शनिवार, 26 जनवरी 2019

उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 61 [बह्र-ए-माहिया]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 61 [बह्र-ए-माहिया]   

  
उर्दू शायरी में माहिया के औज़ान ...

उर्दू शायरी में यूँ तो कई विधायें प्रचलित हैं जिसमें ग़ज़ल ,रुबाई, नज़्म क़सीदा आदि काफ़ी मशहूर है ,इस हिसाब से ’माहिया लेखन’  बिलकुल नई विधा है  जो ’पंजाबी से  उर्दू में आई है लेकिन उर्दू  शे’र-ओ-सुख़न में  अभी उतनी मक़्बूलियत हासिल नहीं हुई है

माहिया वस्तुत: पंजाबी लोकगीत की एक विधा है ,वैसे ही जैसे हमारे पूर्वांचल  में कजरी ,चैता,फ़ाग,सोहर आदि । माहिया का शाब्दिक अर्थ होता है  प्रेमिका से बातचीत करना ,अपनी बात कहना बिलकुल वैसे ही जैसी ग़ज़ल या शे’र में कहते हैं ।दोनो की रवायती ज़मीन मानवीय भावनाएँ और विषय एक जैसे ही  है -विरह ,मिलन ,जुदाई,वस्ल-ए-यार ,शिकवा,गिला,शिकायत,रूठना,मनाना आदि। परन्तु समय के साथ साथ माहिया जीवन के और विषय पर राजनीति ,जीवन दर्शन ,सामाजिक विषय पर भी कहे जाने लगे।

माहिया पर जनाब हैदर क़ुरेशी साहब ने काफी शोध और अध्ययन किया है और काफी माहिया कहे हैं । उर्दू में माहिया के सन्दर्भ में उनका काफी योगदान है ।आप ने  माहिया के ख़ुद  के अपने संग्रह भी निकाले है आप पाकिस्तान के शायर हैं जो बाद में जर्मनी के प्रवासी हो गए।आप ने "उर्दू में माहिया निगारी" नामक किताब में माहिया के बारे में काफी विस्तार से लिखा है ।

हिन्दी फ़िल्म में सबसे पहले माहिया क़मर जलालाबादी ने लिखा [हिन्दी फ़िल्म फ़ागुन [1958]  [भारत भूषण और मधुबाला] संगीत ओ पी नैय्यर का वो गीत ज़रूर सुना होगा जिसे मुहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले जी ने गाया है]

" तुम रूठ के मत जाना   
मुझ से क्या शिकवा
दीवाना है दीवाना


यूँ हो गया बेगाना
तेरा मेरा क्या रिश्ता
ये तू ने नहीं जाना

यह माहिया है ।
बाद में हिन्दी फ़िल्म ’नया-दौर’ [ दिलीप कुमार ,वैजयन्ती माला अभिनीत] में साहिर लुध्यानवी ने कुछ माहिया लिखे थे

दिल ले के  दगा देंगे     
यार है मतलब के
 देंगे तो ये क्या देंगे

दुनिया को दिखा देंगे         
यारो के पसीने पर  
हम खून बहा देंगे

यह माहिया है

--------
माहिया 3-लाइन की [जैसे ;जापानी विधा ’हाइकू’ या हिन्दी का त्रि-पटिक’ छन्द। ] एक शे’री विधा है  जो बह्र-ए-मुतदारिक [212- फ़ाइलुन] से पैदा हुआ है  जिसमे पहला और तीसरा मिसरा  आपस में  ’हमक़ाफ़िया ’ होती है दूसरा मिसरा   ;हमक़ाफ़िया’ हो ज़रूरी नहीं ।अगर है तो मनाही भी नही
पहली और तीसरी पंक्ति का एक ’ख़ास’ वज़न होता है और दूसरी पंक्ति में [ पहले और तीसरे मिसरा से ] एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कम होता है । पुराने वक़्त में तीनो मिसरा एक ही वज़न का लिखा जाता रहा । मगर अब यह तय किया गया कि दूसरे मिसरा में -पहले और तीसरे मिसरे कि बनिस्बत एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] कम होगा।
माहिया के औज़ान विस्तार से अब देखते है । यदि आप ’तस्कीन-ए-औसत’ का अमल समझ लिया है तो माहिया के औज़ान समझने में कोई परेशानी नहीं ।आप जानते हैं कि ’फ़ाइलुन[212] का मख़्बून मुज़ाहिफ़ ’फ़इ’लुन [ 112] होता है जिसमे [ फ़े--ऐन--लाम   3- मुतहर्रिक एक साथ आ गए] ख़ब्न एक ज़िहाफ़ होता है } अगर कोई रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से शुरु होता है [जैसे फ़ाइलुन में ’फ़ा--इलुन]  तो सबब--ए-ख़फ़ीफ़ का साकिन [जैसी फ़ा का-अलिफ़-] को गिराने के अमल को ’ख़ब्न ’ कहते है और मुज़ाहिफ़ को मख़्बून कहते ।अगर ’फ़ाइलुन 212] में पहला अलिफ़ गिरा दें तो बचेगा फ़ इलुन [112] -यही मख़्बून है फ़ाइलुन का।
[1] पहले और तीसरे मिसरे की मूल बह्र [मुतक़ारिब म्ख़्बून]
       --a---------b----------c-------/ c'
 फ़ इलुन-        -फ़ इलुन-    -फ़ इलुन  /फ़ इलान
 1 1  2--------1  1   2-----1 1 2    / 1 1 2 1 
अब इस वज़न पर  तस्कीन-ए-औसत का अमल हो सकता है  और इस से 16-औज़ान बरामद हो सकते है । देखिए कैसे । आप की सुविधा और clarity के लिए यहाँ 112--22--जैसे अलामत से दिखा रहा हूँ बाद में आप चाहें तो उस रुक्न का नाम भी उसके ऊपर लिख सकते हैं

   फ़ इलुन-        -फ़ इलुन-    -फ़ इलुन
    --a----------b------------c
[ A ] 1 1  2---1  1   2--  ---1 1 2        मूल बह्र   -no operation

