tag:blogger.com,1999:blog-88815730280808040592024-03-12T20:32:05.883-07:00शायरी की बातें..."उर्दू बह्र पर एक बातचीत"- के तमाम अक़्सात यकजा देखने के लिए visit करें www.aroozobahr.blogspot.com
[ लिंक नीचे बाँए साइड मीनू में दिया गया है ]आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.comBlogger178125tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-60244606577797556602024-02-26T20:46:00.000-08:002024-02-26T20:46:57.664-08:00बेबात की बात 04 : गिरते हैं शह्सवार ही मैदान-ए-जंग में<p> </p><p style="text-align: center;"><b>बेबात की बात 04 : गिरते है शहसवार ही ---</b></p><p><br /></p><p>यह जुमला आप ने कई बार सुना होगा और सुनाया होगा । यह एक शे’र के मिसरा का आधा ही भाग है --मगर यह जुमला इतना मक़्बूल हो चुका है ,ज़र्ब उल मिस्ल [ कहावत की ] हैसियत करार पा चुका है, हर आम और ख़ास की ज़ुबान पर चढ़ चुका है कि सामने वाला शख़्स बेसाख़्ता कह उठता है --</p><p>-<b> मैदान-ए-जंग में</b>। और पूरा शे’र यूँ पडः देता है</p><p><b>गिरते है शहसवार ही मैदान-ए-जंग में</b></p><p><b>वो तिफ़्ल क्या गिरे जो घुटनॊं के बल चले।</b></p><p>या </p><p><b>गिरते है शहसवार ही मैदान-ए-जंग में</b></p><p><b>वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनॊं के बल चले।</b></p><p>सवाल यह कि यह मशहूर शे’र किसका है इसका सही ’वर्जन’ सही पाठ क्या है ?</p><p> यह शे’र इतना घिस चुका है कि नेट पर इसके कई रूप मिलते है । एक सज्जन ने तो अपने फ़ेसबुक वाल पर -इसे नवजोत सिंह सिद्धू का ही बता दिया जो मौक़े-दर- मौक़े [ ज़ियादातर बेमौक़े ही ] ही पढ़ा करते हैं। मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि यह शे’र सिद्धू का नहीं है ।अगर यह शे’र सिद्धू का होता तो --अन्त में यह रदीफ़ ज़रूर लगाते --ठोकों ताली-😅😅😅 -हा हा हा हा।</p><p>ख़ैर इसका सही रूप है-</p><p><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: red;"><b>शह्ज़ोर अपने ज़ोर में गिरता है मिस्ल-ए-बर्क़</b></span></span></p><p><span style="white-space: normal;"><span style="color: red;"><b><span style="white-space: pre;"> </span>वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटने के बल चले ।</b></span></span></p><p>[ शह्ज़ोर = बलवान/बलशाली , </p><p>तिफ़्ल =बच्चा ]</p><p>रेख्ता में इसका यही रूप दिया है सही रूप दिया है। </p><p><span style="color: red;"><i>यह शे’र मिर्ज़ा अज़ीम बेग ’अज़ीम’ साहब का है ।</i></span></p><p>सच तो यह है कि जो शे’र आम तौर पर प्रचलन में है वह कहीं ज़ियादा मक़्बूल और आमफ़हम है।</p><p><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>अज़ीम साहब के इस शे’र के बारे में एक दिलचस्प वाक़या भी है। उस घटना का ज़िक्र -कमाल अहमद सिद्दक़ी साहब नें </span>अपनी किताब -’आहंग और अरूज़:-में किया है। उस घटना का विवरण [उन्ही के पुस्तक से साभार ] आप लोगों के लिए पेश कर रहा हूँ। आप भी लुत्फ़ अन्दोज़ [ आनन्दित] हों --</p><p><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>एक बार जनाब अज़ीम साहब अपनी एक ग़ज़ल इन्शा साहब [ जो उस ज़माने के एक मशहूर शायर थे ] को सुनाई </span>मगर <span style="color: #2b00fe;">ग़ज़ल में बह्र-ए-रमल और बह्र-ए-रजज़ का कुछ झोल था</span> ] इन्शा साहब ने उस ग़ज़ल पर खूब दाद दी और यह भी कहा कि अगले मुशायरे में यही ग़ज़ल सुनाना । अज़ीम साहब ने वही ग़ज़ल बड़ी शिद्दत और मुहब्ब्बत से मुशायरे में पढ़ी। मगर इन्शा साहब ने घात कर किया और भरी महफ़िल में अज़ीम साहब को ज़लील तो नहीं किया मगर तन्जन यह मुखम्मस [ 5-मिसरे की एक विधा]</p><p>पढ़ा--</p><p><span style="color: #800180;"> <b>गर तू मुशायरे में सबा आजकल चले</b></span></p><p><span style="color: #800180;"><b>कहियो "अज़ीम" से कि ज़रा वो सँभल चले</b></span></p><p><span style="color: #800180;"><b>इतना भी अपनी हद से न बाहर निकल चले</b></span></p><p><span style="color: #800180;"><b>पढ़ने को सब जो यार गज़ल दर ग़ज़ल चले </b></span></p><p><span style="color: #800180;"><b>बह्र-ए-रजज़ में डाल कर बह्र-ए-रमल चले ।</b></span></p><p><br /></p><p><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>अज़ीम साहब को भरी महफ़िल में यह तंज यह विश्वासघात बहुत नागवार गुज़रा । और उन्होने भी</span></p><p>उसी ज़मीन पर एक मुख़म्मस पढ़ा} । अज़ीम साहब का वह मुखम्मस तो अभी दस्तयाब नहीं है मगर उसका एक शे’र इतना मशहूर मक़्बूल हो गया कि ज़र्ब उल मिस्ल [ कहावत] की हैसियत पा गया और हर आम-ओ-ख़ास की ज़ुबान पर चढ़ गया।</p><p>वह शे’र था --</p><p><span style="color: red;"><b><i>शह्ज़ोर अपने ज़ोर में गिरता है मिस्ल-ए-बर्क़</i></b></span></p><p><span style="color: red;"><b><i>वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटने के बल चले ।</i></b></span></p><p><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>-- मिर्ज़ा अज़ीम बेग ’अज़ीम"</span></p><p>[ शहज़ोर= बलवान ,</p><p> तिफ़्ल = बच्चा ।</p><p>मगर समय के अन्तराल से किसी ने मिसरा उला को बदल दिया । हो सकता है कि किसी गिरह लगाने के कार्यक्रम में मिसरा उला का का गिरह लगा दिया और यूँ कर दिया--</p><p><span style="color: #134f5c;"><b>गिरते है शहसवार ही मैदान-ए-जंग में</b></span></p><p><span style="color: #134f5c;"><b>वह तिफ़्ल क्या गिरे जो घुटनो के बल चले</b></span></p><p>अब यह शे’र न अज़ीम साहब का रहा और न उस अनाम शख़्स का रहा जिसने यह तब्दीली कर दी।</p><p>बात जो भी है। यह दूसरा वर्जन निस्बतन कही ज़ियादे मानीख़ेज़ और असरदार है।</p><p>सादर</p><p><b>-आनन्द.पाठक </b></p><p>-==== ==</p><p><span style="white-space: normal; white-space: pre;"> </span></p><p><br /></p><p><br /></p>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-85809442194482268572023-12-23T05:23:00.000-08:002023-12-23T17:54:48.529-08:00बेबात की बात 03: न ख़ुदा ही मिला ,न विसाल-ए-सनम---<p><b>बेबात की बात 03: न ख़ुदा ही मिला ,न विसाल-ए-सनम---</b></p><p><br></p><p>" <span style="color: red;"><b>न ख़ुदा ही मिला न मिसाल-ए-सनम </b></span>"-यह जुमला आप ने कई बार सुना होगा और सुनाया भी होगा ।</p><p> सुनने सामने बाक़ी जुमला पूरा कर देता है। यानी--<span style="color: red;"><b>न इधर के रहे न उधर के रहे।</b></span></p><p><br></p><p> <b>न ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम , न इधर के रहे न उधर के रहे ।</b></p><p><br></p><p>फिर दोनो किसी अन्य के लिए अफ़सोस प्रगट करते हैं।</p><p><br></p><p>वस्तुत: यह मिसरा एक शे’र का है --जो ज़र्ब उल मिस्ल -यानी एक कहावत की हैसियत रखता है।</p><p> मगर यह मिसरा --एक शे’र की तरह पढ़ा जाता है । कभी कभी कोई शे’र या मिसरा इतना </p><p>बड़ा हो जाता है कि हर ख़ास-ओ-आम [ जन साधारण ] की ज़ुबान पर रहता है जो गाहे ब गाहे </p><p>सरजद [ प्रस्फुटित ] हो जाता है।ऐसे शे’र या मिसरा अपने शायर से बड़ा हो जाता</p><p> और प्राय: शायर का नाम गुमनाम हो जाता है।</p><p>यह जुमला तब पढ़ते हैं जब कोई व्यक्ति एक काम को छोड़ कर लालच में दूसरे काम में लग जाता है </p><p>और फ़िर नाकामयाब हो जाता है -तो यह जुमला पढ़ कर हम लोग अफ़सोस ज़ाहिर करते है।</p><p>हिंदी में इसी से मिलता जुलता ,एक कहावत है--</p><p>दुविधा मे दोनों गएमा</p><p>या मिली, न राम</p><p><br></p><p>पूरा शे’र इस प्रकार है---</p><p><br></p><p><span style="color: red;"><b>गए दोनों जहान के काम से हम. न इधर के रहे न उधर के रहे</b></span></p><p><span style="color: red;"><b>न ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम , न इधर के रहे न उधर के रहे।</b></span></p><p> --- मिर्ज़ा सादिक़ ’शरर;--</p><p><br></p><p>इस शे’र में -न इधर के रहे, न उधर के रहे -- पूरा का पूरा जुमला ही -रदीफ़- है। ख़ैर।</p><p><br></p><p>और यह शे’र है जनाब मिरज़ा सादिक़ ’शरर’ साहब का है -मगर लोग बाग</p><p> शायर का नाम नहीं जानते है या कम जानते हैं।</p><p><br></p><p>इन्तर्नेट पर इसी शे’र का दूसरा ’वर्जन ’ भी मिलता है --</p><p><br></p><p><b><span style="color: #990000;">न ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम , न इधर के रहे न उधर के हुए</span></b></p><p><b><span style="color: #990000;">रहे दिल में हमारे ये रंज-ओ-अलम , न इधर के हुए न उधर के हुए।</span></b></p><p> -नामालूम--</p><p>[ रेख़्ता ने इसे किसी -नामालूम -UNKNOWN शायर के नाम से उद्धॄत किया है । ख़ैर</p><p><br></p><p>दूसरे शे’र में अनाम शायर ने पहले शे’र के मिसरा सानी को मिसरा ऊला बना दिया </p><p>और --रहे - की जगह --हुए-- लिख दिया।</p><p><br></p><p>ख़ैर दोनो शे’र अपनी अपनी जगह बराबर के असर पज़ीर [ प्र्भावकारी ] है।</p><p><br></p><p>-आनन्द.पाठक--</p><p><br></p><p><i><span style="color: #2b00fe;">[ नोट -- इस काविश [ प्रयास ] में या आलेख में मेरा कोई योगदान नहीं है । </span></i></p><p><i><span style="color: #2b00fe;">यह सारी बातें /सामग्री इन्टर्नेट पर उपलब्ध हैजिसको मै एक जगह ला कर आप लोगो </span></i></p><p><i><span style="color: #2b00fe;">की सुविधा और सेवा में यहाँ प्रस्तुत कर देता हूँ। मेरी कोशिश यही रहती है कि आप </span></i></p><p><i><span style="color: #2b00fe;">लोगों को यथा सम्भव मुस्तनद और प्रामाणिक सूचना / जानकारी मिलती रहे--सादर\</span></i></p><p><br></p><p><br></p><p> </p><div><br></div>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-748154639420528142023-12-23T04:22:00.000-08:002023-12-23T04:30:28.092-08:00बेबात की बात 02: हर शाख़ पे उल्लू बैठा है--<p><b> बेबात की बात 02 : हर शाख़ पे उल्लू बैठा है---</b></p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>" हर शाख पे उल्लू बैठा है</b></span>----" यह जुमला आप ने कई बार सुना होगा और सुनाया भी होगा। जुमले के इतने ही अंश पढ़ने से सामने वाला समझ जाता है</p><p>"-<span style="color: red;"><b>-अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा</b></span>" । फिर सुनने-सुनाने वाला - दोनों एक व्यंग्य पूर्ण मुस्कान बिखरते है।</p><p>यह जुमला तब पढ़ते है जब किसी व्यक्ति के कारण किसी इदारा.संस्था या संगठन के अनिष्ट होने की संभावना दिखती है ।</p><p>प्राय: इस जुमले को एक शे;र की तरह पढ़ते है --यानी</p><p><b>"<span style="color: red;"><i>हर शाख पे उल्लू बैठा है ,अन्जाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा</i></span> !</b></p><p>दर असल यह एक शे’र का --मिसरा सानी है । असल शे’र यूँ है---- [ आगे बताऊंगा।</p><p> बहुत से अश’आर उर्दू शायरी में "ज़र्ब उल मिस्ल " [ यानी कहावत ] की हैसियत रखते है जो हर आम-ओ-ख़ास [ जन साधारण ] के जुबान-ए-ज़द रहता है</p><p> जो मौक़े दर मौक़े पढ़ते रहते है । यह शे’र भी ऎसी ही एक मिसाल है। ऐसे शे’र अपने शायर से कहीं बड़े हो जाते है और शायर का नाम गौण हो जाता है । अति प्रयोग के कारण ऐसे अश’आर में मूल पाठ में विकृति भी आ जाती है। ख़ैर----</p><p>मूल शे’र यूँ है ----</p><p> <span style="color: #800180;"><b>दीवार-ए-चमन पे ज़ाग़-ओ-ज़गन, मसरूफ़ है नौह: ख्वानी में</b></span></p><p><span style="color: #800180;"><b> हर शाख़ पे उल्लू बैठा है ,अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा ।</b></span></p><p><span style="color: #800180;">-कमाल सालारपुरी-</span></p><p>ज़ाग़ -ओ-ज़ग़न = चील कौअे</p><p>नौहाख्वानी में = रोने धोने मे</p><p>यह शे’र जनाब "कमाल सालारपुरी" साहब [ 1927-2010] का है ।</p><p>आइंदा कभी यह शे’र पढ़े तो शायर कमाल सालारपुरी साहब को एक बार ज़रूर याद कर लें।</p><p><br /></p><p>हालाँकि इसी मौज़ू और इसी ज़मीन पर शौक़ बहराइच का भी एक शे’र है। लोग ग़लती से ऊपर वाले शे’र को ग़लती से कभी कभी शौक़ बहराइची के नाम से भी मन्सूब [ जोड देते हैं] कर देते हैं।</p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>बरबाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था</b></span></p><p><span style="color: red;"><b>हर शाख़ पे उल्लू बैठा है, अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा</b></span></p><p> -शौक़ बहराइची-</p><p>कुछ लोगों का मानना है कि दूसरा ’वर्जन’ --पहले वाले से ज़ियादा असरदार है ।ख़ैर असल तो असल होता है।</p><p>सादर</p><p>-आनन्द पाठक-</p>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-33709325901134174332022-10-29T22:46:00.002-07:002022-10-29T22:47:38.924-07:00बेबात की बात :01: --बहुत देर की मेहरबाँ आते आते ।<p><b> बेबात की बात: 01</b></p><p><b><br /></b></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>किसी महफ़िल में या किसी सभा में लोग किसी की प्रतीक्षा करते हुए अगर</p><p> वह शख़्स अचानक आ जाता है तो आप ने लोगो को यह जुमला पढ़ते </p><p>हुए ज़रूर सुना होगा--</p><p><b>बड़ी देर कर दी हुज़ूर आते आते।</b></p><p>या </p><p><b>बहुत देर कर दी मेहरबाँ आते आते</b></p><p>ऐसे जुमले जर्ब उल मसल [ कहावत लोकोक्ति ] की हैसियत रखते हैं और ऐसे जुमले लोग </p><p>अपने अपने हिसाब से और अपने अपने अन्दाज़ से पढ़ते है।</p><p>ऐसे जुमले इतनी बार पढ़े जाते है नतीजन घिस जाते है और फिर अपने मूल रूप से दूर, कभी </p><p>कभी बहुत्त दूर निकल जाते हैं और अपना मूल स्वरूप खो देते है।</p><p> एक सभा में मैं भी था। देखा कि उस सभा में एक देवी जी-कवयित्री रही होंगी-किकुछ लोग अचानक </p><p>उस तरफ़ ’लपके’। में भी लपका। इम्प्रेसन मारने के चक्कर में मैने यह जुमला बड़े अन्दाज़ से बल खा के </p><p>उनकी शान में पढ़ दिया--</p><p><b>बड़ी देर कर दी साहिबा! आते आते</b></p><p>-तेरे को क्या ?--उन्होने आंख दिखाते हुए कहा।</p><p>मैने भी तुर्की ब तुर्की जवाब दिया</p><p><b>हुस्न वाले तेरा जवाब नही</b></p><p>हा हाहा हा </p><p>वह तो अच्छा हुआ कि यारो के ’वाह’ वाह’ ने मुझे बचा लिया वरना</p><p><b>बचा लिया यारो के ’वाह. ने वरना</b></p><p><b>साहिबा जी मेरी ’शायरी’ छुड़ा देती</b></p><p>हा --हा-हा-हा- </p><p>ख़ैर --</p><p> वस्तुत: यह जुमला ’दाग़’ देहलवी साहब का एक शे’र है जिसकी सही शकल यूँ है</p><p><b>न जाना कि दुनिया से जाता है कोई</b></p><p><b>बहुत देर की मेहरबाँ आते आते ।</b></p><p><span style="white-space: pre;"> <b> </b></span><b>-दाग़-</b></p><p>दरअस्ल यह शे’र भी उनकी एक मशहूर ग़ज़ल का एक हिस्सा है --आप लोगों ने ज़रूर पढ़ा होगा।</p><p>जो नहीं वाक़िफ़ है उनकी सुविधा के लिए--पूरी ग़ज़ल यहाँ नकल कर रहा हूँ।</p><p>[यह ग़ज़ल बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम में है और वज़न</p><p>122--122--122--122 है]</p><p><br /></p><p><i>फिरे राह से वह यहाँ आते-आते</i></p><p><i>अजल मर गई तू कहाँ आते आते</i></p><p><i><br /></i></p><p><i>मुझे याद करने से ये मुद्दआ’ था</i></p><p><i>निकल जाए दम हिचकियाँ आते-आते</i></p><p><i><br /></i></p><p><i>न जाना कि दुनिया से जाता है कोई</i></p><p><i>बहुत देर की मेहरबाँ आते-आते ।</i></p><p><i><br /></i></p><p><i>कलेजा मेरे मुंह को आएगा इक दिन</i></p><p><i>यूँ ही लब पे आह-ओ-फ़ुगाँ आते-आते</i></p><p><i><br /></i></p><p><i>सुनाने के काबिल थी जो बात उनकी</i></p><p><i>वही रह गई दरमियाँ आते-आते</i></p><p><i><br /></i></p><p><i>मेरे आशियाँ के तो थे चार तिनके</i></p><p><i>चमन उड़ गया आधियाँ आते-आते</i></p><p><i><br /></i></p><p><i>नही खेल ऎ दाग़ यारों से कह दो</i></p><p><i>कि आती है उर्दू ज़बाँ आते-आते</i></p><p><i><br /></i></p><p><i><span style="white-space: pre;"> </span>-दाग़ देहलवी-</i></p><p>मक़्ता का आख़िरी मिसरा भी कम जर्ब उल मसल का मर्तबा</p><p>नही रखता यानी</p><p><b>कि आती है उर्दू ज़बाँ आते-आते</b></p><p>[ दाग़ देहलवी के बारे में तो आप सभी जानते होंगे। दाग़ एक उस्ताद शायर थे और</p><p>ज़ौक़ के शागिर्द थे और दाग़ के सैकड़ॊ शागिर्द थे। आप स्वयं एक संस्था थे और इनके शागिर्द</p><p>शायरों को ’दाग़ स्कूल के शायर ’ कहा जाता है। इनकी ग़ज़ले इतनी लोकप्रिय होती थी, कहते हैं कि उनके ज़माने में उनकी ज़्यादा</p><p>ग़ज़ले ’कोठे’ पर गाई जाती थी ।</p><p>आज इतना ही। इन्शा अल्लाह, अगली कड़ी में ऐसा ही कोई दिलचस्प वाक़िया लेकर हाज़िर होंगे।</p><p>सादर</p><p>-आनन्द.पाठक-</p><p><br /></p>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-38312728322043941232021-07-08T07:02:00.003-07:002021-07-08T07:02:27.647-07:00 उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 79 [ आहंग एक - नाम दो [भाग -2]<p> <b><span style="color: red;">उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 79 [ आहंग एक - नाम दो [भाग -2]</span></b></p><div>पिछली क़िस्त 78 में मैने इसी विषय पर बातचीत की थी कि कैसे एक बहर की आहंग तो एक है और नाम दो हैं<br />और वो बह्र थी <br /><span style="color: red;">1212-- -1212-- -1212---1212- यानी <br /></span><span style="color: red;">मुफ़ाइलुन--मुफ़ाइलुन--फ़ाइलुन--मुफ़ाइलुन</span></div><div><span style="color: red;"><br /></span>और इस बह्र की मुज़ाइफ़ शकल [यानी 16-रुक्नी बह्र ] भी अज रू-ए-अरूज़ मुमकिन है ।<br />----- ---- <br />आज हम ऐसी ही दूसरी बह्र पर भी बातचीत करेंगे। और वो बह्र है <br /><span style="background-color: #fcff01; color: red;"><b>22---22---22---22 </b></span><br />और इस बह्र की भी मुज़ाइफ़ शकल [ यानी 16-रुक्नी बह्र ]भी मुमकिन है । देखिए कैसे?</div><div><br /><b>[1] यह बह्र तो आप पहचानते होंगे <br />212------212-------212--------212- </b><br />फ़ाइलुन--फ़ाइलुन----फ़ाइलुन----फ़ाइलुन--<br />बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम<br />अगर आप इस के सभी मुक़ाम पर ख़ब्न का ज़िहाफ़ लगा दें तो [ चूँकि ख़ब्न एक आम ज़िहाफ़ है तो <br />शे’र के किसी मुक़ाम पर लगाया जा सकता है सो लगा दिया ] तो हासिल होगा-<br /><span style="color: red;">112-------112------112---112 <span style="white-space: pre;"> </span> यानी <br />फ़इलुन --फ़इलुन --फ़इलुन --फ़इलुन </span> यानी सालिम बह्र की एक मुज़ाहिफ़ शकल <br />बह्र-ए- मुतदारिक मख़्बून मुसम्मन <br />तस्कीन-ए-औसत और तख़्नीक़ के अमल के बारे में क़िस्त--- में चर्चा कर चुका हूँ [ आप वहाँ देख सकते हैं। फिर भी संक्षेप में<br />यहाँ लिख दे रहा हूँ <br /><b>तस्कीन-ए-औसत </b>= किसी ’एकल मुज़ाहिफ़ रुक्न" में 3-मुतहर्रिक हर्फ़ [ जैसा कि ऊपर वाली बह्र में है ] में दो 1 , 1 एक साथ <br />[ अगल बगल ,आमने सामने ,Adjacent ] आ जाए तो 1 1 मिल कर -2- हो जायेगा।<br />तस्कीन-ए-औसत का अमल मुज़ाहिफ़ रुक्न "पर ही होता है । सालिम रुक्न पर कभी नहीं होता। और शर्त यह भी कि<br />इनके अमल से बह्र बदलनी नही चाहिए यानी इसका अमल करते करते मूल बह्र की शकल ऐसी न हो जाए कि पहले से किसी <br />मान्य और प्रचलित बह्र से मेल खा जाए । यह एक बन्दिश है ।<br />अगर अब इस बह्र पर ’तस्कीन-ए-औसत का अमल कर दिया जाए तो क्या हासिल होगा ? हासिल होगा<br /><b style="background-color: #fcff01;">22--22---22---22--- [क]</b><br /> इस बह्र की भी मुसम्मन मुज़ाइफ़ शकल यानी 16-रुक्नी बह्र भी मुमकिन है ।और लोग उस बह्र में भी शायरी करते है ।<br />हालाँकि इस बह्र के और भी मुतबादिल औज़ान [ आपस में बदले जाने वाले वज़न ] बरामद होंगे या हो सकते हैं मगर यहाँ मैने मात्र एक शकल<br />ही लिया है ।विषय की सुगमता के लिए उन तमाम औज़ान का ज़िक्र यहाँ नहीं कर रहा हूँ। <br />=== =====<br />अच्छा अब एक दूसरी बह्र देखते हैं।<br /><span style="color: red;">[2 आप यह बह्र भी पहचानते होंगे <br />21---121--121--122 </span><br />[ बह्र-ए-मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ मक़्बूज सालिम अल आख़िर]<br />यानी यह भी एक मुज़ाहिफ़ शकल है ्बह्र-ए-मुतक़ारिब का।<br />अब अगर इस बह्र पर ’तख़्नीक़ ’ का अमल कर दिया जाए तो क्या हासिल होगा ?<br />तख़नीक़ का अमल बिल्कुल तस्कीन के अमल जैसा होता है ,बन्दिश भी वही होती है । फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि तस्कीन का अमल --जब एकल रुक्न में<br />3- मुतहर्रिक साथ आते है तब । तख़्नीक के अमल तब होता है जब दो Adjacent रुक्न में ऐसी स्थिति [ यानी आ जाए जैसा कि ऊपर के बह्र में आ गया है ।<br />] में दो 1 , 1 एक साथ [ अगल बगल ,आमने सामने ,Adjacent ] आ जाए तो 1 1 मिल कर -2- हो जायेगा।<br />इस अमल से 21--121--121--12 का हासिल होगा<br /><b style="background-color: #fcff01;">22--22---22--22---[ख]</b><br />इस बहे की भी "मुसम्मन मुज़ाइफ़" यानी 16-रुक्नी बह्र मुमकिन है ।लोग उसमे शायरी भी करते है ।<br />हालाँकि इस बह्र के और भी मुतबादिल औज़ान [ आपस में बदले जाने वाले वज़न ] बरामद होंगे या हो सकते हैं मगर यहाँ मैने मात्र एक शकल<br />ही लिया है ।विषय की सुगमता के लिए उन तमाम औज़ान का ज़िक्र यहाँ नहीं कर रहा हूँ। <br />अगर आप ध्यान से देखें तो [क] और [ख] दोनो की शकल एक आहंग एक -परन्तु नाम दो<br />एक [क] <span style="white-space: pre;"> </span>मुतदारिक से हासिल हुआ<br />दूसरा [ ख] <span style="white-space: pre;"> </span>मुतक़ारिब से हासिल हुआ<br />चलते चलते एक सवाल<br />अगर आप से कोई मात्र यह शकल दिखा कर पूछे कि<span style="color: red;"><i> <b>22---22----22---22</b> </i></span> कौन सी बह्र है या इसका क्या नाम है ? तो आप क्या जवाब देंगे?