं

मुफ़ा इल तुन = वतद + सबब-ए-सक़ील + सबब-ए-ख़फ़ीफ़

[1 2 1 1 2 ] = [1 2 ] + [ 1 1 ] + [ 2 ]

= 1 2 1 1 2

एक बात पर आप ग़ौर फ़र्माये.....

अगर ’सबब-ए-सक़ील2-हर्फ़ी कलमा[हरकत+हरकत] वज़न [1 1 ] की जगह ’सबब-ए-खफ़ीफ़’-2-हर्फ़ी कलमा[हरकत + साकिन] वज़न [2] होता तो क्या होता ??

तो रुक्न का वज़न [1 2 2 2] हो जाता जो बह्र-ए-हज़ज के मूल रुक्न का वज़न है जो उर्दू शायरी में काफी लोकप्रिय व मधुर आहंग्खेज़ बह्र है जिसमें काफी प्रवाह [रवानी] है।

अब आप यह कहेंगे कि इस बात का यहां क्या तुक है ? क्या ज़रूरत है?

ज़रूरत है। ज़रूरत है यह बताने के लिए कि’ ’बह्र-ए-वाफ़िर’ जो अरबी में तो एक मानूस बह्र है वो उर्दू में लोकप्रिय बहर क्यों न बन सकी ? क्यों उर्दू के शायरों नें इस बहर में काफी शे’र या ग़ज़ल नहीं कहे? हमें लगता है कि [1 2 1 1 2 ] के सामने [ 1 2 2 2 ] -बह्र-ए-हज़ज थी जो ज़्यादा लोकप्रिय आहंगखेज़ मधुर लयात्मक थी इस में शे’र कहना ज़्यादा सरल और दिलकश था ।शायद यह भी एक सबब हो।

खैर

बह्र-ए-वाफ़िर की भी परिभाषा भी वही है जो अन्य बह्रों के हैं

यानी

बह्र-ए-वाफ़िर मुरब्ब: सालिम : यानी यह रुक्न ’मुफ़ा इल तुन’ [12112] किसी शे’र में 4-बार [यानी मिसरा में 2 बार ] आये तो वो बह्र ’बह्र-ए-वाफ़िर मुरब्ब: सालिम’ कहलायेगी

एक मिसाल लेते हैं [आहंग और अरूज़ से साभार]



कभी तो मिलायें आप नज़र

कभी सर-ए-रहगुज़र ही मिले

अब इसकी तक़्तीअ भी कर के देख लेते हैं

1 2 1 1 2 /1 2 1 1 2

कभी तो मिला/यें आप नज़र

कभी सर-ए-रह/गुज़र ही मिले

[यहां भी वही बात ’तो’.. ये’ ..ही ..हर्फ़-ए-इल्लत के ज़ेर-ए-असर 1-की वज़न पे ही अदा होंगे]

चूँकि [1 2 1 1 2] रुक्न शे’र मे 4-बार [यानी मिसरा में 2-बार ]आया है अत: इसे बह्र-ए-वाफ़िर मुरब्ब: सालिम कहेंगे

बह्र-ए-्वाफ़िर मुसद्दस सालिम :यानी यह रुक्न ’मुफ़ा इल तुन’ अगर किसी शे’र में 6 बार [यानी मिसरा में 3 बार] आये तो वह बह्र-ए-वाफ़िर मुसद्दस सालिम कहलाएगी

एक मिसाल लेते हैं [आहंग और अरूज़ से साभार]

बहुत पी चुका हूं ज़हर-ए-हयात पीर-ए-मुगां

ये मैकदा है शराब पिला ,शराब मुझे

अब इसकी तक़्तीअ भी कर लेते हैं

1 2 1 1 2 / 1 2 1 1 2/1 2 1 1 2

बहुत पी चुका/ हूं ज़हर-ए-हया/त पीर-ए-मुगां

ये मैकदा है /शराब पिला /,शराब मुझे

एक बात पे ध्यान दें इज़ाफ़त हूं’ज़हर-ए-हया’ [1 2 1 1 2] या पीर-ए-मुगां यानी इज़ाफ़त -ए- वज़न में कोई रोल नहीं कर रहा है यानी बह्र की यही मांग है

बह्र-ए-वाफ़िर मुसम्मन सालिम: यानी यह रुक्न ’मुफ़ा इल तुन’ अगर किसी शे’र में 8 बार [यानी मिसरा में 4 बार] आये तो बो बह्र ’बह्र-ए-मुसम्मन सालिम’ कहलायेगी

एक मिसाल लेते हैं [आहंग और अरूज़ से साभार]



अगर ये कहा है तुम ने मेरे रकीब से क़त्ल कर दे मुझे

क़सम है मुझे अगर न उसे पेश कर दूंगा तुहफ़ा में सर

अब इसकी तक़्तीअ भी देख लेते हैं

1 2 1 1 2 / 1 2 1 1 2 / 1 2 1 1 2/ 1 2 1 1 2

अगर ये कहा /है तुम ने मेरे/ रकीब से क़त्/ल कर दे मुझे

क़सम है मुझे /अगर न उसे /मैं पेश कर दूं/गा तुहफ़ा में सर

यहाँ भी वही बात ....ये....है....ने...मे....दे...सब बह्र की मांग की मुताबिक़ 1-की वज़न पे पढ़े जायेंगे

वैसे इस बह्र में 16-रुक्नी बह्र नहीं देखी है..मुश्किल तो है मगर ना-मुमकिन नहीं

इस बह्र के मुज़ाहिफ़ शक्ल की बात बाद में करेंगे जब रुक्न पे ’ज़िहाफ़’ की बातचीत करेंगे

अहबाब-ए-महफ़िल (मंच के दोस्तों से) गुज़ारिश है कि इस बह्र की 16 रुक्नी सालिम शकल अगर आप की नज़र से कोई ग़ज़ल गुज़रती है तो बराए मेहरबानी इस मंच पर लगायें ताकि दीगर कारीं इस से मुस्तफ़ीद हो सकें

आप सभी कारीं (पाठकों) से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अपनी रहनुमाई से हमें आगाह करें



-आनन्द.पाठक

09413395592

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