[ B ]  22-------112--------112 operarion on  -a- only

[C ]    112----  -22------   --112 operation  on -b- only

[D  ]   112----112-------22 operation on -c- only

[E ]     22-------22----------112 operation on -a & -b-

[F  ]     112---    22-------22 operation on -b-&-c-

[G ]    22--     -112--------22      operation on  -c-& -a-

[H ]   22--- ---22----------22 operation on -a-&-b-&-c

इस प्रकार माहिया के पहले मिसरे और तीसरे मिसरे के लिए 8-औज़ान बरामद हो गए।यहाँ पर कुछ ध्यान देने की बातें--
[1] यह सभी आठो वज़न आपस में बदले जा सकते है [बाहमी मुतबादिल हैं] कारण कि सभी वज़न का  मात्रा योग -12- ही है
[2] मूल बह्र का हर रुक्न ’फ़ अ’लुन [112 ] है जिसमें 3- मुतहर्रिक हर्फ़ [-फ़े-ऐन-लाम-] एक साथ आ गए हैं अत: हर Individual रुक्न [ या  एक साथ दो या दो से अधिक रुक्न पर भी एक साथ ]पर ’तस्कीन-ए-औसत ’ का अमल हो सकता है और एक नई रुक्न [ फ़ेलुन =22 ] बरामद हो सकती है  जिसे हम यहाँ ’मख़्बून मुसक्किन" कहेंगे  क्योंकि यह  ’तस्कीन’ के अमल से बरामद हुआ है
[3] अब आप चाहें तो ऊपर की अलामत 22 की जगह ’मख़्बून मुसक्किन और 112 की जगह "फ़अ’लुन" लिख सकते है

एक बात और
आप जानते हों कि अगर किसी मिसरा के आखिर में -1- साकिन बढ़ा दिया जाए तो मिसरे के आहंग में कोई फ़र्क नहीं पड़ता है । अत: ऊपर के औज़ान में मिसरा के आख़िर में -1- साकिन बढ़ा दे तो 8-औज़ान और बरामद हो सकते हैं
जिसे हम 1121 को ’मख़्बून मज़ाल ’ कहेंगे
और           221 को ;मख़्बून मुसक्किन मज़ाल ’ कहेंगे
आप चाहें तो अलग से विस्तार से लिख कर देख सकते है
अत: पहले और तीसरे मिसरे के कुल मिला कर [8+8 ]=16  औज़ान बरामद हो सकते है
-------
दूसरे मिसरे की मूल  बह्र [यह वज़न बह्र-ए-मुतक़ारिब से निकली हुई है 
--a----------b--------c-----/ c'
फ़अ’ लु---फ़ऊलु---फ़ अ’ल /फ़ऊलु  =21--------121-----1 2      / 121 [ इसका नाम मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ /मक़सूर है] कुछ आप को ध्यान आ रहा है ? जी हाँ . बहर-ए-मीर की चर्चा करते समय इस प्रकार के वज़न का प्रयोग किया था।
ख़ैर
ध्यान से देखे --a--& --b  और    --b--& ---c  यानी दो-दो रुक्न मिला कर 3- मुतहर्रिक [-लाम--फ़े---ऐन] एक साथ आ रहे हैं अत: इन पर ’तख़्नीक़’ का अमल हो सकता है और इस से 8-मुतबादिल औज़ान बरामद हो सकते हैं । देखिए कैसे?
--a----------b--------c-----
फ़अ’ लु---फ़ऊलु---फ़ अ’ल----मूल बह्र
21--------121-------12--
वही बात -आप की सुविधा और clarity के लिए यहाँ 112--22--जैसे अलामत से दिखा रहा हूँ बाद में आप चाहें तो उस रुक्न का नाम भी उसके ऊपर लिख सकते हैं

[I ]  21-----121-----12   मूल बह्र  -no operation

[J ]  22-----21----12        operation on  -a & b-

[K ] 21----122----2           operation on    -b & c-

[L ] 22-----22----2           operation  on  a--b---c

इस प्रकार दूसरे मिसरे के 4-वज़न बरामद हुए
जैसा कि आप जानते हैं अगर किसी मिसरा के आखिर में -1- साकिन बढ़ा दिया जाए तो मिसरे के आहंग में कोई फ़र्क नहीं पड़ता है । अत: ऊपर के औज़ान में मिसरा के आख़िर में -1- साकिन बढ़ा दे तो 4-औज़ान और बरामद हो सकते हैं।
आप उसे  i'--j'---k'--l' लिख सकते है -जिससे रुक्न पहचानने में सुविधा होगी
इस प्रकार दूसरे मिसरे के भी 4+4=8 औज़ान बरामद हो गए

जिसमे  हम 121  को फ़ऊल [[मक़्सूर] कहेंगे
और           21 को ;फ़ाअ’[-ऐन साकिन] को " मक्सूर मुख़्न्निक़" ’ कहेंगे
आप चाहें तो अलग से विस्तार से लिख कर देख सकते है। मेरी व्यक्तिगत राय यही है कि 22 या 122 के बजाय रुक्न का नाम ही लिखना ही श्रेयस्कर होगा कारण कि आप को यह पता चलता रहे कि मिसरा के किस मुक़ाम पर साकिन होना चाहिए और किस मुक़ाम मुतहर्रिक ।

आप घबराइए नहीं --ये 24-औज़ान आप को रटने की ज़रूरत नहीं -बस समझने के ज़रूरत है --जो बहुत आसान है
[1] ज़्यादातर माहिया निगार पहले और तीसरे मिसरे के लिए  G & H का ही प्रयोग करते है , और मिसरा के अन्त में Additional  साकिन वाला केस तो बहुत जी कम देखने को मिलता है । बाक़ी औज़ान का प्रयोग कभी कभी ही करते है --जब कोई मिसरा ऐसा फ़ँस जाये तब
[2]  दूसरे मिसरे के लिए K & L का ही प्रयोग करते हैं
[3]  प्राय: हर मिसरा के आख़िर मे -एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़- [2]  या  इलुन [12]  आता है यानी मिसरा दीर्घ [2] पर ही गिरता है