<br />सादर</div><p>-आनन्द.पाठक-</p>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-48181597640445697402021-07-08T07:01:00.003-07:002022-08-11T06:07:34.515-07:00 उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 78 [ आहंग एक -नाम दो ][ भाग-1]<p><span style="color: red;"> <b>उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 78 [ आहंग एक -नाम दो ][ भाग-1]</b></span></p><p><br></p><p> उर्दू शायरी में कभी कभी ऐसे मुक़ाम भी आ जाते हैं जब आहंग एक जैसे होते हैं मगर नाम </p><p>अलग अलग होते हैं । यह स्थिति कभी सालिम बह्र पर ज़िहाफ़ लगाने से हो जाती है तो कभी</p><p>किसी सालिम बह्र के मुज़ाहिफ़ शकल पर ’तस्कीन या तख़नीक़ के अमल से पैदा हो जाति है ।</p><p>आज हम ऐसी ही एक दो बह्रों पर चर्चा करेंगे। </p><p>एक बह्र है </p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">1212---1212---1212---1212-</span> यानी</p><p> मफ़ाइलुन --मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन</p><p>देखते हैं कैसे ?</p><p>[क] आप यह बह्र तो पहचानते होंगे </p><p><b>2212-----2212-----2212----2212-</b></p><p>मुस तफ़ इलुन -- मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन --मुस तफ़ इलुन यानी</p><p>बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम</p><p>अब इस बह्र पर ’ख़ब्न का ज़िहाफ़ लगा कर देखते हैं क्या होता ?</p><p>आप जानते हैं कि तमाम ज़िहाफ़ात में से एक ज़िहाफ़ "ख़ब्न" भी होता है ।</p><p>इसके अमल के तरीक़े आप जानते होंगे। जो नहीं जानते हैं उनके लिए संक्षेप में यहाँ लिख दे रहा हूँ।</p><p>ज़िहाफ़ ख़ब्न = अगर कोई सालिम रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ यहाँ मुस--] से शुरु हो रहा हो तो दूसरे हर्फ़ [ जो साकिन होगा] को गिराने का अमल ख़ब्न कहलाता है ।यानी आसान भाषा में --यदि कोई सालिम रुक्न -2- से शुरु हो रहा है तो ज़िहाफ़ ख़ब्न उसे -1-कर देगा।और जो मुज़ाहिफ़ रुक्न हासिल होगा उसे ’मख़्बून’ कहेंगे।</p><p>ख़ब्न का शब्दकोषीय अर्थ ही होता है कंधे पर पड़े चादर या अंगरखे को लपेट कर छोटा करना । अरूज़ के संदर्भ में सालिम रुक्न [ जो 2- से शुरु होता है ] को छोटा कर के -1-कर देना समझ लें।</p><p>यह एक आम ज़िहाफ़ है, जो शे’र के किसी मुक़ाम पर [यानी पहले-दूसरे--तीसरे यहाँ तक कि चौथे मुक़ाम पर भी] लाया जा सकता है।अर्थात </p><p><b>मुस तफ़ इलुन [2 2 1 2 ] + ख़ब्न = मख़्बून1 2 1 2 = मफ़ाइलुन </b></p><p>अब आप इस ज़िहाफ़ को [क] के सभी मुक़ाम पर लगा दें तो क्या होगा ? कुछ नहीं, नीचे वाला आहंग बरामद होगा</p><p><br></p><p><span style="color: red;"><b style="background-color: #fcff01;">[का]<span style="white-space: pre;"> </span>1 2 1 2---1 2 1 2 ---1 2 1 2 ---1 2 1 2 </b></span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><b><i>मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन और नाम होगा</i></b></p><p><b><i><span style="white-space: pre;"> </span>बह्र-ए- रजज़ मख़्बून मुसम्मन </i></b></p><p>इस बह्र की मुसम्मन मुज़ाइफ़ [ दो-गुनी ]शकल भी होती है और शायरी भी होती है मगर बहुत कम । कहने का मतलब कि इस बह्र में शायरी की जा सकती है ।</p><p>एक ग़ज़ल ्के चन्द अश’आर इस बहर में उदाहरण के तौर पर लगा रहा हूँ । यह ग़ज़ल मेरे मित्र नीरज गोस्वामी [ जयपुर ] का है जो उनकी किताब</p><p>[*डाली मोगरे की*--संग्रह से साभार ]</p><p>ग़ज़ल </p><p><span style="color: #2b00fe;">तुझे किसी से प्यार हो तो हो रहे तो हो रहे </span></p><p><span style="color: #2b00fe;">चढ़ा हुआ ख़ुमार हो तो हो रहे तो हो रहे </span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><br></span></p><p><span style="color: #2b00fe;">जहाँ पे फूल हों खिले वहाँ तलक जो ले चलो</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">वो राह, ख़ारज़ार हो तो हो रहे तो हो रहे </span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><br></span></p><p><span style="color: #2b00fe;">उजास हौसलो को साथ में लिए चले चलॊ</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">घना जो अन्धकार हो तो हो रहे तो हो रहे </span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><br></span></p><p><span style="color: #2b00fe;">मेरा मिजाज़ है कि मैं खुली हवा में साँस लूँ</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">किसी को नागवार हो तो हो रहे तो हो रहे </span></p><p><br></p><p> तक़्तीअ’ आप कर के देख लें ।</p><p>एक शे’र की तक़्तीअ’ आप की सुविधा के लिए कर दे रहा हूँ।</p><p>1 2 1 2 / 1 2 1 2 / 1 2 1 2 / 1 2 1 2</p><p>तुझे किसी /से प्यार हो /तो हो रहे /तो हो रहे = 1212--1212--1212--1212</p><p>1 2 1 2 / 1 2 1 2 / 1 2 1 2 / 1 2 1 2 </p><p>चढ़ा हुआ /ख़ुमार हो /तो हो रहे /तो हो रहे <span style="white-space: pre;"> </span>= 1 2 1 2 --1 2 1 2--1 2 1 2--1 2 1 2 </p><p><br></p><p>=== ======== =======</p><p>अब एक दूसरी बह्र देखते हैं </p><p>[ख ] आप यह बह्र तो पहचानते होंगे </p><p><b><span style="color: red;">1222------1222-----1222-------1222 <span style="white-space: pre;"> </span>यानी </span></b></p><p><b>मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन यानी</b></p><p><b>बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम</b></p><p> आप जानते हैं कि तमाम ज़िहाफ़ात में से एक ज़िहाफ़ ’कब्ज़’ भी होता है।</p><p>इसके अमल के तरीक़े आप जानते होंगे। जो नहीं जानते हैं उनके लिए संक्षेप में यहाँ लिख दे रहा हूँ।</p><p>ज़िहाफ़ कब्ज़ = अगर कोई सालिम रुक्न वतद-ए-मज्मुआ [ यहाँ मफ़ा --] से शुरु होता है और उसके ठीक बाद ’सबब--ए-ख़फ़ीफ़ [यहाँ -ई- ] हो तो <span style="white-space: pre;"> </span><b style="background-color: #fcff01;">’पाँचवाँ ’ </b>हर्फ़ [ जो साकिन होगा ] को गिराना-कब्ज़ का अमल कहलाता है ।और जो मुज़ाहिफ़ शकल बरामद होगी उसे ’मक़्बूज़’ कहते हैं</p><p>आसान भाषा में आप इसे यूँ समझ लें </p><p>--कि अगर कोई बह्र 1222 -से शुरु हो रहा है - तो तीसरे मक़ाम पर -2- को -1- कर देना कब्ज़ कहलाता है ।</p><p>अर्थात </p><p><b>मफ़ाईलुन [1222 ] + कब्ज़ = मक़्बूज़ 1 2 1 2 [ मफ़ाइलुन ] </b></p><p>यह एक आम ज़िहाफ़ है, जो शे’र के किसी मुक़ाम पर [यानी पहले-दूसरे--तीसरे यहाँ तक कि चौथे मुक़ाम पर भी] लाया जा सकता है।</p><p>हम इसे सभी मुक़ाम पर लगा कर देखते हैं । तो हासिल होगा </p><p><b><span style="background-color: #fcff01; color: red;">[खा] 1 2 1 2 - --1 2 1 2 -- -1 2 1 2 -- 1 2 1 2 </span></b></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ाइलुन---मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन और नाम होगा </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>बह्र-ए-हज़ज मक्बूज़ मुसम्मन </p><p>इस बह्र में भी शायरी की जा सकती है । मगर लोग न जाने क्यों इस दिलकश बह्र में भी बहुत कम शायरी करते हैं</p><p>और इस बह्र की भी मुसम्मन मुज़ाइफ़ [ दो-गुनी ] शकल मुमकिन है । </p><p>एक ग़ज़ल ्के चन्द अश’आर इस बहर में उदाहरण के तौर पर लगा रहा हूँ । यह ग़ज़ल मेरे मित्र नीरज गोस्वामी [ जयपुर ] का है जो उनकी किताब</p><p>[डाली मोगरे की--संग्रह से साभार ]</p><p><span style="color: #4c1130;">ग़ज़ल </span></p><p><span style="color: #4c1130;">चमक है जुगनूऒं में कम, मगर उधार की नहीं</span></p><p><span style="color: #4c1130;">तू चाँद आबदार हो तो हो रहे तो हो रहे </span></p><p><span style="color: #4c1130;"><br></span></p><p><span style="color: #4c1130;">जहाँ उसूल दाँव पर लगे वहाँ उठा धनुष</span></p><p><span style="color: #4c1130;">न डर जो कारज़ार हो तो हो रहे तो हो रहे </span></p><p><span style="color: #4c1130;"><br></span></p><p><span style="color: #4c1130;">फ़क़ीर है मगर कभी गुलाम मत हमे समझ</span></p><p><span style="color: #4c1130;">भले तू ताजदार हो तो हो रहे तो हो रहे </span></p><p><br></p><p><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>-नीरज गोस्वामी -</span></p><p>इन अश’आर की तक़्तीअ’ आप खुद कर के देख लें और निश्चिन्त हो लें ।</p><p>======</p><p>अब अपनी बात समेटते हुए</p><p> <span style="color: red;">[का]<span style="white-space: pre;"> </span>1 2 1 2 ---1 2 1 2 ----1 2 1 2 ----1 2 1 2 </span></p><p><span style="color: red;">[खा] 1 2 1 2 - --1 2 1 2 -- -1 2 1 2 -- 1 2 1 2 </span></p><p><br></p><p>दोनॊ आहंग एक जैसा --पर नाम अलग अलग </p><p>पहली बह्र ---रजज़ -+ ख़्बन से बरामद हुई</p><p>दूसरी बह्र --हज़ज + कब्ज़ से बरामद हुई</p><p>मगर आहंग -एक -है नाम अलग अलग है।</p><p><br></p><p>अच्छा अब एक बात और </p><p><span style="color: red;"><b><i>1212--1212---1212---1212-- [ रजज़ बह्र का मख़्बून ----}</i></b></span></p><p><span style="color: red;"><b><i>1212--1212---1212--1212 - [ हज़ज का मक़्बूज़-----]</i></b></span></p><p> और दोनों बह्रें अरूज़ के क़ायदे के मुताबिक़ ही बरामद की थी </p><p>मगर अरूज़ की किताबों में ’हज़ज के मक़्बूज़ मुज़ाहिफ़ वाले बह्र का चर्चा तो है । मगर </p><p>रजज़ के इस मख़्बून शकल [1212--1212--1212--1212-] की हू ब हू की कोई चर्चा नहीं मिलता।</p><p>जब कि रजज़ के दीगर मख़्बून शकल की चर्चा है।</p><p>पता नहीं क्यों ?</p><p>अपने अपने दलाइल [ दलीलें ] हो सकते हैं </p><p>शायद एक कारण यह हो कि दो बह्र का एक नाम या एक जैसे नाम से ’कन्फ़्यूजन ’ न पैदा हो इसलिए इस बह्र की चर्चा एक ही जगह [ हज़ज में ] की गई हो और यही मान्यता प्राप्त हो।हज़ज बह्र में ही इस बह्र की ही तर्ज़ीह दी गई है ।</p><p>आप लोगों की क्या राय है। बताइएगा ज़रूर।</p><p>सादर</p><p>-आनन्द.पाठक -</p><p><br></p>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-26603907267459509342021-07-08T07:00:00.002-07:002021-07-08T08:01:02.724-07:00 उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 77 [ बड़ी बह्र ]<p> <b style="color: red;">उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 77 [ बड़ी बह्र ]</b></p><p><b style="background-color: #fcff01; color: red;">[नोट : इस लेख के साथ क़िस्त 62 भी देखें ]</b></p><p><span>पिछली क़िस्त 62 में "<span style="color: red;">छोटी बह्र </span>" पर एक चर्चा की थी।<br /></span></p><p><span>आज हम ’<span style="color: red;">बड़ी बह्र या लम्बी बह्र</span> ’ पर बात करेंगे कि क्या कोई बड़ी या लम्बी बह्र पर होती है ? क्या अरूज़ में ऐसी कोई मख़्सूस ] ख़ास निर्धारित की गई है ।या छोटी बह्र की तरह यह भी एक Perception मात्र है ?<br /></span><span> अभी तक किसी शायर को यह लिखते हुए नहीं देखा -<br /></span><span><span style="color: #2b00fe;">"-- बड़ी बह्र में एक ग़ज़ल पेश-ए-ख़िदमत है---" </span>। शायद आप ने देखा हो ।<br /></span><span>अच्छा, जब किसी ने यह लिखा ही नहीं -</span><span>तो बहस किस बात की ! </span></p><p><span>मगर इस पर विचार करने में हर्ज भी क्या है । विचार तो किया जा सकता है ।</span></p><p><span>अच्छा, अब मूल विषय पर आते हैं--<i><b><span style="color: #800180;">लम्बी बह्र क्या है या क्या हो सकती है </span>।</b></i><br /></span><span>बज़ाहिर [ स्पष्टत: ] लम्बी बहर वह बहर हो सकती है जिसमें मापनी [ अर्कान ] की संख्या और मात्रा भार [वज़न ]ज़्यादा से ज़्यादा हो ।<br /></span><span>सामान्यतया लोग मुसम्मन [ यानी शे;र में मापनी की संख्या 8 वाली] बहर में शायरी करते है और सुविधाजनक भी है । अगर इनको </span><span><b>मुज़ाइफ़ [ दो गुना ] </b></span><span>कर दे तो बह्र का नाम होगा --मुसम्मन मुज़ाइफ़-- और अर्कान की संख्या होगी 16 यानी 8 x 2 होगी जो क्लासिकल अरूज़ के लिहाज़<br /></span><span>से सबसे ज़्यादा अर्कान वाली बह्र होगी। ऐसी बह्र को 16-रुक्नी बह्र भी कहते हैं।<br /></span><span>[ नोट - मुसम्मन और मुज़ाइफ़ की चर्चा पहले कर चुका हूँ।<br /></span><span>मुज़ाहिफ़ और मुज़ाइफ़ से आप confuse न हों ।तलफ़्फ़ुज़ लगभग एक जैसा है ।<br /></span><span> मुज़ाहिफ़ रुक्न --सालिम रुक्न पर ज़िहाफ़ लगाने से हासिल होता है।<br /></span><span>और "मुज़ाइफ़"--माने किसी चीज़ को "दो गुना’ करना होता है । ख़ैर।</span></p><p><span><br /></span><span>अब कुछ 16- रुक्नी बह्र में अज़ीम शो’अरा की ग़ज़ल के 2-4 शे’र देख लेते है फ़िर उनमें इस्तेमाल हुई " मात्रा भार [वज़न ] की संख्या" पर विचार करेंगे।<br /></span><span>पूरी ग़ज़ल ’रेख्ता’ साइट पर मिल जायेगी।<br /></span><span>इस बह्र को आप पहचानते होंगे<br /></span><span><span style="color: red;"><b> 21--121--121--122 // 21-121-121-12 </b></span><br /></span><span>जी बिलकुल सही पकड़ा।<br /></span><span>जी हाँ । यह ’मीर’ की बह्र है --जिसके एक शे’र में 16-रुक्न इस्तेमाल होते हैं यानी मिसरा में -8<br /></span><span>हमारे बहुत से मित्र<span style="background-color: #fcff01; color: red;"> 21--121--121--122</span> को ही मीर का बह्र कह देते है या समझ लेते हैं<br /></span><span>या फिर <span style="background-color: #fcff01;"> 21--121--121---12 </span>को ही मीर का बह्र कह देते है ।<br /></span><span>Individually ये दोनॊ अलग अलग बह्र हैं और इनके अलग अलग नाम भी हैं ।।लेकिन जब यह <br /></span><span>combined हो कर एक साथ आती हैं तो -मीर की बह्र -कहलाती हैं ।<br /></span><span>[<span style="background-color: #fcff01;"> मीर की बह्र --पर एक विस्तृत आलेख मेरे ब्लाग ’ उर्दू बह्र पर एक बातचीत " -किस्त 59 पर उपलब्ध है </span>} इच्छुक पाठकों <br /></span><span>की सुविधा के लिए और विशेष जानकारी के लिए लिन्क रहा हूँ<br /></span><span style="color: red;">https://aroozobahr.blogspot.com/2020/06/60.html<br /></span><span><span style="color: red;">उर्दू बह्र पर एक बातचीत -किस्त 59</span><br /></span><span>इन तमाम बह्र और अर्कान [ मापनी ] के नाम भी हैं ।मैं इन सब के नाम जानबूझ कर नहीं लिख रहा हूँ।कारण?<br /></span><span>कारण कि मेरे बहुत से साथी बह्र को उनके नाम से से नही बल्कि Numerical अलामत [ चिह्नों [ जैसे 1222--1222 आदि से जानते और पहचानते है<br /></span><span>नाम लिखने से उन लोगों को लेख समझना और दुरूह हो जाएगा।<br /></span><span>मीर ने इस बह्र में कई ग़ज़लें कहीं है .जिसमें --एक मशहूर ग़ज़ल यह भी है<br /></span><span> <br /></span><span>मूल बह्र 21--121--121--122 // 21-121-121-12 = 16/14 = 30 मात्रा भार वज़न एक मिसरा में।</span></p><p><span><br /></span><span style="color: red;"><i><span>पत्ता पता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है<br /></span><span>जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है</span></i></span></p><p><span style="color: red;"><i><span><br /></span><span>आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में<br /></span><span>जी के जिया को इश्क़ में उसके अपना वारा जाने है</span></i></span></p><p><span style="color: red;"><i><span><br /></span><span><span style="white-space: pre;"> </span>-मीर तक़ी मीर-</span></i></span><span><br /></span><span>नीचे वाली गज़ल मीर का है पर मीर की बहर नहीं है -<br /></span><span>नीचे [121-22 ] को ग्रुपिंग कर के दिखा रहा हूँ कि समझने में सुविधा हो । वास्तव में ये दो अलग-अलग मुज़ाहिफ़ रुक्न है जो सालिम रुक्न पर ज़िहाफ़ के अमल से बरामद होते हैं<br /></span><span>मूल बह्र 121-22 / 121--22/ 121-22/ 121-22/= 32 मात्रा भार वज़न एक मिसरा मे। मिसरा में 8-रुक्न</span></p><p><span><br /></span><span style="color: red;"><i><span>करो तवक्कुल कि आशिक़ी में न यूँ करोगे तो क्या करोगे<br /></span><span>अलम जो यह है दर्द मन्दॊं कहाँ तलक तुम दवा करोगे</span></i></span></p><p><span style="color: red;"><i><span><br /></span><span>ग़म-ए-मुहब्बत से ’मीर’ साहब बतंग हूँ मैं फ़क़ीर हो तुम<br /></span><span>जो वक़्त होगा कभी मुसाइद तो मेरे हक़ मे दुआ करोगे</span></i></span></p><p><span style="color: red;"><i><br /></i></span><span><span style="color: red;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>-मीर तक़ी मीर-</i></span><br /></span><span>16-रुक्नी बह्र में कुछ अन्य शायरो की ग़ज़ल से 2-4 शे’र लिख रहा हूँ <br /></span><span>[ख] <br /></span><span>मूल बह्र 22-112/22-112//22-112/22-112 = 32 मात्रा भार एक मिसरा में ।यानी मिसरा में 8-रुक्न</span></p><p><span><br /></span><span style="color: red;"><i><span>मयख़ाना-ए-हस्ती में अकसर हम अपना ठिकाना भूल गए<br /></span><span>या होश में जाना भूल गए या होश में आना भूल गए</span></i></span></p><p><span style="color: red;"><i><span><br /></span><span>मालूम नहीं आइने में चुपके से हँसा था कौन "अदम"?<br /></span><span>हम जाम उठाना भूल गए ,वो साज़ बजाना भूल गए <br /></span></i></span><span><span style="color: red;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>अब्दुल हमीद ’अदम’-</i></span><br /></span><span>[ग] <br /></span><span>मूल बह्र 121--22/121-22//121-22/ 121-22 = 32 मात्रा भार एक मिसरा में</span></p><p><span><br /></span><span style="color: red;"><i><span>लतीफ़ पर्दों से नुमायां मकीं के जल्वे मकां से पहले<br /></span><span>मुहब्बत आइना हो चुकी थी वजूद-ए-बज़्म-ए-जहाँ से पहले</span></i></span></p><p><span style="color: red;"><i><span><br /></span><span>अज़ल से शायद लिखे हुए थे ’शकील’ किस्मत में जौर-ए-पैहम<br /></span><span>खुली जो आँखें इस अंजुमन में नज़र मिली आस्मां से पहले<br /></span></i></span><span><span style="color: red;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>शकील बदायूनी</i></span></span></p><p><span><span style="color: red;"><i><br /></i></span></span><span>22--112/ 22-112 //22-112/ 22-112<br /></span><span style="color: red;"><i><span>हंगामा-ए-ग़म से तंग आकर इज़हार-ए-मसर्रत कर बैठे<br /></span><span>मशहूर थी अपनी ज़िन्दा-दिली दानिस्ता शरारत कर बैठे</span></i></span></p><p><span style="color: red;"><i><span><br /></span><span>अल्लाह तो सब की सुनता है ,जुर्रत है ”शकील’अपनी-अपनी<br /></span><span>’हाली’ ने ज़बाँ से उफ़ भी न की ,’इक़बाल’ शिकायत कर बैठे<br /></span></i></span><span><span style="color: red;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>शकील बदायूनी</i></span><br /></span><span>इन सब उदाहरणों से स्पष्ट है कि 16- रुक्नी मक़्बूल [ लोकप्रिय ] बह्र में एक मिसरा में ज़्यादातर वजन =32 का आता है।<br /></span><span>जब कि मीर की बहर में =30 मात्रा ही आ रही है यानी -2- कम } इसे अरूज़ की भाषा में -सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ 2] बोलते है।<br /></span><span>बाक़ी सभी बह्रे मुज़ाइफ़ बह्रें हैं --मीर की बह्र मुज़ाइफ़ बह्र नहीं है ।<br /></span><span>मुजाइफ़ बह्र के लिए ज़रूरी है कि इसको दो बराबर -बराबर भाग में बाँटा जा सकें जब कि मीर की बह्र 16//14 unequal हैi|<br /></span><span>ख़ैर।<br /></span><span>अब इन मुज़ाइफ़ बह्रों की कल्पना कीजिए <br /></span><span>जो 16-रुक्नी तो है मगर मात्रा भार [वज़न ] अलग है <br /></span><span>122--122--122-122 // 122--122--122-122 = 40 मात्रा भार एक मिसरा में [ नाम आप जानते होंगे}<br /></span><span>------<br /></span><span>212---212---212---212-// 212--212--212--212 = 40 मात्रा भार वज़न बह्र का भी नाम आप जानते होंगे।<br /></span><span>"मुतदारिक सालिम मुसम्मन मुज़ाइफ़ " इस बह्र में भी एक ग़ज़ल के चन्द अश’आर देख लीजिए--</span></p><p><span><br /></span><span>212--212--212--212-// 212--212--212-212= </span></p><p><span style="color: red;"><i><span>दिल दुखाए कभी ,जाँ जलाए कभी, हर तरह आज़माए तो मैं क्या करूँ ?<br /></span><span>मैं उसे याद करता रहूँ हर घड़ी , वो मुझे भूल जाए तो मैं क्या करूँ ?</span></i></span></p><p><span style="color: red;"><i><span><br /></span><span>मैने माना कि कोई ख़राबी नहीं , पर करूँ क्या तबियत ’गुलाबी’ नहीं<br /></span><span>मैं शराबी नहीं ! मैं शराबी नहीं ! वो नज़र से पिलाए तो मैं क्या करूँ ?<br /></span></i></span><span><span style="color: red;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>सरवर आलम राज़ ’सरवर’</i></span></span></p><p><span><span style="color: red;"><i><br /></i></span></span><span>यदि यही Logic अन्य सालिम बह्रों पर लगाया जाए ,जैसे -</span></p><p><span>हज़ज [ 1222 ] ,रमल [2122] ----- कामिल [11212] जैसी बह्रों का ’मुसम्मन मुज़ाइफ़" बनाया जाए तो क्या होगा ?<br /></span><span>बनाया जा सकता है ।Theoretically and technically possible है } । अरूज़ में मनाही तो है नही कि इन मुज़ाइफ़ बह्रों में ग़ज़ल <br /></span><span>नहीं कही जा सकती । आप कर सकते हैं अगर आप में हुनर है । मुझे यक़ीन है कि आप कर सकते है [ तबअ’ आज़माई के तौर पर ही<br /></span><span>सही या फ़नी एतबार से ही सही }<br /></span><span>मगर आज तक ऐसी कोई ग़ज़ल मेरी नज़र से गुज़री नही । अगर आप की नज़र से गुज़री हो तो अलग बात है।