शनिवार, 6 मई 2017

उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 32 [बहर-ए-हज़ज की मुज़ाहिफ़ बह्रें-2]

उर्दू बहर पर एक बात चीत : क़िस्त 32 [ बहर-ए-हज़ज मुज़ाहिफ़ बह्रें-2]

Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है 

----पिछली क़िस्त में बहर-ए-हज़ज के मुज़ाहिफ़ बहर --’महज़ूफ़’ और मक़सूर की चर्चा कर चुका हूँ
-----इस क़िस्त में बहर-ए-हज़ज की मुज़ाहिफ़ बहर ----मक़्बूज़     और  मक्फ़ूफ़ की चर्चा करूँगा

मुफ़ाईलुन[ 1222] +कब्ज़ =मक़्बूज़  =मफ़ाइलुन [1212]   यह आम  ज़िहाफ़ है
मुफ़ाईलुन[ 1222] +कफ़ = मक्फ़ूफ़ =मफ़ाईलु  [1 2 2 1]  लाम मय हरकत] यूँ तो यह ज़िहाफ़ भी आम है मगर उर्दू शायरी में यह ’अरूज़/जर्ब’ के मुक़ाम पर नहीं आ सकता कारण कि इस का आखिरी हर्फ़ लाम मय हरकत है जो ब नुक़्त-ए-शायरी रवा[उचित]  नहीं है

अब बहर-ए-हज़ज के मक़्बूज़ और मक्फ़ूफ़ शकल  के मानूस और मक़्बूल बहर की चर्चा करेंगे
[क] बहर-ए-हज़ज मुरब्ब: मक़्बूज़   : क़ब्ज़ आम ज़िहाफ़ है अत: शे’र के किसी मुक़ाम पर आ सकता है
मुफ़ाइलुन-----मुफ़ाइलुन
1212------1212
उदाहरण[ डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से]
बढ़े चलो ,बढ़े चलो
बहादुरों   बढ़े  चलो
तक़्तीअ आप कर लें -आसान है इस की तक़्तीअ करना ।आप भी इसी वज़न पे शे’र कह सकते हैं --आसान है कोशिश करें।जी बिल्कुल--वज़न और बहर में शे’र कहना आसान है मगर बलाग़त--फ़साहत लताफ़त शे’रियत या तग़ज़्ज़ुल में शे’र कहना  मुश्किल है

[ख]  बहर-ए-ह्ज़ज मुसद्दस मक़्बूज़ 
मुफ़ाइलुन------मुफ़ाइलुन-----मुफ़ाइलुन
1212----------1212---------1212
उदाहरण :ऊपर के ही उदाहरण में तब्दीली कर के दिखाते है

बढ़े चलो ,डरो नहीं ,बढ़े चलो
बहादुरों विजय करो बढ़े चलो 

तक़्तीअ आप कर लें -आसान है इस की तक़्तीअ करना

[ग]  बहर-ए-हज़ज मुसम्मन मक़्बूज़
मुफ़ाइलुन----मुफ़ाइलुन-----मुफ़ाइलुन----मुफ़ाइलुन
1212---------1212--------1212--------1212
उदाहरण-ख़ुदसाख़्ता एक शे’र [ शे’रियत नहीं वज़न देखियेगा]

चढ़ान हो ,ढलाव हो पहाड़ हो जो सामने
दहाड़ दो कि दुश्मनों के दिल लगे भी काँपने

तक़्तीअ का इशारा भर कर देता हूं-तक़्तीअ आप कर लीजियेगा

चढ़ान हो/  ढलाव हो/  पहाड़ हो/  जो सामने
दहाड़ दो / कि दुश मनों / के दिल लगे /भी काँपने

[घ] बहर-ए-हज़ज मुसम्मन मक़्बूज़ सालिम अल आख़िर
मुफ़ाइलुन-----मुफ़ाईलुन-----मुफ़ाइलुन---मुफ़ाईलुन
1212----------1222--------1212-------1222

उदाहरण-एक ख़ुद साख़्ता  शे’र कहने की कोशिश करते हैं, आप भी कर सकते है -आसान है [ मयार भले न बरक़रार रखें वज़न तो बरक़रार रखेंगे]