माहिया के औज़ान के बारे में कुछ दिलचस्प बातें

[1] अमूमन उर्दू शायरी में --कोई शे’र या ग़ज़ल एक ही बहर या वज़न में कहे जाते है ,मगर यह स्निफ़ [विधा] दो बह्र इस्तेमाल करती है --यानी पहली पंक्ति में --मुतदारिक मख़्बून की ,और दूसरी पंक्ति -मुतक़ारिब की मुज़ाहिफ़
[2]  यह स्निफ़ ’सालिम’ रुक्न इस्तेमाल नहीं करती --बस सालिम रुक्न की मुज़ाहिफ़ शकल ही इस्तेमाल करती है
[3]  चूँकि यह स्निफ़[विधा] मुज़ाहिफ़ शजक ही इस्तेमाल करती है अत: 3-मुतहर्रिक एक साथ आने के मुमकिनात है--चाहे एकल रुक्न में या दो पास पास वाले मुज़ाहिफ़ रुक्न मिला कर }फिर तस्कीन या तख़्नीक़ का अमल हो सकता है इन रुक्न पर।
[4] हालाँ कि दूसरी लाइन में एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कम होता है बनिस्बत पहली या तीसरी लाइन से ---शायद यह कमी ऎब न हो कर -यही माहिया को  आहंग ख़ेज़ बनाती है--जैसे गाल में पड़े गढ्ढे नायिका के सौन्दर्य श्री में वॄद्धि देते है।

अब कुछ माहिया और उसकी तक़्तीअ देख लेते है
[1] " तुम रूठ के मत जाना   
मुझ से क्या शिकवा
दीवाना है दीवाना
--क़मर जलालाबादी 
तक़्तीअ देखते हैं -
2    2   /  1 1 2     / 2 2
तुम रू/ ठ के मत / जाना    फ़े’लुन---फ़अ’लुन---फ़े’लुन =  G
2       2 / 2   2     / 2
मुझ से /क्या शिक/वा            फ़े’लुन----फ़े’लुन   ---फ़े =L
2    2 /  1 1 2  / 2 2
दीवा/ ना है  दी /वाना फ़े’लुन---फ़अ’लुन---फ़े’लुन =G

[2]  दिल ले के  दगा देंगे     
यार है मतलब के
देंगे तो ये क्या देंगे 
                --साहिर लुध्यानवी

तक़्तीअ’ भी देख लेते हैं
   2   2  / 1   1 2   /  2 2  22---112---22 = G
दिल ले /के  द गा  /दें गे     
2  1   / 1 2   2   / 2 21---122---2 =K
यार  /है मत लब /के
2  2  / 1 1 2      / 2 2 22---112---22 = G
देंगे/   तो ये क्या /देंगे

[3]   अब इस हक़ीर का भी एक माहिया बर्दास्त कर लें

जब छोड़ के जाना था
क्यों आए थे तुम?
क्या दिल बहलाना था?

अब इसकी तक़्तीअ’ भी देख लें
2   2      / 1 1  2  / 2 2 =22---112---22 = G
जब छो /ड़ के जा /ना था
2     2    / 2  2 /2 = 22---22---2 =L
क्यों आ /ए थे/ तुम?
2     2     /  2  2   / 2 2 = 22---22---22 =H
क्या दिल/ बह ला /ना था?

एक बात चलते चलते

चूँकि उर्दू में माहिया निगारी एक नई विधा है --इस पर शायरों ने बहुत कम ही कहा है--लगभग ना के बराबर। कभी कहीं कोई शायर तबअ’ आज़माई के लिहाज़ से छिट्पुट तरीक़े से यदा-कदा लिख देते हैं
उर्दू रिसालों में भी इसकी कोई ख़ास तवज़्ज़ो न मिली ---मज़्मुआ --ए-माहिया तो बहुत कम ही मिलते है। डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब ने माहिया पर एक मज़्मुआ " ख़्वाबों की किरचें "-मंज़र-ए-आम पे आया है।
उमीद करते है कि हमारे नौजवान शायर इस जानिब माइल होंगे और मुस्तक़बिल में माहिया पर काम करेंगे और कहेंगे । इन्ही उम्मीद के साथ---

अस्तु
-आनन्द.पाठक-

शनिवार, 19 जनवरी 2019

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 60 [ बह्र-ए-रुबाई]

क़िस्त 60 : रुबाई की बह्रें


[नोट : कुछ  मित्रों का आग्रह था कि कभी ’रुबाई की बह्रों पर भी बातचीत की जाए। यह आलेख उसी सन्दर्भ में ]

रुबाई उर्दू शायरी की एक विधा है। यह विधा अरबी शायरी में नहीं पाई जाती है । इस का इज़ाद अहल-ए-इरान ने किया और फिर वहाँ से उर्दू शायरी में आई
आप जानते होंगे ,फ़ारसी के  शायर उमर ख़य्याम की रुबाईयात काफी मशहूर है और उनके  विश्व के कई भाषाओं में अनुवाद भी हो चुके हैं जिसमे अग्रेजी के कवि ’फिटजेराल्ड ’ का इंग्लिस  अनुवाद बहुत अच्छा माना जाता है
।उन रुबाईयात के हिन्दी में भी  कई अनुवाद हो चुके है  जिसमें  श्री हरिवंश राय ’बच्चन’ जी का हिन्दी अनुवाद बहुत अच्छा माना जाता है । बच्चन जी अनुवाद करते करते ख़य्याम की रुबाइयात से इतना प्रभावित हुए कि वो खुद ही बाद में मधुशाला मधुबाला मधु कलश आदि की रचना की ।
रुबाई की बह्रें [औज़ान] की चर्चा करने से पूर्व ,रुबाई के बारे में कुछ बात कर लेते हैं
रुबाई चार लाइन की एक रचना होती है जिसमें पहली--दूसरी--और चौथी पंक्ति तुकान्त [हम क़ाफ़िया] होती है ।तीसरी पंक्ति हम क़ाफ़िया या तुकान्त होना  ज़रूरी नहीं । और हो तो मनाही भी नहीं । न होना ही बेहतर माना जाता है ।रुबाई की पहली दो पंक्ति को ’मतला’ नहीं कहते बल्कि ’मुस्सरा’ कहते है । रुबाई का सारा सार ’चौथी पंक्ति" में होता है या आप यूँ कह लें चौथी पंक्ति में जो जान डाली गई है -पहले की तीन लाइनें उसमें मदद करती हैं। क्लासिकल उर्दू शायरी में यह विधा काफ़ी लोक प्रिय रही मगर ग़ज़ल जैसी मक़्बूलियत नहीं पा सकी। अमूमन हर पुराने हर शायर ने यथा ग़ालिब,मीर, ज़ौक़-दाग़-फ़िराक़ आदि कई शायरों ने कुछ न कुछ रुबाइयाँ कहीं है । परन्तु आजकल फ़ेसबुक व्हाट्स अप पर या यहाँ तक कि मुशायरों में भी रुबाइयाँ न के बराबर ही लिखी पढ़ी जाती हैं।  उसकी जगह ’चार लाइन’ के मुक्तक पढ़े जाते है ,जो रुबाई नहीं होते। ’मुक्तक’ नाम आदरणीय गोपाल दास’नीरज’ जी का दिया हुआ है ।