<br /></span><span>1222--1222--1222--1222-// 1222--1222-1222-1222- = 56 मात्रा एक मिसरा में या ऐसे ही और कोई सालिम बह्र<br /></span><span><span style="color: red;">तो क्या यह सबसे लम्बी बह्र हो सकती है ?</span></span></p><p><span><span style="color: red;"><br /></span></span><span> हो सकती है । मगर अमलन [ Practically या व्यावहारिक रूप से ] होती नहीं ।कोई शायर इतनी लम्बी बह्र में शायरी करता नहीं।<br /></span><span> कारण ? नहीं मालूम <br /></span><span>--शायद एक कारण यह हो कि इतनी लम्बी बह्र में शे’र को पढ़ना आसान काम न हो। स<br /></span><span>--शायद इतनी लम्बी बह्र में भाव को ,अल्फ़ाज़ [ शब्दों ] को एक साथ बाँध कर [ गुम्फ़ित कर के condensed कर के ] जमाए रखना आसान काम न हो<br /></span><span>--शायद मिसरा या शे’र का कसाव ढीला हो जाए तो शे’र हल्का हो जायेगा श्रोताऒ कॊ बाँध न पाए।<br /></span><span>कारण जो भी हो । मैने लम्बी बह्र की एक संभावना व्यक्त की है कि यह सबसे लम्बी बह्र हो सकती है ।<br /></span><span>एक मज़ेदार बात और ।<br /></span><span>क्या आप जानते है कि जदीद शायरी मे [ आधुनिक शायरी ] में एक मिसरा में 5-अर्कान [ यानी एक शे’र में 10-रुक्न ] कुछ लोग शायरी करते है ।जहाँ क्लासिकल अरूज़<br /></span><span>[ मुसम्मन तक ] खत्म हो जाता है उसके आगे की शायरी। हालाकि ऐसी ग़ज़ल बहुत प्रचलन में नहीं है मक़्बूलियत हासिल नहीं है ,मान्यता नहीं मिली मगर कुछ लोग करते हैं।<br /></span><span>आटे में नमक के बराबर ही सही।आप भी कर सकते हैं ।मनाही नहीं है ।<br /></span><span> अगर कल्पना करें कि ऐसे शे’र [ एक मिसरा में 5-रुक्न ] का मुज़ाइफ़ करेंगे तो क्या हासिल होगा : ? यानी एक शेर में </span><span>20- अर्कान ।यानी ज़्यादा से ज़्यादा 7x 20 =140 मात्रा भार वज़न [ अगर 7- हर्फ़ी सालिम रुक्न का इस्तेमाल हुआ हो तो ]<br /></span><span> बस बस अब रहने दीजिए । छोड़िए अब यह बात, बहुत हो गई । हा हा हा हा ।<br /></span><span> ज़्यादातर शायर मुसम्मन और मुसद्दस बहे में शायरी करना पसन्द करते है ?<br /></span><span>इसलिए कि अनुभव के आधार पर यही Optimum स्थिति है जिसमे शे’र कसा हुआ रहता है भाव गठे हुए रहते हैं अदायगी बेहतर होती है ।<br /></span><span>।आप जिस बह्र मे comfortable feel करें उसी बह्र में शायरी करें। "छोटी बह्र" --"लम्बी बह्र" की बह्स में न उलझे । बात निकली तो </span><span>बेबात की बात कर ली।<br /></span><span><br /></span><span>[नोट - इस मंच के गुरुजनॊ से करबद्ध प्रार्थना है कि अगर इस लेख में कुछ तथ्यात्मक दोष दृष्टिगोचर हो तो कृपया ध्यान में अवश्य लाएं जिससे मैं स्वयं को सही कर सकूँ ]<br /></span><span>सादर</span></p><p><span><b style="background-color: #fcff01; color: red;">[नोट : इस लेख के साथ क़िस्त 62 भी देखें ]</b><br /></span><span>-आनन्द पाठक--<br /></span><br /></p><p></p><p><br /></p>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-91442205449377750522021-01-12T06:09:00.005-08:002021-07-08T07:02:41.001-07:00उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 76 [ तस्कीन-ए-औसत का अमल ]<p> <span style="white-space: pre;"> <span style="color: red;"><b> क़िस्त 76 : </b></span></span><span style="color: red;"><b>तस्कीन-ए-औसत का अमल </b></span></p><p><br /></p><p>इससे पहले हमने तख़नीक के अमल पर चर्चा की थी । आज तस्कीन-ए-औसत के अमल पर चर्चा करेंगे</p><p>वस्तुत: दोनो का अमल एक जैसा ही है फ़र्क़ बस यह है कि तक़नीक़ के अमल में ’दो consecutive रुक्न</p><p>में 3-मुतस्सिल मुतहर्रिक " आते हैं तब लगाते है जब कि ’तस्कीन के अमल में ’एक ही रुक्न मे" 3-मुतस्सिल </p><p>मुतहर्रिक आते हैं तब अमल दरामद होता है । शर्ते दोनो ही स्थिति में वही है </p><p>1- यह अमल हमेशा ’मुज़ाहिफ़ रुक्न [ ज़िहाफ़ शुदा रुक्न ] पर ही लगता है---सालिम रुक्न पर कभी नहीं</p><p>2- इस अमल से बह्र बदलनी नहीं चाहिए</p><p><br /></p><p>अब आगे बढ़ते है --</p><p>मुतदारिक का एक आहंग है - मुतदारिक मुसम्मन सालिम = फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन</p><p> 212---212---212---212-अगर इस पर ’ख़ब्न ’ का ज़िहाफ़ लगा दे तो रुक्न बरामद होगी</p><p><br /></p><p>112---112---112---112---यानी </p><p>फ़’अलुन ---फ़’अलुन ---फ़’अलुन --फ़’अलुन यानी मुज़ाहिफ़ रुक्न --और तीन मुतहररिक ’एक ही ’</p><p>रुक्न "फ़’अलुन’ [ फ़े--ऎन--लाम ] और अब इस पर तस्कीन-ए-औसत का [ तख़नीक का नहीं ध्यान रहे ] </p><p>अमल हो सकता है </p><p>हम 112---112---112---112- को मूल बह्र कहेंगे क्यों कि इसी बह्र से हम कई मुतबादिल औज़ान [ वज़न का बहु वचन ]</p><p>बरामद करेंगे---जो आप बाअसानी कर सकते है ।</p><p><br /></p><p>अब हम ’अदम ’ साहब की एक ग़ज़ल लेते हैं --जो इसी आहंग की ’मुज़ाइफ़ ’ [ दो-गुनी ] शकल है </p><p>यानी 112---112---112--112-// 112--112--112--112</p><p><br /></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">मयख़ाना-ए-हस्ती में अकसर हम अपना ठिकाना भूल गए</span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">या होश से जाना भूल गए या होश में आना भूल गए</span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;"><br /></span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">असबाब तो बन ही जाते हैं तकदीर की ज़िद को क्या कहिए</span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">इक जाम तो पहुँचा था हम तक ,हम जाम उठाना भूल गए</span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;"><br /></span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">----</span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">-----</span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;"><br /></span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">मालूम नही आइने में चुपके से हँसा था कौन ’अदम’</span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">हम जाम उठाना भूल गए ,वो साज़ बजाना भूल गए</span></p><p><br /></p><p>[ पूरी ग़ज़ल गूगल पर मिल जायेगी ]</p><p>आप की सुविधा के लिए --मतला की तक़्तीअ’ कर दे रहे हैं ---बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ आप कर लें --तो मश्क़ </p><p>का मश्क़ हो जायेगा \</p><p> 2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 2 2 // 2 2 / 1 1 2 / 2 2/ 1 2 2</p><p>मय ख़ा/ न:-ए-हस/ ती में /अकसर //हम अप /ना ठिका/ना भू/ल गए = 22--112---22--22--//22--112--22---112</p><p><br /></p><p>2 2 / 1 1 2 / 2 2/ 1 1 2 // 2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 1 1 2<span style="white-space: pre;"> </span> = 22----112---22-112-//22--112---22---112</p><p>या हो /श से जा/ना भू/ल गए // या हो/श में आ/ना भू/ल गए</p><p> इस में आवश्यकतानुसार --11 को 2 लिया गया है जो ’तस्कीन के अमल से जायज़ है ।</p><p><br /></p><p>अब एक ग़ज़ल शकील बदायूनी वाली लेते है </p><p><br /></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">करने दो अगर कत्ताल-ए जहाँ तलवार की बाते करते हैं</span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">अर्ज़ा नही होता उनका लहू जो प्यार की बाते करते है</span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;"><br /></span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">ग़म में भी रह एहसास-ए-तरब देखो तो हमारी नादानी</span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">वीराने में सारी उम्र कटी गुलज़ार की बातेम करते हैं</span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;"><br /></span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">ये अहल-ए-क़लम ये अहल-ए-हुनर देखो तो ’शकील’ इन सबके जिगर</span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">फ़ाँकों से हई दिल मुरझाए हुए ,दिलदार की बातें करते हैं</span></p><p><br /></p><p>[ पूरी ग़ज़ल गूगल पर मिल जायेगी ]</p><p>आप की सुविधा के लिए --मतला की तक़्तीअ’ कर दे रहे हैं ---बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ आप कर लें --तो मश्क़ </p><p>का मश्क़ हो जायेगा ।</p><p><br /></p><p> 2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 1 1 2 // 2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 2 2= 22--112---22---112--// 22--112---22--22</p><p>कर ने / दो अगर /कत ता /ल जहाँ //तल वा/र की बा/ते कर /ते हैं</p><p><br /></p><p> 2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 1 1 2 // 2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 2 2 = 22---112--22--112 // 22--112--22--22</p><p>अर् ज़ा /नही हो/ ता उन/का लहू /जो प्या/ र की बा/ते कर /ते है</p><p><br /></p><p>यानी किसी भी रुक्न के 112 को हम 22 कर सकते है [ तस्कीन-ए-औसत की अमल से ]</p><p>मगत 22-- को 112 नहीं कर सकते । और करेंगे तो किस अमल से ??? यही मेरा सवाल है ---अजय तिवारी जी से </p><p><br /></p><p>आप ऐसी ही 2-4 ग़ज़लो पर मश्क़ करते रहें इन्शा अल्लाह इसे भी सीखने में आप को कामयाबी मिलेगी</p><p><br /></p><p><b>-आनन्द.पाठक-</b></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-18408370450932881662020-11-11T21:37:00.001-08:002020-11-11T23:29:25.652-08:00 उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 001 [ सालिम रुक्न कैसे बनते है ?<p><span style="color: red;"><b> उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 001 [ सालिम रुक्न कैसे बनते है ?</b></span></p><p><br /></p><p><a href="https://urdusehindi.blogspot.com/2020/11/000.html" target="_blank">क़िस्त 000 </a>में हम 8-सालिम रुक्न की चर्चा कर चुके है । ये बनते कैसे हैं , आज हम उसी पर चर्चा करेंगे।</p><p> हर सालिम रुक्न सबब और वतद के योग से बनता है। आप जानते हैं कि शायरी के लिए 8- सालिम रुक्न मुक़र्रर है</p><p>। देखिए कैसे यह वतद और सबब के कलमा के योग से बनते हैं ।</p><p><br /></p><p><span style="color: red;">1-<span style="white-space: pre;"> </span>फ़ऊलुन فعولن </span><span style="white-space: pre;"> </span>= <span style="background-color: #fcff01;">फ़ऊ+ लुन </span><span style="white-space: pre;"> </span>= 12+ 2 <span style="white-space: pre;"> </span>= 1 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #2b00fe;">=<b>वतद </b></span>-<span style="background-color: #fcff01;">सबब</span></p><p><span style="color: red;">2-<span style="white-space: pre;"> </span>फ़ाइलुन فا علن </span><span style="white-space: pre;"><span style="color: red;"> </span> </span>=<span style="background-color: #fcff01;"> फ़ा + इलुन </span><span style="white-space: pre;"> </span>= 2 + 12 <span style="white-space: pre;"> </span>= 2 1 2 <span style="white-space: pre;"> </span>=<span style="background-color: #fcff01;">सबब+</span> <span style="color: #2b00fe;"><b>वतद</b></span></p><p><span style="color: red;">3-<span style="white-space: pre;"> </span>मुफ़ाईलुन مفا ٰعلن </span><span style="white-space: pre;"> </span>= <span style="background-color: #fcff01;">मुफ़ा +ई+लुन </span><span style="white-space: pre;"> </span>= 12 + 2 +2 <span style="white-space: pre;"> </span>= 1 2 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>=<span style="color: #2b00fe;"><b> वतद </b></span>+ <span style="background-color: #fcff01;">सबब+सबब</span></p><p><span style="color: red;">4-<span style="white-space: pre;"> </span>फ़ाइलातुन فاعلاتن</span><span style="white-space: pre;"> </span>= <span style="background-color: #fcff01;">फ़ा +इला+ तुन </span>= 2 +1 2 + 2<span style="white-space: pre;"> </span>= 2 1 2 2<span style="white-space: pre;"> </span>= <span style="background-color: #fcff01;">सबब</span>+ <span style="color: #2b00fe;"><b>वतद+</b></span> <span style="background-color: #fcff01;">सबब</span></p><p><span style="color: red;">5-<span style="white-space: pre;"> </span>मुस तफ़ इलुन مستفعلن </span> = <span style="background-color: #fcff01;">मुस+तफ़+इलुन </span>= 2+2+ 12<span style="white-space: pre;"> </span>=2 2 1 2 <span style="white-space: pre;"> </span>= <span style="background-color: #fcff01;">सबब+सबब</span>+ <span style="color: #2b00fe;"><b>वतद </b></span></p><p><span style="color: red;">6-<span style="white-space: pre;"> </span>मुतफ़ाइलुन متفاعلن<span style="white-space: pre;"> </span></span>=<span style="background-color: #fcff01;"> मु +त+फ़ा+इलुन </span>= (1+1)+2+12= 1 1 2 1 2 = <span style="background-color: #fcff01;">सबब+सबब </span>+<span style="color: #2b00fe;"><b>वतद </b></span></p><p><span style="color: red;">7-<span style="white-space: pre;"> </span>मुफ़ा इ ल तुन مفاعلتن<span style="white-space: pre;"> </span></span>= <span style="background-color: #fcff01;">मुफ़ा_ इ+ल+तुन </span>= 12 + {1+1) + 2= 1 2 1 1 2 = <span style="color: #2b00fe;"><b>वतद</b></span> + <span style="background-color: #fcff01;">सबब+ सबब</span></p><p><span style="color: red;">8-<span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ऊलातु مفعلاتُ</span><span style="white-space: pre;"> </span>=<span style="background-color: #fcff01;"> मफ़+ऊ+लातु </span>= 2 +2+2 1<span style="white-space: pre;"> </span>= 2 2 2 1 <span style="white-space: pre;"> </span>= <span style="background-color: #fcff01;"> सबब+सबब</span>+<b><span style="color: #2b00fe;"> वतद </span></b></p><p><br /></p><p>ध्यान से देखें :- </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[अ]<span style="white-space: pre;"> </span>सभी रुक्न में -वतद -एक खूंटॆ [ PEG] की तरह स्थिर गड़ा हुआ है -और -सबब- एक रस्सी सा बँधा हुआ है इस खूंटे से,-जो कभी -वतद -के बाएं तो कभी दाएं आ जाते है --मगर वतद को छोड़ नही रहे है। इसीलिए मैने पिछले क़िस्त में कहा था कि अरबी में - वतद -का एक अर्थ ’खूँटा’ भी होता है और सबब का एक अर्थ ’रस्सी’ ।’सबब’ कभी”वतद’ के बाएँ --कभी दाएँ कभी दोनॊ बाएं -कभी दोनो दाएँ घूम रहे हैं।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[ब]<span style="white-space: pre;"> </span>आप देख रहे है -सबब - के किए कहीं -लुन--कहीं - फ़ा- कहीं -ई- कहीं -तुन-- कहीं -मुस-=- कहीं -तफ़- कहीं--मफ़- ये सब दो हर्फ़ी कलमा है जिसमे पहला हर्फ़ ’मुतहर्रिक’ है और दूसरा हर्फ़ :साकिन’ । सवाल यह है कि सबब-ए-ख़फ़ीफ़ के लिए कोई एक ही कलमा काफी था ,पता नहीं इतने लाने की क्या ज़रूरत थी । यह तो कोई अरूज़ी ही बता सकता है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[स] <span style="white-space: pre;"> </span>यही बात वतद के लिए भी है । कहीं- फ़ऊ- --कहीं -इलुन- कहीं -मुफ़ा- --कहीं -इला-लिया ,।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[द]<span style="white-space: pre;"> </span>मज़े की बात तो सबब-ए-सकील में के लिए है। वाफ़िर [ मफ़ा इ ल तुन ] में इसे --इ-ल- लिया मगर कामिल [ मु त फ़ा इलुन] में इसे मु-त -लिया[ दोनॊ मुतहर्रिक ] । मगर अलग अलग।</p><p>इन सभी सालिम अर्कान पर एक एक कर के चर्चा कर लेते हैं ।</p><p><span style="color: red;"><b>1- फ़ऊलुन فعولن =2 2 1</b></span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>’फ़ऊलुन’[ फ़े’लुन]- एक सालिम रुक्न है और यह -"बहर-ए-मुतक़ारिब ’ का बुनियादी रुक्न है ।यह 5-हर्फ़ [ फ़े-ऐन- वाव--लाम --नून = 5 ] से मिल कर बना है तो इसे <span style="white-space: pre;"> </span>’ख़म्मासी’ रुक्न भी कहते हैं [ख़म्स: माने-5-वस्तुओं का समाहार ]-] फ़ऊ --क्या है ? कुछ नहीं है ।यह सालिम रुक्न " वतद-ए-मज्मुआ [फ़ऊ] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [लुन] से मिल कर बना है यानी 12+2 = 1 2 2 से बनता है।</p><p>इस हमवज़न अल्फ़ाज़ हैं जैसे-----ज़माना/-- फ़साना-- बहाना--निशाना---वफ़ा कर/ सितमगर/ इशारा/ निगाहों / सितारों /सनम /मुकाबिल --- ऎसे बहुत से अल्फ़ाज़।</p><p>एक बात और । इसका वज़न हिन्दी के के गण [ देखें क़िस्त 000 ] यगंण [ यमाता = 1 2 2 ] के वज़न पर उतरता है । बस एक व्यवस्था है वज़न दिखाने का ।-फ़े -ऐन-वाव [ मुतहर्रिक +मुतहर्रिक + साकिन ] है जो वतद-ए-मज़्मुआ की नुमाइन्दगी कर रहा है बस।<span style="white-space: pre;"> </span>और लुन ? लुन भी कुछ नहीं है । लाम -नून [ मुतह्र्रिक +साकिन] सबब-ए-ख़फ़ीफ़ की नुमाइन्दगी कर रहा है । </p><p>ज़िहाफ़ [ चर्चा आगे किसी मुनासिब मुक़ाम पर करेंगे] --हमेशा सालिम रुक्न पर ही लगता है और वह भी सालिम रुकन के ’जुज़’ [ टुकड़े पर ] ही लगता है ।यानी कोई ज़िहाफ़ [ चाहे मुफ़र्द हो या मुरक़्क़ब हो]लगेगा तो सबब के जुज़ पर या वतद के जुज़ पर ही लगेगा । ये ज़िहाफ़ात भी अलग अलग अमल के होते है _- सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात अलग [ जैसे---ख़ब्न--तय्य--क़ब्ज़---कफ़--कस्र--हज़्फ़--आदि</p><p><i><span style="color: #2b00fe;">वतद-ए-मज़्मुआ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात अलग [ जैसे-ख़रम--सलम--कतअ’ बतर--इज़ाला आदिक-----॥ </span></i>] </p><p>इसमें कुछ ज़िहाफ़ात तो शे’र में -सद्र/इब्तिदा के लिए ही ख़ास है --।] कुछ अरूज़ और ज़र्ब के लिए ख़ास है । ज़िहाफ़ात की चर्चा --आगे कही करेंगे।</p><p><span style="color: red;"><b>2- फ़ाइलुन [2 1 2 ]= مفا ٰعلن </b></span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>’फ़ाइलुन’ - एक सालिम रुक्न है और यह "बह्र-ए-मुतदारिक" का बुनियादी रुक्न है। यह भी एक 5- हर्फ़ी यानी ख़म्मासी रुक्न भी कहते हैं[यह रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ फ़ा] +वतद-ए-मज़्मुआ [ इलुन] से मिल कर बना है</p><p> यानी 2+1 2= 2 1 2 के योग से बनता है। आप "फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] से इसकी तुलना करें । देखें कि क्या फ़र्क़ है --व्यवस्था में, वतद-सबब के लिहाज़ से ।</p><p>इसके हमवज़न अल्फ़ाज़ हैं----- प्यार का /आशना / कामना / सामना/ दिल्ररूबा / ऎ सनम/ ऐसे बहुत से अल्फ़ाज़। </p><p>एक बात और। हिंदी के गण से तुलना करें [ देखें 000] तो इसका वज़न ’रगण’ [ राज़भा = 2 1 2] पर उतरता है</p><p>इसीलिए कहते हैं कि ये दोनो रुक्न हिन्दी छन्द शास्त्र से उर्दू अरूज़ में आए हैं और उसमे ’ फ़ाइलुन’ -पहले आया । ठीक ’फ़ऊलुन’ की तरह इस पर वही ज़िहाफ़ लगेगे जो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ और वतद-ए-मज़्मुआ पर लगेंगे मगर कुछ क़ैद के साथ । कारण कि इस रुक्न की शुरुआत "सबब’ [फ़ा]से हो रही है जब कि ’फ़ऊलुन’[फ़ऊ] <span style="white-space: pre;">।</span>शुरुआत ’ वतद-ए-मज़्मुआ’ से शुरु हो रही है । ज़िहाफ़ की चर्चा बाद में करेंगे।</p><p><span style="color: red;"><b>3- मुफ़ाईलुन [ 1 2 2 2 ] =مفا ٰعلن </b></span></p><p>’मुफ़ाईलुन ’ -भी एक सालिम रुक्न है और यह "बह्र-ए-हज़ज" का बुनियादी रुक्न है ।यह भी एक 7-हर्फ़ी [ मीम---फ़े--अलिफ़--ऐन- ये--लाम--नून=7] सुबाई रुक्न है।<span style="white-space: pre;"> </span>यह वतद-ए-मज्मुआ [ मुफ़ा ]+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ई]+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [लुन] से मिल कर बना है यानी = 12+2+2 = 1 2 2 2 से बनता है । यह हिन्दी छन्द-शास्त्र के किसी गण से नहीं मिलता है ।</p><p>इसके हमवज़न अल्फ़ाज़ हो सकते है--- मना कर दो / वफ़ा करना / सितमगर हो/ पता दे दो / निभाना है / --जैसे बहुत से अल्फ़ाज़।</p><p>इस रुक्न पर लगने वाले कुछ ख़ास ख़ास ज़िहाफ़ के नाम यहाँ लिख रहा हूँ <span style="color: #2b00fe;"><i>जैसे ख़रम---कफ़---कस्र--क़ब्ज़---सरम--हत्म--जब्ब:--बत्र--सतर-- </i></span>। इसके अलावा और भी फ़र्द और मुरक़्कब ज़िहाफ़ भी लगते हैं।</p><p>ज़िहाफ़ की चर्चा बाद में करुँगा। </p><p><span style="color: red;"><b>4- फ़ाइलातुन [ 2 1 2 2 ] =فاعلاتن</b></span></p><p>फ़ाइलातुन - भी एक सालिम रुक्न है और यह ’बह्र-ए-रमल’ का बुनियादी रुक्न है। यह भी एक -7- हर्फ़ी [सुबाई] है। यह रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़[ फ़ा] + वतद-ए-मज्मुआ [इला] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [तुन] = 2+ 1 2 + 2 = 2 1 2 2 से बनता है।यह भी एक 7-हर्फ़ी सुबाई रुक्न है ।</p><p>इसके हम वज़न अल्फ़ाज़ हो सकते हैं ---दिल-ए-बीना-- .नासुबूरी----बेहुज़ूरी -- अंजुमन है--- जैसे बहुत से अल्फ़ाज़ ।</p><p><i><span style="color: #2b00fe;">इस सालिम रुक्न पर लगने वाले ख़ास ख़ास ज़िहाफ़ है --ख़ब्न---कफ़---क़स्र--तश्शीस---हज़्फ़--शकल आदि । </span></i>इसके अलावा और भी बहुत से फ़र्द और मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ भी लगते है ।</p><p><span style="color: red;"><b>5- मुसतफ़इलुन [ 2 2 1 2 ]</b></span></p><p>”’मुसतफ़इलुन’- भी एक सालिम रुक्न है और यह ’बह्र-ए- रजज़" का बुनियादी रुक्न है । यह भी एक 7-हर्फ़ी सुबाई रुक्न है।</p><p>यह रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [मुस] +सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [तफ़]+ वतद-ए-मज्मुआ [ इलुन ] से मिल कर बना है।