रविवार, 25 नवंबर 2018

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 52 [ बह्र-ए-मुक़्तज़िब]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 52 [ बह्र-ए-मुक़्तज़िब] 

[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]

पिछली क़िस्त 50 और 51 में बह्र-ए-मुज़ारे’ की चर्चा कर चुका हूँ आज बह्र-ए-मुक़्तज़िब की चर्चा करेंगे
बह्र-ए-मुक़्तज़िब के बुनियादी अर्कान हैं
मफ़ऊलातु--+-- मुस तफ़ इलुन
2221----------2212
   a----b
अगर आप को याद हो तो
"बह्र-ए-मुन्सरिह" का बुनियादी रुक्न था --मुस तफ़ इलुन [2212] +मफ़ऊलातु [2221]   यानी  b--a

तो फिर यह बह्र-ए-मुक़्तज़िब? यह बरअक्स है बह्र-ए-मुन्सरिह का यानी Mirror Image अर्कान के मामले में।
बहर-ए-मुन्सरिह के बुनियादी अरकान ’मुसम्मन ’ शकल में इस्तेमाल नहीं हो सकते थे --कारण कि वहाँ "मफ़ऊलातु"[2221]  था और इसका हर्फ़ उल आख़िर -तु- मुतहर्रिक था
मगर बहर-ए-मुक़्तज़िब के अर्कान का मुसम्मन शकल a---b---a---b  होता है और  अरूज़ और ज़र्ब के मुकाम पर ’मुसतफ़ इलुन [2212] लाया जा सकता है [सालिम शकल में ] क्यों कि यहाँ  हर्फ़ उल आख़िर -नून- साकिन है।
 यह बात तो आप जानते ही होंगे
इस बह्र में इन अर्कान पर लगने वाले कुछ ज़िहाफ़ात की चर्चा कर लेते है जिससे आगे आहंग समझने में सुविधा होगी
मफ़ऊलातु[ 2221] पर लगने वाले ज़िहाफ़:-

मफ़ऊलातु[2221] + ज़िहाफ़ तय्यी   =मुज़ाहिफ़   फ़ाइलातु  [2121]
’तय्यी’ -ज़िहाफ़ ऐसा ज़िहाफ़ है जो दोनो ही सालिम अर्कान [ मफ़ऊलातु- , मुस तफ़ इलुन] दोनों पर लगते है और अलग अलग ’मुज़ाहिफ़’ शकल बरामद होती है

मुसतफ़इलुन [2212] पर लगने वाले ज़िहाफ़ :-
मुसतफ़इलुन [2212] + ज़िहाफ़ तय्यी = मुज़ाहिफ़ मुतवी  = मुफ़ त इलुन [2112]
मुसतफ़इलुन [2212] + ज़िहाफ़ क़तअ’= मुज़ाहिफ़ मक़्तूअ’= मफ़ऊलुन [2 2 2]
मुसतफ़इलुन [2212 ] + ज़िहाफ़  रफ़अ’= मुज़ाहिफ़ मरफ़ूअ’ = फ़ाइलुन [2 1 2 ]
मुसतफ़इलुन [2212] + ज़िहाफ़ तरफ़ैल = मुज़ाहिफ़ मुरफ़्फ़ल = मुस तफ़ इलातुन [ 22122]
मुसतफ़इलुन [2212] + ज़िहाफ़ ख़ब्न+इज़ाल= मुज़ाहिफ़ मख़्बून मज़ाल = मफ़ा इलान [ 12121]

इस बह्र के मुसम्मन शकल ही ज़्यादातर प्रयोग हुआ है
चलिए अब इस बह्र के कुछ दिलकश आहंग की चर्चा कर लेते हैं
मुसम्मन आहंग:--
[क] मुक़्तज़िब मुसम्मन सालिम

मफ़ऊलातु---मुस तफ़ इलुन---मफ़ऊलातु---मुसतफ़इलुन
2221----------2212----------2221---------2212
कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब के हवाले से -एक शे’र

गुलअन्दाम, गुल चेहरा,गुल पैराहन अभी आएगा
तो मौज-ए-बहारी पसेमाँ  होगी  उसे देखकर

तक़्तीअ’आसान है --आप भी कर सकते है । चलिए एक बार कर के देखते हैं
   2     2    2 1     /   2   2    1  2    /  2  2 2  1     /   2   2  1 2
गुल अन् दाम      / गुल चेहरा, गुल /  पै रा हन अ    /  भी आएगा
   2   2  2    1  / 2  2 1 2        / 2  2  2  1     / 2  2  1  2
तो मौज-ए-ब / हारी पसे         /माँ  होगी  उ   /से दे ख कर