एक मुक्तक देख लें

[1] बात को मन के मन से तोलूँगा
इस से पहले ज़ुबाँ न खोलूँगा
चाहे दुनिया सुने सुने न सुने
मैं जहाँ हूँ वहीं  से बोलूँगा
बलवीर सिंह ’रंग’

एक रुबाई लिख रहा हूँ

[2] दुनिया के अलम  ’ज़ौक़’  उठा जाएँगे
हम क्या कहें  क्या आए थे क्या जाएँगे
जब आए थे रोते हुए आप  आए थे
जब जाएँगे औरों  को रुला  जाएँगे
-ज़ौक-
अब एक मतला और एक शे’र देख लें

[3] आज इतनी मिली है  ख़ुशी आप से
दिल मिला तो मिली ज़िन्दगी आप से
तीरगी राह-ए-उल्फ़त पे तारी न हो
छन के आती रहे रोशनी  आप से
-आनन-
आप ध्यान से देखें -सभी कलाम में चार पंक्तियाँ है ,सभी में पहली--दूसरी--और चौथी पंक्ति तुकान्त [हम काफ़िया है] और अमूमन सभी की ’चौथी’ पंक्ति में जान है मगर सभी ’रुबाई’ नहीं है --सिवा [2] के ज़ौक़ की रुबाई
इसी लिए कहते है हर चार लाईन की रचना ’रुबाई’ नहीं होती।मगर हर रुबाई ’चार लाईन’ की ही होती है । इसी रुबाई शब्द से ’मुरब्ब: ’ --[चार अर्कान वाले शेर]  बना है ।
कारण कि रुबाई की अपनी ख़ास बह्र होती है अपने ख़ास औज़ान होते हैं
यूँ तो ’रुबाई’ उत्पति के बारे में कुछ किंवदन्तियाँ  भी  है। यहाँ उल्लेख करने की कोई ज़रूरत नहीं । बस आप यहीं समझ लें कि रुबाई के बह्र की उत्पति ’बह्र-ए-हज़ज’ से हुआ है
बह्र-ए-हज़ज का बुनियादी रुक ’मुफ़ाईलुन ’[1222] होता है और यूँ तो इस पर कई ज़िहाफ़ लग सकते हैं मगर ’रुबाई’ के सन्दर्भ में  कुछ ख़ास ज़िहाफ़ ही लगते हैं ।जो नीचे लिख रहा हूं

मुफ़ाईलुन [1222} + ख़र्ब =अख़रब ’मफ़ऊलु- [221]  यानी लाम पर हरकत है[ ख़र्ब एक मुरक्कब ज़िहाफ़ है =[ख़रम +कफ़]=दोनो ज़िहाफ़ का अमल एक साथ होगा
** मुफ़ाईलुन [1222] +ख़रम =अख़रम ’मफ़ऊलुन’-[222]**
मुफ़ाईलुन [1222] +कफ़ =मक्फ़ूफ़ ’ ’मफ़ाईलु- [1221] यानी लाम पर हरकत है
मुफ़ाईलुन [1222]  +हतम =अहतम  ’फ़ऊलु ’[121] यानी लाम पर हरकत है [ हतम एक मुरक्कब ज़िहाफ़ है = बतर+क़ब्ज़+तसबीग़= तीनो ज़िहाफ़ का अमल एक साथ होगा
[** अख़रम के बारे में आगे चर्चा करेंगे]
 रुबाई की बह्र समझना बहुत आसान है-अगर आप ’तख़्नीक़’ का अमल समझ लिए हों तो
 उम्मीद है कि आप लोग "तस्कीन-ए-औसत" और तख़नीक़ का अमल जानते होंगे। जो पाठक प्रथम बार इस पॄष्ठ पर आए है उनके लिए एक बार दुहरा देता हूँ
तख़नीक़ का अमल = अगर किसी बह्र के दो adjacent & consecutive [समीपवर्ती रुक्न] में ’" तीन मुतहर्रिक हर्फ़ [हर्फ़ मय हरकत] एक साथ आ गए हो तो उस पर तख़्नीक का अमल हो सकता है और बीच वाला हर्फ़ ’साकिन’ माना जायेगा। इससे एक नया वज़न बरामद होता है

वैसे तो रुबाई की मूल बह्र तो 2- ही होती है मगर इसी ’तख़्नीक’ के अमल से 24 -औज़ान [ वज़्न का ब0व0] बरामद होते है।और वो दो मूल बह्र यूँ हैं

[A] मफ़ऊलु---मफ़ाईलु---मफ़ाईलु----फ़ अ’ल/ फ़ऊल
221---------1221----1221--------12  / 121
[B] मफ़ऊलु----मफ़ाइलुन---मफ़ाईलु-----फ़ अ’ल/फ़ऊलु
221----------1212-----1221-------12  / 121
ख़याल रहे -लु- मतलब -लाम मुतहर्रिक [यानी -लाम- मय हरकत]
-------------------     -----------------------------------     --------------------
अब मूल बह्र [A]  पर ’तख़्नीक़’ का अमल करते हैं फिर देखते हैं कि कितने ’मुतबादिल’ औज़ान बरामद होते हैं