यानी 2+2+12 =2 2 1 2</p><p>इसके हम वज़न अल्फ़ाज़ हो सकते है जैसे - आ जा सनम / आए नहीं / इतना सितम / जैसे बहुत से अल्फ़ाज़ </p><p><span style="color: #2b00fe;"><i>इस सालिम रुक्न पर लगने वाले मुख्य ज़िहाफ़ हैं ------ख़ब्न---तय्यी--क़तअ’--इज़ाला और भी बहुत से फ़र्द और </i></span>मुरक़्क़ब ज़िहाफ़</p><p><span style="color: red;"><b>6-<span style="white-space: pre;"> </span>मुतफ़ाइलुन [ 1 1 2 1 2 ]</b></span></p><p>मुतफ़ाइलुन - भी एक सालिम रुक्न है और यह ’बह्र-ए-कामिल ’ का बुनियादी रुक्न है। यह भी एक 7-हर्फ़ी सुबाई रुक्न है।</p><p>यह रुक्न सबब-ए-सकील [ मु त ] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [फ़ा]+वतद-ए-मज्मुआ [इलुन ] से मिल कर बना है यानी 1 1+ 2+ 1 2 = 1 1 2 1 2 </p><p>यहाँ पर प्रदर्शित 1 1 को आप मुतहर्रिक हर्फ़ समझे न कि हिंदी का ’लघु वर्ण’ समझें।</p><p>ध्यान देने की बात है कि पहला - सबब- सबब-ए-सकील है और जब कि दूसरा सबब -सबब-ए-ख़फ़ीफ़ है ।कहने का मतलब यह कि </p><p>सबब-ए-सकील पर लगने वाले ज़िहाफ़ात अलग होते हैं जब कि सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात अलग होते हैं।</p><p><span style="color: red;"><b><i>[ एक विशेष टिप्पणी </i></b></span>--पिछली क़िस्त [000] में "फ़ासिला सुग़रा" की चर्चा किए थे कि वह चार हर्फ़ी कलमा जिसमे मुतहर्रिक+ मुतहर्रिक + मुतहर्रिक +साकिन हर्फ़ हो यानी 1 1 2 जैसे--बरकत-- हरकत आदि जिसमें -ते [ते] साकिन है और बाक़ी सभी मुस्तमिल [ इस्तेमाल किए हुए ] हर्फ़ पर ज़बर का हरकत है । तो मु त फ़ा इलुन को <span style="background-color: #fcff01;">फ़ासिला + वतद</span> से भी दिखा सकते हैं । मगर हमने तो ऊपर सबब और वतद के परिभाषा से ही दिखा दिया और बता दिया । इसीलिए मैने कहा था कि </p><p>फ़ासिला के बग़ैर भी अरूज़ का काम चल सकता है ।]</p><p>इस के हमवज़न अल्फ़ाज़ हो सकते है ---यूँ ही बेसबब / न फ़िरा करो / कोई शाम घर / भी रहा करो /[बशीर बद्र की एक ग़ज़ल से]-या ऐसे ही बहुत से जुमले।</p><p>या -तू बचा बचा / के न रख इसे / न कही जहाँ / में अमाँ मिली / [ इक़बाल की एक ग़ज़ल से ] </p><p><span style="color: #cc0000;"><i>और इस पर लगने वाले मुख्य मुख्य ज़िहाफ़ात है ---इज़्मार--वक़्स--क़त’अ--इज़ाला --</i></span></p><p><span style="color: red;"><b>7-<span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ाइलतुन [ 1 2 1 1 2 ]</b></span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ाइलतुन - भी एक सालिम रुक्न है और यह बह्र-ए-वाफ़िर का बुनियादी रुक्न है। यह भी एक 7-हर्फ़ी सुबाई रुक्न है।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>यह वतद-ए-मज्मुआ [ मुफ़ा ]+ सबब-ए-सकील[ इ ल] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़[ तुन] से मिल कर बना है यानी 12 1 1 2 = 1 2 1 1 2 </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>यहाँ पर प्रदर्शित 1 1 को आप मुतहर्रिक हर्फ़ समझे न कि हिंदी का लघु वर्ण ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[ एक विशेष टिप्पणी --इस रुक्न को भी फ़ासिला + सबब से दिखा सकते हैं यानी वतद+फ़ासिला = 12 112 और वतद और सबब से भी।आप को जो सुविधाजनक लगे।</p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>एक बार ध्यान से देखें -- क्या आप को मफ़ा इ ल तुन [ वाफ़िर] --बरअक्स मु त फ़ाइलुन [ कामिल का नहीं लगता ?</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>इस पर लगने वाले मुख्य ज़िहाफ़ात हैं---<span style="color: #2b00fe;"><i>---इज़्मार---वक़्स---कतअ’--इज़ाला --और भी बहुत से फ़र्द और मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ भी।</i></span></p><p><span style="color: red;"><b>8- <span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ऊलातु [ 2 2 2 1 ] </b></span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ऊलातु -- भी एक सालिम 7-हर्फ़ी सुबाई रुक्न तो है मगर यह किसी सालिम बह्र की बुनियादी रुकन नहीं है। हो भी नहीं सकती । कारण कि इसका हर्फ़-उल-आखिर -तु- [ ते पर </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>पेश की हरकत है ] मुतहर्रिक है । उर्दू ज़बान की फ़ितरत ऐसी है कि मिसरा का आख़िरी हर्फ़ -साकिन -हर्फ़ पर गिरता है, मुतहर्रिक पर कभी नहीं गिरता ।तो ?</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>यह मिसरा के आखिर में अपने मुज़ाहिफ़ शक्ल [ जिसमे आखिरी साकिन हो जाता है ] में ही आ सकता है । हाँ यह रुक्न अपने सालिम शकल में मुरक़्क़ब बहर के बीच में आ सकती</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>है और आती भी है । मगर ज़्यादातर अपनी मुज़ाहिफ़ शकल में ही आती है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>इस के हम वज़न अल्फ़ाज़ तो सालिम शकल में नहीं दिए जा सकते । हाँ क़सरा-ए-इज़ाफ़त और वाव-ओ-अत्फ़ की तरक़ीब से हो सकता है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>इस पर लगने वाले ्मुख्य मुख्य ज़िहाफ़ात हैं---अज़्ब--क़स्म--जम्म-- अक़्ल --नक़्स-- और भी बहुत से मुफ़र्द और मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ भी।</p><p>उर्दू शायरी में प्रचलित 8-सालिम अर्कान की बात तो हो चुकी मगर अबतक "वतद-ए-मफ़रूक़" का ज़िक्र तो आया नहीं जब कि पिछले क़िस्त [000] में इस पर चर्चा कर चुका हूँ।</p><p><span style="color: #cc0000;"><i>ऊपर वर्णित दो रुक्न -ऎसे हैं जिनके इमला की दो शकले [ उर्दू स्क्रिप्ट में लिखने के दो तरीक़े ] मुमकिन है और लिखे जाते हैं । एक तरीक़े को --मुतस्सिल और दूसरा तरीक़े को मुन्फ़सिल कहते है।</i></span></p><p><span style="color: #cc0000;"><i>मुत्तस्सिल तरीके में अर्कान में मुस्तमिल तमाम हर्फ़ -सिल्सिले- से यानी एक दूसरे से मिला कर लिखते है जब कि -मुन्फ़सिल- तरीक़े में कुछ हर्फ़ में ’फ़ासिला- देकर लिखते है</i></span></p><p><span style="color: #cc0000;"><i>मुत्तस्सिल तरीक़ा तो वही जो ऊपर लिखा जा चुका है । मुन्फ़सिल तरीका नीचे लिख रहा हूँ ।</i></span></p><p><span style="color: #cc0000;"><i>तरीक़ा कोई हो- वज़न दोनो में समान ही रहेगा और तलफ़्फ़ुज़ भी लगभग समान रहेगा।</i></span></p><p><span style="color: #cc0000;"><i>--फ़ाइलातुन [ रमल ] فاع لاتن<span style="white-space: pre;"> </span>=’ मुन्फ़सिल शकल ]= 2 1 2 2 = फ़ाअ’ ला तुन = [ फ़ा अ’ में---ऎन ्मुतहर्रिक है यानी --्फ़े [-मुतहर्रिक] +अलिफ़ [साकिन] + ऐन [ मुतहर्रिक } ---यानी वतद-ए-मफ़रुक़ [ दोनो मुतहर्रिक के बीच में फ़र्क है। </i></span></p><p><span style="color: #cc0000;"><i>--मुसतफ़इलुन [ रजज़] مس تفع لن= मुन्फ़सिल शकल = 2 2 1 2 = मुस तफ़अ’ लुन = [ तफ़ अ’ -यहाँ भी -ऎन- मुतहर्रिक है ते -[ मुतहर्रिक] + फ़े [ साकिन ] + ऐन [ मुतहर्रिक ]-- यानी वतद-ए-मफ़रुक़ [ दोनो मुतहर्रिक के बीच में फ़र्क है। </i></span></p><p>अब आप कहेंगे कि इस मुक़ाम पर इसकी चर्चा क्यों कर रहे हैं ? बिलकुल सही। इसलिए कर रहे है कि कुछ मुरक़्क़ब बह्र [ जैसे-----\] में यह रुक्न अपने मुन्फ़सिल शकल में ही आती हैं।</p><p>और उस बह्र लगने वाले ज़िहाफ़ -वतद-ए-मफ़रुक -वाले ज़िहाफ़ लगेंगे। बहुत से लोग यही गलती कर देते है और उस मुक़ाम पर भी --वतद-ए- मज्मुआ वाले ज़िहाफ़ लगा देते हैं । हमे इसका पास [ ख़याल ] रखना होगा</p><p>ये दोनो कोई नया रुक्न नहीं है । ये तो बस वर्णित रुक्न के बदली शकल हैं ।नया कुछ भी नहीं।</p><p>-आनन्द.पाठक-</p><p> </p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span> </p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><div><br /></div>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-32961798215521170792020-11-01T23:41:00.006-08:002020-11-12T03:20:33.048-08:00 उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 000 [ अरूज़ की कुछ बुनियादी बातें ]<p> <span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: red;"><b>उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 000 [ अरूज़ की कुछ बुनियादी बातें ]</b></span></p><div><span style="color: red;"><b><br /></b></span><span style="color: #2b00fe;"><i><b>भूमिका </b>: बहुत दिनों बाद जब अपने ब्लाग के इस श्रृंखला के पुनरीक्षण और परिवर्धन करने की सोच रहा था तो<br />ध्यान में आया कि अरूज़ की कुछ बुनियादी बातें ऐसी थीं जो इस इस श्रृंखला में सबसे पहले आनी चाहिए थी जिससे<br />पाठक गण को आगे के क़िस्तों को समझने/समझाने में सुविधा होती । जब तक यह बात <br />ध्यान में आती तबतक बहुत विलम्ब हो चुका था और 75-क़िस्त लिखा जा चुका था । ख़ैर कोई बात नहीं।<br />जब जगे तभी सवेरा।<br />यह वो बुनियादी बातें है जिनका ज़िक्र हर क़िस्त में आता रहता है और वज़ाहत करती रहनी पड़्ती है । इसीलिए सोचा कि ये सब बातें<br />यकजा कर लूँ जिससे क़िस्तों में बारहा ज़िक्र न करना पड़े। <br />इसी लिए इस क़िस्त की संख्या 000 डालना पड़ा.जो क़िस्त 01 से पहले आना चाहिए था ।<br /><span style="white-space: pre;"> </span>इस क़िस्त में ,अरूज़ की कुछ बुनियादी बातों पर चर्चा करेंगे।</i></span><br />-------------------------------------------------</div><p>1-<span style="white-space: pre;"> </span>जैसे हिंदी [संस्कृत] के छन्द-शास्त्र में ’वार्णिक छन्दों’ में मात्रा गणना और अनुशासन के लिए ’गण’ निर्धारित </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>किए गये हैं जिसे हम ’दशाक्षरी सूत्र" -यमाताराजभानसलगा - से याद रखते हैं । यानी</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: red;">[1]<span style="white-space: pre;"> </span>यगण = यमाता = 1 ऽ ऽ = 1 2 2 </span></p><p><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>[2]<span style="white-space: pre;"> </span>मगण =<span style="white-space: pre;"> </span>मातारा = ऽ ऽ ऽ = 2 2 2 </span></p><p><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>[3]<span style="white-space: pre;"> </span>तगण = ताराज = ऽ ऽ 1 = 2 2 1</span></p><p><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>[4]<span style="white-space: pre;"> </span>रगण = राजभा = ऽ 1 ऽ = 2 1 2 </span></p><p><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>[5]<span style="white-space: pre;"> </span>जगण = जभान = 1 ऽ 1 = 1 2 1 </span></p><p><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>[6]<span style="white-space: pre;"> </span>भगण = भानस = ऽ 1 1 = 2 1 1 </span></p><p><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>[7]<span style="white-space: pre;"> </span>नगण = नसल = 1 1 1 = 1 1 1 </span></p><p><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>[8]<span style="white-space: pre;"> </span>सगण = सलगा = 1 1 ऽ = 1 1 2 </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>यानी 1-2 के तीन-तीन वर्ण के combination /permutation 8- गण बनते है जहाँ [ 1= लघु वर्ण ] और </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[ ऽ = दीर्घ वर्ण ] मानते हैं ।</p><p>2- <span style="white-space: pre;"> </span>जैसे हिंदी में [ और संस्कृत में भी ] छन्दों के लिए 8- गण की व्यवस्था है ,वैसे ही ’उर्दू’ में भी ’अरूज़’ के लिए भी<b style="background-color: #fcff01;"> 8- रुक्न</b> [ ब0व0 अर्कान ]</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>की व्यवस्था है जो निम्न हैं । अरूज़ को आप उर्दू शायरी का छन्द शास्त्र समझिए ।</p><p><span style="white-space: pre;"> <span style="color: #800180;"> </span></span><span style="color: #800180;">-सालिम रुक्न ---<span style="white-space: pre;"> </span>बह्र का नाम </span></p><p><span style="color: #800180;"><span style="white-space: pre;"> </span>[1]<span style="white-space: pre;"> </span>फ़ऊलुन = 1 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>= बह्र-ए-मुतक़ारिब का सालिम रुक्न= 5- हर्फ़ी रुक्न [ख़म्मासी रुक्न]</span></p><p><span style="color: #800180;"><span style="white-space: pre;"> </span>[2] <span style="white-space: pre;"> </span>फ़ाइलुन = 2 1 2 <span style="white-space: pre;"> </span>= बह्र-ए-मुतदारिक का सालिम रुक्न= <span style="white-space: pre;"> </span>-do-</span></p><p><span style="color: #800180;"><span style="white-space: pre;"> </span>[3]<span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ाईलुन = 1 2 2 2<span style="white-space: pre;"> </span>= बह्र-ए-हज़ज का सालिम रुक्न = 7- हर्फ़ी रुक्न[सुबाई रुक्न]</span></p><p><span style="color: #800180;"><span style="white-space: pre;"> </span>[4] <span style="white-space: pre;"> </span>फ़ाइलातुन = 2 1 2 2<span style="white-space: pre;"> </span>= बह्र-ए-रमल का सालिम रुक्न<span style="white-space: pre;"> </span>= <span style="white-space: pre;"> </span> -do-</span></p><p><span style="color: #800180;"><span style="white-space: pre;"> </span>[5] <span style="white-space: pre;"> </span>मुसतफ़इलुन= 2 2 1 2<span style="white-space: pre;"> </span>= बह्र-ए-रजज़ का सालिम रुक्न<span style="white-space: pre;"> </span>= <span style="white-space: pre;"> </span>-do-</span></p><p><span style="color: #800180;"><span style="white-space: pre;"> </span>[6] मु त फ़ाइलुन = 1 1 2 1 2 = बह्र-ए-कामिल का सालिम रुक्न = -do-</span></p><p><span style="color: #800180;"><span style="white-space: pre;"> </span>[7]<span style="white-space: pre;"> </span> मुफ़ा इ ल तुन = 1 2 1 1 2= बह्र-ए-वाफ़िर का सालिम रुक्न = <span style="white-space: pre;"> </span>-do-</span></p><p><span style="color: #800180;"><span style="white-space: pre;"> </span>[8] मफ़ ऊ लातु = 2 2 2 1 = --- ---<span style="white-space: pre;"> </span>= -do-</span></p><p> <span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #660000;"><i>नोट1 -<span style="white-space: pre;"> </span> ’मफ़ऊलातु’--एक सालिम रुक्न तो है मगर इससे कोई ’ सालिम बह्र " नहीं बनती । कारण ? आगे किसी मुक़ाम पर चर्चा करेंगे।</i></span></p><div><span style="color: #660000;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>उर्दू में अर्कान को अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे--अफ़ाइल--तफ़ाइल--औज़ान -मीज़ान -- उसूल -- नाम कुछ भी हो अर्थ वही है । <br /><span style="white-space: pre;"> </span>यह सालिम रुक्न कैसे बनते हैं ,इसकी भी चर्चा आगे किसी मुक़ाम पर करेंगे। आइन्दा चर्चा में हम ’रुक्न’/ अर्कान [ रुक्न का ब0व0] -लफ़्ज़ ही इस्तेमाल करेंगे।<br /><span style="white-space: pre;"> </span>यहाँ पर ये अर्कान उर्दू के किस ’दायरे’ [ वृत्त] से निकलते है --उसकी चर्चा नहीं करेंगे। कारण? कारण कि हमे इसकॊ ज़रूरत नहीं पड़ेगी<br /><span style="white-space: pre;"> </span>अगर विस्तार से समझना हो इसके बारे में तो अरूज़ की किसी भी किताब में ब आसानी मिल जायेगी ।<br /><span style="white-space: pre;"> </span>नोट2 - <span style="white-space: pre;"> </span>पाँच हर्फ़ी [5-हर्फ़ी ]रुक्न को ’ख़म्मासी रुक्न " कहते हैं जैसे फ़ऊलुन--फ़ाइलुन [2-रुक्न ]<br /><span style="white-space: pre;"> </span>सात हर्फ़ी [7-हर्फ़ी] रुक्न को ’सुबाई रुक्न’-कहते हैं जैसे मुफ़ाईलुन---फ़ाइलातुन---मुस तफ़ इलुन--मुतफ़ाइलुन---मुफ़ाइलतुन--मफ़ऊलातु [ 6-रुक्न]<br /></i>3- <span style="white-space: pre;"> </span>यह भी क्या इत्तिफ़ाक़ है कि हिंदी के छन्द गणना के लिए 8- बुनियादी गण और उर्दू के अरूज़ के लिए भी <span style="background-color: #fcff01;">8-बुनियादी सालिम रुक्न</span> ! ख़ैर</span></div><p>4-<span style="white-space: pre;"> </span>उर्दू शायरी के लिए थोड़ी बहुत उर्दू के हरूफ़ [ हर्फ़ का ब0व0] ,क़वायद [ क़ायदा का ब0व0] की जानकारी होनी चाहिए। हो तो बेहतर।और मैं आशा करता हूँ कि इतनी बहुत जानकारी अवश्य होगी। जानकारी होगी तो आप को अरूज़,बह्र,वज़न समझने /समझाने में <span style="white-space: pre;"> </span> और आसानी होगी।</p><p>5- उर्दू के मात्र दो -रुक्न [ फ़ऊलुन 1 2 2 और फ़ाइलुन 2 1 2 ] ऐसे सालिम रुक्न हैं जो हिंदी के .गण [ यगण 1 2 2 और रगण 2 1 2 ] से मेल खाते हैं</p><p>इसीलिए कहा जाता है कि ये दो वज़न --हिंदी से उर्दू में आए हैं और उसमें भी ’फ़ाइलुन [2 1 2 ] वज़न ’ पहले आया ।</p><p><br /></p><p>6-<span style="white-space: pre;"> </span>जैसे हम हिंदी में ’वर्ण-माला ’ होती हैं .वैसे ही उर्दू में हिज्जे होते है जिसे ’<span style="color: red;">हरूफ़-ए-तहज्जी,</span> कहते हैं । इन की संख्या 35-या 36 ।उर्दू मे हरूफ़-ए-तहज्जी में <span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>बहुत से हर्फ़ ’अरबी’ से आए ,कुछ फ़ारसी तुर्की हिंदी से भी आए ।.जब जब और जैसे जैसे उर्दू को मुख्तलिफ़ आवाज़ों की ज़रूरत महसूस होती गई ,हर्फ़ आते गए अलामात [ चिह्न] बनाते गए। यही बात हिंदी में भी हुई । उर्दू हर्फ़ की कुछ आवाजें हिंदी में नहीं थी अत: हिंदी के वर्ण में --नुक़्ता [ अलामत ] लगा कर काम चलाते हैं।क़---ख़--ग़---ज़--अ’ --आदि। मगर यह भी नाकाफी था । जैसे उर्दू में --ज़- की आवाज़ के लिए के 5- हर्फ़ होते है , मगर हमने सबके लिए -एक- ही वर्ण -ज़- रखा।</p><p>हिंदी में अब आम आदमी के दैनिक बातचीत में -अब यह नुक़्ते का भी फ़र्क दिनो दिन मिटता जा रहा है -लेखन में भी और उच्चारण में भी।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मगर हम शे’र और ग़ज़ल बावज़ूद इन बारीकियों के भी समझ जाते हैं ।</p><p><span style="color: red;"><b>7-<span style="white-space: pre;"> </span>साकिन हर्फ़ </b></span> : हरूफ़-ए-तहज्जी के तमाम हर्फ़ मूलत: साकिन होते हैं जब तक कि उन पर कोई ’हरकत’ न दी जाए । आप इन्हें संस्कृत के ’ हलन्त’ वाला’ व्यंजन समझ सकते हैं ।जैसे -क्-ज़्-प्</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>फ़्-- आदि। चूंकि यह हर्फ़ बिना स्वर के होते है। जब इन हर्फ़ पर पर ’हरकत’ [ ज़ेर--ज़बर-पेश की] दी जाती है इनको स्वर दिया जाता है तब यह अपनी अपनी आवाज़ देते हैं।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>वरना तो शान्त ही रहते हैं । इसीलिए इन्हे ’साकिन’ [ शान्त] कहते है॥</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>उर्दू का हर लफ़्ज़ ’साकिन’ पर ही ख़त्म होता है । ज़ुबान की फ़ितरत ही ऐसी है ।</p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>8- <span style="white-space: pre;"> </span>मुतहर्रिक हर्फ़ </b></span> : जब किसी साकिन हर्फ़ को ’हरकत’ [ ज़बर, ज़ेर. पेश की ] दी जाती है यानी स्वर दिया जाता है तो वैसी ही अपनी आवाज़ देते हैं । वैसे तो उर्दू में 7-क़िस्म की हरकत होती है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>ज़बर---ज़ेर--पेश--मद्द--जज़्म--तस्द्दीद--तन्वीन । मगर इसमें 3- [ ज़बर-ज़ेर-पेश ] ही मुख्य हैं । यह् सब् बातें उर्दू के किसी भी क़वायद [व्याकरण ] की किताब में ब आसानी मिल जायेगी</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>जैसे </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>-क्- ज़बर =क । -क्-ज़ेर =कि । क्-पेश =कू </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>ज़्- ज़बर =ज़ ।ज़्-ज़ेर = जि ।ज़्-पेश =ज़ू</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>प् - ज़बर = प । प् ज़ेर् = पि । प् पेश =पू</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>अगर किसी”हर्फ़’ पर कोई ’अलामत ’ न लगी हो तो समझ लें कि ’ज़बर’ की अलामत तो ज़रूर होगी । यह बात अलग है कि लोग लिखते वक़्त उसे दिखाते नहीं ।</p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>अगर आप मुतहर्रिक [ हरकत लगा हुआ हर्फ़ ] और साकिन [ बिना हरकत लगा हुआ हर्फ़ ] अच्छी तरह समझ लें तो आगे चल कर शे’र का वज़न ,बह्र समझने में और तक़्तीअ’ </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>करने में , शब्द के मात्रा गणना करने में आप को कोई असुविधा नहीं होगी । उर्दू लफ़्ज़ का पहला ’हर्फ़’ -मुतहर्रिक होता है । यानी उर्दू का कोई लफ़्ज़ ’साकिन’ हर्फ़ से शुरू नहीं होता ।</p><p><br /></p><p>9- <span style="color: red;"><b><span style="white-space: pre;"> </span>सबब =</b></span> "दो-हर्फ़ी कलमा " को सबब कहते हैं जैसे -- अब--तब--ग़म--दिल---रंज-- नम-- की --भी---तुम--हम --मन--इत्यादि</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>सबब---दो प्रकार के होते है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[क] सबब-ए-ख़फ़ीफ़</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[ख] सबब-ए-सकील</p><p> <span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="background-color: #fcff01; color: red;">सबब-ए-ख़फ़ीफ़ </span>= वह ’दो हर्फ़ी कलमा ’ [ अर्थ पूर्ण भी हो सकता है ,अर्थहीन भी हो सकता है ]-जिसमें पहला हर्फ़ ’ मुतहर्रिक’ हो और दूसरा हर्फ़ ’साकिन ’ हो । यानी [मुतहर्रिक साकिन ] बज़ाहिर हर दो हर्फ़ी कलमा सबब-ए-ख़फ़ीफ़</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>ही होगा क्योंकि उर्दू का पहला हर्फ़ तो मुतहर्रिक होता है और आख़िरी हर्फ़ साकिन ही होता है [ देखे ऊपर 7- और 8 ] इसे -2- की अलामत से दिखाते हैं। वैसे सबब का एक मानी [अर्थ] -रस्सी- भी होता है 1</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>अभी आप रस्सी { Rope ] ज़ेहन में रखें बाद में ज़रूरत पड़ेगी रुक्न की बुनावट समझने में ।