[ख] मुक़्तज़िब  मुसम्मन सालिम मतुवी 
मफ़ऊलातु---मुफ़तइलुन---मफ़ऊलातु---मुफ़तइलुन
2221----------2112-------2221---------2112
ज़ाहिर है कि पहला रुक्न ’मफ़ऊलातु’ 2221 अपनी सालिम शकल में होगा और दूसरा रुक्न  ’मुस तफ़ इलुन ’[2 2 1 2 ] का मतूवी शकल [ मुफ़ त इ लुन 2112] शकल में होगी
उदाहरण के तौर पर आप खुद्साख़्ता शे’र कह सकते है और तक़्तीअ’ कर के जाँच भी सकते हैं

[ग] मुक़्तज़िब मुसम्मन  मतूवी 
फ़ाइलातु---मुफ़ त इलुन-//--फ़ाइलातु---मुफ़ त इलुन
2121-------2112----- //   2121-------2112
किसी का एक शे’र है
यार-ए-बेवफ़ा से हमें कब उमीद-ए-वस्ल हुई
शोख़ दिलरुबा से हमे कब उमीद-ए-वस्ल हुई

इसकी तक़्तीअ आसान है-आप भी कर सकते हैं
चलिए एक बार कर के देखते हैं
 2  1    2  1 / 2  1 1 2 /  2   1 2 1  /       2  1  1 2
यार-ए-बेव/ फ़ा से हमें / कब उमीद / -ए-वस् ल  हुई
2  1    2   1   / 2  1  1 2 / 2  1 2 1 /      2    2  1 2
शोख़ दिलरु / बा से हमें /कब उमीद/-ए-वस्  ल  हुई
आप कहेंगे ’उमीद-ए-वस्ल ’ मे -ए- का वज़न कहाँ गया ? कहीं नहीं गया । यह कस्र-ए-इज़ाफ़त है- ए- पर-"पोयेटिक लाइसेन्स" ्है .बहर की माँग होती तो लेते चूँकि यहाँ ज़रूरत नहीं थी-सो नहीं लिया। यही बात  ’अत्फ़’ [-ओ-] के केस में भी होता है
यह वज़न बह्र-ए-शिकस्ता है
[घ] मुक़्तज़िब मुसम्मन मतवी मक़्तूअ’
फ़ाइलातु----मुफ़ त इलुन ---फ़ाइलातु---मफ़ऊलुन
2121-------2112-----------2121----222
बतौर मिसाल ,डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब का एक शे’र है

तेरी याद आए तो दिल ज़ार ज़ार रोता है
मेरे यार तू ही बता ज़िन्दगी कटे क्यों कर

एक बार इस की तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं

2  1  2  1 /  2 1 1 2      / 2 1 2 1 / 222
तेरी याद / आए तो दिल / ज़ार ज़ार /रोता है
2 1  2  1 / 2 1 1 2   / 2 1  2  1   / 2  2  2
मेरे यार  /तू ही ब ता  /ज़िन्दगी क  /टे क्यों कर
यहाँ ध्यान देने की बात है  मिसरा उला में --री---ए- तो-  को 1 के वज़न पर लिया गया है कारण कि बह्र मे इनके  मुक़ाम मुतहर्रिक के है और ये मुतहर्रिक हैं  भी
उसी प्रकार मिसरा सानी में -रे-तू-- का वही हस्र है

एक बात और--अगर आप ऊपर  ध्यान से देखें तो ’मुफ़ त इलुन ’ में 3- मुतहर्रिक [ हर्फ़ मय हरकत  --ते--ऐन---लाम---] एक साथ आ गये और यह मुज़ाहिफ़ रुक्न भी है अत:  इस पर ’तस्कीन’ का अमल हो सकता है । और तस्कीन -ए-औसत के अमल से यह शकल
"मफ़ ऊ लुन " [2 2 2] हो जायेगा और एक नई बह्र बरामद हो सकती है । जो नीचे लिखा है
[च ] मुक़्तज़िब मुसम्मन मतवी, मुतवी मुसक्किन, मुतवी ,मुतवी मुसक्किन
फ़ाइलातु-----मफ़ऊलुन-----फ़ाइलातु------मफ़ऊलुन
2121--------222-------//-----2121------222
ग़ालिब का एक शे’र है

मय वो क्यों बहुत पीते ,बज़्म-ए-ग़ैर में यारब 
आज ही हुआ मंज़ूर उनको इम्तिहाँ अपना 

