रविवार, 16 दिसंबर 2018

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 58 [ बह्र-ए-मुशाकिल]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 58 [ बह्र-ए-मुशाकिल]

[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]

बह्र-ए-मुशाकिल , उन 19-बह्रों में से एक है जो उर्दू शायरी में प्रचलित तो है परन्तु  शायरी में यह बहुत लोकप्रिय दिलकश और आहंगखेज़ नही है । उर्दू शायरों ने इस बह्र में बहुत कम ही कलाम कहे हैं

मुशाकिल भी एक मुरक़्क़ब बह्र है -जो 3-अर्कान से मिल कर बना है। इस का बुनियादी  अर्कान हैं-
फ़ाइ’लातुन----मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन
2122-------1222----------1222
यहाँ भी ध्यान देने की बात है -फ़ाइ’लातुन [2122] अपनी मुन्फ़सिल शकल में है--यानी फ़ाइ’-- [ -फ़े --अलिफ़--ऐन ] वतद-ए-मफ़रूक़ की शकल में है [यानी हरकत+साकिन+हरकत] --ऐन को मैने -इ’- से दिखाया है।
 इसपर ’ज़िहाफ़ात’ लगाते हुए इस बात का ख़याल रखेंगे

इन अर्कान पर लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ात देख लेते हैं

फ़ाइ’लातुन [2122] + कफ़ = मक्फ़ूफ़ फ़ाइ’लातु [2121]   [ -लु--तु-- का मतलब मुतहर्रिक 
फ़ाइ’लातुन [2122 ] + क़ब्ज़     = मक़्बूज़    मुफ़ त इलुन [2112] [ -तु- मुतहर्रिक ]

मफ़ाईलुन  [1221]  + कफ़      = मक्फ़ूफ़  मफ़ाईलु   [1221]
मफ़ाईलुन  [1221]   + हज़्फ़    = महज़ूफ़   फ़ऊलुन  [122 ] 
मफ़ाईलुन  [1221 ]  + क़स्र       = मक़्सूर  फ़ाइ’लान  [2121]
मफ़ाईलुन [1221 ] + तब्सीग़      = मुस्बीग़  मफ़ाईलान [ 12221]

चूँकि यह बह्र उर्दू शायरी में बहुत मानूस नहीं है और उर्दू शायरों ने इसे बहुत कम ही इस्तेमाल किया है। फिर भी इसके कुछ आहंग देख लेते है

[1]  बह्र-ए-मुशाकिल मुसद्द्स सालिम/ मुस्बीग़
फ़ाइ’लातुन----मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन / मफ़ाईलान
2122--------1222---------1222   / 12221
कमाल अहमद सिद्दिकी साहब के हवाले से

मैकदे  में  नहीं कोई गदा साक़ी
हाथ में जाम जिसके है वही जम है
तक़्तीअ’भी देख लेते हैं -
2 1  2  2  / 1  2  2  2/ 1 2 2 2   
मैकदे  में /  नहीं कोई /गदा साक़ी = 2122---1222---1222
2 1   2  2/ 1  2   2   2   / 1 2 2 2        =  2122---1222---1222
हाथ में जा /म जिस के है /वही जम है

मिसरा सानी में ज़र्ब के मुक़ाम पर ’मफ़ाईलान [12221] है जो मफ़ाईलुन का  मुज़ाहिफ़ ’मुस्बीग़’ है -जो लाया जा सकता है

उन्ही के हवाले से एक इसका भी उदाहरण  देख लें
पास मत जा सबा वो ज़ुल्फ़-ए-बरहम है
और बिखरी तो वो हो जायेगा नाराज़ 
तक़्तीअ भी देख लें---

पास मत जा /सबा वो ज़ुल् / फ़ बरहम है = 2122----1222----1222
और बिखरी  /तो वो  हो जा / येगा  नाराज़ = 2122--1222----12221

 यूँ तो यह बह्र अपने मुसद्दस शकल में ही प्रचलित है मगर मुसम्मन शकल में शायरी करने में कोई मनाही भी नहीं है
मुसम्मन का आहंग निम्न तरीक़े से होगा
[2] बह्र-ए-मुशाकिल मुसम्मन मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़ \  मक़्सूर 
फ़ाइ’लातु---मफ़ाईलु-----फ़ाइ’लातु----फ़ऊलुन\ फ़ऊलान
2121--------1221---------2121-----122     \ 1221
डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से  एक शे’र देखते हैं

हमने प्यार किया तुमको  ये हमारा है एह्सान
तुम ने लूट लिया हमको ये  तुम्हारा है एहसान

 तक़्तीअ भी कर के देख लेते है--आसान है
  2   1  2  1 /  1 2   2  1    / 2  1 2  1 / 1 2 2 1
हम ने प्यार / किया तुम कू / ये  हमारा / है एह्सान
2     1   2 1 / 1  2  2  1   / 2  1  2  1 /  1 2 2 1
तुम ने लूट/   लिया हम  कू / ये तुम्हारा  / है एहसान

अच्छा -- है एहसान’  [1221 ] को --है ’एहसाँ [122] कर दीजिए --देखिए क्या होता है? कर सकते हैं । एहसान  और एहसाँ में अर्थ के लिहाज़ से कोई फ़र्क नही --मगर तक़्तीअ’ के लिहाज़ से फ़र्क़ हो जायेगा और तब शे’र -फ़ाइ’लातु---मफ़ाईलु-----फ़ाइ’लातु----फ़ऊलुन यानी [2121---1221---2121---122 ] हो जायेगा यानी -बह्र-ए-मुशाकिल मुसम्मन मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़ 

[3]  बह्र-ए-मुशाकिल मुसद्दस मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़ \ मक़्सूर
फ़ाइ’लातु----मफ़ाईलु----फ़ऊलुन \फ़ऊलान
2121-------1221-------122     \ 1221
सरवर राज़ सरवर साहब के हवाले से -एक शे’र देखते हैं

 दर्द-ए-दिल की  करे हाय ! दवा कौन ? 
चारागर है बना तेरे सिवा  कौन ?
-नामालूम-
इसकी तक़्तीअ भी कर के देख लेते हैं
2    1   2    1   / 1 2 2 1   / 1 2 2 1   = 2121---1221---1221
दर् द दिल की / करे हाय ! / दवा कौन ?
2  1  2    1   /  1 2 2 1 / 1 2 2  1     = 2121-----1221---1221
चार:गर है / बना तेरे    / सिवा  कौन ?
यह ’मक़्सूर’ की शुद्ध मिसाल है --दोनो मिसरों में .मक़्सूर’ ही इस्तेमाल हुआ है
हालाँकि अरूज़ और ज़र्ब में महज़ूफ़ और मक़्सूर का ख़ल्त जायज़ है यानी अरूज़ में ’फ़ऊलुन’ लाया जा सकता है --इजाज़त है

[4] मुशाकिल मुसद्दस मक़्बूज़ मक्फ़ूफ़ सालिम\मुस्बीग़
मुफ़ त इलुन----मफ़ाईलु---मफ़ाईलुन
2112-----------1221--------1222
 एक बात ध्यान देने की है
मफ़ाईलु--में    --लाम-- मुतहर्रिक है
मफ़ाईलुन में      मीम और फ़े --मुतहर्रिक है यानी 3- मुतहर्रिक एक साथ [पर दो adjacent रुक्न में ] तो इस पर ’तख़्नीक़’ का अमल हो सकता है और एक नई बह्र बरामद हो सकती है जैसे

मुफ़ त इलुन------मफ़ाईलुन--फ़ाईलुन [ मफ़ऊलुन]
2112-------------1222-----222
एक बात ध्यान देने की है जब भी तस्कीन-ए-औअसत या तख़्नीक़ का अमल मुज़ाहिफ़ रुक्न पर करते है तो ध्यान रहे आप के इस अमल से बह्र न बदल जाये। यह एक ज़रूरी शर्त है

इस बह्र की मुरब्ब: शकल भी हो सकती है और अर्कान होंगे
[5] मुशाकिल मुरब्ब: सालिम
फ़ाइ’लातुन-----मफ़ाईलुन
2122---------1222
 उदाहरण आप सोचे --आसान है

यूँ तो कुछ और भी बह्र मुमकिन है मगर इन सब की चर्चा करना यहाँ न ज़रूरी है न मुनासिब  है। यूँ भी बह्र-ए-मुशाकिल में शायरों ने कम ही कलाम कहे हैं
इस तरह बह्र-ए-मुशाकिल का बयान ख़तम हुआ और उर्दू में राइज़ 19-बह्रों की चर्चा भी ख़त्म हुई
अब अगले क़िस्त में किसी और बात पर चर्चा करेंगे।
अस्तु

{क्षमा याचना -वही जो पिछले क़िस्त में है}-इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

-आनन्द.पाठक-


शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 57 [ बह्र-ए-ख़फ़ीफ़]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 57 [ बह्र-ए-ख़फ़ीफ़]

[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]

पिछली क़िस्त 56 में ,बह्र-ए-क़रीब पर चर्चा की है ,अब इस क़िस्त में ’बह्र-ए-ख़फ़ीफ़’ पर चर्चा करेंगे।
उर्दू के अमूमन हर शायर ने इस बह्र  में शायरी की है
 बह्र-ए-ख़फ़ीफ़  एक मुरक़्कब बह्र है जो 3-अर्कान से मिल कर बना है
फ़ाइलातुन---मुसतफ़अ’लुन--फ़ाइलातुन
2122--------2212--------2122
a------------b-------------a
यूँ तो इसकी ’मुसम्मन’ शकल या मुरब्ब: शकल में शायरी करने की मनाही तो नहीं है ,परन्तुउर्दू शायरी में ’मुसद्दस’ शकल में ही और ख़ास तौर से ’मख़्बून’ मुज़ाहिफ़ में  ही ज़्यादातर --ग़ज़लें कही गई हैं।
इस बह्र की मुसम्मन शकल के अर्कान होंगे
फ़ाइलातुन---मुसतफ़अ’लुन--फ़ाइलातुन-----मुसतफ़अ’लुन
2122--------2212--------2122------------2212
  a-------------b-------------a--------------b
 और मुरब्ब: शकल के अर्कान होंगे
फ़ाइलातुन--मुस तफ़अ’लुन
2122---------2212
a-----------------b
मगर कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब ने इसकी ’मुसम्मन शकल’ में एक कोशिश की है --आप भी ऐसी कोशिश कर सकते है। हम यहाँ सिर्फ़ कुछ ’मुसद्दस’ बह्र की ही चर्चा करेंगे -जो काफी प्रचलन में है
एक बात ध्यान देने की है
मुस तफ़अ’ लुन -[2212]--में वतद  ’ तफ़अ’ [21] -’ अपनी ’मफ़रूक़’ शकल में है [यानी सबब+ वतद मफ़रूक़+ सबब] जब कि
मुसतफ़इलुन      [2212 ] में  वतद   ’इलुन’    [12]  अपनी    ’मज्मुआ’   शकल में है [ यानी सबब+सबब+वतद-ए- मज्मुआ}
तो इससे क्या फ़र्क़ पड़ेगा ? वज़न में तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा --मगर ज़िहाफ़ लगाते वक़्त फ़र्क़ पड़ेगा । इस बह्र में ’मुस तफ़अ’- पर वही ज़िहाफ़ लगेंगे जो  ’.वतद-ए-मफ़रूक़’ पर लगते है ---न कि वतद-ए-मज्मुआ वाले ज़िहाफ़ात।
इन अर्कान पर लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ की चर्चा कर लेते है

फ़ाइलातुन[2122] + ख़ब्न  = मख़्बून फ़इलातुन 1122

मुस तफ़अ’लुन [2212] +ख़ब्न     = मख़्बून  मफ़ाइ’लुन 1212

अब कुछ मानूस आहंग की चर्चा कर लेते हैं
[1] बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्द्स
  फ़ाइलातुन---मुसतफ़अ’लुन--फ़ाइलातुन
   2122--------2212--------2122
कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब के ही हवाले से

चाह्ते हैं वो बात उन से करूँ मैं
इस लिए शायद मुझ से बरहम नहीं है 

तक़्तीअ’ देख लेते हैं
2122     /  2  2  1   2/ 2122
चाह्ते हैं / वो बात उन /से करूँ मैं = 2122---2212---2122
2  1  2   2     / 2 2     1  2 / 2 1 2 2
इस लिए शा /यद मुझ से बर/हम नहीं है   = 2122----2212----2122

[2] बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून
फ़ाइलातुन-----मफ़ाइ’लुन--फ़इ’लातुन     [ -इ’ का मतलब -ऐन- मय हरकत है यानी मुतहर्रिक है ]
2122*---------1212--------1122
 आख़िरी रुक्न ’ फ़ इ’लातुन ’ देखें ---इसमे [ फ़े--ऐन--लाम तीनों मुतहर्रिक है और तीनों एक साथ भी है और फ़ इ’लातुन  मुज़ाहिफ़ रुक्न भी है ] तो तस्कीन-ए-औसत  का अमल हो सकता है । तब यह रुक्न ’मफ़ऊलुन’ [2 2 2] मे बदल जायेगी।  आप ’फ़ाइलातुन [2122] की जगह ’ फ़ इ’लातुन [1122] का इस्तेमाल कर सकते हैं तो तस्कीन-ए-औसत का अमल यहाँ भी हो सकता है । मगर ख़याल रहे--एक ही मिसरा में दोनो रुक्न पर तस्कीन-ए-औसत का अमल एक साथ ही न कर दें- [यानी मफ़ऊलुम 222 एक ही मिसरा में न कर दें ] -उचित नहीं होगा
तो एक शकल  यह भी हो सकती है