</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>जैसे अब --ख़त --तब--फ़ा--लुन--तुन--मुस--तफ़-- दो--गो--आदि</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>अब = -[अ] अलिफ़- मुतहर्रिक -+-[ब] बे साकिन = वज़न 2 </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>ख़त = ख़ [ख़े] मुतहर्रिक + त [ तोये] साकिन = वज़न 2</p><p><br /></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>सबब-ए-सकील =</span> वह -’दो हर्फ़ी कलमा’ - जिसमें पहला हर्फ़ मुतहर्रिक हो और दूसरा हर्फ़ भी मुतहर्रिक हो । यानी "मुतहर्रिक+ मुतहर्रिक"</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>उर्दू में ऐसा स्वतन्त्र शब्द मिलना मुश्किल है [ देखे पैरा 7-और 8 ] मगर उर्दू की [ वस्तुत: फ़ारसी की 1-2 तरक़ीब है जिसे उर्दू ने भी अपना लिया है ] कसरा-ए-इज़ाफ़त और वाव-ए-अत्फ़ ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>इस से ठीक इससे पहले वाले साकिन हर्फ़ पर ’हरकत’ आ ही जाती है या महसूस होती है । इसे 1-1 के अलामत से दिखाते है </p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>जैसे </p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #cc0000;">ग़म-ए-दिल </span>= वैसे ग़म [ स्वतन्त्र रूप से ] में -म[मीम ] तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- मीम [म] पर हरकत [ एक भारीपन = सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है ।अत: -गम- का वज़न यहाँ [ 1 1 ] लिया जायेगा</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #cc0000;">दिल-ए-नादाँ =</span> वैसे दिल [ स्वतन्त्र रूप से ] में -लाम [ल ] तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- लाम [ल] पर हरकत [ एक भारीपन सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है ।अत: -दिल का वज़न यहाँ [ 1 1 ] लिया जायेगा</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #cc0000;">दौर-ए-हाज़िर</span>= वैसे दौर [ स्वतन्त्र रूप से ] में -र[ रे ] तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- रे [र] पर हरकत [ एक भारीपन सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है । अत: दौर का वज़न यहाँ [2 1 ] लिया जायेगा</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #cc0000;">रंज-ओ-अलम </span>= वैसे रंज [ स्वतन्त्र रूप से ] में -ज़ तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- ज़ -पर हरकत [ एक भारीपन सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है । अत: रंज़ का वज़न [2 1 ] लिया जायेगा </p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #cc0000;">जान-ओ-जिगर </span>= वैसे जान [ स्वतन्त्र रूप से ] में -न [नून ] तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- नून [न ] पर हरकत [ एक भारीपन सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है ।अत: जान का वज़न 2 1 लिया जायेगा।</p><p><br /></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">10<span style="white-space: pre;"> </span>- वतद =</span> 3-हर्फ़ी कलमा को वतद कहते है । अगर हम आप से कहें कि 2-हर्फ़ [ मुतहर्रिक और साकिन ] से 3- हर्फ़ी कलमा के कितने arrangment हो सकते है ? बज़ाहिर 3- हो सकते है । अर्थ पूर्ण भी हो सकता है ,अर्थहीन भी हो सकता है ]</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>अनदेखिए कैसे </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[अ] मुतहर्रिक + मुतहर्रिक + साकिन</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[ब] मुतहर्रिक + साकिन + मुतहर्रिक</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[स] मुतहर्रिक + साकिन + साकिन </p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>जी,बिलकुल दुरुस्त । अत: वतद 3- प्रकार के होते है । वतद का एक अर्थ "खूँटा’ [ PEG] भी है । ये खूँटा--रस्सी का क्या लफ़ड़ा है --इसको बाद में समझायेंगे जब सालिम रुक्न कैसे बनते है पर चर्चा करेंगे ।</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span> [अ] वतद -ए--मज्मुआ = <span style="white-space: pre;"> </span>वो तीन हर्फ़ी कलमा जिसमें पहला और दूसरा हर्फ़ ’मुतहर्रिक’ हो ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>जैसे ---<span style="white-space: pre;"> </span>जैसे ----अबद--असर---सहर--बरस--सफ़र--</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> मज्मुआ--इसलिए कहते है कि दो- मुतहर्रिक एक साथ ’ जमा’ [ मज़्मुआ] हो गए। यानी मुतहर्रिक की ’तकरार- या मुकर्रर हो गया ।कभी कभी "वतद-ए- मक्रून" भी कहते है । मगर हम आइन्दा ’वतद-ए-मज्मुआ ’ ही कहेंगे</p><p><br /></p><p><span style="background-color: #fcff01;"><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: red;">[ब] वतद-ए- मफ़रूक़ </span> </span>= वो तीन हर्फ़ी कलमा जिसमे पहला हर्फ़ मुतहर्रिक -दूसरा हर्फ़ साकिन--तीसरा <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>हर्फ़ मुतहर्रिक हो । मफ़्रूक़ - इसलिए कहते हैं कि दो मुतहर्रिक के position में <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>"फ़र्क़’ [ मफ़्रूक़ ] है </p><p><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> जैसे ’फ़ाअ’ [ -ऐन मुतहर्रिक ]-- एक रुक्न का "जुज’ [टुकड़ा ] है यह। </span><br /></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">वतद-ए-मौक़ूफ़ </span>= वो तीन हर्फ़ी कलमा जिसमें पहला हर्फ़ मुतहर्रिक + दूसरा हर्फ़ साकिन+ तीसरा हर्फ़ साकिन <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>हो ।से ----अब्र--उर्द--अस्ल--बुर्ज---जुर्म --</p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">11- फ़ासिला </span>= सबब और वतद के अलावा दो परिभाषायें और भी है --4- हर्फ़ी कलमा और 5- हर्फ़ी कलमा के लिए । मगर हम यहाँ उनकी चर्चा नहीं करेंगे।कारण कि बग़ैर इसके भी हमारा काम चल जायेगा ।अब बात निकल गई तो थोड़ी सी चर्चा कर ही लेते हैं । 4- हर्फ़ी कलमा क्या है ? दो सबब है । यानी सबब -ए-सकील+सबब-ए-ख़फ़ीफ़ = अब आप फ़ासिला की परिभाषा खुद ही बना सकते है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>यानी वो 4-हर्फ़ी कलमा जिसमे हरकत +हरकत+हरकत+साकिन वाले हर्फ़ एक साथ हों \</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>जैसे "लफ़्ज़ "हरकत " खुद ही फ़ासिला है ।ह+र+क+त् । ऐसे लफ़्ज़् को ’फ़ासिला सुग़रा ’ कहते हैं</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>5-हर्फ़ी कलमा क्या है ? सबब-ए-सकील + वतद-ए-मज्मुआ = यानी हरकत+हरकत+हरकत +हरकत +साकिन= 5 हर्फ़ =ऐसे लफ़्ज़ को फ़ासिला कबरा कहते है।</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>बस आप समझ लीजिए कि उर्दू ज़ुबान की फ़ितरत ऐसी है कि यह "फ़ासिला कब्रा"-’सपोर्ट’ नही करती या नहीं कर पाती।</p><p><br /></p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>[ नोट : आप पैरा 11-नहीं भी समझेंगे तो भी ’अरूज़’ का काम चल जायेगा । समझ लेंगे तो बेहतर। आप इन बुनियादी इस्तलाहात [ परिभाषाओं से ] घबराये नहीं।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> आगे चल कर ये परिभाषायें बड़े काम की साबित होंगी।बह्र और वज़न समझने में। उकताहट तो हो रही होगी मगर धीरे धीरे यह सब आप को भी अजबर [ कंठस्थ ] हो जायेगा ।धीरज रखिए ।</p><p><br /></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">12 <span style="white-space: pre;"> </span>ज़ुज <span style="white-space: pre;"> </span></span> : सालिम रुक्न सबब और वतद के योग से बनता है। इन्हीं टुकड़ो से बनता है । कैसे बनता है इसकी चर्चा आगे करेंगे।इन्ही टुकड़ो को ’ज़ुज’ कहते हैं।</p><p><br /></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">13<span style="white-space: pre;"> </span>ज़िहाफ़</span><span style="white-space: pre;"> </span>: ज़िहाफ़ एक अमल है जो हमेशा ’सालिम रुक्न ’ पर ही लगता है। दरअस्ल -यह अमल ’सबब’ और ’ वतद’ पर ही होता है । ज़िहाफ़ से-सालिम रुक्न के वज़न में कतर-ब्यॊत हो जाती है। कमी -बेशी हो जाती है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span> और सालिम रुक्न का रूप बदल जाता है । इस बदली हुई शकल को " मुज़ाहिफ़ रुक्न’ कहते हैं । प्राय: वज़न में नुक़सान भी हो जाता है ।कभी कभी वज़न बढ़ भी जाता है । पर वज़न में ज़्यादातर: कमी ही हो होती है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>ज़िहाफ़ की चर्चा किसी क़िस्त में विस्तार से करेंगे। </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>शे’र में ’लोकेशन’ के लिहाज़ से ज़िहाफ़ 2-क़िस्म के होते हैं।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[अ<span style="color: #cc0000;">]<span style="white-space: pre;"> </span>आम ज़िहाफ़ </span>: वह ज़िहाफ़ जो शे’र के किसी मुक़ाम पर आ सकता है। [ शे’र के मुक़ाम के लिए नीचे देखें ] जैसे-- ख़ब्न---क़ब्ज़--त्य्यै --</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[<span style="color: #cc0000;">ब] <span style="white-space: pre;"> </span>ख़ास ज़िहाफ़</span> : वह ज़िहाफ़ जो शे’र के किसी ’ख़ास’ मुक़ाम पर ही आ सकता है [शे’र के मुक़ाम के लिए नीचे देखें ] जैसे--क़स्र----हज़्फ़ --खरम---</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> सालिम रुक्न पर अमल संख्या के लिहाज़ से ज़िहाफ़ 2-किस्म के होते है। </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[<span style="color: red;">अ] <span style="white-space: pre;"> </span>मुफ़र्द ज़िहाफ़ </span>: या ’एकल’ ज़िहाफ़। वह ज़िहाफ़ जो सालिम रुक्न पर ’अकेले’ ही अमल करता एक बार ही अमल करता है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: red;">[ब] मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ </span> या मिश्रित ज़िहाफ़ । वह ज़िहाफ़ जि दो या दो से अधिक ज़िहाफ़ से मिल कर बने हों।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>कहते हैं कुल ज़िहाफ़ात की संख्या लगभग 50- के आस पास हैं </p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>14 <span style="white-space: pre;"> </span>सालिम बह्र </b></span>: वह बह्र जो सालिम रुक्न [ ऊपर लिखे हुए ] के तकरार [ आवृति] से बनती है । सालिम -इसलिए कि ये अर्कान अपनी सालिम शकल [ बिना नुक़सान के ] में ही इस्तेमाल होती हैं </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>’मुफ़ऊलातु’ -सालिम रुक्न से कोई सालिम बह्र नहीं बनती । वज़ाहत ऊपर नोट में दे दी गई है। सालिम बह्र --जैसे -- मुतक़ारिब --मुतदारिक --हज़ज--रमल --रजज़ --कामिल--वाफ़िर--</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>इनकी संख्या 7- हैं </p><p><span style="color: red;"><b>15-<span style="white-space: pre;"> </span>मुरक़्कब बह्र </b></span>या मिश्रित बह्र ।वह बह्र जो 2-या 2 से अधिक सालिम रुक्न से मिल कर बनती है । जैसे -- मुज़ार’ ख़फ़ीफ़--मुज्तस--बसीत -- जदीद--[ आगे के क़िस्त में ज़िक्र आयेगा] इनकी संख्या 12- हैं </p><p>-</p><p><span style="color: red;"><b>16-<span style="white-space: pre;"> </span>मिसरा :</b></span> एक काव्यमयी अर्थ पूर्ण ,सार्थक लाइन [ पंक्ति] जो अरूज़ के मान्य वज़न / अर्कान /बह्र /आहंग के अनुसार हो ,को मिसरा कहते है । </p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>17<span style="white-space: pre;"> </span>शे’र </b></span>= एक शे’र दो-मिसरों से मिल कर बनता है । पहले मिसरा को ’मिसरा ऊला’ [ ऊला/उला= अव्वल ] कहते है और दूसरे मिसरे को ’मिसरा सानी’ कहते हैं । [सानी= दूसरा]</p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>18<span style="white-space: pre;"> </span>मतला </b></span>= किसी ग़ज़ल के पहले शे’र को [जहाँ से ग़ज़ल तुलुअ’ -शुरु होती है ]"मतला कहते है । इसके दोनो मिसरों में ’हम क़ाफ़िया" इस्तेमाल होता है ।</p><p><span style="color: red;"><b>19 मक़्ता </b></span>= किसी ग़ज़ल का आख़िरी शे’र [ जहाँ ग़ज़ल क़त’ -ख़त्म हो जाती है कट जाती है ] को ’मक़्ता’ कहते हैं । अगर शायर ’तख़्ल्लुस" डालना चाहे तो इसी मक़्ता के शे’र में डालता है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>’तख़्ल्लुस’ डालना ---मक़्ता की आवश्यक शर्त नहीं है --आप की मरजी। आप डालना चाहे डालें ,न डालना चाहे न डालें।</p><p><span style="color: red;"><b>20<span style="white-space: pre;"> </span>तख़ल्लुस [Pen Name ]</b></span> = बहुत से शायर अपना "उपनाम" रखते हैं -जो बाद में उनकी पहचान बन जाती है । जैसे ग़ालिब--दाग़-- ज़ौक़--जिगर -- जब कि इनके असल नाम और हैं।’</p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>21 <span style="white-space: pre;"> </span>-शे’र के मुक़ाम </b></span>: किसी शे’र में अर्कान के ’लोकेशन’ के आधार पर उन मक़ामात के नाम भी दिए गए हैं जिससे उन स्थानों को पहचानने में या समझने में सुविधा हो ।</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><b>सद्र <span style="white-space: pre;"> </span></b>= मिसरा ऊला के पहले रुक्न के पहले मुक़ाम को - सद्र- कहते है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><b>अरूज़ </b> = मिसरा ऊला के अन्तिम मुक़ाम को -अरूज़- कहते हैं</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><b>इब्तिदा </b>= मिसरा सानी के पहले मुक़ाम को -इब्तिदा- कहते हैं</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><b>ज़र्ब </b> = मिसरा सानी के अन्तिम मुकाम को --ज़र्ब-कहते हैं ।</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><b>हस्व </b> = किसी शे’र के [ सदर/अरूज़ या इब्तिदा/ ज़र्ब के बीच ] उन तमाम मुक़ामात को -हस्व- कहते है </p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>इस परिभाषा की ज़रूरत क्यों पड़ी ? इसलिए पड़ी कि कुछ -ज़िहाफ़- सदर और इब्तिदा के लिए मख़्सूस [ ख़ास है ] तो आप ब आसानी समझ जाएँ कि अमुक ज़िहाफ़ किस मुक़ाम के रुक्न पर लगेगा।</p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>वैसे ही अगर हम कहें कि अमुक -ज़िहाफ़- अरूज़/ज़र्ब के लिए मख़्सूस[ ख़ास] है तो आप समझ लें कि इस अमुक ज़िहाफ़ का अमल कहाँ होगा।</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>एक उदाहरण से देखते हैं </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>सितारों से आगे जहाँ और भी हैं</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं<span style="white-space: pre;"> </span>-इक़बाल -</p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: red;"><b>-सद्र -<span style="white-space: pre;"> </span>/ हस्व / हस्व / अरूज़</b></span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>सितारों /से आगे /जहाँ औ /र भी हैं</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>-------------------</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: red;"><b> -इब्तिदा-/ --हस्व--/ -हस्व- / ज़र्ब </b></span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>अभी इश्/ क़ के इम् / तिहाँ औ /र भी हैं<span style="white-space: pre;"> </span></p><p> एक और उदाहरण देखते हैं ---</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #2b00fe;">दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है </span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>आख़िर इस दर्द की दवा क्या है <span style="white-space: pre;"> </span>-ग़ालिब-<span style="white-space: pre;"> </span></span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span> <span style="color: red;">--सद्र-- / --हस्व-- / -अरूज़-</span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>दिल-ए-नादाँ / तुझे हुआ /क्या है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>--------------</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>-<span style="color: red;">-सद्र--- / -हस्व-- / - ज़र्ब-</span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>आख़िर इस दर्/ द की दवा /क्या है </p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>22-<span style="white-space: pre;"> </span>मुरब्ब: बह्र :-</b></span><span style="white-space: pre;"> </span>वह शे’र जिसमें -’चार अर्कान [4] - का इस्तेमाल हुआ हो । यानी एक मिसरा में -दो रुक्न [2]- हो ।बज़ाहिर मुरब्ब: में -हस्व- का मुक़ाम नहीं होता। यानी </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मिसरा ऊला मे --सद्र और अरूज़-- और मिसरा सानी में -इब्तिदा और ज़र्ब । हो गए 4-रुक्न के मुक़ाम। </p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>23- मुसद्दस बह्र </b></span><span style="white-space: pre;"> </span>: वह शे’र जिसमें -छह अर्कान [6] का इस्तेमाल हुआ हो यानी एक मिसरा में -तीन[3]- अर्कान हो । बज़ाहिर मुसद्दस शे’र के एक मिसरा में -एक हस्व- का ही मुक़ाम- आयेगा।</p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>24 - मुसम्मन बह्र </b></span> : वह शे’र जिसमें -आठ- अर्कान [ 8 ]का इस्तेमाल हुआ हो यानी एक मिसरा में -चार [4] अर्कान हो । बज़ाहिर मुसम्मन शे’र के ए्क मिसरा में -दो हस्व - का मुक़ाम आयेगा</p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>[नोट -याद रहे ये ’अर्कान’ सालिम भी हो सकते है या मुज़ाहिफ़ रुक्न [ सालिम रुक्न पर ज़िहाफ़ लगा हुआ ] भी हो सकते है या दोनो के मिश्रण भी हो सकते है । यह सब बह्र के नामकरण में आयेगा।</p><p><span style="color: red;"><b>25 मुज़ायफ़ [ मुज़ाइफ़] बह्र</b></span>:<span style="white-space: pre;"> </span>मुज़ायफ़/मुज़ाइफ़ के मा’नी होता है -दो गुना- करना । किसी शे’र में अगर अर्कान की संख्या को -दो गुना - कर दें तो उसके नाम में ’मज़ाइफ़’- शब्द जोड़ देंगे जिससे पता लग सके की शे’र मूलत: </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मुरब्ब: / मुसद्दस/ मुसम्मन ही है -बस अर्कान की संख्या को -दो गुना- कर के कहा गया है । यानी "मुरब्ब: मुज़ाइफ़" --में 8-अर्कान हैं। मुसद्दस मुज़ाइफ़ में -12- अर्कान हैं । मुसम्मन मुज़ाइफ़ में 16- अर्कान है</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मुसम्मन मुज़ाइफ़ को कभी कभी 16-रुक्नी बह्र भी कहते हैं। </p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>{ नोट - मुज़ाहिफ़ और मुज़ाइफ़ में ’कन्फ़्यूज’ नहीं होइएगा । मुज़ाहिफ़ ---ज़िहाफ़ शब्द से बना है ।जब कि मुज़ाइफ़ -[ -ह- नहीं है ] जिसके मा’नी होता है दो-गुना ।</p><p><span style="color: red;"><b>26 - कसरा-ए-इज़ाफ़त और वाव-ओ-अत्फ़</b></span> = विस्तार से समझने के लिए देखे <a href="https://urdusehindi.blogspot.com/2020/05/70.html" target="_blank">क़िस्त नं0-70 </a></p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>27- तस्कीन-ए-औसत का अमल </b></span>= इस विषय पर विस्तार से अलग एक आलेख प्रस्तुत कर दूँगा । यहाँ संक्षेप में चर्चा कर लेता हूँ । </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>= अगर किसी ’एकल मुज़ाहिफ़ रुक्न " में -तीन मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ लगातार एक के बाद एक [ मुतस्सिल] आ जाए तो बीच [ औसत ] वाला मुतहर्रिक -साकिन- माना जाता है</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> इससे रुक्न की शकल बदल जायेगी । बदली हुई रुक्न को ’ मुसक्किन ’कहते हैं।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> यहाँ दो-तीन बातें ध्यान देने की है । तस्कीन-ए-औसत का अमल </p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[अ] हमेशा मुज़ाहिफ़ रुक्न पर ही होता है । सालिम रुक्न पर कभी नही होता।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[ ब] इसका अमल बह्र- के किसी मुज़ाहिफ़ रुक्न पर एक साथ सभी रुक्न पर या अलग अलग रुक्न हो सकता है शर्त यह है कि इस से बह्र बदलनी नहीं चाहिए जिस मुज़ाहिफ़ बह्र पर इसका अमल हो रहा है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>अगर यही स्थिति ’दो-आस पास [ adjacent and consecutive ] रुक्न में आ जाए तो फिर इस अमल को "तख़्नीक़ का अमल" कहते है और बरामद रुक्न को ’मुख़्न्निक़" कहते है। </p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>इन तमाम इस्तलाहात [ परिभाषाओं ] को समझने के लिए उदाहरण के तौर पर 1-2 लेते हैं जिससे बात और साफ़ हो जाएगी।