तक़्तीअ कर के भी देख लेते हैं
2     1    2   1 /  2   2  2 / /  2   1      2 1  / 2  2 2
मय वो क्यों ब / हुत पी ते // ,बज़् म -ए-ग़ै र /में या रब
2   1  2  1 /  2  2    2   / /  2    1  2  1  /  2  2  2
आज ही हु/ आ मन ज़ूर //उन को इम् ति /हा अप ना

आप कहेंगे ’बज़्म-ए-ग़ैर ’ मे -ए- का वज़न कहाँ गया ? कहीं नहीं गया । यह कस्र-ए-इज़ाफ़त है- ए- पर-"पोयेटिक लाइसेन्स" ्है .बहर की माँग होती तो लेते चूँकि यहाँ ज़रूरत नहीं थी-सो नहीं लिया। यही बात  ’अत्फ़’ [-ओ-] के केस में भी होता है
यह बह्र भी   बह्र-ए-शिकस्ता है
[छ] मुक़्तज़िब मुसम्मन मतवी मरफ़ूअ’
फ़ाइलातु---फ़ाइलुन--//--फ़ाइलातु---- फ़ाइलुन 
2121-------212--//----2121--------212
डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से

हक़ से हूँ मैं बेख़बर ,मुझको रास्ता दिखा
मुझको हर गुनाह से,.ऐ मेरे ख़ुदा  बचा

तक़्तीअ’ तो बहुत आसान है आप ख़ुद कर सकते हैं। चलिए एक मिसरा की तक़्तीअ’ आप की सुविधा के लिए कर दे रहा हूँ -दूसरे मिसरे की आप ख़ुद कर के देख सकते है

हक़ से हूँ  मैं / बे ख़ बर //,मुझ कू रास् /ता दिखा
 2    1  2   1 / 2 1 2   //  2    1   2 1 / 2 1 2
यह बह्र भी बह्र--ए-शिकस्ता है

[ज] मुक़्तज़िब मुसम्मन मख़्बून मरफ़ूअ’ मख़्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन

फ़ऊलु---फ़ेलुन-----फ़ऊलु---फ़ेलुन
121------22--------121------22-
डा0 साहब के हवाले से

जला रहे हैं जो मेरे घर को
वो मेरे भाई हैं जानता हूँ मैं

तक़्तीअ’ आप करें मैं इशारा कर दे रहा हूँ

जला र /हे हैं / जो मेरे /घर को
वो मेरे/  भाई / हैं जान  /ता हूँ
इस बह्र की "मुसद्दस मुज़ाइफ़" [12-रुक्नी]  और ’मुसम्मन मुज़ाइफ़’ [16-रुक्नी] आहंग भी मुमकिन है जो नीचे लिख दिया है

{झ] मुक़्तज़िब मुसद्दस मख़्बून मरफ़ूअ’ ,मख़्बून मरफ़ूअ’,मुसक्किन मुज़ाइफ़ [12-रुक्नी]
 फ़ऊलु----फ़ेलुन--/फ़ऊलु--फ़ेलुन  / फ़ऊलु--फ़ेलुन
121---------22--/  121-----22  /   121------22
और
[त] मुक़्तज़िब मुसम्मन  मख़्बून मरफ़ूअ’ ,मख़्बून मरफ़ूअ’,मुसक्किन मुज़ाइफ़ [16-रुक्नी]
फ़ऊलु----फ़ेलुन--/फ़ऊलु--फ़ेलुन  / फ़ऊलु--फ़ेलुन/ फ़ऊलु---फ़ेलुन
121---------22--/  121-----22  /   121------22 / 121-------22

