सोमवार, 23 जून 2014

ग़ज़ल 045 :इक रिवायत के सिवा कुछ न था....

ग़ज़ल 045

इक रिवायत के सिवा कुछ न था तक़्दीर के पास
क़िब्ला-रू हो गये हम यूँ बुत-ए-तदबीर के  पास !

क्या हदीस-ए-ग़म-ए-दिल,कौन सा क़ुरान-ए-वफ़ा?
एक तावील नहीं साहेब-ए-तफ़्सीर  के पास !

दिल के आईने में क्या जाने नज़र क्या आया ?
मुद्दतों बैठे रहे हम तिरी तस्वीर के पास !

अश्क-ए-नौउमीदी-ओ-हसरत ही मुक़द्दर ठहरा
एक तोहफ़ा था यही हर्फ़-ए-गुलूगीर के पास !

गोशा-ए-सब्र-ओ-सुकूं ?हैफ़ ! न दीवार न दर!
थक के मैं बैठा रहा हसरत-ए-तामीर के पास !

हम हक़ी़कत के पुजारी थे ,गुमां-गश्त न थे
और सिर्फ़ ख़्वाब थे उस ज़ुल्फ़-ए-गिरहगीर के पास!

क्या कहें गुज़री है क्या इश्क़ में अह्ल-ए-दिल पर
रह्न-ए-शमशीर कभी और कभी ज़ंजीर के पास!

तू ने ऐ जान-ए-ग़ज़ल! यह भी कभी सोचा है ?
क़ाफ़िए क्यों न रहे "सरवर"-ए-दिल्गीर के पास !

                         -सरवर-


क़िब्ला-रू         =काबे की तरफ़ मुँह किए
बुत-ए-तदबीर =कोशिशों की मूर्ति
हदीस-ए-ग़म =ग़म की नई बात
तावील =व्याख्या/वज़ाहत
तफ़्सीर =तशरीह/व्याख्या
हर्फ़-ए-गुलूगीर =ऐसी दुख भरी बात कि गला भर आए
गोशा                         =घर का कोई कोना
ज़ुल्फ़े-गिरह्गीर = प्रेमिका/प्रेयसी
दिल्गीर =दुखी

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