</p><p><br /></p><p>ग़ज़ल 01 : <span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="color: #660000;">अर्कान<span style="white-space: pre;"> </span>फ़ऊलुन-फ़ऊलुन-फ़ऊलुन-फ़ऊलुन</span></p><p><span style="color: #660000;">बह्र<span style="white-space: pre;"> </span>बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम</span></p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #2b00fe;"><i>सितारॊं से आगे जहाँ और भी हैं</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी है -1-</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>तही ज़िन्दगी से नहीं ये फ़ज़ाएँ</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>यहाँ सैकड़ों कारवां और भी हैं <span style="white-space: pre;"> </span> -2-</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>कनाअत न कर आलम-ओ-रंग-ओ-बू पर</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>चमन और भी आशियाँ और भी हैं<span style="white-space: pre;"> </span>-3-</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>अगर खो गया तो इक नशेमन तो क्या ग़म</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>मुक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुगाँ और भी हैं -4-</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>तेरे सामने आसमाँ और भी हैं<span style="white-space: pre;"> </span>-5-</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>इसी रोज़-ओ-शब में उलझ कर न रह जा</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>कि तेरे ज़मान-ओ-मकाँ और भी हैं<span style="white-space: pre;"> </span>-6-</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>गए दिन कि तनहा था मैं अंजुमन में </i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>यहाँ अब मेरे राज़दाँ और भी हैं<span style="white-space: pre;"> </span>-7-</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>-इक़बाल-</i></span></p><p><br /></p><p>इस ग़ज़ल में --</p><p>शे’र की संख्या <span style="white-space: pre;"> </span>= 7 [ किसी ग़ज़ल में कितने शे’र हो सकते है या होने चाहिए .इस पर अरूज़ ख़ामोश है ]</p><p>मतला <span style="white-space: pre;"> </span>= पहला शे’र न-1 = जिसके दोनो मिसरों का ’हम क़ाफ़िया- जहाँ- और -इम्तिहाँ- है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मतला का मिसरा ऊला = सितारों के आगे----</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मतला का मिसरा सानी = अभी इश्क़ के इम्तिहाँ ---</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[ वैसे हर शे’र का पहला मिसरा - मिसरा उला कहलाता है और दूसरा मिसरा मिसरा सानी कहलाता है ।</p><p>हुस्न-ए-मतला <span style="white-space: pre;"> </span>= इस ग़ज़ल में ’हुस्न-ए-मतला; नहीं है । अगर होता तो ठीक ’मतला’ के नीचे आता और उसके भी दोनों मिसरे " हम काफ़िया" होते।</p><p>मक़ता<span style="white-space: pre;"> </span> = आख़िरी शे’र -7 = यहाँ पर शायर ने अपना तख़्ल्लुस ; इक़बाल : नहीं डाला है । मक़्ता में तख़्ल्लुस डालना कोई अनिवार्य शर्त</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>नहीं है । ग़ज़ल में कोई न कोई शे’र तो आख़िरी होगा ही ।वही मक़्ता होगा।</p><p>क़ाफ़िया <span style="white-space: pre;"> </span>= काफ़िया का बहु वचन ’क़वाफ़ी’ है। यहाँ क़वाफ़ी हैं---जहाँ--इम्तिहाँ--कारवाँ--आशियाँ--फ़ुगाँ--आसमाँ--मकाँ--राज़दां ---</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>हर शे’र के मिसरा सानी में "हम क़ाफ़िया" आना ज़रूरी है लाज़िमी है । क़ाफ़िया का अर्थ पूर्ण [ बा मा’नी होना ] ज़रूरी है ।</p><p>रदीफ़ <span style="white-space: pre;"> </span>= यहाँ रदीफ़ - और भी हैं-- । रदीफ़ एक शब्द लफ़्ज़ भी हो सकता है या एक जुमला भी हो सकता है ।रदीफ़ का मतला [ और हुस्न-ए-मतला भी ]</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> के दोनो मिसरों में और हर शे’र के मिसरा सानी में आना ज़रूरी है ।</p><p>अर्कान <span style="white-space: pre;"> </span> <span style="white-space: pre;"> </span>= इस ग़ज़ल में जो रुक्न इस्तेमाल किए गए है -उसका नाम "फ़ऊलुन "[ 1 2 2 ] है और बिना किसी काट-छाँट के --पूरा का पूरा सालिम शकल में इस्तेमाल</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>हुआ है अत: इसे "सालिम बह्र " कहेंगे। मान लीजिए अगर किसी कारण वश [ ज़िहाफ़ के कारण ] किसी रुक्न में कोई काट-छाँट हो जाती [ यानी 122 की जगह 22 ही हो जाता तो]</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>फिर हम इसे ’सालिम ’ न कह कर "मुज़ाहिफ़’ [ उस ज़िहाफ़ के नाम के साथ] जोड़ देते। इत्तिफ़ाक़न इस बहर में कोई ज़िहाफ़ नहीं लगा है --सब रुक सालिम के सालिम ही हैं।</p><p> </p><p>बह्र <span style="white-space: pre;"> </span>= "फ़ऊलुन"- चूंकि बहर मुतक़ारिब का बुनियादी रुक्न तय किया गया अत: ग़ज़ल में इस बह्र का नाम होगा --बह्र-ए-मुतक़ारिब-। और चूंकि यह रुक्न मिसरा में 4- बार [ यानी </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>=शे’र में 8-बार ] इस्तेमाल हुआ है तो हम इसे ’मुसम्मन’ कहेंगे। तब बह्र का पूरा नाम होगा----बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम--। हम प्राय: इसे </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>122---122---122---122-- कर के दिखाते हैं । इस बह्र के बारे में या अन्य बह्र के बारे में आगे विस्तार से बात की गई है । मान लीजिए अगर किसी शे’र के एक मिसरे मे 3-ही अर्कान</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>यानी पूरे शे’र मे 6-अर्कान होते तो ] हम फ़िर मुसम्मन नहीं कहते बल्कि ’मुसद्दस’ कहते हैं ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>शे’र के मुक़ामात के लिए उदाहरण के तौर पर कोई एक शे’र ले लेते है । मान लीजिए 5-वाँ शे’र लेते हैं </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>--A---- /---B---/ ---C---/ --D--</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>तू शाहीं /है परवा/ज़ है का/म तेरा</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>-------------------------------</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>--E----/---F--/--G------/--H-</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>तेरे सा/मने आ/ समाँ औ /र भी हैं<span style="white-space: pre;"> </span></p><p><br /></p><p> सद्र <span style="white-space: pre;"> </span>= A<span style="white-space: pre;"> </span>=-- तू शाहीं --[ 1 2 2 ]</p><p>अरूज़<span style="white-space: pre;"> </span>=D<span style="white-space: pre;"> </span>=--म तेरा - - [ 1 2 2 ]</p><p>इब्तिदा <span style="white-space: pre;"> </span>=E<span style="white-space: pre;"> </span>= --तेरे सा-- [ 1 2 2 ] </p><p>अरूज़<span style="white-space: pre;"> </span>=H<span style="white-space: pre;"> </span>= -र भी है [ 1 2 2 ]</p><p>हस्व<span style="white-space: pre;"> </span>= B--C--F--G <span style="white-space: pre;"> </span>= है परवा= ज है का--= मने आ--= समाँ और--= सभी 1 2 2 </p><p>नोट-1-<span style="white-space: pre;"> </span> आप के मन में एक सवाल उठ रहा होगा कि --तू--है---तेरे का -ते--देखने में तो - 2 -वज़न का लगता है मगर यहाँ -1- के वज़न पर क्यों लिया गया ?[ देखिए <a href="https://urdusehindi.blogspot.com/2020/10/75.html" target="_blank">किस्त -75 </a>]</p><p> 2-<span style="white-space: pre;"> </span> यह तो मुसम्मन शे’र था तो इसमें 4- हस्व आ गया। अगर यह शे’र ’मुसद्दस’ होता तो 2- ही हस्व आता है । और मुरब्ब: शे’र होता तो कोई ’हस्व का मुक़ाम नहीं होता । सोचिए क्यों ?</p><p><br /></p><p>कसरा-ए-इज़ाफ़त = आलम-ए-रंग -या - मुक़ामात-ए-आह आदि जैसे शब्द-संयोजन को ’कसरा-ए-इज़ाफ़त कहते हैं । -ए- यहाँ कसरा-ए-इज़ाफ़त है किसका अर्थ यहा है [ रंग की दुनिया ]</p><p>वाव -ए- अत्फ़ <span style="white-space: pre;"> </span> = रंग-ओ -बू या आह-ओ-फ़ुग़ाँ --आदि जैसे शब्द संयोजन को ’वाव-ए-अत्फ़’ कहते है । =वाव-यहाँ संयोजक है दो शब्दों का जिसका अर्थ होता है "और"</p><p><br /></p><p><br /></p><p>ग़ज़ल 02 <span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #2b00fe;"><i>2122--------/--1212-----/-22</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>वक़्त-ए-पीरी/ शबाब की / बातें</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>ऐसी हैं जै /सी ख़्वाब की/ बातें<span style="white-space: pre;"> </span>1</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>उसके घर ले चला मुझे देखो</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>दिल-ए-ख़ाना ख़राब की बातें<span style="white-space: pre;"> </span>2</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>मुझको रुस्वा करेंगी ख़ूब ऎ दिल</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>ये तेरी इज़्तराब की बातें<span style="white-space: pre;"> </span>3</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>देख ऎ दिल न छेड़ किस्सा-ए-ज़ुल्फ़</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>कि ये हैं पेंच-ओ-ताब की बातें<span style="white-space: pre;"> </span>4</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>जिक्र क्या जोश-ए-इश्क़ में ऎ ’ ज़ौक़’</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>हम से हों सब्र-ओ-ताब की बातें<span style="white-space: pre;"> </span>5</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>-ज़ौक़-</i></span></p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>नोट -वैसे मूल ग़ज़ल में 11-अश’आर हैं । हमने चर्चा के लिए यहाँ मात्र 5-ही अश;आर का इन्तख़ाब [ चुनाव है] किया है ।</p><p><br /></p><p>इस ग़ज़ल में --</p><p>शे’र की संख्या <span style="white-space: pre;"> </span>= 5 [ किसी ग़ज़ल में कितने शे’र हो सकते है या होने चाहिए .इस पर अरूज़ ख़ामोश है ]</p><p>मतला <span style="white-space: pre;"> </span>= पहला शे’र न-1 = जिसके दोनो मिसरों का ’हम क़ाफ़िया- --शबाब- और -ख़्वाब - है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मतला का मिसरा ऊला = वक़्त-ए-पीरी------</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मतला का मिसरा सानी = ऐसी हैं जैसे -----</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[ वैसे हर शे’र का पहला मिसरा - मिसरा उला कहलाता है और दूसरा मिसरा मिसरा सानी कहलाता है ।</p><p>हुस्न-ए-मतला <span style="white-space: pre;"> </span>= इस ग़ज़ल में ’हुस्न-ए-मतला; नहीं है । अगर होता तो ठीक ’मतला’ के नीचे आता और उसके भी दोनों मिसरे " हम काफ़िया" होते।</p><p>मक़ता<span style="white-space: pre;"> </span> = आख़िरी शे’र -5 = यहाँ पर शायर ने अपना तख़्ल्लुस ; ज़ौक़ : डाला है । उनका असल नाम -शेख़ इब्राहिम था । ज़ौक़-इनका तख़्ल्लुस्स था । यह उस्ताद शायर थे । मक़्ता में तख़्ल्लुस डालना कोई अनिवार्य शर्त</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>नहीं है । ग़ज़ल में कोई न कोई शे’र तो आख़िरी होगा ही ।वही मक़्ता होगा।</p><p>क़ाफ़िया <span style="white-space: pre;"> </span>= काफ़िया का बहु वचन ’क़वाफ़ी’ है। यहाँ क़वाफ़ी हैं---शबाब--ख़्वाब---ख़राब---इज़्तराब---ताब---वग़ैरह </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>हर शे’र के मिसरा सानी में "हम क़ाफ़िया" आना ज़रूरी है लाज़िमी है । क़ाफ़िया का अर्थ पूर्ण [ बा मा’नी होना ] ज़रूरी है ।</p><p>रदीफ़ <span style="white-space: pre;"> </span>= यहाँ रदीफ़ - की बातें -- । रदीफ़ एक शब्द लफ़्ज़ भी हो सकता है या एक जुमला भी हो सकता है ।रदीफ़ का मतला [ और हुस्न-ए-मतला भी ]</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> के दोनो मिसरों में और हर शे’र के मिसरा सानी में आना ज़रूरी है ।</p><p>अर्कान <span style="white-space: pre;"> </span> <span style="white-space: pre;"> </span>= इस ग़ज़ल में जो मुरक्क़ब रुक्न [ यानी 2 किस्म के - सालिम रुक्न और उस पर ज़िहाफ़ लगा हुआ - इस्तेमाल हुआ है॥ इसी लिए इसे मुरक़्क़ब बह्र कहते है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>और ज़िहाफ़ लगा हुए अर्कान है तो मुरक़्क़ब मुज़ाहिफ़ बह्र कहेंगे । सालिम बह्र नहीं कहेंगे।-उसका नाम "फ़ऊलुन "[ 1 2 2 ] है और बिना किसी काट-छाँट के --पूरा का पूरा सालिम शकल में इस्तेमाल</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>हुआ है अत: इसे "सालिम बह्र " कहेंगे। मान लीजिए अगर किसी कारण वश [ ज़िहाफ़ के कारण ] जो अर्कान इस्तेमाल हुए हैं--वो हैं --फ़ाइलातुन---मुसतफ़इलुन--फ़ाइलातुन [ 2122--2212--2122-</p><p> </p><p>बह्र <span style="white-space: pre;"> </span>= यह मुरक़्क़ब बह्र है ।और चूंकि एक मिसरा में 3-अर्कान [यानी पूरे शेर में 6- अर्कान ] अत: इसे हम ’मुसद्दस" कहेंगे और चूंकि यह अर्कान अपने मुज़ाहिफ़ शकल में इस्तेमाल हुए है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>इस बह्र का ख़ास नाम है -<span style="background-color: #fcff01;">- बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ </span>- है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="color: red;"><b>शे;र के मुक़ामात </b></span></p><p>शे’र के मुक़ामात के लिए उदाहरण के तौर पर कोई एक शे’र ले लेते है । मान लीजिए पहला शे’र लेते हैं यहाँ</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>--A---- /---B-- -/ ---C--</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #2b00fe;">वक़्त-ए-पीरी/ शबाब की / बातें</span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>-------------------------------</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>--E---- /---F- -/--G---</p><p><span style="white-space: pre;"> <span style="color: #2b00fe;"> </span></span><span style="color: #2b00fe;">ऐसी हैं जै /सी ख़्वाब की/ बातें</span></p><p><br /></p><p> सद्र <span style="white-space: pre;"> </span>= A<span style="white-space: pre;"> </span>=-- वक़्त-ए-पीरी [2 1 2 2 ]</p><p>अरूज़<span style="white-space: pre;"> </span>= C<span style="white-space: pre;"> </span>=-- बातें [ 2 2 ]</p><p>इब्तिदा <span style="white-space: pre;"> </span>=E<span style="white-space: pre;"> </span>= --ऐसी है जै-- -[ 2 1 2 2 ] </p><p>अरूज़<span style="white-space: pre;"> </span>= G<span style="white-space: pre;"> </span>= --बातें [ 2 2 ]</p><p>हस्व<span style="white-space: pre;"> </span>= B---F-= --शबाब की--- सी ख़्वाब की [ 1 2 1 2 ] </p><p><br /></p><p>नोट- <span style="white-space: pre;"> </span>यह शे’र ’मुसद्दस’ होता तो 2- ही हस्व आया । और मुरब्ब: शे’र होता तो कोई ’हस्व का मुक़ाम नहीं आता । सोचिए क्यों ?</p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>कसरा-ए-इज़ाफ़त </b></span> = वक़्त-ए-पीरी / दिल-ए-ख़ाना / किस्सा-ए-ज़ुल्फ़/ जोश-ए-इश्क़ -आदि जैसे शब्द-संयोजन को ’कसरा-ए-इज़ाफ़त कहते हैं । -ए- यहाँ कसरा-ए-इज़ाफ़त है किसका अर्थ होता है -का-</p><p><span style="color: red;"><b>वाव -ए- अत्फ़ </b> <span style="white-space: pre;"> </span></span> = पेच-ओ-ताब/सब्र-ओ-ताब --आदि जैसे शब्द संयोजन को ’वाव-ए-अत्फ़’ कहते है । =वाव-यहाँ संयोजक है दो शब्दों का जिसका अर्थ होता है "और"</p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>तक़्तीअ’ </b></span><span style="white-space: pre;"> </span>= तक़्तीअ’ का शब्दकोशीय अर्थ तो होता है किसी चीज़ के टुकड़े टुकड़े करना । पर शायरी के सन्दर्भ में किसी शे’र [ या मिसरा] के टुकड़े टुकड़े करना । यह एक अमल है जिससे किसी शे’र या मिसरा का पता </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>लगाते है कि मिसरा सही वज़न या बह्र में है या नहीं । यानी मिसरा बह्र से कहीं ख़ारिज़ तो नहीं है । इसके भी अपने उसूल हैं होते हैं । तक़्तीअ’ हमेशा ’तलफ़्फ़ुज़’ [ शे’र के अल्फ़ाज़ के उच्चारण ] के अनुसार ही </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>होती है ---लिखे हुए अल्फ़ाज़ [ मक़्तूबी ] पर नहीं होता । तक़्तीअ’ में नून गुन्ना की गणना नहीं करते। मिसरा के टुकड़े -- मान्य बह्र और अर्कान के मुताबिक़ किया जाता है और देखते है कि अर्कान के ’मुतहर्रिक ’ की जगह</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>कोई मुतहर्रिक हर्फ़ और साकिन के मुक़ाम की जगह ’साकिन’ हर्फ़ आ रहा है कि नही । अगर अर्कान के अनुसार आ रहे हैं तो मिसरा बह्र में है ,वरना ख़ारिज़ है।तक़्तीअ’ पर विस्तार से किसी मुनासिब मुक़ाम परअलग से बात करेंगे।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>जैसे -इक़बाल का एक शे’र है --</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #2b00fe;">न आते हमें इसमे तक़रार क्या थी</span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>मगर वादा करते हुए आर क्या थी </span></p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>हम जानते हैं कि यह शे’र मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम में है । कैसे? सतत अभ्यास से समझ में आ जायेगा। अत: इस मिसरा के टुकड़े भी वैसे ही करेंगे।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2</p><p><span style="white-space: pre;"> <span style="color: #2b00fe;"> </span></span><span style="color: #2b00fe;">न आते /हमें इस/ मे तक़ रा /र क्या थी</span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 </p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #2b00fe;">मगर वा/ दा करते / हुए आ /र क्या थी </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>यह शे’र बिलकुल वज़न में है और बह्र में है और यह तक़्तीअ से ही पता चलेगा।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मैं यह तो दावा नहीं करता कि सभी बुनियादी इस्तलाहात [ परिभाषाओं ] पर बात कर ली ।अगर आइन्दा मज़ीद [अतिरिक्त ] बुनियादी परिभाषायें वक़्तन फ़क़्तन [ समय समय पर ] याद आते रहेंगे--या ज़रूरत महसूस होती रहेगी तो यहाँ पर लिखता चलूँगा।</p><p><i><span style="color: purple; font-size: x-small;">नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]</span></i><br /><br /><span style="color: red;">-आनन्द.पाठक-</span><br /><span style="color: red;">Mb 8800927181ं</span><br /><span style="color: red;">akpathak3107 @ gmail.com</span></p>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-80290553901813923212020-10-19T04:11:00.002-07:002020-10-19T04:16:36.161-07:00गज़ल 059 : रह-ए-उल्फ़त निहायत ... <p> <strong>गज़ल 059 : रह-ए-उल्फ़त निहायत ...</strong> </p><br />रह-ए-उल्फ़त निहायत मुख़्तसर मालूम होती है<br />हमें हर राह तेरी रह-गुज़र मालूम होती है<br /><br />हमें यह ज़िन्दगी इक दर्द-ए-सर मालूम होती है<br />न होना चाहिए ऐसा मगर मालूम होती है<br /><br />मुसीबत में इक ऐसा वक़्त भी आता है इन्सां पर<br />ज़रा सी छाँव भी अपना ही घर मालूम होती है<br /><br />न हम बदले, न दिल बदला ,न रंग-ए-आशिक़ी बदला<br />मगर बदली हुई तेरी नज़र मालूम होती है<br /><br />कभी तुम भी किसी से दिल लगा कर देखते साहेब! <br />ज़रा सी चोट भी इक उम्र भर मालूम होती है<br /><br />हर आहट पर मिरी साँसों की हर लै जाग उठती है<br />शब-ए-उम्मीद यादों का सफ़र मालूम होती है<br /><br />हमें दुनिया भला क्या राह से अपनी लगायेगी<br />वो अपने आप से ही बेख़बर मालूम होती है<br /><br />तिरे शे’रों पे इतनी दाद "सरवर" सख़्त हैरत है !<br />हमें ये साज़िश-ए-अह्ल-ए-हुनर मालूम होती है<br /><br /><strong>-सरवर-</strong>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-7546151773778663602020-10-19T04:09:00.003-07:002020-10-19T04:16:45.929-07:00 ग़ज़ल 058 :रह-ए-वफ़ा में ग़म-ए-जुदाई....<p> </p><br /><strong>ग़ज़ल 058 :रह-ए-वफ़ा में ग़म-ए-जुदाई....</strong><br /><br />रह-ए-वफ़ा में ग़म-ए-जुदाई कभी मिरा हम-क़दम न होता<br />तुझे ख़ुदा का जो ख़ौफ़ होता तो ख़्वार में ख़म-ब-ख़म न होता<br /><br />मुझे सर-ए-बज़्म-ए-ग़ैर तेरी निगाह-ए-कम-आशना ने मारा<br />जो मुझ पे अह्सान यूँ न होता , तिरा यह अह्सान कम न होता<br /><br />तुम्हारी इस बन्दगी के सदक़े मिरा मुक़द्दर उरूज पर है<br />जो इश्क़ जल्वा-कुशा न होता तो दिल मिरा जाम-ए-जम न होता<br /><br />बुरा हो इस ज़िन्दगी का जिस ने हमें किया ख़्वार आशिक़ी में<br />:जो हम न होते तो दिल न होता जो दिल न होता तो ग़म न होता:<br /><br />निगाह-ए-लुत्फ़-ओ-करम जो करते हमारे जानिब भी गाहे-गाहे<br />तो हस्र-ए-उल्फ़त में हमको शिकवा कभी तुम्हारी क़सम न होता<br /><br />कभी तो हंगाम-ए-ज़िन्दगी में निगाह मिलती सलाम होता<br />तुझे भी दुनिया की दाद मिलती मुझे भी मरने का ग़म न होता<br /><br />भला मैं इस तरह क्यों भटकता फ़िसाद-ए-हुस्न-ए-नज़र के हाथों<br />अगर तिरी राह-ए-जुस्तजू में फ़रेब-ए-दैर-ओ-हरम न होता<br /><br />ग़मों के हाथों ही आज "सरवर" है इश्क़ में बा-मुराद-ए-मंज़िल<br />सितम बा शक्ल-ए-करम जो होता करम बा शक्ले-सितम न होता<br /><br /><strong>-सरवर </strong><br />ख़्वार में =बदहाली में<br />ख़म-बा-ख़म =उलझन<br />==============आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-54878598674987801862020-10-19T04:08:00.004-07:002020-10-19T04:16:55.440-07:00ग़ज़ल 057 : रोज़-ओ-शब रुलायेगी .... <p> <strong>ग़ज़ल 057 : रोज़-ओ-शब रुलायेगी ....</strong> </p>रोज़-ओ-शब रूलायेगी आप की कमी कब तक ?<br />दर्द-ए-बेकसी कब तक ? रंज-ए-आशिक़ी कब तक?<br /><br />"सरवर"-ए-परेशां से ऐसी दिल्लगी कब तक?<br />बे-रुख़ी के पर्दे में नाज़-ओ-दिलबरी कब तक?<br /><br />दाग़-ए-नारसायी क्यों ज़ख़्म-ए-कज-रवी कब तक?