[2-क] फ़ाइलातुन-----मफ़ाइ’लुन--मफ़ऊलुन   
         2122*---------1212--------222
[3] बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख्बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन---मफ़ा इ’लुन---फ़ इ’लुन
2122*---------1212------112‍**
ग़ालिब के शे’र से उदाहरण देते है

दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ ,बुरा न हुआ

तक़्तीअ’ कर के देख लेते है
2    1  2     2   / 1 2   1 2  / 112
दर् द मिन् नत/ -कशे-दवा /न हुआ
2  1  2     2   / 1 2  1 2  / 1 1 2
मैं न अच् छा/ हुआ ,बुरा /न हुआ

[3-क] बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख्बून महज़ूफ़ मुसक्किन
फ़ाइलातुन---मफ़ा इ’लुन---फ़ेलुन
2122*---------1212------22
एक उदाहरण देख लेते है
ग़ालिब  की एक मशहूर ग़ज़ल है--आप ने भी सुना होगा

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है

तक्तीअ’ कर के देख लेते हैं
1 1     2   2   / 1 2 1 2  / 22
दिल-ए-नादाँ / तुझे हुआ /क्या है
2  1      2    2    /  1 2 1 2   / 2 2
आ ख़ि रिस दर् / द की दवा /क्या है
[नोट-दिल को यहाँ 1 1 के वज़न पर लिया गया है कारण कि -दि- तो मुतहर्रिक है ही [1] ---और -ल- भी मुतहर्रिक हो गया[1]   कारण कि आगे -इत्फ़- जो है ।
’आखिर इस ’ -में वस्ल है अलिफ़ का---आ खि रिस [212--]
इसी ग़ज़ल का मक़्ता है

मैने माना कि कुछ नहीं ’ग़ालिब’
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है

तक़्तीअ तो आप कर ही लेंगे---बस यह बताना था कि  दोनो मिसरे-
- 2122--1212---22 
-2122  --1212---22 के वज़न मैं है

[4] बह्र-ए-खफ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून मक़्सूर
फ़ाइलातुन---मफ़ा इ’लुन---फ़ इ’लान
2122*---------1212------1121**
मीर का एक शे’र है
अब तो दिल को न ताब है न क़रार
याद-ए-अय्याम जब तहम्मुल  था

अब तक़्तीअ कर के भी देख लेते हैं
   2   1  2     2  / 1  2 1 2 / 1 1 2 1   = 2122--1212---1121
अब तो दिल को/ न ताब है / न क़रार
2    1    2   2    / 1 2  1   2    / 2 2  =   2122---1212----22
याद-ए-अय या /म जब त हम् /मुल  था

[4-क] बह्र-ए-खफ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून मक़्सूर मुसक्किन
फ़ाइलातुन---मफ़ा इ’लुन---फ़ेलान
2122*---------1212------221
मीर का एक शे’र है

अब तो जाते हैं बुतकदे से मीर
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा  लाया

तक्तीअ’ आप कर के देख लें --इशारा मैं कर देता हूँ

अब तो जाते /हैं बुतकदे /से ’मीर’  = 2122---1212----221= [----मक़्सूर-मुसक्किन ]
फिर मिलेंगे /अगर ख़ुदा  /लाया     = 2122---1212----22   =[ ---महज़ूफ़ मुसक्किन ]

[नोट  ’मख़्बून’ ज़िहाफ़ के केस में -
* फ़ाइलातुन [2122] की जगह -फ़इ’लातुन [1122] भी लाया जा सकता है । क्यों ? कारण कि ज़िहाफ़ ’ख़ब्न’ दोनो ही रुक्न पर लगता है और एक आम ज़िहाफ़ भी है आप चाहें तो पहले रुक्न पर लगाएँ या न लगाए। दूसरे रुक्न पर तो लगाना ही लगाना है
कारण कि फ़ाइलातुन [2122] का मख्बून फ़ इ’लातुन [1122] ही होता है

**  इन पर तस्कीन-ए-औसत का अमल हो सकता है और अगली बह्र बरामद हो सकती है 
और अरूज़/ज़र्ब के मुकाम पर -22/221/112/1121--आपस में सब मुतबादिल भी है --यानी शे’र में एक दूसरे के मुक़ाम पर लाया जा सकता है
चलते चलते इसकी मुरब्ब: आहंग की भी चर्चा कर लेते है

[5] बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुरब्ब:
    फ़ाइलातुन -----मुस तफ़अ’लुन
   2122-----------2212
कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब के ही हवाले से

हाल मेरा ? मेरा जुनू
इसको देखा अहल-ए-नज़र

बात दिल की जाने भी दो
दिल कहाँ है किसको ख़बर

दूसरे शे’र की तक़्तीअ कर के देख लेते है---आसान है
2  1    2   2   /   2 2 1 2
बात दिल की / जाने भी दो = 2122--2212
2     1   2  2  / 2     2   1  2
दिल कहाँ है / किस को ख़बर =2122--2212
[6] बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुरब्ब: सालिम मख़्बून /मुसब्बीग़
फ़ाइलातुन------मफ़ाइ’लुन/मफ़ाइ’लान
2122-----------1212/12121

हम तरसते रहें निगार
हो तो औरों से हमकिनार
              -नामालूम

इशारा हम कर देते हैं --तक़्तीअ’ आप कर लें
2     1 2   2 / 1 2 1 2 1
हम त रस ते / रहें निगार = 2122---12121
2   1   2 2   / 1 2  1   2 1
हो तो औरों / से हम किनार =          2122---12121
यह मुस्बीग़ का उदाहरण था। अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर मफ़ाइ’लान -12121] की जगह मफ़ाइ’लुन [1212]लाया जा सकता है
एक उदाहरण वो भी देख लें [कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब के हवाले से]

ज़िन्दगी इक सवाल है
साँस लेना मुहाल  है
तक़्तीअ’ आसान है--आप कर के देख सकते है
 इनके अलावा और भी बहूर बरामद हो सकती है जिसकी यहाँ चर्चा करना कोई ख़ास ज़रूरी  भी नहीं है
जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूँ कि शायरों ने अपने कलाम ज़्यादातर ’मुसद्दस ’ आहंग में ही कहे हैं -और उनकी ग़ज़लों के अश’आरों में  अरूज़/ज़र्ब के मुकाम पर -22/221/112/1121-का ख़ल्त दिखाई देता है कारण कि ये सब -आपस में सब मुतबादिल भी है
यहाँ कुछ ऐसे ही मशहूर शे’र पेश कर रहा हूँ आप भी लुत्फ़ अन्दोज़ हों--बह्र/आहंग आप पहचाने

तुम हमारे किसी तरह न हुए
वरना दुनिया में क्या नहीं होता
-मोमिन
आँख उस पुरज़फ़ा से लड़ती है
जान कुश्ती कज़ा  से लड़ती  है
-ज़ौक़

जाओ अब सो रहो सितारों
दर्द की रात ढल चुकी है
-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
फिर हुईं दिल में हसरतें आबाद
नाले देने लगे मुबारकबाद 
-दाग़ देहलवी
दूर होकर भी पास है कोई 
एह्तमाम-ए-नज़र को क्या कहिए
-शकील बदायूनी
मौत इक गीत रात गाती थी
ज़िन्दगी झूम झूम जाती  थी
-फ़िराक़ गोरखपुरी
मैं जहाँ हूँ तेरे ख़याल में हूं
तू जहाँ है मेरी निगाह में है
-जिगर मुरादाबादी
बेख़ुदी बेसबब नहीं ’ग़ालिब’
कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है
-ग़ालिब-
शाम से कुछ बुझा सा रहता है
दिल हुआ है चिराग़ मुफ़लिस का
-मीर-
बेवफ़ा रास्ते  बदलते हैं
हमसफ़र साथ साथ चलते हैं
-बशीर बद्र
अगर आप इजाज़त दे और आप को नागवार न गुज़रे -तो इस हक़ीर के भी कुछ शे’र इसी आहंग में बर्दास्त कर लें

इक धुआँ सा उठा दिया तुम ने
झूट को सच बता  दिया तुम ने
-----
आदमी है,गुनाह  लाज़िम है
आदमी तो ख़ुदा  नहीं  होता
---
लोग क्या क्या नहीं कहा करते
जब कभी तुम से हम मिला करते
---
बज़ाहिर ऐसे हज़ारों अश’आर मिसाल के तौर पर दिए जा सकते है ।इसी बात से पता चलता है कि यह आहंग कितना दिलकश मानूस और आहंगखेज़ है

अब बहर-ए-ख़फ़ीफ़ का बयान ख़त्म हुआ । अगली क़िस्त में किसी और बह्र की चर्चा करेंगे

अस्तु
 {क्षमा याचना -वही जो पिछले क़िस्त में है}-इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 56 [ बह्र-ए-क़रीब ]

              उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 56 [ बह्र-ए-क़रीब ]

[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]

यह बह्र भी एक मुरक़्क़ब बह्र है जो 3-अर्कान से मिल कर बनता है अत: यह भी -बह्र-ए-सरीअ’ और बह्र-ए-जदीद--- की तरह मुसद्दस शकल में ही प्रयोग होता है
मगर बह्र-ए-सरीअ’ और बह्र-ए-जदीद-की तरह उर्दू शायरी में बहुत कम ही प्रयोग हुआ है ,। इस बह्र का नाम ’क़रीब’ [समीप] क्यों कहते हैं -मालूम नहीं
कुंवर ’बेचैन’ साहब ने तो इसका हिन्दी नाम ’समीप छन्द’ ही रख दिया-क़रीब के हिन्दी अनुवाद पर।
इस बह्र का बुनियादी अर्कान है---
मफ़ाईलुन-----मफ़ाईलुन---फ़ाइ’लातुन
1222--------1222--------2122

ध्यान रहे -- फ़ाइलातुन [2122] अपने ’मुन्फ़सिल शकल में है] यानी फ़ा इ’लातुन [ यानी -ऐन- अपने मुतहर्रिक शकल में है ] यानी [ वतद मफ़रूक़ + सबब-ए-ख़फ़ीफ़+सबब-ए-ख़फ़ीफ़ की शकल में है ]
जब कि यही रुक्न जब मुतस्सिल शकल मे होती है तो  [सब-ए-ख़फ़ीफ़+वतद-ए-मज्मुआ+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ शकल में होती है]
आप ’वतद’ का लोकेशन देखिए फिर उसी हिसाब से ’इस पर लगने वाले ज़िहाफ़ात’ सोचिए
मुफ़ाईलुन [1222] पर लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ात की चर्चा कर लेते हैं
मुफ़ाईलुन [1222] + कफ़्फ़ = मक्फ़ूफ़  मुफ़ाईलु [1221]--लाम मुतहर्रिक
म्फ़ाईलुन  [1222] + ख़र्ब     = अख़रब   मफ़ऊलु[ 2 2 1] --- लाम --मुतहर्रिक

फ़ाइ’लातुन[2122]  पर लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ात
फ़ाइ’लातुन [ 2122] +हज़्फ़   =महज़ूफ़ फ़ाइ’लुन  [2 1 2]    [नोट -इ’- को आप -ऐन मुतहर्रिक समझे]
फ़ाइ’लातुन [2122] + क़स्र    = मक़्सूर   फ़ाइ’लान [2 1 2 1] [ ---तदैव-]
चलिए इसके कुछ प्रचलित बह्र /आहंग देख लेते हैं

[1] बह्र-ए-क़रीब मुसद्दस सालिम
मफ़ाईलुन-----मफ़ाईलुन---फ़ाइ’लातुन
1222--------1222--------2122
 एक उदाहरण देख लेते हैं
अब्दुल अज़ीज़ साहब का एक शे’र है

वो भी इक दौर था जिसमें ख़ुशदिली से
न की  मैने   कभी तेरी  मेहमानी 

तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
1   2    2    2   /1  2  2  2   / 2    1   2  2
वो भी इक दौ / र था जिसमें / ख़ुश दिली से
1   2   2   2/  1 2   2  2  / 2 1 2 2
न की  मै ने / कभी   तेरी / मेहमानी
[2] बह्र-ए-क़रीब मुसद्दस मक्फ़ूफ़
मफ़ाईलु-----मफ़ाईलु-----फ़ाइ’लातुन
1 2 2 1-----1 2 2 1-----2 1 2 2 
मफ़ाईलुन [1222] का मक्फ़ूफ़ [यानी मफ़ाईलुन[1222] पर ’कफ़’ का ज़िहाफ़] मफ़ाईलु  [1221 ]बरामद होता है -यानी -लाम मुतहर्रिक
अब एक उदाहरण भी देख लेते हैं
’सरवर राज़ सरवर के हवाले से

तिरे ग़म में प्यारे निकल गया दिल
शरारे से है फ़ुरक़त के जल गया दिल

तक़्तीअ’ भी देख लेते है
1 2   2   1 / 1  2 2  1/ 2   1 2   2
तिरे ग़म में / प यारे नि /कल गया दिल
1  2  2 1  /  1  2   2     1    / 2   1  2 2
शरारे से   /  है फ़ुर क़त के / जल गया दिल

आप देख रहे हैं कि -में---से---के--- को -1- के वज़न पर लिया गया है कारण कि ये सभी मुतहर्रिक हैं और मुतहर्रिक के मुक़ाम पर भी है और बह्र की माँग भी है
[3] बह्र-ए-क़रीब मुसद्दस मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़ /मक़्सूर
मफ़ाईलु-----मफ़ाईलु---फ़ाइ’लुन / फ़ाइ’लान
1 2  2 1-----1 2 2 1-----2 1 2 /2 1 2 1
डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से--