जहाँ जहाँ तुम्हारे नक्स-ए-पा पड़े दिखे जानम
वहीं वहीं पे सजदे में सर झुका दिया हूँ  सर अपना

अब तक़्तीअ भी देख लेते हैं
1 2  1  2  / 1 2 2   2   / 1 2 1 2 /  1 2  2 2 =1212---1222---1212---1222
जहाँ जहाँ/  तुम्हारे नक/स--पा पड़े /दिखे जानम
1  2  1  2 / 1 2   2  2  /  1 2 1 2  /  1  2    2 2 =1212---1222---1212---1222
वहीं वहीं  /पे सज दे में / झुका दिया/  हूँ  सर अप ना

अब ’ कफ़’ ज़िहाफ़ [मुज़ाहिफ़ मक्फ़ूफ़----मुफ़ाईलु [1221]  कहलाता है] लेते हैं }यूँ तो ’कफ़’ एक आम ज़िहाफ़ है मगर उर्दू शायरी में इसे ’अरूज़/जर्ब’ में प्रयोग नहीं किया जाता । कारण कि-मुफ़ाईलु [1221] में आख़िरी हर्फ़ -लु- मुतहर्रिक है और उर्दू शायरी में शे’र के आखिर में ’मुतहर्रिक’ हर्फ़ नहीं लाते हैं। उर्दू शायरी का मिज़ाज ही ऐसा है। अत: हमें अरूज़ /जर्ब के मुक़ाम पर हज़ज का सालिम रुक्न [मुफ़ाईलुन 1222 ] लाना ही होगा कि शे’र में आखिरी हर्फ़ साकिन पर [यहाँ -नून है ] गिरे  
[च] बहर-ए-हज़ज मुरब्ब: मक्फ़ूफ़ सालिम अल आख़िर
मुफ़ाईलु----मुफ़ाईलुन
1221 -------1222
उदाहरण
नहीं कुछ भी  हमारा है
ख़ुदा का ही  सहारा है

तक़्तीअ आप कर लें -आसान है । इशारा कर देता हूँ

नहीं कुछ भी / हमारा है
ख़ुदा का ही / सहारा है

[छ] बहर-ए-हज़ज मुसद्दस मक्फ़ूफ़ सालिम अल आख़िर
मुफ़ाईलु---मुफ़ाईलु---मुफ़ाईलुन
1221-------1221-----12222
उदाहरण

नहीं कोई ज़माने में तिरे जैसा
नहीं कोई ज़माने में मिरे जैसा

तक़्तीअ आप कर लें-इशारा मैं कर देता हूँ

नहीं कोई/ ज़माने में / तिरे जैसा
नहीं कोई /ज़माने में  /मिरे जैसा


[ज]]  बहर-ए-हज़ज मुसम्मन मकफ़ूफ़ सालिम अल आख़िर 
मफ़ाईलु-----मफ़ाईलु------मफ़ाईलु----मफ़ाईलुन
1221-----   1221--------1221-------1222
उदाहरण- [डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से]-[मुसद्दस वाले शे’र से ही उदाहरण निकालते हुए ]

नहीं कोई ज़फ़ाकार ज़माने में तेरे जैसा
नहीं  कोई वफ़ादार ज़माने में मेरे जैसा

तक़्तीअ आप कर लें -इशारा मैं कर देता हूँ

नहीं कोई / ज़फ़ाकार / ज़माने में / तेरे जैसा

नहीं  कोई/  वफ़ादार /ज़माने में  /मेरे जैसा

अब हज़ज पर ज़िहाफ़ --’कफ़’----हज़्फ़---और ---क़स्र -----का अमल कर के देखते हैं कि क्या होता है

इस से दो अलग अलग बह्र बरामद होगी [झ ] और {त] । चूँकि किसी भी शे’र में ’महज़ूफ़’ और ’मक़्सूर’ का ख़ल्त जायज़ है तो एक ही बह्र में दिखा देते है आप की सुविधा के लिए वगरना दर हक़ीक़त ये दो मुख़्तिल्फ़ बहर हो सकती हैं

[झ] बहर-ए-हज़ज मुसम्मन मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़  
मुफ़ाईलु---मुफ़ाईलु------मुफ़ाईलु--- फ़ऊलुन
1221-----1221-------1221-------122