<br />सुब्ह नौहा-ख़्वां होगी शाम-ए-यास की कब तक?<br /><br />क्यों न हम भी दिखलायें दाग़-हाये शाम-ए-ग़म ?<br />महशर-ए-मुहब्बत में ये रवा-रवी कब तक?<br /><br />अब तो अपनी सूरत भी अजनबी सी लगती है<br />देगी यूँ फ़रेब आख़िर मेरी ज़िन्दगी कब तक?<br /><br />सुब्ह-ओ-शाम शिकवा है रोज़-ओ-शब का रोना है<br />इस तरह निभाओगे हम से दोस्ती कब तक?<br /><br />राह-ए-मैकदा या-रब! हर क़दम पे खोटी है<br />कर्ब-ए-तिश्नगी कब तक? जाम ये तही कब तक?<br /><br />मैं शिकार-ए-नाउम्मीदी ,तू वफ़ा से बेगाना<br />देखिये रहे अपनी ज़ीस्त अजनबी कब तक?<br /><br />हो चुकी बहुत बातें ,सोच तो ज़रा "सरवर"<br />मंज़िले-ए-मुहब्बत में सिर्फ़ शायरी कब तक?<br /><strong>सरवर- </strong><br />दाग़-ए-नारसायी =न मिलने का दुख<br />कज-रवी =(प्रेमिका की) टेढ़ी चाल<br />शाम-ए-यास =ना उम्मीदी की शाम<br />कर्ब-ए-तिश्नगी =प्यास की बेचैनी <br />जाम तही =बची-खुची शराब ,तलछट में बची शराब<br />=============================आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-78228942927290906662020-10-19T04:07:00.003-07:002020-10-19T04:17:03.282-07:00 ग़ज़ल 056: अफ़्सोस ख़ुद को खुद पे.....<p> <strong>ग़ज़ल 056: अफ़्सोस ख़ुद को खुद पे.....</strong></p><br />अफ़्सोस ख़ुद को ख़ुद पे नुमायां न कर सके<br />हम ज़िन्दगी को साहब-ए-ईमां न कर सके<br /><br />राह-ए-तलब में कार-ए-नुमायां न कर सके<br />अश्क़-ए-जुनूं को आईना-सामां न कर सके<br /><br />वो इश्क़ क्या जो दर्द का दर्मां न कर सके <br />वो दर्द क्या जो इश्क़ को आसां न कर सके<br /><br />हर लम्हा-ए-हयात हिसाब अपना ले गया<br />"हम ज़िन्दगी में फिर कोई अरमां न कर सके<br /><br />दामान-ए-आरज़ू की दराज़ी तो देखिए<br />खु़द से भी ज़िक्र-ए-तंगी-ए-दामां न कर सके<br /><br />यूँ मुब्तिला-ए-कुफ़्र-ए-तमन्ना रहे कि हम<br />चाहा हज़ार,दिल को मुसलमां न कर सके<br /><br />क्यों मुझसे लाग है तुझे ऐ शूरिश-ए-हयात<br />वो काम कर जो गर्दिश-ए-दौरां न कर सके !<br /><br />इतनी तो हो मजाल कि ख़ुद को समेट लें<br />क्या ग़म जो हम तलाफ़ी-ए-हिज्रां न कर सके<br /><br />इस दर्जा फ़िक्र-ए-शेहर-ए-निगारां में गुम रहे<br />हम खु़द भी अपनी ज़ात का इर्फ़ां न कर सके<br /><br />"सरवर" चलो है मैकदा-ए-इश्क़ सामने<br />मुद्दत हुयी ज़ियारत-ए-इन्सां न कर सके<br /><br /><strong>-सरवर</strong><br /><br />आईना-सामां =आईने की तरह<br />नुमायां =ज़ाहिर/व्यक्त<br />कार-ए-नुमाया =बहुत बड़ा काम<br />दर्मा =इलाज<br />मुब्तिला = गिरफ़्त में<br />तलाफ़ी-ए-हिज़्रा =जुदाई की भरपाई<br />इरफ़ाँ न कर सके =जान न सके<br />=आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-16728595253849743172020-10-19T04:05:00.004-07:002020-10-19T04:17:19.114-07:00 ग़ज़ल 055 : रोज़-ओ-शब इस में बपा ...<p> <strong>ग़ज़ल 055 : रोज़-ओ-शब इस में बपा ...</strong></p><br /><br />रोज़-ओ-शब इस में बपा शोर-ए-कि़यामत क्या है ?<br />ये मिरा दिल है कि आईना-ए-हैरत ? क्या है ?<br /><br />बात करने में बताओ तुम्हें ज़हमत क्या है?<br />इक नज़र भी न उठे ,ऐसी भी आफ़त क्या है.?<br /><br />जान कर तोड़ दिया रिश्ता-ए-दाम-ए-उम्मीद<br />"आज मुझ पर यह खुला राज़ कि जन्नत क्या है"<br /><br />नाला-ए-नीम-शबी , आह-ओ-फ़ुग़ां-ए-सेहरी<br />गर नहीं है यह इबादत, तो इबादत क्या है?<br /><br />मुझ को आग़ाज़-ए-मुहब्बत से ही फ़ुर्सत कब है?<br />क्या बताऊँ तुझे अंजाम-ए-मुहब्बत क्या है?<br /><br />"मीर"-ओ-’इक़्बाल’से,"ग़ालिब"से ये पूछें साहेब! <br />शायरी चीज़ है क्या ,शे’र की अज़मत क्या है<br /><br />जब से मैं दीन-ए-मुहब्बत में गिरिफ़्तार हुआ<br />कुफ़्र-ओ-ईमान की ,वल्लाह ! हक़ीक़त क्या है?<br /><br />हम ग़रीबों पे जो दस्तूर-ए-ज़बां-बन्दी है <br />कोई मजबूरी है तेरी कि है आदत ? क्या है?<br /><br />हर्फ़-ओ-मानी हुए बे-रब्त ,क़लम टूट गया<br />मंज़िल-ए-शौक़ में ये आलम-ए-वहशत क्या है?<br /><br />डूब कर ख़ुद में पता ये चला ,हर सू तू है !<br />हम-नशीं ! तफ़्रक़ा-ए-जल्वत-ओ-ख़ल्वत क्या है?<br /><br />काम से रखता हूँ काम अपना सदा ही यारो !<br />मुझको दुनिया से भला फिर ये शिकायत क्या है?<br /><br />एक पल चैन नहीं "सरवर’-ए-बदनाम तुझे !<br />कुछ तो मालूम हो आख़िर तिरी नियत क्या है?<br /><br /><strong>-सरवर-</strong> <br />अज़्मत =महत्व<br />दीन-ए-मुहब्बत =मुहब्बत का धर्म<br />हर्फ़-ओ-मानी =शब्द और अर्थ ,कथन और भाव<br />बे-रब्त =बिना संबंध के,आपस में बिना ताल-मेल के<br />हर-सू =हर तरफ़<br />तफ़र्क़ा = फ़र्क़<br />===========================आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-36483628658511825802020-10-19T04:04:00.005-07:002020-10-19T04:17:30.539-07:00 ग़ज़ल 054 : दिल ही दिल में डरता हूँ...........<p> <strong>ग़ज़ल 054 : दिल ही दिल में डरता हूँ...........</strong></p><br />दिल ही दिल में डरता हूँ कुछ तुझे ना हो जाए<br />वरना राह-ए-उल्फ़त में जाए जान तो जाए<br /><br />मेरी कम नसीबी का हाल पूछते क्या हो<br />जैसे अपने ही घर में राह कोई खो जाए<br /><br />गर तुम्हे तकल्लुफ़ है मेरे पास आने में<br />ख़्वाब में चले आओ यूँ ही बात हो जाए<br /><br />झूठ मुस्कराए क्या आओ मिल के अब रो लें<br />शायरी हुई अब कुछ गुफ़्तगू भी हो जाए<br /><br />ये भी कोई जीना है?खाक ऐसे जीने पर<br />कोई मुझ पे हँसता है ,कोई मुझको रो जाए<br /><br />मेरे दिल के आँगन में किस क़दर अँधेरा है<br />काश ! चाँदनी बन कर कोई इसको धो जाए<br /><br />याद एक धोखा है ,याद का भरोसा क्या <br />तुम ही खु़द यहाँ आकर ,याद से कहो जाए<br /><br />देख कर चलो ’सरवर’! जाने कौन उल्फ़त में<br />फूल तुमको दिखला कर ,ख़ार ही चुभो जाए<br /><br /><strong>-सरवर- </strong><br /><br />तकल्लुफ़ =तकलीफ़<br />ख़ार = काँटाआनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-82906065464822787722020-10-19T04:02:00.003-07:002020-10-19T04:17:43.307-07:00 ग़ज़ल 053 : मरीज़-ए-इश्क़ पर .......<p> <strong>ग़ज़ल 053 : मरीज़-ए-इश्क़ पर .......</strong></p><br />मरीज़-ए-इश्क़ पर पल में क़ियामत का गुज़र जाना<br />"सिरहाने से किसी का उठ के वो पिछले पहर जाना "<br /><br />किसी को हम-नफ़स समझा, किसी को चारागर जाना<br />मगर दुनिया को हमने कुछ नहीं जाना ,अगर जाना<br /><br />मक़ाम-ए-ज़ीस्त को हम ने भला कब मोतबर जाना ?<br />मिला जो लम्हा-ए-फ़ुर्सत उसे भी मुख़्तसर जाना<br /><br />इलाही ! हम ग़रीबों की ही क्यों यह आज़माईश है ?<br />दवा का बे-असर रहना , दुआ का बे-असर जाना<br /><br />तबस्सुम ज़ेर-ए-लब तेरा,दलील-ए-सुब्ह-ए-जान-ओ-दिल<br />तेरा नज़रें चुराना ,नब्ज़-ए-हस्ती का ठहर जाना<br /><br />हक़ीक़त है तो बस इतनी सी है हंगामा-ए-हस्ती की<br />"यहाँ पर बे-ख़बर रहना ,यहाँ से बे-ख़बर जाना "<br /><br />सलाम ऐसी मुहब्बत को ,भला ये भी मुहब्बत है !<br />किसी की याद में जीना ,किसी के ग़म में मर जाना <br /><br />रह-ए-उल्फ़त में हम से और क्या उम्मीद रखते हो ?<br />ये क्या कम है कि अपनी ज़ात को गर्द-ए-सफ़र जाना?<br /><br />तू ख़ुद को लाख समझे बा-कमाल-ओ-बाहुनर "सरवर"<br />तुझे लेकिन ज़माने ने हमेशा बे-हुनर जाना !<br /><br /><strong>-सरवर</strong>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-85973213929363557072020-10-19T04:00:00.004-07:002020-10-19T04:17:54.004-07:00 ग़ज़ल 052 : दामन-ए-तार-तार ये.......<p> <strong>ग़ज़ल 052 : दामन-ए-तार-तार ये.......</strong></p><br />दामन-ए-तार-तार ये,सदक़ा है नोक-ए-ख़ार का<br />शुक्र-ए-ख़ुदा कि मुझसे कुछ रब्त तो है बहार का!<br /><br />तेरे मक़ाम-ए-जब्र से मेरे मक़ाम-ए-सब्र तक<br />सिलसिला-ए-आरज़ू रहा दीदा-ए-अश्कबार का<br /><br />क़िस्सा-ए-दर्द कह गया लह्ज़ा-ब-लह्ज़ा नौ-ब-नौ<br />"पर भी क़फ़स से जो गिरा बुल्बुल-ए-बेक़रार का"<br /><br />मंज़िल-ए-शौक़ मिल गई कार-ए-जुनूं हुआ तमाम<br />इश्क़ को रास आ गया आज फ़राज़ दार का !<br /><br />ज़ीस्त की सारी करवटें पल में सिमट के रह गईं<br />सदियों का तर्जुमां था लम्हा वो इन्तिज़ार का<br /><br />ज़िक्र-ए-हबीब हो चुका फ़िक्र-ए-ख़ुदा की ख़ैर हो !<br />चाक रहा वो ही मगर दामन-ए-तार-तार का !<br /><br />सोज़-ओ-गुदाज़-ए-ज़िन्दगी अपना ख़िराज ले गया<br />नौहा-कुनां में रह गया हस्ती-ए-कम-अयार का<br /><br />हुस्न की सर-बुलंदियाँ इश्क़ की पस्तियों से हैं<br />सोज़-ए-खिज़ां से मोतबर साज़ हुआ बहार का<br /><br />नाम-ए-ख़ुदा कोई तो है वज़ह-ए-शिकस्त-ए-आरज़ू<br />यूँ ही तो बेसबब नहीं शिकवा ये रोज़गार का ?<br /><br />नाम-ओ-नुमूद एक वहम और वुजूद इक ख़याल !<br />अपने ही आईने में हूँ अक्स मैं हुस्न-ए-यार का !<br /><br />हर्फ़-ए-ग़लत था मिट गया अपने ही हाथ मर गया<br />अब क्या ख़बर कि क्या बने "सरवर’-ए-सोगवार का !<br /><br /><br /><strong>-सरवर-</strong><br /><br />रब्त =संबंध <br />नौ-ब-नौ =नया-नया<br />अश्कबार =रोनेवाला <br />क़फ़स =पिजड़ा<br />फ़राज़ दार =ऊँची फाँसी का तख़्ता <br />सोज़-ओ-गुदाज़=सुख-दुख,रस<br />ख़िराज =महसूल’<br />हस्ती-ए-कम-अयार=बेकार की ज़िन्दगी <br />पस्तियां =लघुता,विनम्रता<br />मोतबर =ऐतबार के क़ाबिल <br />नुमूद =प्रगट,अवतार<br />सोगवार =शोकग्रस्तआनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-40424927074016055002020-10-19T03:59:00.005-07:002020-10-19T04:18:06.689-07:00 ग़ज़ल 051 : हो गई मेराज-ए-इश्क़........ <p> <strong>ग़ज़ल 051 : हो गई मेराज-ए-इश्क़........ </strong></p><br />हो गई मेराज-ए-इश्क़-ओ-आशक़ी हासिल हमें<br />पहले दर्द-ए-दिल मिला ,बाद उसके दाग़े-दिल हमें !<br /><br />बन्दगान-ए-आरज़ू में कर लिया शामिल हमें<br />आप ने ,शुक्र-ए-ख़ुदा ! समझा किसी क़ाबिल हमें !<br /><br />कम-निगाही ,तंग दामानी ,वुफ़ूर-ए-आरज़ू<br />ज़िन्दगी! तेरी तलब में यह हुआ हासिल हमें !<br /><br />इस क़दर आसूदा-ए-राहे-मुहब्बत हो गये<br />ढूंढती फिरती है हर सू शोरिश-ए-मंज़िल हमें !<br /><br />लम्हा-लम्हा लह्ज़ा-लह्ज़ा वो क़रीब आते गये<br />रफ़्ता-रफ़्ता कर गए ख़ुद आप से ग़ाफ़िल हमें !<br /><br />बन गया ख़ुद अपना हासिल आलम-ए-ख़ुद रफ़्तगी<br />देखती ही रह गई दुनिया-ए-आब-ओ-गिल हमें<br /><br />दीदा-ए-बीना दिल-ए-ख़ुश्काम फ़िक्र-ए-बेनियाज़<br />अब कोई मुश्किल नज़र आती नहीं मुश्किल हमें !<br /><br />खु़द को ही तारीख़ दुहराती है जब "सरवर’ तो फिर<br />क्यों नज़र आया नहीं माज़ी में मुस्तक़्बिल हमें ?<br /><br /><strong>-सरवर</strong><br /><br />शोरिश =हंगामा.झगड़ा.फ़साद<br />हर सू =हर तरफ़<br />मेराज-ए-इश्क़ =प्रेम की उच्चता<br />वुफ़ूर-ए-आरज़ू = तीव्र-इच्छा<br />कम निगाही =उपेक्षा<br />तंग-दामानी = ग़रीबी<br />आसूदा = तृप्त होना/सन्तुष्ट होना<br />शोरिल =उन्माद<br />आब-ओ-गिल =पानी-मिट्टी<br />मुस्तक़्बिल =भविष्यआनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-63807396855487650712020-10-19T03:57:00.007-07:002020-10-19T04:18:15.713-07:00ग़ज़ल 050 : ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला<p> <strong>ग़ज़ल 050 : ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला........</strong></p><br />ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला<br />एक पर्दा जो उठा दूसरा पर्दा निकला !<br /><br />मंज़र-ए-ज़ीस्त सरासर तह-ओ-बाला निकला<br />गौ़र से देखा तो हर शख़्स तमाशा निकला !<br /><br />एक ही रंग का ग़म खाना-ए-दुनिया निकला<br />ग़मे-जानाँ भी ग़मे-ज़ीस्त का साया निकला !<br /><br />इस राहे-इश्क़ को हम अजनबी समझे थे मगर<br />जो भी पत्थर मिला बरसों का शनासा निकला !<br /><br />आरज़ू ,हसरत-ओ-उम्मीद, शिकायत ,आँसू<br />इक तेरा ज़िक्र था और बीच में क्या क्या निकला !<br /><br />जो भी गुज़रा तिरी फ़ुरक़त में वो अच्छा गुज़रा<br />जो भी निकला मिरी तक़्दीर में अच्छा निकला !<br /><br />घर से निकले थे कि आईना दिखायें सब को<br />हैफ़ ! हर अक्स में अपना ही सरापा निकला !<br /><br />क्यों न हम भी करें उस नक़्श-ए-कफ़-ए-पा की तलाश<br />शोला-ए-तूर भी तो एक बहाना निकला !<br /><br />जी में था बैठ के कुछ अपनी कहेंगे ’सरवर’<br />तू भी कमबख़्त ! ज़माने का सताया निकला !<br /><br />-सरवर-<br /><br />शनासा = परिचित ,जाना-पहचाना<br />नक़्स-ए-कफ़-ए-पा = पाँवों के निशान<br />हैफ़ ! = हाय !आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-15193579092473345672020-10-19T03:54:00.003-07:002020-10-19T04:18:29.446-07:00ग़ज़ल 049 : छोड़िए छोड़िए यह ढंग पुराना--<p> <strong>ग़ज़ल 049 : छोड़िए छोड़िए यह ढंग पुराना साहिब !</strong></p><br /><br />छोड़िए छोड़िए यह ढंग पुराना साहिब !<br />ढूँढिए आप कोई और बहाना साहिब !<br /><br />खत्म आख़िर हुआ हस्ती का फ़साना साहिब<br />आप से सीखे कोई साथ निभाना साहिब !<br /><br />भूल कर ही सही ख़्वाबों में चले आयें आप<br />हो गया देखे हुए एक ज़माना साहिब !<br /><br />हमने हाथों की लकीरों में तुम्हें ढूँढा था<br />वो भी था इश्क़ का क्या एक ज़माना साहिब !<br /><br />क्यों गए ,कैसे गए ,ये तो हमें याद नहीं<br />हाँ मगर याद है वो आप का आना साहिब !<br /><br />कू-ए-नाकामी-ओ-नाउम्मीदी-ओ-हसरतसंजी<br />हो गया अब तो यही अपना ठिकाना साहिब !<br /><br />क़स्रे-उम्मीद ,वो हसरत के हसीन ताज महल<br />हाय! क्या हो गया वो ख़्वाब सुहाना साहिब ?<br /><br />रहम आ जाए है दुश्मन को भी इक दिन लेकिन<br />तुमने सीखा है कहाँ दिल का दुखाना साहिब ?<br /><br />आते आते ही तो आयेगा हमें सब्र हुज़ूर <br />खेल ऐसा तो नही दिल का लगाना साहिब !<br /><br />इसकी बातों में किसी तौर न आना ’सरवर’<br />दिल तो दीवाना है ,क्या इसका ठिकाना साहिब !<br /><br />-सरवर-<br /><br />कू-ए-नाकामी-ओ-नाउम्मीदी-ओ-हसरतसंजी= असफलता,निराशा और अपना दुख <br />बयान करने की जगह<br />क़स्रे-उम्मीद = उमीदों का महलआनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-64193843999003510982020-10-18T22:08:00.003-07:002020-10-19T04:44:26.066-07:00विविध 010 : दर्द-ए-बेकसी कब तक --[पी0 के0 स्वामी ]<p> <strong>ग़ज़ल ०३</strong></p><br />दर्द-ए-बेकसी कब तक रंज-ए-आशिक़ी कब तक<br />रास मुझ को आयेगी ऐसी ज़िन्दगी कब तक ! <br /><br />सोज़-ए-दिल छिपाएगा अश्क की कमी कब तक <br />खुश्क लब दिखाएंगे आरज़ी खुशी कब तक ! <br /><br />तिश्नगी मुक़द्दर में साथ तो नहीं आयी <br />चश्म-ए-मस्त बतला तू ऐसी बेरुखी कब तक ! <br /><br />ज़ब्त छूटा जाता है सब्र क्यों नहीं आता <br />देखिये दिखाती है रंग बेकसी कब तक ! <br /><br />दिल में हैं मकीं लेकिन सामने नहीं आते <br />रखेगा भला आखिर सब्र आदमी कब तक ! <br /><br />दर पे आँख अटकी है उखड़ी उखड़ी सांसे हैं <br />नातवां सहे आखिर तेरी ये कमी कब तक ! <br /><br />मेहरबान वो हों तो लुत्फ़-ए-इश्क सादिक है <br />बंदगी में कटेगा ’स्वामी’ ज़िन्दगी कब तक !! <div><br />- पी0 के0 स्वामी-</div>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-15498952011100272572020-10-15T04:34:00.003-07:002020-10-15T04:34:39.535-07:00उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 75 [ उर्दू शायरी में मात्रा गणना ]<p> <b style="color: red;">सवाल : ग़ज़ल .शे’र या माहिया के मिसरों में मात्रा गिनने में भ्रम की स्थिति क्यों बनी रहती है ?</b></p><p><br /></p><p>उत्तर : । बहुत से मित्रों ने यह सवाल किया है । उत्तर यहाँ लगा रहा हूँ जिससे इस ब्लाग के अन्य मित्र भी मुस्तफ़ीद</p><p>लाभान्वित हो सकें ।</p><p> हिंदी मे मात्रा ’लघु [ 1 ] और दीर्घ [ 2 ] के हिसाब से गिनी जाती है । हिंदी में "मात्रा गिराने " का </p><p>कोई विचार नहीं होता ।हिंदी में जैसा लिखते हैं वैसा ही बोलते है ।अगर हम -<span style="color: red;">भी--थी--है</span></p><p><span style="color: red;">--की --सी--्सू--कू--कु -</span>-जैसे वर्ण लिखेंगे तो हमेशा [2] ही गिना जायेगा क्योंकि सभी वर्ण </p><p>अपनी पूरी आवाज़ देते हैं और खुल कर आवाज़ देते हैं ।</p><p>मगर उर्दू में शायरी ’तलफ़्फ़ुज़ " के आधार पर चलती है । जैसा लिखते हैं कभी कभी वैसा बोलते नहीं । </p><p>वहाँ पर वज़न /भार का ’कन्सेप्ट’ है --मुतहर्रिक हर्फ़ [1] और साकिन हर्फ़ का ’कन्सेप्ट’ है </p><p>उर्दू में -<span style="color: red;">भी--थी--है---की --सी---्सू--कू--को</span> जैसे सभी हर्फ़ एक साथ ही -2-[दीर्घ ] की भी हैसियत रखते है और </p><p>मुतहर्रिक [1] की भी हैसियत रखते है । यह निर्भर करती है कि यह हर्फ़ मिसरा के रुक्न के किस मुक़ाम पर </p><p>इस्तेमाल किया गया है । बह्र में उस मक़ाम पर वज़न की क्या माँग है । अगर रुक्न [1] का वज़न माँगता है यानी मुतहर्रिक हर्फ़ </p><p>माँगता है तो इन हरूफ़ को [1] मानेंगे और अगर रुक्न [2] का वज़न माँगता है तो [2] गिनेंगे ।</p><p>इसीलिए शायरी करने से पहले ’अरूज़’ की जानकारी यानी रुक्न और बह्र की जानकारी हो तो बेहतर।</p><p>चलते चलते एक बात और--</p><p>उर्दू का हर लफ़्ज़--मुतहर्रिक से शुरु होता है और साकिन पर खत्म होता है । </p><p> इसी बात को और साफ़ करते हुए --कुछ अश’आर की तक़्तीअ कर के देखते है --</p><p><span style="color: #2b00fe;">*बह्र-ए-कामिल*</span> एक बड़ी ही मक़्बूल बह्र है जिसका बुनियादी सालिम रुक्न है -<span style="background-color: #fcff01;">-*मु* *त*फ़ा*इ*लुन --</span>[ 1 1 2 1 2 ]</p><p> जिसमें -*मु*- [मीम]--*त*--[ते] - और -*इ* [ ऐन] मुतहर्रिक है जिसे हमने -1- से दिखा्या हैं यहाँ ।</p><p>इसकी एक मशहूर आहंग है --<span style="background-color: #fcff01; color: red;">*बह्र-ए-कामिल मुसम्मन सालिम* </span></p><p>मु त फ़ा इ लुन --मु त फ़ा इ लुन --मु त फ़ा इ लुन --मु त फ़ा इ लुन यानी </p><p>1 1 2 1 2 ------1 1 2 1 2----1 1 2 1 2-----------1 1 2 1 2</p><p>इस बह्र में अमूमन हर नामचीन शायर ने ग़ज़ल कही है ।यहाँ हम बशीर बद्र साहब के 2-3 अश’आर और </p><p>अल्लामा इक़बाल के 1-शे’र इसी बह्र में कहे हुए ,देखते हैं कि ऊपर कही हुई बात साफ़ हो जाए ।</p><p>पूरी ग़ज़ल इन्टर्नेट पर मिल जाएगी।</p><p><span style="color: #2b00fe;">[1]<span style="white-space: pre;"> </span> कभी यूँ भी आ मेरी आँख में कि मेरी नज़र को ख़बर न हो</span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>मुझे एक रात नवाज़ दे मगर इसके बाद सहर न हो </span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>बशीर बद्र-</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">[2]<span style="white-space: pre;"> </span>अभी इस तरफ़ न निगाह कर मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ</span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>मेरा लफ़्ज़ लफ़्ज़ हो आईना तुझे आईने में उतार लूँ </span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>बशीर बद्र</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">[3]<span style="white-space: pre;"> </span>यूँ ही बेसबब न फिरा करो कोई शाम घर भी रहा करो</span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>वह ग़ज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो</span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>बशीर बद्र </span></p><p><span style="color: #2b00fe;">[4] <span style="white-space: pre;"> </span>कभी ऎ हक़ीकत-ए-मुन्तज़र ,नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में </span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मेरी जबीन-ए-नियाज़ में </span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>-इक़बाल-</span></p><p>यहाँ हम मात्र 2-शे’र की तक़्तीअ करेंगे जिससे बात साफ़ हो जाये । बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर लें और मुतमुईन [ निश्चिन्त]</p><p>हो लें --अगर आप को ज़ौक़-ओ-शौक़ फ़रमाते हो तो ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> क*भी* यूँ *भी* आ / *मे**री* आँख में /कि *मे* री न ज़र /*को* ख़ बर न हो</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मु *झे* एक रा /त न वा ज़ दे / म ग *रिस* के बा /द स हर न हो </p><p>ध्यान दें </p><p>मिसरा उला में ---पहला -भी- [1] लिया जब कि दूसरा- भी- [2] लिया है ।क्यों ? क्योंकि उस मक़ाम पर जैसी बह्र की माँग थी वैसा लिया।</p><p>यही -भी-एक साथ [1] की भी हैसियत रखता है और [2] [ यानी सबब-ए-ख़फ़ीफ़] की भी हैसियत रखता है । अगर यह भेद आप नहीं जान पाएँगे</p><p>तो आप हिंदी मात्रा गणना के अनुसार हर जगह इसे ’दीर्घ वर्ण ’ मान कर -2- जोड़ते जाएंगे---जो ग़लत होगा और कह देंगे कि बशीर बद्र साहब की</p><p>यह ग़ज़ल बह्र से ख़ारिज़ है । मुझे उम्मीद है कि आप ऐसा कहेंगे नहीं ।</p><p>और हर्फ़ भी देख लेते है नीचे लिखे अक्षर देखने में तो -2- [दीर्घ] लगते है मगर यहाँ हम ले रहे हैं -1- मुतहर्रिक मान कर । क्योंकि मैने पहले ही कह दिया</p><p>है कि ऐसे अक्षर दोनो हैसियत रखते है--आप जैसा चाहें इस्तेमाल करें।</p><p>इसी को हम हिंदी में ’मात्रा’ गिराना समझते हैं।जब कि अरूज़ में मात्रा गिराने का कोई ’Concept ’ नहीं है । साकित करने का concept है।</p><p> ==वह ’तलफ़्फ़ुज़’ से ’कन्ट्रोल’ करेंगे --हल्का सा उच्चारण में दबा कर ।</p><p>मे = 1= क्योंकि मुतहर्रिक है </p><p>री = 1= -do-</p><p>को=1= -d0-चो</p><p>झे= 1= -do-</p><p>लगे हाथ दूसरे मिसरे में --*मगर इस* --पर बात कर लेते हैं।</p><p> इसे हमने -म ग *रिस*- [ 1 2 2--] पर लिया है । सही है । -रे- का वस्ल हो गया है।