अजब शख़्स था लब पर थी उस की जान
तड़पता था तेरा नाम ले के वो

अब तक़्तीअ’ भी देख लेते हैं
1   2    2    1   / 1   2  2    1   / 2    1  2  1
अजब शख़् स / था लब पर थी / उस की जान       [मक़्सूर]
1   2   2   1   / 1 2   2 1 / 2  1 2
त ड़प ता था / तिरा नाम / ले के वो                       [ महज़ूफ़]

मिसरा ऊला मे  ’मक़्सूर’  और मिसरा सानी में ’महज़ूफ़’ लाया जा सकता है।
मगर नामकरण उस ज़िहाफ़ से होगा जो ’मिसरा सानी’ में आता है
यानी इस बह्र का नाम होगा ---क़रीब मुसद्दस मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़"

अगर इस शे’र का यूँ पढ़ें

तड़पता था तेरा नाम ले के वो                                  [ महज़ूफ़]
अजब शख़्स था लब पर थी उस की जान     [ मक़्सूर]

तो इस बह्र का नाम होगा ----क़रीब मुसद्दस मक्फ़ूफ़ मक़्सूर--यानी मिसरा सानी के लिहाज़ से।
मगर ग़ज़ल के अश’आर में इन दोनो का ’ख़ल्त जायज़ है- यानी आपस में ’मुतबादिल’ हैं
एक बात और
अगर ऊपर के दो रुक्न मफ़ाईलु 1221] ----मफ़ाईलु [1221] को ध्यान से देखें तो तीन मुतहर्रिक [लाम--मीम--फ़े] एक साथ आ रहे हैं और तख़्नीक़ की अमल से एक  बह्र और  बरामद हो सकती है
[3-क] मफ़ाईलुन----मफ़ ऊलु  --   -फ़ाइ’लुन
           1 2 2  2 ---- 2   2  1----------212
आप इस बह्र में कोई शे’र सोच सकते हैं -चाहें तो। अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर ’फ़ाइलुन’ [212 ]की जगह ’फ़ाइलान’[2121] भी लाया जा सकता है।

[4] बह्र-ए-क़रीब मुसद्द्स अख़रब मक्फ़ूफ़ सालिम अल आख़िर
मफ़ऊलु---मफ़ाईलु---फ़ाइ’लातुन
   221----- 1221-------2122 
आप जानते हैं कि ’मफ़ऊलु’[221] ----अख़रब है ’मफ़ाईलुन [1222] का
और ’मफ़ाईलु ’[1221]                -------मक्फ़ूफ़ है ’मफ़ाईलुन’[1222] का
और दोनों में -लु- मुतहर्रिक है
अब एक उदाहरण भी देख लेते हैं -अब्दुल अज़ीज़’ख़ालिद’ साहब का एक शे’र है

मेरी यही तफ़रीह-ओ-दिल्लगी है
करती ही रहे  तेरी इन्तज़ारी

अब तक़्तीअ’ भी देख लेते हैं
2  2  1  / 1 2 2 1   /       2     1 2 1
मेरी ये /ही तफ़रीह-/ ओ-दिल लगी है
2      2  1  / 1 2 2 1  / 2 1  2  2
कर ती ही/  रहे  तेरी/  इन त ज़ारी
यहाँ तफ़रीह-ओ- इन्तज़ारी में जो -इत्फ़- ओ- है उसका वज़न नहीं लिया गया है । क्यों ? कारण आप जानते होंगे
-------
 अगर आप ऊपर के अर्कान के इन्तजाम को ध्यान से देखे तो
मफ़ऊलु--मफ़ाईलु के बीच में क्या है ?  कुछ नहीं बस --लाम-- मुतहर्रिक-----मीम मुतहर्रिक---फ़े मुतहर्रिक है यानी तीन मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ तो ’तख़्नीक़’ का अमल हो सकता है [नोट--तस्कीन-ए-औसत का अमल नहीं होगा कारण कि तस्कीन-ए-औसत का अमल तब होता है जब ’एक ही रुक्न में ’ -तीन मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ आये] तख़्नीक़ का अमल तब होता है जब ’दो adjacent रुक्न’ में तीन मुतहर्रिक एक साथ आयें और दोनो का अमल ’सालिम’ रुक्न पर कभी नहीं होता-हमेशा ’मुज़ाहिफ़’ रुक्न पर होता है ।
तो ऊपर के दोनो रुक्न तख़्नीक के अमल से दो अलग-अलग मुख़्नीक़ रुक्न बन जायेंगे-----’मफ़ ऊ लुम-और - फ़ाईलु--- जिसे हम इसके हम वज़न मानूस रुक्न  ’मफ़ऊलुन---मफ़ऊलु  [ यानी 222---221 ] से बदल लेंगे
तब इस बह्र की शकल हो जायेगी
मफ़ऊलुन----मफ़ऊलु---फ़ाइ’लातुन
222---------221------2122
[4-क] बह्र-ए-क़रीब मुसद्द्स अख़रब मक्फ़ूफ़ मुखन्निक़ सालिम अल आख़िर
मफ़ऊलुन----मफ़ऊलु---फ़ाइ’लातुन
222---------221------2122

एक उदाहरण भी देख लेते है --सरवर राज़ सरवर साहब के हवाले से

 दुख भुगते इस इश्क़ की बदौलत
मुद्दत तक ना पाई हमने राहत 
-नामालूम-
अब इसकी तक़्तीअ भी देख लेते हैं
     2   2  2  /  2   2  1   / 2  1 2  2
 दुख भुगते /  इस इश् क़ / की बदौ लत
2 2    2    /  2  2 1    /   2  1    2  2
मुद्दत तक/  ना पा इ     / हम ने राहत

[5] बह्र-ए-क़रीब मुसद्दस अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़\मक़्सूर
मफ़ऊलु-----मफ़ाईलु---फ़ाइ’लुन\फ़ाइ’लान
221---------1221------212\2121
बात साफ़ है -ऊपर दिखाया भी है
मफ़ाईलुन का ’अख़रब’ मुज़ाहिफ़ ----मफ़ऊलु [221] होता है
मफ़ाईलुन  का मक्फ़ूफ़ मुज़ाहिफ़----मफ़ाईलु  [ 1221] होता है
और
फ़ाइ’लातुन का महज़ूफ़ मुज़ाहिफ़------ फ़ाइ’लुन [212] होता है जब कि
फ़ाइ’लातु  का मक़्सूर    मुज़ाहिफ़------फ़ाइ’लान [2121] होता है
अब एक उदाहरण भी देख लेते हैं--डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से

आँखों में है अब भी वही समाँ
पहलू में कभी आप थे मेरे

अब तक़्तीअ’ भी कर के देख लेते है
  2  2  1   / 1  2   2   1  / 2 1 2
आँखों में /  है अब भी व /ही समाँ
2   2    1 / 1 2  2  1 /   2 1 2
पहलू में /  कभी आप / थे मि रे

इस बह्र में भी अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर फ़ाइ’लुन की जगह फ़ाइ’लान लाया जा सकता है --ख़ल्त जायज़ है
अच्छा ,एक बात तो रह ही गई
इस बह्र का नाम ’क़रीब’ क्यों रखा गया -मालूम नहीं । मुझे लगता है ,मेरी व्यक्तिगत सोच है कि इसके  अर्कान मफ़ाईलुन [1222] और फ़ाइलातुन [2122] -दोनो एक ही दायरे  से निकले है और क़रीब भी है वतद के लिहाज़ से
या इस पर ज़िहाफ़ात लगाते लगाते लगभग ’रुबाई’ की बह्र के क़रीब पहुँच जाते हैं--शायद इसी लिए। हो सकता है कि मैं ग़लत भी हूँ । अगर आप लोगों को कही कारण मिल जाये तो ज़रूर बताइएगा--कि मेरे इल्म में भी इज़ाफ़ा हो  सके ।

अब मै यह तो नही कह सकता कि बह्र-ए-क़रीब के सारे आहंग की चर्चा मैने कर ली -है -और भी इसके आहंग मुमकिन है और यह आप के फ़न-ए-शायरी पर निर्भर करता है ।
अत: इस बह्र का बयान यहीं ख़त्म करता हूँ
अगले क़िस्त में किसी और बह्र की चर्चा करेंगे
अस्तु

{क्षमा याचना -वही जो पिछले क़िस्त में है}-इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

-आनन्द.पाठक-
















शनिवार, 8 दिसंबर 2018

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 55 [बह्र-ए-जदीद]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 55 [बह्र-ए-जदीद]

[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]

पिछली क़िस्त में ’बह्र-ए-सरीअ’ पर बातचीत की थी ,आज हम बह्र-ए-जदीद पर बात करेंगे

उर्दू शायरी की प्रचलित 19- बह्रों में से एक बहर यह भी है  बह्र-ए-सरीअ’ की तरह यह भी एक ’मुरक़्क़्ब बह्र [ मिश्रितबह्र] है जो 3-अर्कान से मिल कर बना है  परन्तु यह  भी बह्र-ए-सरीअ’ की तरह लोकप्रिय और दिलकश नहीं है। शायरों ने इस बह्र में बहुत कम शायरी की है शायद एक कारण यह भी हो कि इसका आहंग मौसकी [संगीत] पर सही न उतरता हो --लयपूर्ण न हो।परन्तु चर्चा करने में क्या हरज है
ख़ैर-- इसके अर्कान समझ लेते हैं
बह्र-ए-जदीद का बुनियादी अर्कान है :-
फ़ाइलातुन-----फ़ाइलातुन----मुस तफ़अ’ लुन
2122----------2122---------2212
यह बह्र भी सिर्फ़ ’मुसद्दस शकल’ में ही इस्तेमाल होती है

ध्यान दीजियेगा---’मुसतफ़ इलुन’ 2212--अपने ’मुन्फ़सिल शकल में है [यानी सबब+ वतद-ए-मफ़रुक़+सबब] -यानी इस वतद पर वही ज़िहाफ़ा लगेंगे जो [वतद-ए-मफ़रूक] पर लगते है । इस बात की चर्चा मै किसी पिछली क़िस्त मे कर चुका हूँ
चलिए अब इस बह्र के कुछ आहंग  की चर्चा कर लेते है
[1] बह्र-ए-जदीद मुसद्द्स सालिम
फ़ाइलातुन-----फ़ाइलातुन----मुस तफ़अ’ लुन/ मुसतफ़ इलान
2122----------2122---------2212           / 2 2 1 2 1
इस बह्र में कुछ उदाहरण देख लेते हैं :-जनाब सरवर साहब के हवाले से

ले गया वो बेमुरव्वत आराम-ए-दिल
कुछ नहीं बाक़ी रहा अब जुज़ नाम-ए-दिल
[नामालूम]
तक़्तीअ तो आसान है -आप भी कर सकते है} चलिए कर के देख लेते हैं
2  1 2  2   / 2 1 2  2    /  2  2 1    2
ले गया वो / बे मु रव वत /आराम-ए-दिल
2      1 2   2  / 2 1 2   2   / 2   2  1     2
कुछ नहीं बा /क़ी रहा अब /जुज़ नाम-ए-दिल

यहाँ -ए- [ इज़ाफ़त-ए-क़स्रा] का वज़न नहीं लिया -कारण कि ज़रूरत नहीं थी -न ही बह्र की माँग दी। अगर बह्र माँग होती तो ज़रूर लेता

 [2] बह्र-ए-जदीद मुसद्दस मख़्बून/ मस्बीग़
फ़ इलातुन---फ़ इलातुन--मफ़ा इलुन / मफ़ा इलान  [ -ऐन- यहाँ ’मुतहर्रिक’ है] 
1122----------1122------1212    /1 2 1 2 1

ज़िहाफ़ ’ख़ब्न’ [मुज़ाहिफ़ मख़्बून] के बारे में थोड़ा सा  चर्चा कर लेते है। यह ज़िहाफ़ काफी चर्चा में रहता है ’ख़ब्न ] का शाब्दिक अर्थ होता है--चादर लपेटना--जैसे बदन पर शाल/चादर को एक  फ़ेरा फेंक कर कंधे पर डाल लेते है /लपेट लेते है
" अगर रुक्न ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से शुरु होता है तो  ज़िहाफ़ ’ख़ब्न’-’दूसरे हर्फ़’ को गिरा देता है यानी ’साकित’ कर देता है । यह ज़िहाफ़ --रमल [फ़ाइ लातुन-2122]-----रजज़ [मुस तफ़ इलुन 2212]---मफ़ऊलातु [2221]--फ़ाइलुन [212] पर लगेगा
क्योंकि यह सभी रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ --फ़ा--मुस---मफ़--- [पहला हर्फ़ मय हरकत और दूसरा हर मय साकिन यानी हरकत+साकिन] है --से शुरु होते हैं ।अत: यह ज़िहाफ़ दूसरे हर्फ़ ’साकिन’ को "उड़ा’देगा तो बचेगा सिर्फ़ ’मुतहर्रिक [1] फ़े--मीम--]
यह एक ’आम ज़िहाफ़’ है--आम ज़िहाफ़ वो ज़िहाफ़ होते हैं जो मिसरा/शे’र के हर मुक़ाम पर लग सकते है 
फ़ाइलातुन [2122] के -फ़ा[2]-  का अलिफ़ गिरा दिया तो बचा फ़े [1] मुतहर्रिक । तो फ़ाइलातुन [2122] का मख़्बून हो गया --फ़ इलातुन [1 1 2 2 ]
मुस तफ़अ’ लुन [ 2 2 1 2] के -मुस- का दूसरा हर्फ़ -स- [साकिन] है को गिरा दिया तो बचा सिर्फ़ -मु- [ 1] मुतहर्रिक । तो मुस तफ़ इलुन[2212]  का मख़्बून  हो गया ’मु तफ़ इलुन [1212] जिसे हमवज़न रुक्न ’ मु फ़ा इलुन [1212] से बदल लेते हैं
अच्छा ,अब इस बह्र में कुछ उदाहरण देख लेते हैं

सैय्यद इन्शा साहब का एक शे’र है

जो कभी एक घड़ी हाँ भी हो गई
तो रही फिर वही ,दो दो पहर नहीं

चलिए तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
  1  1  2 2  / 1 1 2  2  / 1 2  1 2
जो कभी ए /क घड़ी हाँ/ भी हो गई
1    1  2   2  /  1 1  2  2  / 1 2 1 2
तो र ही फिर/ वही ,दो दो /पहर नहीं

-मिसरा उला में -एक- को- इक- कर दें तो क्या होगा? आप बताएँ?
मानी तो वही रहेगा --बह्र ख़ारिज़ हो जायेगी । क्यों?