बहर-ए-मुक़्तज़िब के और भी औज़ान मुमकिन है सभी की तफ़सील यहाँ मुमकिन नहीं है और न ही ज़रूरत है
इस बह्र के मज़ीद [अतिरिक्त] कुछ  ख़ास वज़न आप की जानकारी के लिए लिख रहा हूँ आप चाहें तो आप इस वज़न में शायरी कर सकते है
कुछ और आहंग से भी आप वाक़िफ़ हो लें
मुसद्दस आहंग :-
बह्र-ए-मुक़्तज़िब मुसद्दस सालिम
मफ़ऊलातु---मसतफ़इलुन----मुसतफ़इलुन
[A] 2221---2212-----2212
्ज़ाहिर है कि ’मफ़ऊलातु’ अरूज़ या ज़र्ब के मुक़ाम पर नहीं लाया जा सकता -कारण कि -तु- हर्फ़ उल आख़िर मुतहर्रिक है और शे’र या मिसरा के अन्त में मुतहर्रिक हर्फ़ नहीं लाया जा सकता । अत: उस मुक़ाम पर ’मुसतफ़इलुन’ लाया गया है जिसमें आख़िरी हर्फ़ ’नून; साकिन है अत: सही भी है।
बह्र-ए-मुक़्तज़िब मुसद्दस सालिम मुस्बीग़ अल आख़िर
[B] 2221----2212--22121
यह आप जानते हैं कि मिसरा के अन्त में सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ जैसे ऊपर के रुक्न में -लुन- है] तो एक हर्फ़-ए-साकिन बढ़ाने से आहंग और वज़न में कोई फ़र्क नहीं पड़ता । इसे ’मुस्बीग़’ कहते है
[नोट -एक बात और---’अल’ [ अलिफ़-लाम] Arbic Article जो Arbic लफ़्ज़ के साथ ही प्रयोग होता है जब कि ’-ए- और -ओ- फ़ारसी के इज़ाफ़त हैं जो फ़ारसी लफ़्ज़ के साथ ही प्रयोग होता है। चूँकि उर्दू में ’अरबी--फ़ारसी--तुर्की --हिन्दी
आदि के भी शब्द समाहित हो गये हैं अत: आजकल फ़ारसी के इज़ाफ़त किसी भी लफ़्ज़ के साथ लगा देते हैं
बह्र-ए-मुक़्तज़िब मुसद्दस मतूवी मतूवी
फ़ाइलातु----मुफ़ त इलुन--मुफ़ त इलुन
[C] 2121---2112---2112

यह आप जानते हैं कि मिसरा के अन्त में सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ जैसे ऊपर के रुक्न में -लुन- है] तो एक हर्फ़-ए-साकिन बढ़ाने से आहंग और वज़न में कोई फ़र्क नहीं पड़ता । इसे ’मुस्बीग़’ कहते है। मुफ़ त इलुन का मुस्बीग़
 ’ मुफ़ त इलान [ 21121] है
       फ़ाइ लातु--------मुफ़ त इलुन----मुफ़ त इलान 
[D] 2121-----------2112------------21121

[E] मुक़्तज़िब मुसद्दस मतूवी मतूवी मुरफ़्फ़ल
फ़ाइलातु---मुफ़ त इलुन---मुफ़ त इलातुन
2121---------2112---------21122
[F]   मुक़्तज़िब मुसद्दस सालिम मरफ़ूअ’ मख्बून 
मफ़ऊलातु-----फ़ाइलुन---मफ़ाइलुन
2221----------212--------1212

[G] मुक़्तज़िब मुसद्दस सालिम मरफ़ूअ’ मख्बून मज़ाल 
मफ़ऊलातु-----फ़ाइलुन---मफ़ाइलान
2221----------212--------12121
[H] मुक़्तज़िब मुसद्दस मख्बून मतूवी मतूवी मुरफ़्फ़ल
मफ़ाईलु-----मुफ़ त इलुन---मुफ़ त इलातुन
1221--------2112-------------2 1 2 2

मुरब्ब: आहंग:-
[I]   मुक़्तजब मुरब्ब: सालिम मतूवी
मफ़ऊलातु---मुफ़ त इलुन
2 2  2 1------2112
[J]  मुक़्तज़िब  मुरब्ब: सालिम मुरफ़्फ़ल
मफ़ऊलातु---मुसतफ़ इलातुन
2221--------22122
इस बह्र का "मुरब्ब: मुज़ाइफ़" भी मुमकिन है जैसे
मफ़ऊलातु---मुसतफ़ इलातुन //मफ़ऊलातु---मुसतफ़ इलातुन
2221--------22122     //   2221--------22122

[K] मुक़्तज़िब मुरब: मतूवी सालिम मुरफ़्फ़ल
  फ़ाइलातु----मुसतफ़ इलातुन
 2121----------22122
शायरी करने के लिए बह्र की कमी नहीं है } आप कोई भी शे’र या ग़ज़ल कहें -बस बह्र और वज़न दुरुस्त होना चाहिए --जिसकी जाँच आप तक़्तीअ’ कर के देख सकते हैं
एक बात और ---शायरी के किए सिर्फ़ ’बह्र’ दुरुस्त हो काफी नहीं --क़ाफ़िया--रदीफ़-- अरूज़ी वक़्फ़ा-- भी दुरुस्त होना चाहिए और बेशक तग़ज़्ज़ुल और शे’रियत भी तो होनी चाहिए
मैं यह दावा तो नहीं करता कि मैने बह्र-ए- मुक़्तज़िब के सभी औज़ान या आहंग पर चर्चा कर लिया। हाँ कुछ हद तक और मक़्बूल पर ही चर्चा की है ।आहंग और भी मुमकिन है
अगली क़िस्त में किसी और आहंग पर चर्चा करेंगे।
अस्तु
{क्षमा याचना -वही जो पिछले क़िस्त में है}-इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