  -a-----------b--      -- -c-        ---- d-
[A] मफ़ऊलु---मफ़ाईलु----मफ़ाईलु----फ़ अ’ल
221---------1221----1221--------12


[1] मफ़ऊलु---मफ़ाईलु----मफ़ाईलु----फ़ अ’ल
221---1221----1221---12  -no  operation-

[2] 221----1221---1222-----2 operation on c & d

[3] 221----1222----221----12 operation on b &  C

[4] 222---221---1221----12 operation  on a & b

[5] 221---1222---222---2 operation on  b --c---d

[6] 222---221---1222---2 operation on  [a--b]-[-c--d]

[7] 222---222---221---12 operation on  a-b--c

[8] 222---222---222---2 operation  a--b---c---d

यह तो 8-वज़न  सिर्फ़ अरूज़ और ज़र्ब में ’फ़ अ’ल [12] से ही बरामद हुए
ऐसे ही 8- वज़न अरूज़ और ज़र्ब में में जब ’फ़ऊल [121] लिखेंगे तो बरामद  होंगे
और यूँ भी अरूज़ /ज़र्ब के मुक़ाम पर ’फ़ अ’ल [12] की जगह ’फ़ऊल [121] लाया जा सकता है
और वैसे भी अगर किसी शे’र के आख़िर में एक साकिन [1] बढ़ा भी देते हैं तो शे’र के वज़न में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। आहंग मज़रूह नहीं होता।
और वो मज़ीद 8-वज़न आप लिख सकते हैं । चलिए आप के लिए मैं लिख देता हूँ same-to-same बस आख़िए में [1] साकिन जोड़ दूँगा ’फ़ऊल [121] दर्शाने के लिए

[1] मफ़ऊलु---मफ़ाईलु----मफ़ाईलु----फ़ऊल
221---1221----1221--           -121  -no  operation-

[2] 221----1221---1222-----21 [फ़ा अ’] operation on c & d

[3] 221----1222----221----121 operation on b &  C

[4] 222---221---1221----121 operation  on a & b

[5] 221---1222---222---21 operation on  b --c---d

[6] 222---221---1222---21 operation on  [a--b]-[-c--d]

[7] 222---222---221---121 operation on  a-b--c

[8] 222---222---222---21 operation  a--b---c---d

इस प्रकार
 रुबाई की पहले बुनियादी वज़न से --16- औज़ान बरामद हुए [ नोट करें]
--------------    -----------------------    --------------------
अब मूल बह्र [B]  पर ’तख़्नीक़’ का अमल करते हैं फिर देखते हैं कि कितने ’मुतबादिल’ औज़ान बरामद होते हैं
   a------------b-----------c------------d---
[B] मफ़ऊलु----मफ़ाइलुन---मफ़ाईलु-----फ़ अ’ल
221---------1212----1221--------12

[1] 221----1212   -----1221----12        -no operation-

[2] 222-----212-------1221---12 operation on -a- &-b-

[3] 221-----1212 ----1222----2 operation on  c & d

[4] 222------212-----1222-----2 operation  on [a & b]- [c &d]

जैसा कि ऊपर कह चुके हैं कि अगर शे;र के आख़िर में एक साकिन [1] और बढ़ा भी दें तो शे’र के वज़न में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा ।आहंग मज़रूह नहीं होता । और वैसे भी अरूज़ /ज़र्ब के मुक़ाम पर ’फ़ अ’ल [12] की जगह ’फ़ऊल [121] लाया जा सकता है
इस प्रकार 4 -वज़न  और बरामद होते हैं जो यूँ होंगे
[B] मफ़ऊलु----मफ़ाइलुन---मफ़ाईलु-----फ़ऊल
221---------1212----1221--------121


[1] 221----1212   -----1221----121        -no operation-

[2] 222-----212-------1221---121 operation on -a- &-b-

[3] 221-----1212 ----1222----21 operation on  c & d

[4] 222------212-----1222-----21 operation  on [a & b]- [c &d]

इस प्रकार रुबाई की दूसरी बुनियादी बह्र से कुल 8-औज़ान बरामद हुए

अब आप दोनो बुनियादी रुक्न के तमाम औज़ान जो बुनियादी है और जो ’मुख़्नीक़ ’ [ जो तख़नीक़ के अमल से बरामद हुए हैं] है कुल मिला दें तो
16+8 = 24 औज़ान होंगे और यही अरूज़ की किताबों में लिखा है --रुबाई के 24-औज़ान होते हैं। इन अर्कान को रटने की ज़रूरत नहीं है बस समझने की ज़रूरत है।

1 आप की सुविधा के लिए ये सभी 24-अर्कान एक साथ एक जगह एक क्रम से लिख रहा हूँ जिससे किसी रुबाई की तक्तीअ’ या वज़न पहचानने में सुविधा हो। नीचे का क्रम सुविधाजनक ढंग से लिखा  हुआ है, पर हैं वही 24-औज़ान जिसका ऊपर चर्चा कर चुका हूँ  । इन में से 12-औज़ान तो वही हैं जो अरूज़/ज़र्ब में ’फ़ अ’ल’ [12] या ’फ़े’ [2] वाले हैं । बाक़ी 12-औज़ान वो हैं जिसमें मात्र अरूज़/ज़र्ब के मुक़ाम पर -1-साकिन बढ़ा दिया गया है
2 इन 12-औज़ान में से 6-औज़ान तो  अख़रब  मफ़ऊलु [221] से शुरु होते है। बाक़ी 6-औज़ान मफ़ऊलुन [222] से शुरु होते है
3 मफ़ऊलु [221] से शुरु होने वाले 6 औज़ान में से 3-औज़ान तो ’फ़ अ’ल [12] पर खतम होते है और बाक़ी 3-औज़ान ’फ़े’ [2] पर
4 यही हाल ’मफ़ऊलुन [222] से शुरु होने वाले औज़ान के साथ भी लागू होता है
5 इसका मतलब यह हुआ कि रुबाई का मिसरा या तो मफ़ऊलु [221] से शुरु होगी या फिर ’मफ़ऊलुन’ [222] से
और खतम होगा ’फ़े/फ़ाअ’[ 2 /21] पे या फिर ’फ़ अ’ल’ /. फ़ऊल   [ 12 /121] पे