इस बह्र में कोई ख़ास चर्चा की जगह थी नहीं । अत: इसका बयान यहीं ख़त्म हुआ
अब अगले क़िस्त में किसी और बह्र की चर्चा करेंगे

अस्तु
 {क्षमा याचना -वही जो पिछले क़िस्त में है}-इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

-आनन्द

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 54 [बह्र-ए-सरीअ’]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 54 [बह्र-ए-सरीअ’]

[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]

उर्दू शायरी के 19-प्रचलित बह्रों में ,बह्र-ए-सरीअ’ भी एक बह्र है पर यह बह्र शायरी में ज़्यादा प्रयोग हुई नहीं ,पर बातचीत करने में कोई हर्ज भी नहीं।
यह एक मुरक़्क़ब बह्र [ मिश्रित बह्र] है जो दो अर्कान से मिल कर बनता है

इसकी बुनियादी अर्कान है 
मुस तफ़ इलुन----मुसतफ़इलुन--मफ़ऊलातु
2 2 1 2 ----------2 2 1 2------2221 
  a-------------a---------------b
यह बह्र  साधारणतया अपने ’मुसद्दस शकल’ में ही प्रयोग होती है     a--a--b
यदि आप इसे ’मुसम्मन शकल’ में प्रयोग करना चाहें तो इसकी शकल होगी।
मुसतफ़ इलुन---मफ़ऊलातु----मुसतफ़इलुन---मफ़ऊलात 
2212----------2221---------2212----------2221
यानी a-----------b-------------a--------------b'
मफ़ऊलातु [2221] और मफ़ऊलात्  [2221] में फ़र्क़ समझ लें

मफ़ऊलातु [2221] में -तु- मुतहर्रिक है जिसका वज़न -1- है और जो  शे’र के हस्व के मुक़ाम पर लाया जा सकता है -मनाही नहीं है । मगर अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर नहीं लाया जा सकता।
मफ़ऊलात् [ 2221]  में त्- साकिन है जिसका भी वज़न  -1- है और जो शे’र के ’अरूज़/ज़र्ब’ के मुक़ाम पर लाया जा सकता है कारण कि शे’र [मिसरा] का हर्फ़ अल आख़िर ’साकिन’ होता है--
confusion  न हो , आप चाहें तो ’मफ़ऊलात्’ [2221] को इसके हम वज़न शकल ’ मफ़ऊलान’ 2221 से बदल सकते हैं जिसमे -न- [नून अलानिया ] साकिन है
यही कारण है कि ’मफ़ऊलातु [[2221] सालिम रुक्न होते हुए भी -सालिम बह्र में प्रयोग नहीं होता ,हमेशा इसका ’मुज़ाहिफ़’ शकल ही प्रयोग होता है इसी कारण ऊपर मैने -b-के बजाय  -b'- लिखा कि स्पष्टता बनी रहे
बज़ाहिर इन दो अर्कान पे वही ज़िहाफ़ लगते है जो मुसतफ़ इलुन [2212] और मफ़ऊलातु [2221] पर लगते है जैसे वक़्फ़----कस्फ़--तय्यी--नह्र--जदअ’--- वग़ैरह
अब इन पर लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ात की चर्चा भी कर लेते है
मफ़ऊलातु [2221] पर लगने वाले ज़िहाफ़ात:-
्मफ़ऊलातु [2221] +वक़्फ़        = मौक़ूफ़  मफ़ऊलान [2221]  
्मफ़ऊलातु [2221]  +कस्फ़    = मक्सूफ़   मफ़ऊलुन   [2 2 2 ]
मफ़ऊलातु   [2 2 2 1 ] +तय्यी         = मतूवी      फ़ा इलान  [ 21 2 1]
मफ़ऊलातु [2 2 2 1 ] +तय्यी+कस्फ़= मतूवी मक्सूफ़ फ़ाइलुन [ 212]
मफ़ऊलातु [2 2 2 1 ] + नह्र           = मन्हूर   फ़े [2] 
मफ़ऊलातु [ 2 2 2 1] + जदअ’+ वक़्फ़ = मज्दूअ’ मौक़ूफ़ = फ़ाअ’[21]

मुसतफ़ इलुन [2212] पर लगने वाले ज़िहाफ़ात :-
मुस तफ़ इलुन [2 2 1 2] +तय्यी    = मतूवी मुफ़ त इलुन [ 2112]

ध्यान दें --ज़िहाफ़ ’तय्यी’ दोनो ही रुक्न पर लग सकता है और मुज़ाहिफ़ ’मतूवी’ बरामद हो सकती है
[नोट -लातु- यहाँ ’वतद-ए-मफ़रूक़ है यानी ’हरकत+साकिन+ हरकत [लाम+अलिफ़+ते]  और  ज़िहाफ़ ’वक़्फ़’ - आखिरी हर्फ़ -ते- जो अभी मुतहर्रिक है को साकिन कर देता है यानी -लातु- [21], को ’ लात’ कर देता है[ मुतहर्रिक+साकिन+साकिन] में बदल जाता है और यही मौक़ूफ़ है ] जिसे अपनी सुविधा के लिए इसे हमवज़न ’मफ़ऊलान’ [2221] से बदल लेते है। यह ज़िहाफ़ ख़ास इसी रुक्न के लिए ही बना है  । "ततपश्चात " और ’ततपश्चात्  में क्या फ़र्क़ है ? सही पकड़ा-- हर्फ़ अल आखिर -त- पर हलन्त है । यही फ़र्क है --’मफ़ऊलात ’ और मफ़ऊलात् -में

अब कुछ प्रचलित बह्र की चर्चा कर लेते है
[1] बह्र-ए-सरीअ’ मुसम्मन  मौक़ूफ़ अलाअखिर 
   मुसतफ़ इलुन---मफ़ऊलातु----मुसतफ़इलुन---मफ़ऊलान \ मफ़ऊलुन
    2212----------2221---------2212----------2221       \ 222
कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब ने यह स्वीकार किया है  कि यह बह्र [मुसम्मन शकल ] ,Technically मुमकिन तो है मगर इस्तेमाल में नहीं है मगर तबअ’ आज्माई करने में हरज क्या है
एक उदाहरण देखते है --उन्हीं के हवाले से

मन्ज़र न था कोई तो ये कैसे बनाया सहकार
जो हो ,मुसव्विर मालूम, इस बात का कर इज़हार

इसकी तक़्तीअ’ कर के देखते हैं
2      2  1  2   /   2 2 2 1  / 2 2 1 2  /  2  2  2 1
मन ज़र न था / कोई तो ये / कैसे बना / या सह कार
2     2  1  2   / 2     2  2 1 /  2   2  1 2   / 2    2  2 1
जो हो ,मु सव्/ विर मा लूम,/  इस बात का / कर इज़ हार
एक बात और --मफ़ऊलान [2221] की जगह ’मफ़ऊलुन [ 2 2 2] भी लाया जा सकता है

एक बात ध्यान दीजियेगा --" कोई तो ये ’ -मफ़ऊलातु [2221] है । कारण कि -ये- मुतहर्रिक है यहाँ जब कि ’सहकार’ मे -रे- साकिन है और हर्फ़ उल आख़िर भी है मिसरा का--रवा है।
जब कि "या सहकार ’    -मफ़ऊलात् [ यानी मफ़ऊलान् ] 2221 है  जब् कि दोनो को 2221 से ही दिखाया गया है
इसीलिए मैं कहता हूँ कि ये 2212--2122 --2221--जैसे  गिर्दान से बेहतर है कि हम सब ’रुक्न ’ के नाम का प्रयोग करें बह्र लिखने में --कि पता चले कि हम  मुतहर्रिक [1] की बात कर रहे हैं कि ’साकिन’[1] की
उर्दू शायरी इस मामले में बड़ी particular है।
 क्लासिकल अरूज़ी में यह बह्र ’मुसद्दस शकल’ में ही मुस्तमिल है  मगर कम ही हैं
[2] बह्र-ए-सरीअ’ मुसद्दस मौकूफ़ /मकसूफ़
मुसतफ़ इलुन---मुसतफ़ इलुन----मफ़ऊलान\ मफ़ऊलुन
2  2  1   2   -----2 2 1   2  ------2 2 2 1    \ 2 2 2 
डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के ही हवाले से

 फ़ुरक़त में तेरी मैं तड़पता हूँ यार
अब आ भी जा आँखों में दम है मेरा 

 तक़्तीअ भी कर के देख लेते हैं
   2  2     1  2 / 2 2  1 2    / 2 2 2  1
फ़ुर क़त में ते /री मैं त ड़प / ता हूँ या र
   2    2   1  2   /  2  2  1  2  / 2 2 2
अब आ भी जा/  आँखों में दम/ है मेरा

[3] बह्र-ए-सरीअ’ मुसद्दस मतूवी मौकूफ़
मुफ़ त इलुन---मुफ़ त इलुन-- फ़ाइलान-\ -फ़ाइलुन
2  1   1  2-------2  1  1 2---2 1 2 1  \ 2 1 2

एक उदाहरण देखते हैं
नसीम लख़नवी साहब का एक शे’र है

आप के वादों को हमारा सलाम
देख चुके ख़ूब ,अजी जाओ भी

अब तक़्तीअ’ कर के देखते हैं

2  1   1  2  /  2  1 1  2   / 2 1 2 1
आप के वा / दों को हमा / रा सलाम
2  1  1 2   /   2 1  1 2   /  2 1 2
देख चुके    / ख़ूब ,अजी  /जाओ भी

-जाओ भी - को -जा व बी  [ फ़ा इ लुन  के वज़न पर लिया गया है। कारण ? आप बताए। जी  सही--बह्र की माँग है यहाँ।

इसी बह्र और इसी वज़्न पर शेफ़्ता देहलवी साहब का एक शे’र देखें

ग़ैर भी क्यों तुझ से निबाहेंगे , गर
बज़्म-ए-वफ़ा क़ाबिल-ए-ताज़ीर है

तक़्तीअ’ आप कर के देख लें

[4] बह्र-ए-सरीअ’ मतूवी मन्हूर\ मज्दूअ’ मौक़ूफ़
मुफ़ त इलुन----मुफ़ त इलुन---फ़े\फ़ाअ’
2112-----------2112--------2-\21
डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से

तू मुझे चाहे कि न चा ’हे
मैने तुझे प्यार किया है

तक़्तीअ भी देख लेते हैं-आसान है
2  1 1  2  / 2 1 1  2    / 2
तू मुझे चा /हे कि न चा  / हे
2 1  1 2  /  2 1 1  2   /2
मैने तुझे   / प्यार किया/  है

एक बात  मिसरा उला मे ’मुझे’ तो  1 1 के वज़न पर लिया
और मिसरा  सानी  मे ’तुझे’ को    1 2  के वज़न पर लिया है
क्यों? आप बताएँ। कारण वही---जो ऊपर बताया है।
चलिए मज्दूअ’ मौक़ूफ़ का भी एक शे’र देख लेते हैं

झूम उठेंगे दर-ओ-दीवार
आएगा महबूब मेरा  आज

तक़्तीअ’ आप कर के देख लें

इस क़िस्त में बह्र-ए-सरीअ’ का बयान ख़त्म हुआ । 1-2 बह्र और भी बनाई जा सकती है --मगर ज़रूरत नहीं है यहाँ

अगली क़िस्त में किसी और नई बह्र पर बातचीत करेंगे
अस्तु

{क्षमा याचना -वही जो पिछले क़िस्त में है}-इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

-आनन्द.पाठक-

रविवार, 2 दिसंबर 2018

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 53 [बह्र-ए-मुज्तस]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 53 [बह्र-ए-मुज्तस]

[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]

पिछली किस्त में -बह्र-ए-मुक़्तज़िब- पर चर्चा की थी। इस क़िस्त में ’बह्र-ए-मुज्तस’ की चर्चा करेंगे
 बह्र-ए- मुज्तस के बुनियादी अर्कान है
मुस तफ़अ’लुन  -- फ़ाइलातुन  [a---b ]
 2    2 1    2    ----2 122   yaani     2212----2122

स बह्र की मुसम्मन सालिम शकल होगी--
---मुस तफ़अ’लुन----फ़ाइलातुन----मुस तफ़अ’लुन---फ़ाइलातुन
यानी   2212---------2122---------2212-----------2122
            a--------------b-------------a--------------b
और मुसद्दस सालिम शकल होगी
मुस तफ़अ’लुन---फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन
2212-----------2122---------2122
a------------------b-------------b