-आनन्द.पाठक-


शनिवार, 3 नवंबर 2018

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 51 [बह्र-ए-मुज़ारे’: भाग-2 और अन्तिम]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 51 [बह्र-ए-मुज़ारे’:  भाग-2  और अन्तिम]

[Disclaimer cause : वही जो क़िस्त -1 में है]

पिछली क़िस्त 50 में   ’बह्र-ए-मुज़ारे’ के बारे में कुछ चर्चा की थी । इस क़िस्त में मुज़ारे’ की कुछ मक़्बूल बह्रों  की चर्चा करेंगे।
यह बह्र इतनी मक़्बूल और दिलकश है कि ’मीर’ ने इस का कसरत से [प्रचुरता से]  प्रयोग किया है
अब बह्र-ए-मुज़ारे’ के  कुछ प्रचलित और लोकप्रिय आहंग ---

[क] मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ सालिम अल आखिर
मफ़ऊलु---फ़ाअ’लातु---मफ़ाईलु---फ़ाअ’लातुन           [ यहां -अ’- को आप समझ लें कि ’मुतहर्रिक है और -1- से दर्शाया गया है]
221--------2121-------1221----2122
डा0 आरिफ़ हसन खान साहब के हवाले से

मैं वक़्त के ग़ुबार में खो जाउँगा किसी दिन
ज़िन्दा रहोगे तुम तो मेरी शायरी में लेकिन

यहाँ तक़्तीअ’ करने की ज़रूरत तो नहीं है ,आप अब खुद भी कर सकते हैं ।  आप कहें तो कर देता हूं
2  2    1  / 2 1  2  1  / 1 2   2 1 /  2  1 2  1
मैं वक़् त / के ग़ु बार / में खो जाउँ/ गा किसी दिन
2     2   1 /  2 1   2   1  / 1  2  2 1  / 2 1 2 2
ज़िन् दा र/ हो गे तुम  तो /मि री शाय /री में ले किन

अब यह मत पूछियेगा कि यहाँ -में--ऊँ---तो--आदि को -1- के वज़न पर क्यों लिया
कारण साफ़ है---एक तो बह्र में वज़न की माँग है । दूसरा यह  कि ये सब अर्कान के  मुतहर्रिक [1] के मुकाम पर आ भी रहे है  और यह सब मुतहर्रिक हैं भी जो अरूज़ के ऐन मुताबिक भी है

[ख] मज़ारि’अ मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़--मकफ़ूफ़ मुख़्न्निक़ सालिम अल आखिर \मुस्बीग़
मफ़ऊलु---फ़ा’अलातुन-//--मफ़ऊलु---फ़ा’अलातुन\ फ़ा’अल्लियान
221--------2122------//--221-----2122
यह बह्र --बह्र-ए-शिकस्ता है यानी दूसरे रुक्न के बाद ’अरूज़ी वक़्फ़ा’ है यानी लाजिमी है
ग़ालिब की ग़ज़ल  का एक शे’र है

उस शमअ’ की तरह से ,जिसको कोई बुझा दे
मैं भी जले हुओं में  , हूँ   दाग़-ए-ना तमामी 

इसकी तक़्तीअ’ भी कर के देख लेते हैं
2     2     1   / 2  1  2 2  //  2      2   1  / 2 1 2 2
उस शम अ’ /की त रा से // ,जिस को कु / ई बुझा दे
2    2  1  /  2 1 2  1  //  2   2   1 /  2  1 2 2
मैं भी ज / ले हुओं में  // , हूँ   दाग़-/ ना तमामी
 मैने पहले भी कहा है कि ये बह्र इतनी मक़्बूल और दिलकश बह्र है कि अमूमन हर शायर ने इसमे शायरी की है
कुछ चन्द अश’आर दीगर शायरों के आप की ज़ेर-ए-नज़र पेश कर रहा हूँ --आप भी लुत्फ़ अन्दोज़ होइए । अगर फ़ुर्सत मिले तो लगे हाथ तक़्तीअ भी कर लें -तो आप मुतमय्यिन हो सकते हैं

देखा करूँ तुझी को ,मंज़ूर है तो ये है
आँखें न खोलूँ तुझ बिन .मक़दूर है तो ये है      --मीर तक़ी ’मीर’

रहने की कोई जागह ,शायद न थी उन्होंके
जो याँ से उठ गए हैं फिर वो कभू न आए  मीर तक़ी ’मीर’ 
[ नोट-- जागह---उन्होंके----कभू--- ये सब मीर के ज़माने की भाषा है]

