शनिवार, 11 सितंबर 2010

ग़ज़ल 029 : आशना थे ख़ुद से--

ग़ज़ल 029 : आश्ना थे ख़ुद से ......



आश्ना थे ख़ुद से ,फिर ना-आश्ना होते गये
हो भला इस इश्क़ का,हम क्या से क्या होते गये!

अश्क़-ए-ग़म बहते रहे और नक़्श-ए-पा होते गये
ज़िन्दगी के कर्ज़ सारे यूँ अदा होते गये

ना-रसाई का फ़साना क्या कहें,किससे कहें ?
मंज़िलें आयीं तो हम बे-दस्त-ओ-पा होते गये

इत्तिफ़ाकन अपनी हालत पर नज़र जब जब पड़ी
हम निगाहों में ख़ुद अपनी बे-रिदा होते गये

रेग्ज़ार-ए-आरज़ू में वक़्त वो हम पर पड़ा
राहज़न चेहरे बदल कर रहनुमा होते गये

अहल-ए-दुनिया की ज़रा देखो करम-फ़र्माइयां
आड़ में ईमां की बन्दे भी खु़दा होते गये

इश्क़ में बेताबियों की लज़्ज़तें मत पूछिए
नाला-हाये आरज़ू हर्फ़-ए-दुआ होते गये

ये कहो "सरवर" तुम्हारी इन्किसारी क्या हुई?
तुम भी दुनिया की तरह क्यों ख़ुद-नुमा होते गये?

-सरवर
बे-रिदा = बिना चादर के
ना-रसायी का =असफलता का
बे-दस्त-ओ-पा =असमर्थ/लाचार
रेग्ज़ार-ए-आरज़ू = इच्छाओं के रेगिस्तान में
इन्किसारी =ख़ाकसारी/विनम्रता
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