वैसे उर्दू शायरी में --शायरों ने इस बह्र का मुसम्मन  ही ज़्यादा प्रयोग किया है और वो भी मुज़ाहिफ़ शकल में--मुसम्मन सालिम का कम ही प्रयोग किया है लगभग न के बराबर।
एक बात ध्यान देने की है इस बह्र में
1-रुक्न मुस तफ़अ’ लुन [2212] --सालिम रुक्न ’ मुसतफ़इलुन [2212] के ’मुन्फ़सिल’ शकल में  है यानी [ सबब+वतद मफ़रुक़+सबब]   यानी मुस+तफ़अ’+लुन के रूप में है जब कि ’मुस तफ़ इलुन’[2212]  [रजज़ का बुनियादी रुक्न] अपनी ’मुतस्सिल शकल में  [ यानी सबब+सबब+ वतद मज्मुआ] है अत: मुज्तस में अगर वतद पर कोई ज़िहाफ़ लगेगा तो वो ’वतद-ए-मफ़रूक़’ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात लगेंगे ,न कि वतद-ए-मज्मुआ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात। बहर-ए-मुज्तस में ज़िहाफ़ात का अमल करते वक़्त यह बात ध्यान में रखनी होगी ।
2- बह्र-ए-मुज्तस में ’वतद’ -दो सबब के बीच में फँसा हुआ है यानी [मुस  -- और --लुन के बीच में ]जब कि रजज़ में ’वतद’ एक किनारे [दो सबब के बाद] आता है। इसी लिए बह्र-ए-मुज्तस के दोनों सबब-ए-ख़फ़ीफ़ में ’मुआक़बा’ है । यानी दोनो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ को एक साथ ’साकित’ करना उचित नहीं । यही कारण है है कि इस बहर में ’मुस तफ़अ’लुन ’ पर मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ ’शकल ’[ ख़ब्न+कफ़] मुज़ाहिफ़ ’मश्कूल’ नहीं लगता जो दोनो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ को एक साथ ’साकित’ कर देगा।
   [ मुरक्क्बा---मुआक़बा--आदि- के बारे में गुज़िस्ता अक़्सात में विस्तार से चर्चा कर चुका हूँ]

इस बह्र में लगभग तमाम बड़े शायरों ने  जैसे मीर--ग़ालिब--सौदा--मोमिन--ज़ौक़ ने अपने कलाम कहें है मगर ज़्यादातर मुसम्मन मुज़ाहिफ़ की शकल में  ही कहें हैं  उर्दू शायरी में इस बह्र के मुसम्मन मुज़ाहिफ़ शकल ही ज़्यादातर प्रचलन में है अत: हम मुज्तस की  कुछ मक़्बूल और मानूस बह्र की ही  चर्चा करेंगे। मगर इस का मतलब यह क़त्तई नहीं है कि इसकी सालिम बह्र में कलाम नहीं कहे जा सकते । आप चाहें तो कह सकते है ,तबअ’ आजमाई कर सकते हैं । मैदान खुला है।
आगे बढ़ने से पहले इन के अर्कान पर लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ात की चर्चा कर लेते हैं } ध्यान रहे ’ज़िहाफ़ ख़ब्न’ दोनों ही अर्कान पर लगता है और बरामद मुज़ाहिफ़ को ’मख़्बून’ कहते हैं।
मुसतफ़अ’लुन [2212] + खब्न = मुज़ाहिफ़ मख़्बून  मुफ़ाइलुन [1212]

फ़ाइलातुन [2122} + ख़ब्न = मुज़ाहिफ़ मख़्बू्न  फ़इलातुन [1122]    [-इ- ऐन मुतहर्रिक है ]
फ़ाइलातुन [2122 ]+ ख़ब्न+ हज़्फ़ = मुज़ाहिफ़ मख़्बून महज़ूफ़ फ़इ’लुन [ 112] -तदैव-
फ़ाइलातुन[2122 ]  + ख़ब्न +क़स्र = मुज़ाहिफ़ मक़्बून मक़्सूर        फ़इलान  [ 1121 ] -तदैव-
फ़ाइलातुन [2122] + क़्लअ’+हज़्फ़ =मुज़ाहिफ़ मक़्लूअ’महज़ूफ़      फ़े   [2] 
मुसम्मन शकल
[1] मुज्तस मुसम्मन सालिम
---मुस तफ़अ ’लुन----फ़ाइलातुन----मुस तफ़अ’लुन---फ़ाइलातुन
यानी   2212---------2122---------2212-----------2122

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि उर्दू शायरों ने अपने कलाम में ज़्यादातर इसके  मुसम्मन मुज़ाहिफ़ शकल का ही प्रयोग किया -सालिम शकल का बहुत कम ही प्रयोग किया है । कारण मालूम नहीं । हो सकता है कि इस बह्र का सालिम मुसम्मन शकल ज़्यादा ’आहंगखेज़’ न हो । मगर इसका मतलब ये भी नहीं कि इसकी  मुसम्मन सालिम बह्र में शायरी नहीं की जा सकती । आप चाहें तो कर सकते हैं ।
 उदाहरण के तौर पर कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से

क्यों मैकदे में घुटन है साक़ी ये क्या हो रहा है
हर एक को दूसरे पर शक मुख़बरी का ये क्यों है 

अब इसकी तक़्तीअ’ भी कर के देख लेते हैं
  2    2  1 2  /. 2 1 2  2   /  2 2  1 2      / 2 1 2 2
क्यों मै कदे  /में घु टन है / साक़ी ये क्या ’/हो रहा है
  2  2  1 2    /  2 1 2 2  /  2  2    1 2  /  2 1  2  2
हर एक को / दूसरे पर /शक मुख़ बरी /का ये क्यों है


मुज्तस मुसम्मन की कुछ मुज़ाहिफ़ शकलें----
[2] मुज्तस मुसम्मन मख़्बून
मफ़ाइलुन ----फ़ इलातुन  --- मफ़ाइलुन---फ़ इलातुन  [ यहाँ -इ- यानी  ’ऐन’ मुतहर्रिक है ]
1212----------1122---    1212------1122 
आप जानते है [जैसा कि ऊपर लिख भी जा चुका है] कि ’मुस तफ़अ ’लुन [2212] का मख़बून मुज़ाहिफ़ ’ मफ़ाइलुन [1212] होता है जब कि फ़ाइलातुन [2122] का मख़्बून मुज़ाहिफ़ फ़इलातुन [1122] होता है अत: अर्कान की तरतीब ऊपर लिख दी गई
एक उदाहरण भी देख लेते हैं
ग़ालिब की ग़ज़ल का एक शे’र है

अजब निशात से ,जल्लाद के,चलें हैं हम आगे
कि अपने साये से सर पाँव से से हैं दो क़दम आगे

क़सम जनाज़े पे आने की खाते हैं ’ग़ालिब’
हमेशा खाते थे जो मेरी जान की क़सम आगे

1  2   1   2  / 1  1  2   2    / 1 2 1 2  / 1 1 2  2
अजब निशा /त से ,जल ला /द के,चलें / हैं ह म आ गे
1     2  1   2 / 1 1  2  2   /  1 2 1  2 / 1 1  2   2
कि अपने सा /ये से सर पाँ / व से हैं दो /क़ द म आगे

तक़्तीअ में आप ध्यान देंगे शे’र में---से-हैं---ये   तो  आदि  ख़ैर 1 [ मुतहर्रिक ] के वज़न पर ले लिया जो है भी और बह्र की माँग भी है यहाँ --लेकिन ’हम आगे’ को 122 के वज़न पर क्यों लिया?
कारण साफ़ है --जब शे’र की तल्फ़्फ़ुज़ अदायगी करेंगे तो उसे ’हमागे’ ही पढ़ेंगे [ आगे का जो अलिफ़ है  वस्ल हो गया म[मीम] के साथ और ’हमागे’ की आवाज़ सुनाई देगी। और तक़्तीअ’ हमेशा तलफ़्फ़ुज़ के अनुसार ही चलती है --न कि मक्तूबी [जैसा लिखा हुआ हो] के अनुसार

दूसरे शे’र की तक़्तीअ आप कर लें
[2-क] मुज्तस मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन
मफ़ाइलुन ----फ़ इलातुन  --- मफ़ाइलुन---मफ़ऊलुन
1212----------1122---    1212------222   
ऊपर के बह्र का आखिरी रुक्न है ’फ़ इलातुन [1122] में [फ़े -ऐन--लाम  ,तीन मुतहर्रिक एक साथ आ गए जो तस्कीन-ए-औसत के अमल से ’मफ़ऊलुन’ 2 2 2 हो जाएगा
एक उदाहरण देखते है
अहमद नदीम क़ासमी का एक शे’र है

अब इस से बढ़ के भी मेराज़ नारसाई क्या हो
मुझे गले से लगायें ,मगर समझ में न आयें

इसकी तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
1     2      1  2    / 1  1  2  2 / 1 2 1 2  / 2 2 2
अ (बिस) से बढ़/ के भी  मेरा / ज़ नारसा /ई क्या हो
1  2   1 2  / 1 1 2 2  /1  2  1  2     /  2  2   2
मुझे गले / से ल गायें ,/ म गर स मझ /  में (न आ)यें

’अब इस’  को’ ’अबिस’ [12] -ब-का -इ- से वस्ल हो कर ’अबिस’  की आवाज़ दे रहा है
-मे न आयें   --मे   -न-और आ क वस्ल हो गया और ना की आवाज़ दे रहा है और इसी लिए 2 के वज़न पर लिया गया है
[3] मुज्तस मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़
 मफ़ाइलुन----फ़इलातुन----मफ़ाइलुन---फ़इलुन
1212---------1122---------1212-----112
’मीर’ की एक ग़ज़ल के चन्द अश’आर  हैं

हमारे आगे तेरा जब किसू ने नाम लिया
दिल-ए-सितमजदा को हमने थाम थाम लिया

ख़राब रहते थे मसजिद के आगे मयख़ाने
निगाह-ए-मस्त ने साक़ी की इन्तकाम लिया

पहले शे’र की तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
 1  2 1 2  / 1 1  2  2    / 1 2  1 2   / 1 12
हमारे आ / गे तिरा जब / किसू ने ना /म लिया
1   2  1  2    / 1 1   2    2   / 1 2 1 2   / 1 1 2
दि ले सितम / ज द: को हम / ने थाम था/ म लिया

[ दिल-ए-सितम  को दि ले सि तम  [1 2 1 2 ] के वज़न पर लिया तलफ़्फ़ुज़ के हिसाब से]
दूसरे शे’र की तक़्तीअ’ आप कर के देख लें

किसू---कभू  जैसे अल्फ़ाज़ ’मीर’ की ख़ास पहचान है]

[3-क] मुज्तस मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़ मुस्सकिन
 मफ़ाइलुन----फ़इलातुन----मफ़ाइलुन---फ़ेलुन
1212---------1122---------1212-----22
अगर आप बह्र [2] देखें तो आखिरी रुक्न [अरूज़ या ज़र्ब के मुक़ाम पर] ’फ़ इ लुन ’ [112] है -यानी [फ़े--ऐन--लाम--नून] यानी 3-मुतहर्रिक एक साथ आ गये तो तस्कीन-ए-औसत की अमल से -ऐन- को साकिन कर सकते है यानी सबब--सबब [2 2] में तोड़ सकते है और जो वज़न इस अमल से बरामद होगी उसे ’मुसक्किन’ कहेंगे। ध्यान रहे तस्कीन-ए-औसत का अमल सालिम रुक्न पर कभी नहीं होता --बस ’मुज़ाहिफ़ रुक्न’ पर ही होता है। लगे हाथ ये भी बताता चलूँ  ज़िहाफ़ हमेशा सालिम रुक्न पर ही लगते है --और मुरक़्क़्ब ज़िहाफ़ [दो ज़िहाफ़] एक साथ -एक वक़्त में ही लगते हैं सालिम रुक्न पर -One after other नहीं

ग़ालिब की एक बहुत ही मशहूर ग़ज़ल है , जिसे जगजीत सिंह ने फ़िल्म ’मिर्ज़ा ग़ालिब ’ में बड़े दिलकश अन्दाज में गाया है --आप ने भी सुना होगा

हर एक बात पे कहते हो तुम कि ’तू क्या है’
तुम्ही कहो कि ये अन्दाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

रगों में दौड़ने फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है 

 पहले शे’र की तक़्तीअ कर के देखते हैं
1 2  1 2  /  1 1  2  2   /  1  2   1   2   / 2  2
ह रेक बा /त पे कह ते  / हो तुम कि ’तू / क्या है’
1   2 1  2  / 1  1  2   2    /1     2   1   2  / 2  2
तुमी कहो / कि ये अन दा /ज़-ए-गुफ़ त गू /क्या है

’हर एक ’ को ’हरेक ’ [121] के वज़न पर लिया मल्फ़ूज़ी के हिसाब से
अन्दाज़-ए-गुफ़्तगू मे जो -ए- [  इज़ाफ़त-ए-क़सरा  कहते है] आप की मरजी पर है वज़न के माँग के अनुसार आप ले या न लें--चूँकि यहा ज़रूरत नहीं थी सो नही लिया
दूसरे शे’र की तक़्तीअ  ऐसे ही आप ख़ुद कर सकते हैं
इसी बह्र में एक ’जिगर मुरादाबादी’ का भी एक शे’र सुन लें

अभी न रोक निगाहों को पीर-ए-मैख़ाना
कि ज़िन्दगी है अभी ज़िन्दगी से बेगाना

इसी बह्र में फ़िराक़ गोरखपुरी साहब के 1-2 शे’र समाअ’ फ़र्माएं

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्न-ओ-इश्क़ तो धोका है सब,मगर फिर भी 

हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है
नई नई से है तेरी रहगुज़र फिर  भी

अगर आप को नागवार न गुज़रे तो 1-2 शे’र इस हक़ीर के भी बर्दास्त कर लें -इसी ज़मीन पर

तलाश जिसकी थी वो तो नहीं मिला फिर भी
उसी की याद में ये दिल है मुब्तिला फिर भी

हज़ार तौर तरीक़ों से  आज़माता है 
क़रीब आ के वो रखता  है फ़ासिला फिर भी

तक़्तीअ कर के आप देख लें कहीं मैं ग़लत तो नहीं कह रहा हूँ

[4] मुज्तस मुसम्मन मख़्बून मक़्सूर
 मफ़ाइलुन----फ़इलातुन----मफ़ाइलुन---फ़इलान
1212---------1122---------1212-----1121
डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से

झुलसते तपते हुए ज़िन्दगी के सहरा में
तुम्हारी याद की ठन्डी हवाओं है मेरे साथ

 मिसरा सानी की तक़्तीअ कर के देख लेते है --कारण कि मिसरा उला का आखिरी रुक्न ’फ़ेलुन ’[22] तो है ही
1  2 1  2   / 1 1   2   2   / 1 2 1  2  / 1 1 2 1
तुमारि या / द की ठन डी / हवाओं है/  मिरे साथ  [ यानी मीम मय ज़ेर..रे  मय ज़ेर-यानी हरकत--हरकत यानी 1 1 यानी फ़-इ

[4-क] मुज्तस मुसम्मन मख़्बून मक़्सूर मुसक्किन
 मफ़ाइलुन----फ़इलातुन----मफ़ाइलुन---फ़ेलान
1212---------1122---------1212-----221
फ़ानी बदायूनी का एक शे’र है--

न इब्तिदा की ख़बर है न इन्तिहा मालूम
रहा ये वहम कि हम हैं ,सो वो भी क्या मालूम

इसकी तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
1   2   1 2     / 1 1   2  2 /  1 2 1     2   / 221
न इब् ति दा / की ख़ बर है/  न इन् ति हा /मालूम
1  2  1 2   / 1 1    2  2   / 1  2  1   2    / 2 2 1
रहा ये वह/ म कि हम हैं ,/ सो वो भी क्या/ मालूम

एक बात और-
बह्र [1] से बह्र [4] तक में  अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर जो रुक्न - फ़इलुन [112]---फ़ेलुन[22]--- फ़इलान[1121 ]---फ़ेलान [221] आया है यह सब आपस में ’मुतबादिल’ है यानी इनका आपस में ख़ल्त जायज़ है यानी अरूज़ और ज़र्ब में एक दूसरे के मुक़ाम पर लाए जा सकते हैं
 
[5] मुज्तस मुसद्दस मख़्बून

मफ़ाइलुन----फ़इलातुन--फ़इलातुन  [ यहाँ -इ- ऐन मुतहर्रिक है]
1212-------1122--------1122
डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से एक उदाहरण इस का भी देख लेते है

तेरी निगाह ने दिल को मेरे लूटा
किया असीर मुझे ज़ुल्फ़ ने तेरी

यूँ इसकी तक़्तीअ’ तो आसान है -आप भी कर सकते है --चलिए जो हुकुम --कर के देख लेते हैं
1 2  1 2    / 1 1  2   2  / 1 1   2 2
तिरी निगा /ह ने दिल को / मिरे लूटा
1  2    1 2  / 1 1 2  2    / 1 1 2 2
किया असी/ र मु झे ज़ुल् /फ़ ने तेरी

यूँ तो मुज्तस की और भी बह्र भी होती है और हो सकती है जैसे--
उदाहरण आप पेश करे तो बेहतर
[1] मुज्तस मुरब्ब: मख्बून
मुफ़ाइलुन---फ़इलातुन 
1 2  1 2 ----11 2 2 
[2] मुज्तस मुसम्मन मख़्बून  मक़्लूअ’ महज़ूफ़     
मफ़ाइलुन---फ़अ’लातुन---मफ़ाइलुन----फ़े
1212---------1122-------1212-------2

[3] मुज्तस मुसद्दस मक्फ़ूफ़ मक़्बून महज़ूफ़
मुस तफ़ इलु---फ़ा इलातु--फ़ इलुन
2 2 11-------2121-----112

 बह्र-ए-मुज्तस का बयान ख़त्म हुआ
अगले किस्त में किसीऔर बह्र पर चर्चा करूँगा

[अस्तु
{क्षमा याचना -वही जो पिछले क़िस्त में है}-इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

-आनन्द.पाठक-

रविवार, 25 नवंबर 2018

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 52 [ बह्र-ए-मुक़्तज़िब]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 52 [ बह्र-ए-मुक़्तज़िब] 

[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]

पिछली क़िस्त 50 और 51 में बह्र-ए-मुज़ारे’ की चर्चा कर चुका हूँ आज बह्र-ए-मुक़्तज़िब की चर्चा करेंगे
बह्र-ए-मुक़्तज़िब के बुनियादी अर्कान हैं
मफ़ऊलातु--+-- मुस तफ़ इलुन
2221----------2212
   a----b
अगर आप को याद हो तो
"बह्र-ए-मुन्सरिह" का बुनियादी रुक्न था --मुस तफ़ इलुन [2212] +मफ़ऊलातु [2221]   यानी  b--a

तो फिर यह बह्र-ए-मुक़्तज़िब? यह बरअक्स है बह्र-ए-मुन्सरिह का यानी Mirror Image अर्कान के मामले में।
बहर-ए-मुन्सरिह के बुनियादी अरकान ’मुसम्मन ’ शकल में इस्तेमाल नहीं हो सकते थे --कारण कि वहाँ "मफ़ऊलातु"[2221]  था और इसका हर्फ़ उल आख़िर -तु- मुतहर्रिक था
मगर बहर-ए-मुक़्तज़िब के अर्कान का मुसम्मन शकल a---b---a---b  होता है और  अरूज़ और ज़र्ब के मुकाम पर ’मुसतफ़ इलुन [2212] लाया जा सकता है [सालिम शकल में ] क्यों कि यहाँ  हर्फ़ उल आख़िर -नून- साकिन है।
 यह बात तो आप जानते ही होंगे
इस बह्र में इन अर्कान पर लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ात की चर्चा कर लेते है जिससे आगे आहंग समझने में सुविधा होगी
मफ़ऊलातु[ 2221] पर लगने वाले ज़िहाफ़:-

मफ़ऊलातु[2221] + ज़िहाफ़ तय्यी   =मुज़ाहिफ़   फ़ाइलातु  [2121]
’तय्यी’ -ज़िहाफ़ ऐसा ज़िहाफ़ है जो दोनो ही सालिम अर्कान [ मफ़ऊलातु- , मुस तफ़ इलुन] दोनों पर लगते है और अलग अलग ’मुज़ाहिफ़’ शकल बरामद होती है

मुसतफ़इलुन [2212] पर लगने वाले ज़िहाफ़ :-
मुसतफ़इलुन [2212] + ज़िहाफ़ तय्यी = मुज़ाहिफ़ मुतवी  = मुफ़ त इलुन [2112]
मुसतफ़इलुन [2212] + ज़िहाफ़ क़तअ’= मुज़ाहिफ़ मक़्तूअ’= मफ़ऊलुन [2 2 2]
मुसतफ़इलुन [2212 ] + ज़िहाफ़  रफ़अ’= मुज़ाहिफ़ मरफ़ूअ’ = फ़ाइलुन [2 1 2 ]
मुसतफ़इलुन [2212] + ज़िहाफ़ तरफ़ैल = मुज़ाहिफ़ मुरफ़्फ़ल = मुस तफ़ इलातुन [ 22122]
मुसतफ़इलुन [2212] + ज़िहाफ़ ख़ब्न+इज़ाल= मुज़ाहिफ़ मख़्बून मज़ाल = मफ़ा इलान [ 12121]

इस बह्र के मुसम्मन शकल ही ज़्यादातर प्रयोग हुआ है
चलिए अब इस बह्र के कुछ दिलकश आहंग की चर्चा कर लेते हैं
मुसम्मन आहंग:--
[क] मुक़्तज़िब मुसम्मन सालिम

मफ़ऊलातु---मुस तफ़ इलुन---मफ़ऊलातु---मुसतफ़इलुन
2221----------2212----------2221---------2212
कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब के हवाले से -एक शे’र

गुलअन्दाम, गुल चेहरा,गुल पैराहन अभी आएगा
तो मौज-ए-बहारी पसेमाँ  होगी  उसे देखकर

तक़्तीअ’आसान है --आप भी कर सकते है । चलिए एक बार कर के देखते हैं
   2     2    2 1     /   2   2    1  2    /  2  2 2  1     /   2   2  1 2
गुल अन् दाम      / गुल चेहरा, गुल /  पै रा हन अ    /  भी आएगा
   2   2  2    1  / 2  2 1 2        / 2  2  2  1     / 2  2  1  2
तो मौज-ए-ब / हारी पसे         /माँ  होगी  उ   /से दे ख कर

[ख] मुक़्तज़िब  मुसम्मन सालिम मतुवी 
मफ़ऊलातु---मुफ़तइलुन---मफ़ऊलातु---मुफ़तइलुन
2221----------2112-------2221---------2112
ज़ाहिर है कि पहला रुक्न ’मफ़ऊलातु’ 2221 अपनी सालिम शकल में होगा और दूसरा रुक्न  ’मुस तफ़ इलुन ’[2 2 1 2 ] का मतूवी शकल [ मुफ़ त इ लुन 2112] शकल में होगी
उदाहरण के तौर पर आप खुद्साख़्ता शे’र कह सकते है और तक़्तीअ’ कर के जाँच भी सकते हैं

[ग] मुक़्तज़िब मुसम्मन  मतूवी 
फ़ाइलातु---मुफ़ त इलुन-//--फ़ाइलातु---मुफ़ त इलुन
2121-------2112----- //   2121-------2112
किसी का एक शे’र है
यार-ए-बेवफ़ा से हमें कब उमीद-ए-वस्ल हुई
शोख़ दिलरुबा से हमे कब उमीद-ए-वस्ल हुई

इसकी तक़्तीअ आसान है-आप भी कर सकते हैं
चलिए एक बार कर के देखते हैं
 2  1    2  1 / 2  1 1 2 /  2   1 2 1  /       2  1  1 2
यार-ए-बेव/ फ़ा से हमें / कब उमीद / -ए-वस् ल  हुई
2  1    2   1   / 2  1  1 2 / 2  1 2 1 /      2    2  1 2
शोख़ दिलरु / बा से हमें /कब उमीद/-ए-वस्  ल  हुई
आप कहेंगे ’उमीद-ए-वस्ल ’ मे -ए- का वज़न कहाँ गया ? कहीं नहीं गया । यह कस्र-ए-इज़ाफ़त है- ए- पर-"पोयेटिक लाइसेन्स" ्है .बहर की माँग होती तो लेते चूँकि यहाँ ज़रूरत नहीं थी-सो नहीं लिया। यही बात  ’अत्फ़’ [-ओ-] के केस में भी होता है
यह वज़न बह्र-ए-शिकस्ता है
[घ] मुक़्तज़िब मुसम्मन मतवी मक़्तूअ’
फ़ाइलातु----मुफ़ त इलुन ---फ़ाइलातु---मफ़ऊलुन
2121-------2112-----------2121----222
बतौर मिसाल ,डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब का एक शे’र है

तेरी याद आए तो दिल ज़ार ज़ार रोता है
मेरे यार तू ही बता ज़िन्दगी कटे क्यों कर

एक बार इस की तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं

2  1  2  1 /  2 1 1 2      / 2 1 2 1 / 222
तेरी याद / आए तो दिल / ज़ार ज़ार /रोता है
2 1  2  1 / 2 1 1 2   / 2 1  2  1   / 2  2  2
मेरे यार  /तू ही ब ता  /ज़िन्दगी क  /टे क्यों कर
यहाँ ध्यान देने की बात है  मिसरा उला में --री---ए- तो-  को 1 के वज़न पर लिया गया है कारण कि बह्र मे इनके  मुक़ाम मुतहर्रिक के है और ये मुतहर्रिक हैं  भी
उसी प्रकार मिसरा सानी में -रे-तू-- का वही हस्र है

एक बात और--अगर आप ऊपर  ध्यान से देखें तो ’मुफ़ त इलुन ’ में 3- मुतहर्रिक [ हर्फ़ मय हरकत  --ते--ऐन---लाम---] एक साथ आ गये और यह मुज़ाहिफ़ रुक्न भी है अत:  इस पर ’तस्कीन’ का अमल हो सकता है । और तस्कीन -ए-औसत के अमल से यह शकल
"मफ़ ऊ लुन " [2 2 2] हो जायेगा और एक नई बह्र बरामद हो सकती है । जो नीचे लिखा है
[च ] मुक़्तज़िब मुसम्मन मतवी, मुतवी मुसक्किन, मुतवी ,मुतवी मुसक्किन
फ़ाइलातु-----मफ़ऊलुन-----फ़ाइलातु------मफ़ऊलुन
2121--------222-------//-----2121------222
ग़ालिब का एक शे’र है

मय वो क्यों बहुत पीते ,बज़्म-ए-ग़ैर में यारब 
आज ही हुआ मंज़ूर उनको इम्तिहाँ अपना 