हाँ किसको है मयस्सर ,यह काम कर गुज़रना
एक बांकपन से जीना . इक बांकपन से मरना जिगर मुरादाबादी

उस से भी शोख़तर हैं उस शोख़ की अदाएँ
कर जाएँ काम अपना ,लेकिन नज़र न आएँ जिगर मुरादाबादी

अगर आप को नागवार न गुज़रे --तो 1-2 अश’आर इस हक़ीर का भी बर्दाश्त कर लें

पर्दा तो तेरे रुख़ पर ,देखा सभी ने लेकिन
देखा तुझे नुमायां ख़ुर्शीद  में ,क़मर  में

आए गए हज़ारों .इस रास्ते पे  ’आनन’
तुम ही नहीं हो तनहा, इस इश्क़ के सफ़र में

ऐसे बहुत से अशाआ’र/ग़ज़ल दीगर शोअ’रा के मिल जायेंगे
एक बात और
आख़िर के रुक्न 2122 [फ़ा’अलातुन] की जगह ’फ़ा’अलय्यान’ [ 21221]  भी लाया जा सकता है }

[ग] मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़\मक़्सूर
मफ़ऊलु---फ़ा’अलातु--मफ़ाईलु--फ़ा’इलुन\फ़ा’इलान
221--------2121-----1221------212   \2121
ग़ालिब का एक मशहूर शे’र है

अर्ज़-ए-नियाज़-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा

अब तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
  2   2  1  /  2  1  2   1  / 1 2    2    1  / 2  1 2 
अर् जे-नि /याज़-इश् क़/  के क़ा बिल न /हीं रहा
2       2    1  / 2 1  2  1/  1  2  2   1    / 2 1 2
जिस दिल पे /नाज़ था मु /झे वो दिल न   /हीं रहा
यह महज़ूफ़ की मिसाल है
अच्छा एक बात ---अगर मिसरा सानी में -’ जिस दिल पर नाज़ था मुझे---’ होता तो क्या होता?
मानी में तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता -पर शे’र में इब्तिदा’ के मुक़ाम पर जो रुक्न आयद है -मफ़ऊलु- [जिस दिल पर] वज़न से ख़ारिज़ हो जाता क्योंकि -पर - सबब-ए-ख़फ़ीफ़ है और -2-का वज़न देता जब कि -पे- 1 का वज़न दे रहा है और मुतहर्रिक भी है -लु- के मुक़ाबिल है या फिर शायर -पर- को  -प- ही पढ़ेगा और वज़न दे कर पढ़ेगा।
मैने पहले भी कहा है कि ये बह्र इतनी मक़्बूल और दिलकश बह्र है कि अमूमन हर शायर ने इसमे शायरी की है
ग़ालिब के ही कुछ चन्द मज़ीद [अतिरिक्त] अश’आर इसी बह्र में पेश करते है

रोने से और इश्क़  में बेबाक हो गए
धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए -  ग़ालिब

’ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहे जिसे -ग़ालिब

अपने हुदूद से न बढ़े कोई इश्क़ में
जो ज़र्रा जिस जगह है वहीं आफ़ताब है             -जिगर मुरादाबादी

दिल की ख़बर न होश किसी को जिगर का है
अल्लाह , अब ये हाल तुम्हारी  नज़र का  है  -जिगर मुरादाबादी

था मुस्तआर हुस्न से उसके जो नूर था
ख़ुर्शीद में भी उसका ही ज़र्रा ज़हूर  था मीर तक़ी ’मीर’

जब रफ़्तनी को इश्क़ का आज़ार हो गया
दो चार दिन में बरसों का बीमार  हो गया मीर तक़ी ’मीर’

अगर आप को नागवार न गुज़रे --तो 1-2 अश’आर इस हक़ीर का भी बर्दाश्त कर लें

अच्छा हुआ कि आप ने देखा न आइना
इल्जाम ऊगलियों पे लगाने का शुक्रिया


आने लगा है दिल को यकीं तेरी बात का 
फिर से उसी पुराने बहाने  की बात  कर 

[घ] मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुख्ननीक़ महज़ूफ़\मक़्सूर
मफ़ऊलु---फ़ाअ’लातुन---मफ़ऊलु--फ़ा’अ लुन\फ़ा’अ लान
    221---2122---221---212-\ 2121
इसे मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब.सालिम.अख़रब,महज़ूफ़\मक़्सूर भी कह सकते हैं
कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से एक मिसाल