6 आप की सुविधा और सफ़ाई के लिहाज़ से इन अर्कान के नाम अलामत के ऊपर नहीं लिख रहे है ।आप चाहें तो मश्क़ कर अलग से लिख सकते हैं जैसे
221 =मफ़ऊलु
1212 =मफ़ाइलुन
1221 =मफ़ाईलु
1222 =मफ़ाईलुन
**222 =मफ़ऊलुन**
12 = फ़ अ’ल  [-लाम-साकिन ]
121 =फ़ऊल   [-लाम- साकिन]
2 =फ़े
21 =फ़ाअ’  [-ऐन- मुतहर्रिक]
** लेख के आरम्भ में कहा था कि ’मफ़ऊलुन’ [222] के बारे में बात में बात करेंगे। कहना यही थी कि यह ’मफ़ऊलुन’ [222] रुबाई में  मुख़्नीक़ [ तख़्नीक के अमल ] से हासिल होता है। न कि ’अख़रम’ ज़िहाफ़ से । अरूज़ की कई किताबों में इसे ’अख़रम’ ज़िहाफ़ से हासिल दिखाया /बताया गया है ।

R-1 221-- -1221----1221-- -12

R-2 221----1222----221----12

R-3 221----1212   --1221---12 
   
R-4 221----1221--- 1222-----2

R-5 221--- 1222--   -222--    -2

R-6 221----1212 ---1222----2
------       --------         ---------------     ----
R-7 222---  221--   -1221----12

R-8 222--  -222--  -221-   --12

R-9 222-----212- --1221---12

R-10 222-   --221-- -1222--  -2

R-11 222--  -222-  --222--   -2

R-12 222-----212- --1222-----2
----------------    ------------------     ----------

 अगले 12-अर्कान लगभग  समान ही होंगे -बस आखिर वाली रुक्न [अरूज़/ज़र्ब] मे -1-साकिन बढ़ाते जाइए।आप चाहें तो उसे पहचानने के लिए    R'1---R'2---R'3---  ---  R'12  Index कर सकते है जिससे पता चलता रहे कि ये वो औज़ान है जिसके अरूज़/ज़र्ब में -1-साकिन मज़ीद जुड़ा हुआ है ।
यह तमाम 24-औज़ान आपस में ’मुतबादिल’ [यानी एक की बदल/जगह दूसरा] लाया जा सकता है
्कारण इन तमाम 12 औज़ान की मात्रा जोड़िए ---सभी का योग एक जैसा है [20] बराबर
यानी रुबाई के चारों पंक्तियों में 4-अलग अलग वज़न [ इन्ही 24 में से कोई चार] हो सकते हैं । या किसी-एक ही वज़न में चारों पंक्तियाँ हो सकती है
उसी प्रकार बाक़ी 12 [जो अरूज़/ज़र्ब मेम -एक-साकिन बढ़ाने से हासिल होंगे] में कुल मात्रा भार 21 होगा
-----     ---------------------    -----------------------------   ----------
चलिए एक दो रुबाइयों की तक़्तीअ कर के देख लेते है -
[क] ज़ौक़ की रुबाई देख लेते हैं

दुनिया के अलम  ’ज़ौक़’  उठा जाएँगे
हम क्या कहें  क्या आए थे क्या जाएँगे
जब आए थे रोते हुए आप  आए थे
जब जाएँगे औरों  को रुला  जाएँगे
-ज़ौक-
इसकी तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
2   2    1   / 1  2    2  1   / 1  2  2 2  / 2 R-4
दुनिया के /अलम  ’ज़ौक़’ / उठा जाएँ /गे
2     2     1 /  1 2 2 2  1 / 1 2 2 2  / 2 R-4
हम क्या क/हें  क्या आए/ थे क्या जाएँ /गे
2      2   1  / 1  2 2  1/1  2    2  2  /2 R-4   [ -आप आए-  में   अलिफ़ का वस्ल है और आपाए [222]
जब आए /थे रोते हु    /ए आप  आए /थे
2      2   1/ 1  2  2  1 / 1 2   2 2  /1 R-4
जब जाएँ /गे औरों  को /रुला  जाएँ /गे
-ज़ौक-
[ख] मीर अनीस लखनवी की एक बहुत ही मशहूर रुबाई है

दुनिया भी अजब सराय-ए-फ़ानी देखी
हर चीज़ यहाँ की आनी जानी देखी
जो आ के न जाए वो बुढ़ापा  देखा
जो जा के न आए वो  जवानी   देखी
-मीर अनीस लखनवी
तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
   221     /  1212       / 1 2 2  2      / 2 =221-1212---1222--2 =  R-6
दुनिया भी /अजब सरा /य-ए-फ़ानी दे/खी
2    2   1 /  1  2  1  2   / 1 2  2  2  / 2 = 221-1212---1222--2 =  R-6
हर चीज़ / यहाँ की आ /नी जानी दे  /खी
 2    2   1 / 1  2 1 2  / 1 2 2 2    /2 =221-1212---1222--2 =  R-6
जो आ के/ न जाए वो  /बुढ़ापा  दे    /खा
2      2   1/ 1 2 1 2    / 1 2 2 2  / 2 = 221-1212---1222--2 =  R-6
जो जा के/ न आए वो  /जवानी   दे /खी
[नोट -इस रुबाई में एक ही वज़न चारों पंक्तियों में इस्तेमाल हुई है ]