तक़्तीअ कर के भी देख लेते हैं
2     1    2   1 /  2   2  2 / /  2   1      2 1  / 2  2 2
मय वो क्यों ब / हुत पी ते // ,बज़् म -ए-ग़ै र /में या रब
2   1  2  1 /  2  2    2   / /  2    1  2  1  /  2  2  2
आज ही हु/ आ मन ज़ूर //उन को इम् ति /हा अप ना

आप कहेंगे ’बज़्म-ए-ग़ैर ’ मे -ए- का वज़न कहाँ गया ? कहीं नहीं गया । यह कस्र-ए-इज़ाफ़त है- ए- पर-"पोयेटिक लाइसेन्स" ्है .बहर की माँग होती तो लेते चूँकि यहाँ ज़रूरत नहीं थी-सो नहीं लिया। यही बात  ’अत्फ़’ [-ओ-] के केस में भी होता है
यह बह्र भी   बह्र-ए-शिकस्ता है
[छ] मुक़्तज़िब मुसम्मन मतवी मरफ़ूअ’
फ़ाइलातु---फ़ाइलुन--//--फ़ाइलातु---- फ़ाइलुन 
2121-------212--//----2121--------212
डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से

हक़ से हूँ मैं बेख़बर ,मुझको रास्ता दिखा
मुझको हर गुनाह से,.ऐ मेरे ख़ुदा  बचा

तक़्तीअ’ तो बहुत आसान है आप ख़ुद कर सकते हैं। चलिए एक मिसरा की तक़्तीअ’ आप की सुविधा के लिए कर दे रहा हूँ -दूसरे मिसरे की आप ख़ुद कर के देख सकते है

हक़ से हूँ  मैं / बे ख़ बर //,मुझ कू रास् /ता दिखा
 2    1  2   1 / 2 1 2   //  2    1   2 1 / 2 1 2
यह बह्र भी बह्र--ए-शिकस्ता है

[ज] मुक़्तज़िब मुसम्मन मख़्बून मरफ़ूअ’ मख़्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन

फ़ऊलु---फ़ेलुन-----फ़ऊलु---फ़ेलुन
121------22--------121------22-
डा0 साहब के हवाले से

जला रहे हैं जो मेरे घर को
वो मेरे भाई हैं जानता हूँ मैं

तक़्तीअ’ आप करें मैं इशारा कर दे रहा हूँ

जला र /हे हैं / जो मेरे /घर को
वो मेरे/  भाई / हैं जान  /ता हूँ
इस बह्र की "मुसद्दस मुज़ाइफ़" [12-रुक्नी]  और ’मुसम्मन मुज़ाइफ़’ [16-रुक्नी] आहंग भी मुमकिन है जो नीचे लिख दिया है

{झ] मुक़्तज़िब मुसद्दस मख़्बून मरफ़ूअ’ ,मख़्बून मरफ़ूअ’,मुसक्किन मुज़ाइफ़ [12-रुक्नी]
 फ़ऊलु----फ़ेलुन--/फ़ऊलु--फ़ेलुन  / फ़ऊलु--फ़ेलुन
121---------22--/  121-----22  /   121------22
और
[त] मुक़्तज़िब मुसम्मन  मख़्बून मरफ़ूअ’ ,मख़्बून मरफ़ूअ’,मुसक्किन मुज़ाइफ़ [16-रुक्नी]
फ़ऊलु----फ़ेलुन--/फ़ऊलु--फ़ेलुन  / फ़ऊलु--फ़ेलुन/ फ़ऊलु---फ़ेलुन
121---------22--/  121-----22  /   121------22 / 121-------22

बहर-ए-मुक़्तज़िब के और भी औज़ान मुमकिन है सभी की तफ़सील यहाँ मुमकिन नहीं है और न ही ज़रूरत है
इस बह्र के मज़ीद [अतिरिक्त] कुछ  ख़ास वज़न आप की जानकारी के लिए लिख रहा हूँ आप चाहें तो आप इस वज़न में शायरी कर सकते है
कुछ और आहंग से भी आप वाक़िफ़ हो लें
मुसद्दस आहंग :-
बह्र-ए-मुक़्तज़िब मुसद्दस सालिम
मफ़ऊलातु---मसतफ़इलुन----मुसतफ़इलुन
[A] 2221---2212-----2212
्ज़ाहिर है कि ’मफ़ऊलातु’ अरूज़ या ज़र्ब के मुक़ाम पर नहीं लाया जा सकता -कारण कि -तु- हर्फ़ उल आख़िर मुतहर्रिक है और शे’र या मिसरा के अन्त में मुतहर्रिक हर्फ़ नहीं लाया जा सकता । अत: उस मुक़ाम पर ’मुसतफ़इलुन’ लाया गया है जिसमें आख़िरी हर्फ़ ’नून; साकिन है अत: सही भी है।
बह्र-ए-मुक़्तज़िब मुसद्दस सालिम मुस्बीग़ अल आख़िर
[B] 2221----2212--22121
यह आप जानते हैं कि मिसरा के अन्त में सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ जैसे ऊपर के रुक्न में -लुन- है] तो एक हर्फ़-ए-साकिन बढ़ाने से आहंग और वज़न में कोई फ़र्क नहीं पड़ता । इसे ’मुस्बीग़’ कहते है
[नोट -एक बात और---’अल’ [ अलिफ़-लाम] Arbic Article जो Arbic लफ़्ज़ के साथ ही प्रयोग होता है जब कि ’-ए- और -ओ- फ़ारसी के इज़ाफ़त हैं जो फ़ारसी लफ़्ज़ के साथ ही प्रयोग होता है। चूँकि उर्दू में ’अरबी--फ़ारसी--तुर्की --हिन्दी
आदि के भी शब्द समाहित हो गये हैं अत: आजकल फ़ारसी के इज़ाफ़त किसी भी लफ़्ज़ के साथ लगा देते हैं
बह्र-ए-मुक़्तज़िब मुसद्दस मतूवी मतूवी
फ़ाइलातु----मुफ़ त इलुन--मुफ़ त इलुन
[C] 2121---2112---2112

यह आप जानते हैं कि मिसरा के अन्त में सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ जैसे ऊपर के रुक्न में -लुन- है] तो एक हर्फ़-ए-साकिन बढ़ाने से आहंग और वज़न में कोई फ़र्क नहीं पड़ता । इसे ’मुस्बीग़’ कहते है। मुफ़ त इलुन का मुस्बीग़
 ’ मुफ़ त इलान [ 21121] है
       फ़ाइ लातु--------मुफ़ त इलुन----मुफ़ त इलान 
[D] 2121-----------2112------------21121

[E] मुक़्तज़िब मुसद्दस मतूवी मतूवी मुरफ़्फ़ल
फ़ाइलातु---मुफ़ त इलुन---मुफ़ त इलातुन
2121---------2112---------21122
[F]   मुक़्तज़िब मुसद्दस सालिम मरफ़ूअ’ मख्बून 
मफ़ऊलातु-----फ़ाइलुन---मफ़ाइलुन
2221----------212--------1212

[G] मुक़्तज़िब मुसद्दस सालिम मरफ़ूअ’ मख्बून मज़ाल 
मफ़ऊलातु-----फ़ाइलुन---मफ़ाइलान
2221----------212--------12121
[H] मुक़्तज़िब मुसद्दस मख्बून मतूवी मतूवी मुरफ़्फ़ल
मफ़ाईलु-----मुफ़ त इलुन---मुफ़ त इलातुन
1221--------2112-------------2 1 2 2

मुरब्ब: आहंग:-
[I]   मुक़्तजब मुरब्ब: सालिम मतूवी
मफ़ऊलातु---मुफ़ त इलुन
2 2  2 1------2112
[J]  मुक़्तज़िब  मुरब्ब: सालिम मुरफ़्फ़ल
मफ़ऊलातु---मुसतफ़ इलातुन
2221--------22122
इस बह्र का "मुरब्ब: मुज़ाइफ़" भी मुमकिन है जैसे
मफ़ऊलातु---मुसतफ़ इलातुन //मफ़ऊलातु---मुसतफ़ इलातुन
2221--------22122     //   2221--------22122

[K] मुक़्तज़िब मुरब: मतूवी सालिम मुरफ़्फ़ल
  फ़ाइलातु----मुसतफ़ इलातुन
 2121----------22122
शायरी करने के लिए बह्र की कमी नहीं है } आप कोई भी शे’र या ग़ज़ल कहें -बस बह्र और वज़न दुरुस्त होना चाहिए --जिसकी जाँच आप तक़्तीअ’ कर के देख सकते हैं
एक बात और ---शायरी के किए सिर्फ़ ’बह्र’ दुरुस्त हो काफी नहीं --क़ाफ़िया--रदीफ़-- अरूज़ी वक़्फ़ा-- भी दुरुस्त होना चाहिए और बेशक तग़ज़्ज़ुल और शे’रियत भी तो होनी चाहिए
मैं यह दावा तो नहीं करता कि मैने बह्र-ए- मुक़्तज़िब के सभी औज़ान या आहंग पर चर्चा कर लिया। हाँ कुछ हद तक और मक़्बूल पर ही चर्चा की है ।आहंग और भी मुमकिन है
अगली क़िस्त में किसी और आहंग पर चर्चा करेंगे।
अस्तु
{क्षमा याचना -वही जो पिछले क़िस्त में है}-इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

-आनन्द.पाठक-


शनिवार, 3 नवंबर 2018

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 51 [बह्र-ए-मुज़ारे’: भाग-2 और अन्तिम]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 51 [बह्र-ए-मुज़ारे’:  भाग-2  और अन्तिम]

[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]

पिछली क़िस्त 50 में   ’बह्र-ए-मुज़ारे’ के बारे में कुछ चर्चा की थी । इस क़िस्त में मुज़ारे’ की कुछ मक़्बूल बह्रों  की चर्चा करेंगे।
यह बह्र इतनी मक़्बूल और दिलकश है कि ’मीर’ ने इस का कसरत से [प्रचुरता से]  प्रयोग किया है
अब बह्र-ए-मुज़ारे’ के  कुछ प्रचलित और लोकप्रिय आहंग ---

[क] मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ सालिम अल आखिर
मफ़ऊलु---फ़ाअ’लातु---मफ़ाईलु---फ़ाअ’लातुन           [ यहां -अ’- को आप समझ लें कि ’मुतहर्रिक है और -1- से दर्शाया गया है]
221--------2121-------1221----2122
डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से

मैं वक़्त के ग़ुबार में खो जाउँगा किसी दिन
ज़िन्दा रहोगे तुम तो मेरी शायरी में लेकिन

यहाँ तक़्तीअ’ करने की ज़रूरत तो नहीं है ,आप अब खुद भी कर सकते हैं ।  आप कहें तो कर देता हूं
2  2    1  / 2 1  2  1  / 1 2   2 1 /  2  1 2  1
मैं वक़् त / के ग़ु बार / में खो जाउँ/ गा किसी दिन
2     2   1 /  2 1   2   1  / 1  2  2 1  / 2 1 2 2
ज़िन् दा र/ हो गे तुम  तो /मि री शाय /री में ले किन

अब यह मत पूछियेगा कि यहाँ -में--ऊँ---तो--आदि को -1- के वज़न पर क्यों लिया
कारण साफ़ है---एक तो बह्र में वज़न की माँग है । दूसरा यह  कि ये सब अर्कान के  मुतहर्रिक [1] के मुकाम पर आ भी रहे है  और यह सब मुतहर्रिक हैं भी जो अरूज़ के ऐन मुताबिक भी है

[ख] मज़ारि’अ मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़--मकफ़ूफ़ मुख़्न्निक़ सालिम अल आखिर \मुस्बीग़
मफ़ऊलु---फ़ा’अलातुन-//--मफ़ऊलु---फ़ा’अलातुन\ फ़ा’अल्लियान
221--------2122------//--221-----2122
यह बह्र --बह्र-ए-शिकस्ता है यानी दूसरे रुक्न के बाद ’अरूज़ी वक़्फ़ा’ है यानी लाजिमी है
ग़ालिब की ग़ज़ल  का एक शे’र है

उस शमअ’ की तरह से ,जिसको कोई बुझा दे
मैं भी जले हुओं में  , हूँ   दाग़-ए-ना तमामी 

इसकी तक़्तीअ’ भी कर के देख लेते हैं
2     2     1   / 2  1  2 2  //  2      2   1  / 2 1 2 2
उस शम अ’ /की त रा से // ,जिस को कु / ई बुझा दे
2    2  1  /  2 1 2  1  //  2   2   1 /  2  1 2 2
मैं भी ज / ले हुओं में  // , हूँ   दाग़-/ ना तमामी
 मैने पहले भी कहा है कि ये बह्र इतनी मक़्बूल और दिलकश बह्र है कि अमूमन हर शायर ने इसमे शायरी की है
कुछ चन्द अश’आर दीगर शायरों के आप की ज़ेर-ए-नज़र पेश कर रहा हूँ --आप भी लुत्फ़ अन्दोज़ होइए । अगर फ़ुर्सत मिले तो लगे हाथ तक़्तीअ भी कर लें -तो आप मुतमय्यिन हो सकते हैं

देखा करूँ तुझी को ,मंज़ूर है तो ये है
आँखें न खोलूँ तुझ बिन .मक़दूर है तो ये है      --मीर तक़ी ’मीर’

रहने की कोई जागह ,शायद न थी उन्होंके
जो याँ से उठ गए हैं फिर वो कभू न आए  मीर तक़ी ’मीर’ 
[ नोट-- जागह---उन्होंके----कभू--- ये सब मीर के ज़माने की भाषा है]