ज़ख़्मी नहीं हुआ है कोई भी और शख़्स
लिखे है पत्थरों पे अहल-ए-नज़र के नाम 

एक बार तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
2      2    1 / 2 1 2 2   /  2 2 1  / 2  1 2
ज़ख़ मी न / हीं हुआ है /कोई भी/  और शख़् स्
2       2    1 /   2 1 2 2  /   2   2   1 / 2   1  2  1
लिख खे  है /पत् थरो पर / अह ले -न/ ज़र के नाम
एक स्पष्टीकरण [वज़ाहत]
मिसरा ऊला मे ’शख़्स" को 2 1 2 के वज़न पर क्यों लिया ?, 2 1 2 1  के वज़न पर क्यों नहीं लिया ?
ले सकते है -यहाँ ले सकते है --कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा
मगर तक़्तीअ’ के क़ायदा के मुताबिक --अगर किसी  लफ़्ज़ के अन्त में दो साकिन [ दोस्त--गोस्त--दुरुस्त शख़्स ---जैसे शब्द आ जाए तो तक़्तीअ’ में एक ही साकिन शुमार करते  है]
मिसरा सानी में ’लिख्खे हैं ’ क्यों लिया ?--’लिखे हैं ’ क्यों नहीं लिया ?
जी बिल्कुल सही ,दुरुस्त हैं आप
कारण साफ़ है --लिखे हैं---मक़्तूबी [ किताबत /लिखा हुआ] है जब कि -’लिख्खे हैं -- [ मलफ़ूज़ी /उच्चारित किया हुआ] है । तक़्तीअ’ में ’मल्फ़ूज़ी हर्फ़ ही शुमार करते है
एक बात और -- यहां बह्र में वज़न की माँग भी है और शायर लय और प्रवाह क़ायम रखने के लिए ’लिख्खे’ है ही पढ़ेगा
फिर आप कहेंगे " पत्थरों पर " को  ’पत्थरों पे’  क्यों नहीं लिया । आप ले सकते है --यहाँ दोनो चलेगा --कारण कि दोनो ही [-पे- और पर-] सबब-ए-ख़फ़ीफ़ है और दोनो ही  ”फ़ाअ’लातुन’ के -तुन- [सबब-ए-ख़फ़ीफ़ ] के मुक़ाम पर आयेगा
मगर जब आप के पास  better option है तो -पर- ही क्यों न लें सही लफ़्ज़ भी है । हाँ अर्कान के लिहाज़ से कोई मज़बूरी होती तो -पे- ही लेते
[च] मुज़ारे मुसम्मन मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़\मक़्सूर
मफ़ाईलु---फ़ा’अलातु---मफ़ाईलु---फ़ा’अ लुन\ फ़ा’अ लान
1221-------2121-----1221------212----\2121
[ध्यान दीजियेगा -- इस वज़न को ऊपर [ग] की वज़न से confuse न कीजियेगा। कारण कि [ग] के सदर/इब्तिदा के मुक़ाम पर मुज़ाहिफ़ ’अख़रब’ --मफ़ऊलु--[221] है जब कि इस बह्र में सदर/इब्तिदा के मुक़ाम पर मुज़ाहिफ़ मक्फ़ूफ़ [मफ़ाईलु--1221] है
डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से एक मिसाल देखते हैं

 जिसे जान से ज़ियादा कभी था अज़ीज़ मैं
वो कल राह में मिला तो मुझे अजनबी लगा

मुझे नहीं लगता कि अब आप को इसकी तक़्तीअ’ की ज़रूरत पडेगी। कारण कि यह साहब का ख़ुद साख्ता शे’र बतौर -ए-मिसाल है तो वज़न में होगा ही
चलिए आप का हुकुम है तो एक बार कर के देख लेते है 

जिसे जान / से ज़ियाद: /कभी था अ/ ज़ीज़ मैं
वो कल राह /में मिला तो /मुझे अज न /बी लगा