बात हैरत की है कि औज़ान में  इतनी ’फ़ेक्सिबिल्टी ’ के बावजूद भी  रुबाइयाँ दौर-ए-हाज़िर में कम ही कही जा रही है और उनकी जगह मुक्तक या ’एक मतला-एक शे’र’ ने ले लिया है किसी मुशायरे को सरगर्म करने के लिए।
शायद एक कारण ये रहा हो कि रुबाई की गायकी [मौसिक़ी] ग़ज़ल के मुकाबले कमज़ोर हो या फिर शायर के सामने इतनी राहें [24] खुल जाती है कि वो भ्रमित हो जाता हो कि कौन सा वज़न इस्तेमाल करें। यह सब मेरा ख़याल है
बेहतर तो होगा कि यदि आप रुबाई कहना चाह्ते हैं तो सभी चार मिसरे एक या दो वज़न में ही कहें --कोई दिक्कत नहीं

अस्तु


-आनन्द.पाठक--

बुधवार, 9 जनवरी 2019

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 59 [ बह्र-ए-मीर]


              उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त  59  [ बह्र-ए-मीर]

[ कुछ मित्रों का आग्रह था कि कुछ ’बह्र-ए-मीर’ पर एक चर्चा की जाय} अत: यह आलेख प्रस्तुत किया जा रहा है]

आप को शायद याद हो जब ’बह्र-ए-मुतक़ारिब’ के औज़ान की चर्चा कर रहा था तो निम्नलिखित 2-वज़न की भी चर्चा की थी
[क] मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ मक़्बूज़ सालिम अल आखिर
फ़े’लु---फ़ऊलु---फ़ऊलु--फ़ऊलुन
21------121-----121-----122
[ फ़े’लु [21] ----मुज़ाहिफ़ असरम है ’फ़ऊलुन [122] का
[ फ़ऊलु [121] ---मुज़ाहिफ़ मक़्बूज़ है ’फ़ऊलुन[122] का
यह रुक्न मुसम्मन [8 रुक्न एक शे’र में] है और इसका ’मुज़ा अ’फ़ [ दो गुना ] भी संभव है -यानी 16-रुक्नी अश’आर भी कहे जा सकते हैं इस वज़्न पर
यानी मुसम्मन मुज़ाहिफ़    होगा क // क दुरुस्त है
[ख] मुतक़ारिब मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ मक़्बूज़ महज़ूफ़
फ़े’लु---फ़ऊलु---फ़ऊलु--फ़ अ’ल
21------121-----121-----12
[ फ़ अ’ल [12] महज़ूफ़ है फ़ऊलुन [122] का
यह रुक्न भी  मुसम्मन [8 रुक्न एक शे’र में] है और इसका ’मुज़ा अ’फ़ [ दो गुना ] भी संभव है -यानी 16-रुक्नी अश’आर भी कहे जा सकते हैं इस वज़्न पर
यानी मुसम्मन मुज़ाहिफ़    होगा ख // ख दुरुस्त है
तब  क  //   ख क्या होगा ?-
-यह वज़न जो किसी का ’मुज़ाअ’फ़’ नहीं होगा । न [क] वज़न का ,न [ख] वज़न का -मगर होगा 16-रुक्नी बह्र ही
यही बह्र-ए-मीर है । कैसे ? यह नाम शम्स्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब का दिया हुआ है जो उचित भी है। कारण कि क्लासिकल अरूज़ की किताबों में ऐसी कोई बहर न थी जो दो मुख्तलिफ़ वज़न से दो मुख्तलिफ़ हिस्सों से बने हो
मीर तक़ी मीर ने अपनी बहुत सी ग़ज़ले इसी बह्र में कहीं है ।अत: लोगों में यह बह्र इसी नाम से   जानी-पहचानी जाती है । अमेरिकन आलिमा मोहतरमा Frances W.Pritchett -साहिबा ,.शम्स्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ,डा0 आरिफ़ हसन ख़ान आदि कई विद्वानों ने ’मीर’ की शायरी पर बहुत काम किया है। फ़ारूक़ी साहब तो ख़ैर स्वयं  में ही एक उर्दू साहित्य के महान प्रामाणिक समीक्षक हैं ।

अब  क//ख को विस्तार से देखते है

मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ मक़्बूज़ सालिम अल आखिर //मुतक़ारिब मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ मक़्बूज़ महज़ूफ़
फ़े’लु---फ़ऊलु---फ़ऊलु--फ़ऊलुन  //फ़े’लु---फ़ऊलु---फ़ऊलु--फ़ अ’ल
21------121-----121-----122     // 21------121-----121-----12
नाम इतना लम्बा हो गया तो उसे संक्षिप्त कर के  अब आगे से मीर की बह्र या बह्र-ए-मीर ही कहेंगे

बह्र-ए-मीर
फ़े’लु---फ़ऊलु---फ़ऊलु--फ़ऊलुन  //फ़े’लु---फ़ऊलु---फ़ऊलु--फ़ अ’ल
21------121-----121-----122     // 21------121-----121-----12
इस वज़न को ध्यान से देखें तो बहुत सी बाते आप को स्पष्ट हो जायेंगी
[1] इस वज़न का  पहला हिस्सा  और ’दूसरा हिस्सा’ लगभग समान है । बस दूसरे हिस्से में एक ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़’ कम है । यानी पहले हिस्से में  ’मात्रा भार" 16 और दूसरे हिस्से में 14 है
[उर्दू शायरी मात्रा से नहीं अर्कान के वज़न से चलती है -बस समझने /समझाने की गरज़ से लिख दिया]
[2] दो -consecutive रुक्न में कई जगह  --तीन मुतहर्रिक- एक साथ आ रहे हैं अत: इन पर ’तख़्नीक़’ का अमल हो सकता है । मैं समझता हूँ कि तस्कीन और तख़्नीक़ का अमल आप समझते होंगे। जो पाठकगण अभी अभी इस ब्लाग पर आये हैं उनक्र लिए संक्षिप्त रूप से एक बार फिर बता दे रहा हूँ । ’किसी ’मुज़ाहिफ़ बह्र’ में यदि दो-consecutive रुक्न में ’तीन मुतहर्रिक हर्फ़ ’ एक साथ आ जाये तो बीच वाला मुतहर्रिक हर्फ़ ’साकिन’ हो जाता है और एक नया वज़न बरामद होता है} और इस नए बह्र और पुराने बह्र -दोनो का वज़न बराबर होगा और आपस में ’मुतबादिल’[ यानी आपस मे बदले जा सकते है] होगा----मगर शर्त यह कि बह्र न बदल जाए।
इस तख़्नीक़ के अमल से आप जानते है कि कितने "मुतबादिल औज़ान" बरामद हो सकते है ?
पहले हिस्से से 16 औज़ान
दूसरे हिस्से से भी  16 औज़ान
अत: कुल मिला कर ३२ -औज़ान। आइए देखते हैं
--------पहला हिस्सा----------------------------------//------------ --------दूसरा हिस्सा---
[A]     21----121---121----122 [I]  21-----121---121---12
[B]     21----121---122----22 [J] 21----121---122----2
[C] 21---122---21-----122 [K] 21-----122---21---12
[D] 22---21---121-----122 [L] 22----21------121---12
[E]     21----122---22-----22 [M] 21----122----22-----2
[F] 22----21-----122---22 [N] 22-----21-----122---2
[G] 22----22-----21-----122 [O]  22-----22-----21----12
[H] 22----22-----22-----22 [P] 22----22-----22----2
मिसरा के पहले हिस्से में--