हाँ किसको है मयस्सर ,यह काम कर गुज़रना
एक बांकपन से जीना . इक बांकपन से मरना जिगर मुरादाबादी

उस से भी शोख़तर हैं उस शोख़ की अदाएँ
कर जाएँ काम अपना ,लेकिन नज़र न आएँ जिगर मुरादाबादी

अगर आप को नागवार न गुज़रे --तो 1-2 अश’आर इस हक़ीर का भी बर्दाश्त कर लें

पर्दा तो तेरे रुख़ पर ,देखा सभी ने लेकिन
देखा तुझे नुमायां ख़ुर्शीद  में ,क़मर  में

आए गए हज़ारों .इस रास्ते पे  ’आनन’
तुम ही नहीं हो तनहा, इस इश्क़ के सफ़र में

ऐसे बहुत से अशाआ’र/ग़ज़ल दीगर शोअ’रा के मिल जायेंगे
एक बात और
आख़िर के रुक्न 2122 [फ़ा’अलातुन] की जगह ’फ़ा’अलय्यान’ [ 21221]  भी लाया जा सकता है }

[ग] मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़\मक़्सूर
मफ़ऊलु---फ़ा’अलातु--मफ़ाईलु--फ़ा’इलुन\फ़ा’इलान
221--------2121-----1221------212   \2121
ग़ालिब का एक मशहूर शे’र है

अर्ज़-ए-नियाज़-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा

अब तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
  2   2  1  /  2  1  2   1  / 1 2    2    1  / 2  1 2 
अर् जे-नि /याज़-इश् क़/  के क़ा बिल न /हीं रहा
2       2    1  / 2 1  2  1/  1  2  2   1    / 2 1 2
जिस दिल पे /नाज़ था मु /झे वो दिल न   /हीं रहा
यह महज़ूफ़ की मिसाल है
अच्छा एक बात ---अगर मिसरा सानी में -’ जिस दिल पर नाज़ था मुझे---’ होता तो क्या होता?
मानी में तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता -पर शे’र में इब्तिदा’ के मुक़ाम पर जो रुक्न आयद है -मफ़ऊलु- [जिस दिल पर] वज़न से ख़ारिज़ हो जाता क्योंकि -पर - सबब-ए-ख़फ़ीफ़ है और -2-का वज़न देता जब कि -पे- 1 का वज़न दे रहा है और मुतहर्रिक भी है -लु- के मुक़ाबिल है या फिर शायर -पर- को  -प- ही पढ़ेगा और वज़न दे कर पढ़ेगा।
मैने पहले भी कहा है कि ये बह्र इतनी मक़्बूल और दिलकश बह्र है कि अमूमन हर शायर ने इसमे शायरी की है
ग़ालिब के ही कुछ चन्द मज़ीद [अतिरिक्त] अश’आर इसी बह्र में पेश करते है

रोने से और इश्क़  में बेबाक हो गए
धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए -  ग़ालिब

’ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहे जिसे -ग़ालिब

अपने हुदूद से न बढ़े कोई इश्क़ में
जो ज़र्रा जिस जगह है वहीं आफ़ताब है             -जिगर मुरादाबादी

दिल की ख़बर न होश किसी को जिगर का है
अल्लाह , अब ये हाल तुम्हारी  नज़र का  है  -जिगर मुरादाबादी

था मुस्तआर हुस्न से उसके जो नूर था
ख़ुर्शीद में भी उसका ही ज़र्रा ज़हूर  था मीर तक़ी ’मीर’

जब रफ़्तनी को इश्क़ का आज़ार हो गया
दो चार दिन में बरसों का बीमार  हो गया मीर तक़ी ’मीर’

अगर आप को नागवार न गुज़रे --तो 1-2 अश’आर इस हक़ीर का भी बर्दाश्त कर लें

अच्छा हुआ कि आप ने देखा न आइना
इल्जाम ऊगलियों पे लगाने का शुक्रिया


आने लगा है दिल को यकीं तेरी बात का 
फिर से उसी पुराने बहाने  की बात  कर 

[घ] मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुख्ननीक़ महज़ूफ़\मक़्सूर
मफ़ऊलु---फ़ाअ’लातुन---मफ़ऊलु--फ़ा’अ लुन\फ़ा’अ लान
    221---2122---221---212-\ 2121
इसे मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब.सालिम.अख़रब,महज़ूफ़\मक़्सूर भी कह सकते हैं
कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से एक मिसाल

ज़ख़्मी नहीं हुआ है कोई भी और शख़्स
लिखे है पत्थरों पे अहल-ए-नज़र के नाम 

एक बार तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
2      2    1 / 2 1 2 2   /  2 2 1  / 2  1 2
ज़ख़ मी न / हीं हुआ है /कोई भी/  और शख़् स्
2       2    1 /   2 1 2 2  /   2   2   1 / 2   1  2  1
लिख खे  है /पत् थरो पर / अह ले -न/ ज़र के नाम
एक स्पष्टीकरण [वज़ाहत]
मिसरा ऊला मे ’शख़्स" को 2 1 2 के वज़न पर क्यों लिया ?, 2 1 2 1  के वज़न पर क्यों नहीं लिया ?
ले सकते है -यहाँ ले सकते है --कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा
मगर तक़्तीअ’ के क़ायदा के मुताबिक --अगर किसी  लफ़्ज़ के अन्त में दो साकिन [ दोस्त--गोस्त--दुरुस्त शख़्स ---जैसे शब्द आ जाए तो तक़्तीअ’ में एक ही साकिन शुमार करते  है]
मिसरा सानी में ’लिख्खे हैं ’ क्यों लिया ?--’लिखे हैं ’ क्यों नहीं लिया ?
जी बिल्कुल सही ,दुरुस्त हैं आप
कारण साफ़ है --लिखे हैं---मक़्तूबी [ किताबत /लिखा हुआ] है जब कि -’लिख्खे हैं -- [ मलफ़ूज़ी /उच्चारित किया हुआ] है । तक़्तीअ’ में ’मल्फ़ूज़ी हर्फ़ ही शुमार करते है
एक बात और -- यहां बह्र में वज़न की माँग भी है और शायर लय और प्रवाह क़ायम रखने के लिए ’लिख्खे’ है ही पढ़ेगा
फिर आप कहेंगे " पत्थरों पर " को  ’पत्थरों पे’  क्यों नहीं लिया । आप ले सकते है --यहाँ दोनो चलेगा --कारण कि दोनो ही [-पे- और पर-] सबब-ए-ख़फ़ीफ़ है और दोनो ही  ”फ़ाअ’लातुन’ के -तुन- [सबब-ए-ख़फ़ीफ़ ] के मुक़ाम पर आयेगा
मगर जब आप के पास  better option है तो -पर- ही क्यों न लें सही लफ़्ज़ भी है । हाँ अर्कान के लिहाज़ से कोई मज़बूरी होती तो -पे- ही लेते
[च] मुज़ारे मुसम्मन मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़\मक़्सूर
मफ़ाईलु---फ़ा’अलातु---मफ़ाईलु---फ़ा’अ लुन\ फ़ा’अ लान
1221-------2121-----1221------212----\2121
[ध्यान दीजियेगा -- इस वज़न को ऊपर [ग] की वज़न से confuse न कीजियेगा। कारण कि [ग] के सदर/इब्तिदा के मुक़ाम पर मुज़ाहिफ़ ’अख़रब’ --मफ़ऊलु--[221] है जब कि इस बह्र में सदर/इब्तिदा के मुक़ाम पर मुज़ाहिफ़ मक्फ़ूफ़ [मफ़ाईलु--1221] है
डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से एक मिसाल देखते हैं

 जिसे जान से ज़ियादा कभी था अज़ीज़ मैं
वो कल राह में मिला तो मुझे अजनबी लगा

मुझे नहीं लगता कि अब आप को इसकी तक़्तीअ’ की ज़रूरत पडेगी। कारण कि यह साहब का ख़ुद साख्ता शे’र बतौर -ए-मिसाल है तो वज़न में होगा ही
चलिए आप का हुकुम है तो एक बार कर के देख लेते है 

जिसे जान / से ज़ियाद: /कभी था अ/ ज़ीज़ मैं
वो कल राह /में मिला तो /मुझे अज न /बी लगा

{छ]  मज़ारि’अ मुसम्मन अख़रम मक्फ़ूफ़  मुख़न्नीक़ मुसब्बीग़
मफ़ऊलुन----फ़ा’अला तुन---मफ़ऊलुन----फ़ा’अ लिय्यान
222----------2122----------222---------21221
आप जानते हैं कि ’मुफ़ाईलुन’ [1222] का ’अख़रम’ ’मफ़ऊलुन [2 2 2] होता है --यानी ’मुफ़ा’[1 2] वतद-ए-मज्मुआ का सर -मु- [1] ख़रम [ ख़त्म या सर कलम--हा हा हा] कर दीजिए--तो बचा -फ़ाईलुन [222] --जिसे मफ़ऊलुन [2 2 2] से बदल लीजिए। आप के मन में एक सवाल उठ रहा होगा --कि सालिम रुक्न पर ज़िहाफ़ लगाने से जो मुज़ाहिफ़ शकल बरामद होती है --उसे अरूज़ी किसी ’हम वज़न’  दीगर रुक्न से बदल क्यों लेते है? ऐसा सवाल मेरे मन मैं भी उठा था।
जवाब सीधा है--- आप न बदलना चाहे न बदलें --जब तक वज़न बराबर है तब तक कोई कबाहट नहीं है । मगर अरूज़ में इतने ज़िहाफ़ हैं कि उनकी बदली हुई शकले [मुज़ाहिफ़] बरामद होंगी कि  हमको/आप को याद रखना मुशकिल हो जायेगा 
अत: अरूज़ियों ने इसका रास्ता निकाला कि ऐसे बरामद मुज़ाहिफ़ को ’कुछ standard अर्कान ’ जो हम वज़न हो --से बदल कर लें। और ऐसे ’standard अर्कान" }"
20-22 के आसपास बैठते हैं।
अब मूल विषय पर आते है---मज़ारि’अ मुसम्मन अख़रम मक्फ़ूफ़  मुख़न्नीक़ मुसब्बीग़ पर--एक उदाहरण देखते है । डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से

ये दुनिया का तमाशा दो दिन का खेला है यार
जब आँखें बन्द होंगी फिर कुछ भी तो नहीं यार

इसकी तक्तीअ’ आप कर लें--- टुकड़े मै कर देता हूँ

ये दुनिया / का तमाशा / दो दिन का /खेल  है यार
जब आँखें / बन् द होंगी/  फिर कुछ भी / तो नहीं यार


-----------
इस बह्र के मुसद्दस वज़न के बहूर भी मुमकिन है
यहाँ सब का ज़िक्र करना ज़रूरी तो नहीं ,मात्र  उनके वज़न की चर्चा कर दे रहा हूँ । आप चाहें तो इन बहूर में तबअ’ आजमाई [शायरी की कोशिश] कर सकते है या कहीं से आप को उदाहरण भी मिल जाए----वैसे अमूमन सभी शायरों ने ज़्यादातर ’ मुसम्मन’ में ही शायरी की है और वो भी ’अख़रब,---मक्फ़ूफ़---महज़ूफ़--मक्सूर के मुज़ाहिफ़ शकल में और कुछ तख़्नीक़ के अमल से प्राप्त वज़न में भी ।

कुछ मुसद्दस शकलें---
[प] मुज़ारे’ मुसद्दस सालिम
मुफ़ाईलुन----मुफ़ाईलुन---फ़ाअ’लातुन
1222---------1222------2122

[ज]  मुज़ारे’ मुसद्दस अख़रब मक्फ़ूफ़
मफ़ऊलु----फ़ा’अ लातु---मफ़ाईलुन
221-------2121---------1222

[झ] मुज़ारे’ मुसद्दस अख्रब मक्फ़ूफ़ मुख़्न्नीक़
मफ़ऊलु----फ़ा’अलातुन----मफ़ऊलुन
221----------2122---------222
[त]  मुज़ारे’ मुसद्दस अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़\मक़्सूर
मफ़ऊलु-----फ़ा’अ लातु----फ़ऊलुन\ फ़ऊलान
221-----------2121--------122  \1221
[थ] मुज़ारे’ मुसद्दस अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़ मुख़्न्नीक़\मक़्सूर
मफ़ऊलु------फ़ा’अ लातुन--फ़े लुन \फ़े लान
221----------2121----------22  \ 221
[द] मुज़ारे’ मुसद्द्स अख़रब मक्फ़ूफ़ मज्बूब \अहतम
मफ़ऊलु----फ़ा’अ लातु---फ़े’अल\ फ़ऊलु
221---------2121--------12   \ 121
[ध] मुज़ारे’ मुसद्दस मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़ \मक़्सूर 
मफ़ाईलु----फ़ा’अलातु---फ़ऊलुन-\ फ़ऊलान
1221-------2121-------122-\1221
[ट] मुज़ारे’ मुसद्द्स मक़्बूज़ 
मफ़ा इलुन----फ़ाइलातुन---मफ़ाइलुन
1212---------2122-------1212
इसके अलावा  तख़नीक़ के अमल से और भी वज़न बरामद हो सकते है
मैं यह तो दावा नहीं कर सकता कि बह्र-ए-मुज़ारे’ के सारे वज़न पर बातचीत कर ली -मगर हाँ काफ़ी कुछ कर ली।

अब अगली क़िस्त में एक नए बह्र पर बातचीत करेंगे
अस्तु
{क्षमा याचना -वही जो पिछले क़िस्त में है}-इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

-आनन्द.पाठक-