सामने वाले -अलिफ़- से </p><p> क्योंकि बह्र की माँग वहाँ यानी उस मुक़ाम पर वही थी --सो वस्ल करा दिया।</p><p>अब एक सवाल यह उठता है कि ’अलिफ़ - का वस्ल [ या ऐसा ही कोई और वस्ल ] *Mandatory* है या *Obligatory* है ?</p><p> इस पर कभी बाद में अलग से चर्चा करेंगे।</p><p>अब अल्लमा इक़बाल के शे’र पर आते हैं </p><p><span style="white-space: pre;"> </span> 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 </p><p> कभी ऎ हक़ी/कत-ए-मुन् त ज़र/ ,न ज़ र आ लिबा/स-ए-मजाज़ में </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>कि हज़ारों सज / दे त ड़प रहे / हैं मे री जबी /न-ए-नियाज़ में </p><p>नोट -- हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>लिबास-ए-मजाज़</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>जबीन-ए-नियाज़ </p><p>जैसे लफ़्ज़ को ’कसरा-ए-इज़ाफ़त" की तरक़ीब कहते है ।इस पर पहले भी बातचीत कर चुका हूँ।</p><p>वैसे तो हक़ीक़त का -*त*- </p><p>लिबास का-*स*- </p><p>जबीन का-*ज* -</p><p>तो दर अस्ल --साकिन हर्फ़ है [ उर्दू का हर लफ़ज़ ’साकिन’ पर ख़त्म होता है । मगर ’कसरा-ए-इज़ाफ़त ’ [-ए-] की बदौलत -त--स--ज-- मुतहर्रिक हो जाते है यानी -1- का वज़न</p><p>देने लगते हैं। ऊपर तक़्तीअ’ भी उसी हिसाब से की है । </p><p>एक बात और -- --नज़र आ लिबास-- न ज़ रा [ 1 1 2---] वही बात -र- के साथ अलिफ़ का वस्ल हो गया -सो -2- ले लिया ।</p><p>चलते चलते मेरे कुछ मित्र पूछते रहते है --कि हम 1-1 को 2 मान सकते है ?</p><p>यानी दो लघु वर्ण को एक दीर्घ ? हिंदी छन्द शास्त्र के हिसाब से मान लीजिए मगर अरूज़ के लिहाज़ से नहीं मान सकते [ कुछ विशेष अवस्था में छोड़ कर]</p><p>क्यों ?</p><p>अगर इसी केस में देख लें--कि अगर हम 1 1 को =2 मान लें तो क्या होगा ? 11212-----11212----11212----11212 का क्या होगा ?</p><p>बह्र फिर 2212---2212----2212----2212 यानी [ मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन ] यानी *बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम*</p><p>हो जायेगी । फिर ?</p><p><br /></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: #2b00fe;">जाना था जापान ,पहुँच गए चीन ,समझ गए ना ।</span></p><p><span style="color: red; font-size: x-small;"><i>नोट ; इस मंच पर मौजूद असातिज़ा [ गुरुजनों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश [करबद्ध प्रार्थना ] है अगर कुछ ग़्लर</i></span><br /><span style="color: red; font-size: x-small;"><i>बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी निशानदिहि [ रेखांकित ] कर दे कि जिससे मै आइन्दा [ आगे से] खुद</i></span><br /><span style="color: red; font-size: x-small;"><i>को दुरुस्त कर सकूँ ।</i></span><br /></p><p>सादर</p><p>-आनन्द.पाठक-</p><div><br /></div>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-75281309398791676482020-10-15T04:32:00.001-07:002020-10-15T04:32:02.189-07:00 उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 74 [ आहंग एक-नाम दो ]<p> <b style="color: red;">उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 74 [ आहंग एक-नाम दो ]</b></p><br /> आज शकील बदायूँनी की ग़ज़ल केचन्द अश’आर मुलाहिज़ा फ़रमाएँ<br /> शकील बदायूँनी साहब का परिचय देने की कोई ज़रूरत नहीं है--आप सब लोग<br />परिचित होंगे।<br />अभी इन अश’आर का लुत्फ़ [आनन्द] उठाएँ ---इसके "बह्र" की बात बाद में करेंगे<br /><br /><span style="color: red;"><i>लतीफ़ पर्दों से थे नुमायाँ मकीं के जल्वे मकाँ से पहले</i></span><br /><span style="color: red;"><i>मुहब्बत आइना हो चुकी थी वुजूद-ए-बज़्म-ए-जहाँ से पहले</i></span><br /><span style="color: red;"><i><br /></i></span><span style="color: red;"><i>न वो मेरे दिल से बाख़बर थे ,न उनको एहसास-ए-आरज़ू था</i></span><br /><span style="color: red;"><i>मगर निज़ाम-ए-वफ़ा था क़ायम कुशूद-ए-राज़-ए-निहाँ से पहले</i></span><br /><br />---<br />---<br /><span style="color: red;">अज़ल से शायद लिखे हुए थे ’शकील’ क़िस्मत में जौर-ए-पैहम </span><br /><span style="color: red;">खुली जो आँखे इस अंजुमन में ,नज़र मिली आस्माँ से पहले</span><br /><br /> एक दूसरी ग़ज़ल --के चन्द अश’आर--<br /><br /><span style="color: purple;"><i>न अब वो आँखों में बरहमी है ,न अब वो माथे पे बल रहा है</i></span><br /><span style="color: purple;"><i>वो हम से ख़ुश हैं ,हम उन से ख़ुश हैं ज़माना करवट बदल रहा है</i></span><br /><span style="color: purple;"><i><br /></i></span><span style="color: purple;"><i>खुशी न ग़म की ,न ग़म खुशी का अजीब आलम है ज़िन्दगी का</i></span><br /><span style="color: purple;"><i>चिराग़-ए-अफ़सुर्दा-ए-मुहब्बत न बुझ रहा है न जल रहा है</i></span><br /><span style="color: purple;"><i><br /></i></span><span style="color: purple;"><i>ये काली काली घटा ये सावन फ़रेब-ए-ज़ाहिद इलाही तौबा</i></span><br /><span style="color: purple;"><i>वुज़ू में मसरूफ़ है बज़ाहिर ,हक़ीक़तन हाथ मल रहा है </i></span><br /><br /> एक और ग़ज़ल --के चन्द अश’आर<br /><br />ब<span style="color: blue;"><i>स इक निगाहे करम है काफी अगर उन्हे पेश-ओ-पस नहीं है</i></span><br /><span style="color: blue;"><i>ज़ह-ए-तमन्ना कि मेरी फ़ितरत असीर-ए-हिर्स-ए-हवस नहीं है</i></span><br /><span style="color: blue;"><i><br /></i></span><span style="color: blue;"><i>कहाँ के नाले ,कहाँ की आहें जमी हैं उनकी तरफ़ निगाहें</i></span><br /><span style="color: blue;"><i>कुछ इस तरह मह्व-ए-याद हूँ मैं कि फ़ुरसत-ए-यक नफ़स नहीं है</i></span><br />------------------------<br />ऐसे ही चन्द अश’आर अल्लामा इक़बाल साहब की एक ग़ज़ल के ---<br /><br /><i><span style="color: purple;">ज़माना आया है बेहिज़ाबी का आम दीदार-ए-यार होगा</span></i><br /><i><span style="color: purple;">सुकूत था परदावार जिसका वो राज़ अब आशकार होगा</span></i><br /><i><span style="color: purple;"><br /></span></i><i><span style="color: purple;">खुदा के आशिक़ तो है हज़ारों बनों में फिरते है मारे मारे</span></i><br /><i><span style="color: purple;">मै उसका बन्दा बनूँगा जिसको ख़ुदा के बन्दों से प्यार होगा</span></i><br /><i><span style="color: purple;"><br /></span></i><i><span style="color: purple;">न पूछ इक़बाल का ठिकाना अभी वही क़ैफ़ियत है उसकी</span></i><br /><i><span style="color: purple;">कहीं सर-ए-रहगुज़ार बैठा सितम-कशे इन्तिज़ार होगा</span></i><br /><br /> आप इन अश’आर को पढ़िए नहीं ।गुनगुनाइए --धीरे गुनगुनाइए --गाइए तब इस आहंग का<br /> आनन्द आयेगा । ये सभी ग़ज़लें गूगल पर मिल जायेगी ।<br />अगर ’पढ़ना" ही है तो इनको पढ़िए नहीं --समझिए--भाव समझिए -- तासीर [ प्रभाव ] समझिए --शे’रियत समझिए<br />तग़ज़्ज़ुल समझिए--मयार देखिए--बुलन्दी समझिए--फिर देखिए कि हम लोग कहाँ खड़े हैं ।<br /><br /> कितना दिलकश आहंग है । इस बह्र में और भी शोअ’रा [ शायरों ] ने<br />अपनी अपनी ग़ज़ले कहीं है --मुनासिब मुक़ाम [ उचित स्थान] पर उनकी भी चर्चा करूँगा।<br />। आहंग [लय ] से पता चल गया होगा ।ये तमाम ग़ज़लें एक ही बहर में हैं ।<br />और वो आहंग है --<br />A<span style="white-space: pre;"> </span><span style="background-color: yellow;"><span style="color: red;">121--22 / 121--22 // 121--22 / 121--22 </span></span><br /><span style="background-color: yellow;"><span style="color: red;"> <span style="white-space: pre;"> </span>बह्र-ए-मुक़्तज़िब मुसम्मन मख़्बून मरफ़ूअ’ , मख़्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन मुज़ाइफ़</span></span><br /><span style="white-space: pre;"> </span>बड़ा लम्बा नाम है -मख्बून --मक्फ़ूफ़ -सब ज़िहाफ़ का नाम है ।<br /><span style="white-space: pre;"> </span><br />B<span style="white-space: pre;"> </span><span style="background-color: yellow; color: red;">121-22 /121--22 / 121--22 / 121-22 </span><br /><span style="background-color: yellow; color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>इसी आहंग का दूसरा नाम भी है </span><br /><span style="background-color: yellow; color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>बह्र-ए-मुतक़ारिब मक़्बूज़ असलम मुसम्मन मुज़ाहिफ़ </span><br /><span style="white-space: pre;"> </span> <span style="white-space: pre;"> </span><br />यानी बह्र एक --नाम दो ? दोनो ही मुज़ाइफ़--।दोनो ही 16-रुक्नी॥ दोनो ही दो-दो- रुक्न का इज़्तिमा [ मिला हुआ ] है<br />शकल भी बिलकुल एक जैसी ।<br /><br />बस ,यहीं पर controversy है ।<br /> कुछ अरूज़ की किताबों में --A- की सही मानते हैं और इसे बह्र-ए-मुक़्तज़िब के अन्दर रखते है<br />कुछ अरूज़ की किताबों में --B -को सही मानते है । बह्र-ए-मुतक़ारिब के अन्दर रखते है<br />दोनों की अपनी अपनी दलाइल [ दलीलें ] हैं । अपने अपने ’जस्टीफ़िकेशन ’ हैं ।<br /><br />-A-सही माना भी जाए कि -B- सही माना जाए।<br /><br />आप इस चक्कर में क्यों पड़ें ?----बस ग़ज़ल गुनगुनाए और रसास्वादन करें<br /><br />चलिए पहले - B -पर चर्चा कर लेते है ।<br /><br />B<span style="white-space: pre;"> </span>121-22 /121--22 / 121--22 / 121-22<br /><span style="white-space: pre;"> </span>इसी आहंग का नाम है<br /><span style="white-space: pre;"> </span>बह्र-ए-मुतक़ारिब मक़्बूज़ असलम मुसम्मन मुज़ाहिफ़<br /><br />मुतक़ारिब का बुनियादी रुक्न है --"फ़ऊलुन--[ 1 2 2 ]<br /><br />फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] + क़ब्ज़ = मक़्बूज़ =फ़ऊलु =1 2 1<br />फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] + सलम = असलम =फ़अ’ लुन = 2 2<br />[ कब्ज़ और सलम --ये सब ज़िहाफ़ है । और इनके अमल के के निज़ाम [ व्यवहार की नियम ] है । यह खुद में<br />एक अलग विषय है --इसमे विस्तार में जाने से बेहतर है कि हम बस इसे यहाँ मान लें ।<br /><br />अर्थात [ 121--22 ] एक आहंग बरामद हुआ । अब इसी की तकरार [ repetition ] करें<br /><br />मिसरा में 4-बार या शे’र में 8-बार तो उक्त आहंग मिलेगा<br />चूँकि शे’र 16- अर्कान हो जायेंगे अत: इसे 16-रुक्नी बह्र भी कहते है ।<br /><br />अब इक़बाल के अश’आर की तक्तीअ’ इसी बह्र से करते हैं---<br /><br />1 2 1---2 2 / 1 2 1--2 2 / 1 2 1 - 2 2 / 1 2 1-2 2<br />ज़मान: -आया / है बे हि-ज़ाबी /का आम -दीदा /र यार -होगा<br /><br /> 1 2 1 - 2 2 / 1 2 1- 2 2 / 1 2 1 --2 2 / 1 2 1-2 2<br />सुकूत -था पर /द: वार -जिसका / वो राज़ -अबआ /शकार -होगा<br /><br />{<i><span style="color: blue;"> ध्यान दीजिये --अब-आशकार - में =अलिफ़ की वस्ल नहीं हुई है ?</span></i><br /><i><span style="color: blue;">क्यों नहीं हुई ? ज़रूरत ही नहीं पड़ी । बह्र या रुक्न ने मांगा ही नहीं ।</span></i><br /><i><span style="color: blue;">माँगता तो ज़रूर करते ।</span></i><br /><br />बाक़ी 2-अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर के देख लें ।कही शे’र<br />बह्र से ख़ारिज़ तो नहीं हो रही है ? अभ्यास का अभ्यास हो जायेगा -<br />आत्म विश्वास का आत्म विश्वास बढ़ जायेगा ।<br /><br />अब -A- वाले आहंग पर आते हैं --<br />A<span style="white-space: pre;"> </span><span style="background-color: yellow; color: red;">121--22 / 121--22 // 121--22 / 121--22 </span><br /><span style="background-color: yellow; color: red;"> <span style="white-space: pre;"> </span>बह्र-ए-मुक़्तज़िब मुसम्मन मख़्बून मरफ़ूअ’ , मख़्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन मुज़ाइफ़</span><br />मुक़तज़िब का बुनियादी अर्कान है --- मफ़ऊलातु--मुस तफ़ इलुन ---मफ़ऊलातु---मुस तफ़ इलुन<br />यानी 2221---2212------2221-----2212<br /><br />मफ़ऊलातु [ 2221 ] + ख़ब्न + रफ़अ’ = मुज़ाहिफ़ मख़्बून मरफ़ूअ’ 1 2 1 = फ़ऊलु [ 1 2 1 ] बरामद होगा<br />मुस तफ़ इलुन [ 2 2 1 2 } + ख़ब्न + रफ़अ’+ तस्कीन = मुज़ाहिफ़ मख़्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन = 2 2 = फ़अ’ लुन बरामद होगा<br /><br />[ ख़ब्न और रफ़अ’ --ये सब ज़िहाफ़ है । और इनके अमल के के निज़ाम [ व्यवहार की नियम ] है । यह खुद में<br />एक अलग विषय है --इसमे विस्तार में जाने से बेहतर है कि बस आप इसे यहाँ मान लें ।<br /><br />अब इस औज़ान से शकील के किसी शे’र का तक़्तीअ’ करते है और देखते हैं --<br /> 1 2 1 - 2 2 / 1 2 1 - 2 2 / 1 2 1 - 2 2 / 1 2 1 - 2 2<br />न अब वो -आँखों /में बर ह -मी है ,/न अब वो -माथे /पे बल र-हा है<br /><br /> 1 2 1 - 2 2 / 1 2 1 - 2 2 / 1 2 1 - 2 2 / 1 2 1 - 2 2<br />वो हम से -ख़ुश हैं ,/ ह मुन से -ख़ुश हैं / ज़मान: -कर वट /ब दल र -हा है[<br /><br />[ध्यान दीजिए-- हम-उन से - में -मीम- के साथ अलिफ़ का वस्ल हो गया और<br />ह मुन से [ 1 2 1 ] रख दिया ।<br />क्यों भाई ? इसलिए कि कि ज़रूरत पड़ गई । बह्र या रुक्न मांग रहा है यहाँ ।<br /><br />बाक़ी 2-अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर के देख लें ।कही शे’र<br />बह्र से ख़ारिज़ तो नहीं हो रही है ? अभ्यास का अभ्यास हो जायेगा<br />आत्म विश्वास का आत्म विश्वास बढ़ेगा ।<br /><br />अब सवाल यह है कि --जब दोनो आहंग एक हैं --तो नाम क्यों मुखतलिफ़ है ।<br />सही नाम क्या होगा ?<br />सही नाम मुझे भी नहीं मालूम } दोनो किस्म के अरूज़ियों की अपनी अपनी दलीले हैं<br />-A--वालों का कहना है [ जिसमे मैं भी हूँ --जब कि मैं अरूज़ी नहीं हूँ -एक अनुयायी हूँ ]<br />कि -B - वाले सही नही हैं । कारण कि ज़िहाफ़ ’सलम’ [ मुज़ाहिफ़ "असलम ’-एक खास<br />ज़िहाफ़ है जो शे’र के सदर/इब्तिदा के लिए मख़्सूस [ ख़ास] है --वो हस्व में लाया ही नही जा सकता<br />तो zihaaf ka निज़ाम कैसे सही होगा ?<br /><br />खैर --आप तो ग़ज़ल के आहंग का मज़ा लीजिए--- गुनगुनाइए--गाइए --- अरूज़ की बात अरूज़ वाले जाने ।<br /><br />[<span style="color: red; font-size: x-small;"><i>नोट ; इस मंच पर मौजूद असातिज़ा [ गुरुजनों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश [करबद्ध प्रार्थना ] है अगर कुछ ग़्लर</i></span><br /><span style="color: red; font-size: x-small;"><i>बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी निशानदिहि [ रेखांकित ] कर दे कि जिससे मै आइन्दा [ आगे से] खुद</i></span><br /><span style="color: red; font-size: x-small;"><i>को दुरुस्त कर सकूँ ।</i></span><br /><br />सादर<br />-आनन्द.पाठक-<br />आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8881573028080804059.post-859347957817116842020-10-15T04:29:00.005-07:002020-10-15T04:29:55.278-07:00 उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त-73 [ सामान्य बातचीत ]<p> <b style="color: red;"> उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त--73[ सामान्य बातचीत ]</b></p><br /><span style="color: blue;">[<i> नोट - वैसे तो यह बातचीत उर्दू बह्र के मुतल्लिक़ तो नहीं है --शे’र-ओ-सुखन पर एक सामान्य बातचीत ही है </i></span><br /><i><span style="color: blue;">मगर अक़्सात के सिलसिले को क़ायम रखते हुए इसका क़िस्त नं0 दिया है कि मुस्तक़बिल में आप को इस क़िस्त</span></i><br /><i><span style="color: blue;">को ढूँढने में सहूलियत हो ]</span></i><br /><br />उर्दू शायरी में या शे’र में आप ने -<b>-<span style="color: purple;">पे --</span></b>या -<span style="color: purple;"><b>पर</b></span>--<span style="color: purple;"><b> के </b></span>-या <span style="color: purple;"><b>कर</b></span> का प्रयोग होते हुए देखा होगा ।<br /> आज इसी पर बात करते हैं<br />मेरे एक मित्र ने अपने चन्द अश’आर भेंजे । कुछ टिप्पणी भी की । ये अश’आर <span style="background-color: yellow;">बह्र-ए-ख़फ़ीफ़</span> में थे ।<br />-------------------<br /><br />2122-- 1212-- 22/112<br /><br /><i><span style="color: blue;">हँस कर भी मिला करे कोई</span></i><br /><i><span style="color: blue;">मेरे ग़म की दवा करे कोई।</span></i><br /><i><span style="color: blue;"><br /></span></i><i><span style="color: blue;">छोङ के वो चला गया मुझको ,</span></i><br /><i><span style="color: blue;">लौटने की दुआ करे कोई।</span></i><br /><br />जिस पर मैने टिप्पणी की थी<br /><br />--<span style="background-color: yellow;">हँस "कर" भी--- [ -कर की जगह -के- कर लें ]</span><br /><span style="background-color: yellow;">---छोड़ ’के’ वो चला -- [के- की जगह -कर- कर लें ]</span><br /><br />मेरे एक मित्र ने पूछा ’क्यों ?<br />यह बातचीत उसी सन्दर्भ में हो रही है ।<br />-----------------<br />3- <span style="white-space: pre;"> </span>इसी मंच पर [ शायद ]बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ के बारे में एक बातचीत की थी और ग़ालिब के एक ग़ज़ल<br /><span style="white-space: pre;"> </span>’दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है -- जो इसी बह्र में है ,पर भी चर्चा की थी । हालांकि इस बह्र के मुतल्लिक़<br /><span style="white-space: pre;"> </span>और भी कुछ बातें थी जिस पर चर्चा नहीं कर सका था । इंशा अल्लाह ,कभी मुनासिब मुक़ाम पर फिर चर्चा कर लेंगे<br /><br />अब इन अश’आर की तक़्तीअ’ पर आते है--<br /><br /> <i><span style="color: purple;"> 2 2 2 / 1 2 1 2 / 2 2 </span></i><br /><i><span style="color: purple;">हँस कर भी /मिला करे/ कोई = </span></i><br /><i><span style="color: purple;">2 1 2 2 / 1 2 1 2 / 2 2 </span></i><br /><i><span style="color: purple;">मेरे ग़म की /दवा करे /कोई।</span></i><br /><i><span style="color: purple;"><br /></span></i><i><span style="color: purple;"> 2 1 2 2 / 1 2 1 2 / 2 2</span></i><br /><i><span style="color: purple;">छोङ के वो/ चला गया /मुझको ,</span></i><br /><i><span style="color: purple;">2 1 2 2 / 1 2 1 2 / 2 2</span></i><br /><i><span style="color: purple;">लौटने की /दुआ करे /कोई।</span></i><br /><br />पहले शे’र के सदर के मुक़ाम पर <span style="color: red;">फ़ाइलातुन [ 2122] या फ़इ्लातुन [ 1 1 2 2 ]</span> नहीं आ रहा है जब कि आना चाहिए था ।अत:<br />शे’र बह्र से ख़ारिज़ है ।<br /><br /><br /><span style="background-color: yellow;">-पर- और -कर- </span>यह दोनॊ लफ़्ज़ खुल कर अपनी आवाज़ देते है यानी तलफ़्फ़ुज़ एलानिया होता है और -2- के वज़न पर लेते है ।<br /><br />यहाँ -के [ यहां -के- संबंध कारक नहीं है -जैसे राम के पिता --आप के घर ]<br /> बल्कि यह -कर - का वैकल्पिक प्रयोग है । यहाँ -पे-कहना बेहतर कि -के- कहना बेहतर का सवाल नहीं<br />साधारण बातचीत और नस्र में प्राय: -कर- और -पर- ही बोलते हैं । दोनो के अर्थ भाव बिलकुल एक है ।<br /> मगर पर शायरी में वज़न के लिहाज़ से यह दोनो ’मुख़तलिफ़’ हैं<br /><br /> । -के - अपना वज़न [-1-[ मुतहर्रिक ] और -2-[ सबब ] बह्र की माँग पर दोनों ही धारण कर सकता है<br />लेकिन - कर- /-पर- कभी -1- का वज़न धारण नहीं कर सकता । अत: जहाँ -2- के वज़न की ज़रूरत है वहाँ पर आप के पास<br />दोनों विकल्प मौज़ूद है मगर - कर/-पर- -- का प्रयोग ही वरेण्य है ।<br />जहाँ -1- की ज़रूरत है वहाँ -के-/-पे- का ही प्रयोग उचित है । बाक़ी तो शायर की मरजी है ।<br /><br />हँस कर भी ---/ में एक सबब [2] कम है अत: चलिए फिलहाल इसे -तो- से भर देते हैं । यह फ़ाइलातुन [2 1 2 2 ] तो नहीं हुआ ।<br />/हँस कर भी तो / कर देते है । -तो - से वज़न [ 2 2 2 2 ] वज़न हो गया --जो ग़लत हो गया ।<br /> फिर? -<br />कर [2]- को -के [1 ] कर देते हैं । विकल्प मौजूद है ।आप के पास<br />/हँस के भी तो /--- से 2 1 2 2 =फ़ाइलातुन = अब सही हो गया } लेकिन -तो- को यहाँ मैने भर्ती के तौर पर डाला था । जी बिल्कुल दुरुस्त । ऐसे लफ़्ज़ को<br /><br />’भरती का लफ़्ज़ " ही कहते है । भरती के शे’र और भरती के लफ़्ज़ -पर किसी और मुक़ाम पर बात करेंगे ।<br />तो फिर ?<br />कुछ नहीं --<br /><br />इसे यूँ कर देते है<br /><span style="background-color: yellow;">/मुस्करा कर / = मुस-क-रा -कर /= 2 1 2 2 </span>== फ़ाइलातुन= यह भी वज़न सही है । विकल्प आप के पास है --मरजी आप की।<br /><br />इसी प्रकार<br /><br />-/छोड़ के वो / = 2 1 2 2 = कोई कबाहत नहीं =दुरुस्त है ।<br />मगर आप के पास<br /> -के [2 ]- बजाय -कर [2] का दोनों विकल्प मौज़ूद है । कम से कम --कर - खुल कर साफ़ साफ़ आवाज़ तो देगा । और विकल्प भी है आप के पास । अपनी अपनी पसन्द है । -इस मुकाम पर -कर-<br /> ही वरेण्य है -अच्छा लगता । बाक़ी शायर की मरजी ।<br /> यानी<br />/<span style="background-color: yellow;"> छोड़ कर वो</span> / 2 1 2 2 = फ़ाइलातुन =<br /><br /><br /><br />यह सब मेरी ’राय’ है कोई "बाध्यता " नहीं और नही अरूज़ में ऐसा कूछ लिखा ही है ।<br />सादर<br /><span style="color: red;"><i> [ असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कोई ग़लत बयानी हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान दिही फ़र्मा देंगे ताकि आइन्दा खुद को दुरुस्त कर सकूँ ।</i></span><br /><br />-आनन्द.पाठक-<br />आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0