{छ]  मज़ारि’अ मुसम्मन अख़रम मक्फ़ूफ़  मुख़न्नीक़ मुसब्बीग़
मफ़ऊलुन----फ़ा’अला तुन---मफ़ऊलुन----फ़ा’अ लिय्यान
222----------2122----------222---------21221
आप जानते हैं कि ’मुफ़ाईलुन’ [1222] का ’अख़रम’ ’मफ़ऊलुन [2 2 2] होता है --यानी ’मुफ़ा’[1 2] वतद-ए-मज्मुआ का सर -मु- [1] ख़रम [ ख़त्म या सर कलम--हा हा हा] कर दीजिए--तो बचा -फ़ाईलुन [222] --जिसे मफ़ऊलुन [2 2 2] से बदल लीजिए। आप के मन में एक सवाल उठ रहा होगा --कि सालिम रुक्न पर ज़िहाफ़ लगाने से जो मुज़ाहिफ़ शकल बरामद होती है --उसे अरूज़ी किसी ’हम वज़न’  दीगर रुक्न से बदल क्यों लेते है? ऐसा सवाल मेरे मन मैं भी उठा था।
जवाब सीधा है--- आप न बदलना चाहे न बदलें --जब तक वज़न बराबर है तब तक कोई कबाहट नहीं है । मगर अरूज़ में इतने ज़िहाफ़ हैं कि उनकी बदली हुई शकले [मुज़ाहिफ़] बरामद होंगी कि  हमको/आप को याद रखना मुशकिल हो जायेगा 
अत: अरूज़ियों ने इसका रास्ता निकाला कि ऐसे बरामद मुज़ाहिफ़ को ’कुछ standard अर्कान ’ जो हम वज़न हो --से बदल कर लें। और ऐसे ’standard अर्कान" }"
20-22 के आसपास बैठते हैं।
अब मूल विषय पर आते है---मज़ारि’अ मुसम्मन अख़रम मक्फ़ूफ़  मुख़न्नीक़ मुसब्बीग़ पर--एक उदाहरण देखते है । डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से

ये दुनिया का तमाशा दो दिन का खेला है यार
जब आँखें बन्द होंगी फिर कुछ भी तो नहीं यार

इसकी तक्तीअ’ आप कर लें--- टुकड़े मै कर देता हूँ

ये दुनिया / का तमाशा / दो दिन का /खेल  है यार
जब आँखें / बन् द होंगी/  फिर कुछ भी / तो नहीं यार


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इस बह्र के मुसद्दस वज़न के बहूर भी मुमकिन है
यहाँ सब का ज़िक्र करना ज़रूरी तो नहीं ,मात्र  उनके वज़न की चर्चा कर दे रहा हूँ । आप चाहें तो इन बहूर में तबअ’ आजमाई [शायरी की कोशिश] कर सकते है या कहीं से आप को उदाहरण भी मिल जाए----वैसे अमूमन सभी शायरों ने ज़्यादातर ’ मुसम्मन’ में ही शायरी की है और वो भी ’अख़रब,---मक्फ़ूफ़---महज़ूफ़--मक्सूर के मुज़ाहिफ़ शकल में और कुछ तख़्नीक़ के अमल से प्राप्त वज़न में भी ।

कुछ मुसद्दस शकलें---
[प] मुज़ारे’ मुसद्दस सालिम
मुफ़ाईलुन----मुफ़ाईलुन---फ़ाअ’लातुन
1222---------1222------2122

[ज]  मुज़ारे’ मुसद्दस अख़रब मक्फ़ूफ़
मफ़ऊलु----फ़ा’अ लातु---मफ़ाईलुन
221-------2121---------1222

[झ] मुज़ारे’ मुसद्दस अख्रब मक्फ़ूफ़ मुख़्न्नीक़
मफ़ऊलु----फ़ा’अलातुन----मफ़ऊलुन
221----------2122---------222
[त]  मुज़ारे’ मुसद्दस अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़\मक़्सूर
मफ़ऊलु-----फ़ा’अ लातु----फ़ऊलुन\ फ़ऊलान
221-----------2121--------122  \1221
[थ] मुज़ारे’ मुसद्दस अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़ मुख़्न्नीक़\मक़्सूर
मफ़ऊलु------फ़ा’अ लातुन--फ़े लुन \फ़े लान
221----------2121----------22  \ 221
[द] मुज़ारे’ मुसद्द्स अख़रब मक्फ़ूफ़ मज्बूब \अहतम
मफ़ऊलु----फ़ा’अ लातु---फ़े’अल\ फ़ऊलु
221---------2121--------12   \ 121
[ध] मुज़ारे’ मुसद्दस मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़ \मक़्सूर 
मफ़ाईलु----फ़ा’अलातु---फ़ऊलुन-\ फ़ऊलान
1221-------2121-------122-\1221
[ट] मुज़ारे’ मुसद्द्स मक़्बूज़ 
मफ़ा इलुन----फ़ाइलातुन---मफ़ाइलुन
1212---------2122-------1212
इसके अलावा  तख़नीक़ के अमल से और भी वज़न बरामद हो सकते है
मैं यह तो दावा नहीं कर सकता कि बह्र-ए-मुज़ारे’ के सारे वज़न पर बातचीत कर ली -मगर हाँ काफ़ी कुछ कर ली।

अब अगली क़िस्त में एक नए बह्र पर बातचीत करेंगे
अस्तु
{क्षमा याचना -वही जो पिछले क़िस्त में है}-इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

-आनन्द.पाठक-