 बज़ाहिर -अरूज़ और ज़र्ब मे 4-रुक्न तो सालिम फ़ऊलुन [122] पर गिरेगा
और  4-रुक्न  फ़े’लुन [22] पर गिरेगा अरूज़ और ज़र्ब में -फ़ऊलुन [122] की जगह इसका मुस्बीग़ मुज़ाहिफ़ ’फ़ऊलान[1221] लाया जा सकता है और
फ़े’लुन [22] की जगह फ़ेलान [221] भी लाया जा सकता है  जिसे  अगर कहीं ज़रूरत पड़ी तो क्रमश: a--b-c-d-e-f-g-h से दिखायेंगे

उसी प्रकार ,मिसरा के दूसरे हिस्से में :-
अरूज़/ज़र्ब में 4-रुक्न तो ’फ़ अ’ल’ [12] पर गिरेगा,और 4-रुक्न ’फ़े’[2] पर गिरेगा
अच्छा ,पहले हिस्से की तरह --दूसरे हिस्से में मिसरा के आख़िर में -एक- साकिन बढ़ाने से  शे’र के वज़न पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा तो इस प्रकार से 8-वज़न और बरामद हो सकते हैं ।और यह सभी वज़न आपस में ’मुतबादिल’ -यानी एक दूसरे की जगह बदले जा सकते हैं।अगर ज़रूरत पड़ी तो इन्हे  क्रमश : i-- j--k-l-m-n-o-p-से दिखाया जायेगा।
अत: मीर की ऐसी गज़लें [जो मीर की बह्र पर कही गई है] तो उन के  मिसरा का पहला हिस्सा -इन्ही 16-औज़ान में से  और दूसरा हिस्सा इन्ही किसी न किसी एक वज़न पर ज़रूर होगा।
यूँ मीर के पहले भी यह दोनों बह्र  A & B तो अरूज़ में पहले से ही थी और इनकी मुज़ाअ’फ़ भी थी अलग-अलग रूप से । आप यूँ कहें की ’मीर’ ने इन दोनो बह्र को मिला कर  A + B कर दिया जिससे मीर की बह्र कहते हैं अत: यह १६- रुक्नी बह्र तो हुई मगर किसी बह्र की ’मुज़ाअ’फ़’ [दो गुनी] न हुई।
ख़ैर
अब ’मीर’ की कोई एक ग़ज़ल लेते हैं और उसकी तक़्तीअ भी देखते है --जिससे बात साफ़ हो जाए
मीर की एक बहुत मशहूर ग़ज़ल है जिसे आप सभी ने सुन रखा होगा

पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

आशिक़ सा तो सादा कोई ,और न होगा  दुनिया में
जी के ज़ियां को इश्क़ में उसके अपना वारा जाने है

क्या क्या फ़ितने सर पर उसके लाता है माशूक़ अपना
जिस बे दिल बेताब-ओ-तवां को इश्क़ का मारा जाने है

अब इन अश’आर क्र्र तक़्तीअ कर के देखते है । पहले तो ’अरूज़ी वक़्फ़ा’ लगाते है जो ऐसी बहर में लाज़िमी है और मिसरा को दो-हिस्से में बाँट कर देखा जा सके
  2  2--/  2 2  -/-22-/-22  //    21- /  122 -/-22 /-2 =- H   //--M
पत् ता/  पत् ता / बूटा/ बूटा // हाल/  हमारा/ जाने/ है
21-/-1 2 2  /  21     / 122    //  21  / 1 2 2 / 22   /2 = C  // M
जाने /न जाने/ गुल ही/  न जाने// बाग़ / तो सारा/ जाने/ है

  22       /22      /22    /22  // 21 / 122    / 22     /2 = H //  M
आशिक़ /सा तो /सादा /कोई //और/ न होगा/ दुनिया /में
   2   1 /  1 2 2  / 2 1  / 1  2 2  //    2 2  / 2 2 / 2 2 /2 = C // Q
जी के /ज़ियां को/ इश्क़/ में उसके// अपना /वारा /जाने/ है

  2     2   /  2    2  /  2  2   / 2  2  //  2 2   / २ २ /  २ २    /२ =H  // P
क्या क्या/  फ़ित ने / सर पर /उसके //लाता /है मा /शुक़ अप/ना
2      2  /  2  2  / 2 1      / 1 2  2 //  21 / 1  2   2 / 22 /2 =  G // M
जिस बे /दिल बे/ताब-ओ/-तवां को// इश्क़ /का मारा /जाने/ है

इसी प्रकार मीर की  ऐसी और  ग़ज़लों की भी तक़्तीअ’ की जा सकती है और समझी जा सकती हैं।

बाद के और भी शायरों ने भी  इस बह्र में शायरी की है जो काफी आहंगखेज़ है

अगले क़िस्त में किसी और बह्र पर चर्चा करेंगे
[नोट- इस आलेख में कुछ ग़लत बयानी हो गई हों तो आप सभी से अनुरोध है कि आप मेरे ध्यान में ज़रूर लाइएगा जिससे मैं स्वयं को सही कर सकूँ]
अस्तु

-आनन्द.पाठक-