[त] बहर-ए-हज़ज मुसम्मन मक्फ़ूफ़ मक़्सूर 
मुफ़ाईलु---मुफ़ाईलु------मुफ़ाईलु---फ़ऊलान
1221-----1221-------1221-------1221

हम जानते हैं कि अरूज़ या जर्ब पर मुफ़ाईलु [1212] नहीं लाया जा सकता है कारण की -लाम- मय हरकत है और किसी शे’र का आख़िरी हर्फ़ ’हरकत’ पर नहीं गिरता । हाँ ’फ़ऊलुन 122] या फ़ऊलान [1221] लाया जा सकता है कारण कि लुन--या लान का आख़िरी हर्फ़ -नून- है जो  साकिन है

उदाहरण-[डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से]
[ बहर-ए-हज़ज मुसम्मन मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़ की मिसाल
मुफ़ाईलु---मुफ़ाईलु------मुफ़ाईलु--- फ़ऊलुन
1221-----1221-------1221-------122

कभी रोये ,कभी आह , भरी दिल कभी तोड़ा
सनम तेरी  मुहब्बत में  दिखाया हमें क्या क्या

तक़्तीअ आप कर लें --इशारा मैं कर देता हूँ

कभी रोये /कभी आह /भरी दिल क/भी तोड़ा
सनम तेरी /मुहब्बत ने / दिखाया ह /में क्या क्या

[नोट : बहर की माँग पर -जो जायज होगा ’मात्रा’ आप गिराते चलियेगा यानी वज़न दबाते चलियेगा

मुफ़ाईलु---मुफ़ाईलु------मुफ़ाईलु---फ़ऊलान
1221-----1221-------1221-------1221
उदाहरण-[डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के ही हवाले से]

घटा झूम के आई जो हर एक सिम्त से आज
कहीं उस परी पैकर ने बिखेरे  तो नही बाल 

तक़्तीअ आप कर लें --इशारा मै कर देता हूं~

घटा झूम / के आई जो /हर एक सिम्त /से यूँ आज
कहीं उस प /री पैकर ने/  बिखेरे  तो /नही बाल

1221  [ बड़ा दिलचस्प वाक़या आ गया। आख़िरी रुक्न --1221-- देखने में तो एक जैसा लगता है जैसे इस शे’र में और  अर्कान दिखाई दे रहे हैं। पर दोनो अलग अलग रुक्न है। सदर और हस्व का रुक्न 1221 तो मफ़ाईलु है यानी -लाम- मय हरकत जब कि जर्ब का रुक्न ’फ़ऊलान [1221] है -यानी -’नून’ साकिन है। आप को याद होगा बहुत पहले मैने कहा था कि 1221---- 2112----- 12222 -----जैसी अलामत बहुत दूर तक नहीं जाती ,गहराइयों में जाने पर यह 12222 वाली अलामत भी काम में नहीं आती । सीखने के प्रारम्भिक दौर में थोड़ी बहुत मदद करती है मगर गहराई में जाने पर मदद नहीं कर पाती । काम तो रुक्न का असल नाम ही काम आता है  --जैसे मुफ़ाईलु----फ़ऊलान --- फ़ऊलुन वग़ैरह वग़ैरह
ख़ैर--
Theoretically इस बहर की मुरब्ब: और मुसद्दस शकल हो सकती है--आप चाहें तो कोई शे’र की तबअ आज़माई [प्रयास] कर सकते हैं
यानी
मुरब्ब:
मुसद्दस :
आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा

अब अगले क़िस्त में बहर-ए-हज़ज के कुछ और मुज़ाहिफ़ बह्रों पे चर्चा करेंगे
अस्तु
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....

एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात  और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब  सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब  , अजीज  दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  का तह-ए-दिल  से मम्नून-ओ-शुक्र गुज़ार हूँ जिनकी किताबों से  कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर इतनी  बिसात कहाँ  इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में  मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस  आलिम साहिबान  के अरूज़ पर किए गए कामों का हिन्दी तर्जुमा समझिए........

[नोट् :- पिछले अक़सात  [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर  भी देख सकते हैं 

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or
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-आनन्द.पाठक-
0880092 7181