शनिवार, 23 दिसंबर 2023

बेबात की बात 03: न ख़ुदा ही मिला ,न विसाल-ए-सनम---

बेबात की बात 03: न ख़ुदा ही मिला ,न विसाल-ए-सनम---


" न ख़ुदा ही मिला न मिसाल-ए-सनम "-यह जुमला आप ने कई बार सुना होगा और सुनाया भी होगा ।

 सुनने  सामने बाक़ी जुमला पूरा कर देता है। यानी--न इधर के रहे न उधर के रहे।


 न ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम , न इधर के रहे न उधर के रहे ।


फिर दोनो किसी अन्य के लिए अफ़सोस प्रगट करते हैं।


वस्तुत: यह मिसरा एक शे’र का है --जो ज़र्ब उल मिस्ल -यानी एक कहावत की हैसियत रखता है।

 मगर यह मिसरा --एक शे’र की तरह पढ़ा जाता है । कभी कभी कोई शे’र या मिसरा इतना 

बड़ा हो जाता है कि हर ख़ास-ओ-आम [ जन साधारण ] की ज़ुबान पर रहता है जो गाहे ब गाहे 

सरजद [ प्रस्फुटित ] हो जाता है।ऐसे शे’र या मिसरा अपने शायर से बड़ा हो जाता

 और प्राय: शायर का नाम गुमनाम हो जाता है।

यह जुमला तब पढ़ते हैं जब कोई व्यक्ति एक काम को छोड़ कर लालच में दूसरे काम में लग जाता है 

और फ़िर नाकामयाब हो जाता है -तो यह जुमला पढ़ कर हम लोग अफ़सोस ज़ाहिर करते है।

हिंदी में इसी से मिलता जुलता ,एक कहावत है--

दुविधा मे दोनों गएमा

या मिली, न राम


पूरा शे’र इस प्रकार है---


गए दोनों जहान के काम से हम. न इधर के रहे न उधर के रहे

न ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम , न इधर के रहे न उधर के रहे।

     --- मिर्ज़ा सादिक़ ’शरर;--


इस शे’र में -न इधर के रहे, न उधर के रहे -- पूरा का पूरा जुमला ही -रदीफ़- है। ख़ैर।


और यह शे’र है जनाब मिरज़ा सादिक़ ’शरर’ साहब का है -मगर लोग बाग

 शायर का नाम नहीं जानते है या कम जानते हैं।


इन्तर्नेट पर इसी शे’र का दूसरा ’वर्जन ’ भी मिलता है --


न ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम , न इधर के रहे न उधर के हुए

रहे दिल में हमारे ये रंज-ओ-अलम , न इधर के हुए न उधर के हुए।

         -नामालूम--

[ रेख़्ता ने इसे किसी -नामालूम -UNKNOWN शायर के नाम से उद्धॄत किया है । ख़ैर


दूसरे शे’र में अनाम शायर ने पहले शे’र के मिसरा सानी को मिसरा ऊला बना दिया 

और --रहे - की जगह --हुए-- लिख दिया।


ख़ैर दोनो शे’र अपनी अपनी जगह बराबर के असर पज़ीर [ प्र्भावकारी ] है।


-आनन्द.पाठक--


[ नोट -- इस काविश [ प्रयास ] में या आलेख में मेरा कोई योगदान नहीं है । 

यह सारी बातें /सामग्री इन्टर्नेट पर उपलब्ध हैजिसको मै एक जगह ला कर आप लोगो 

की सुविधा और सेवा में यहाँ प्रस्तुत कर देता हूँ। मेरी कोशिश यही रहती है कि आप 

लोगों को यथा सम्भव मुस्तनद और प्रामाणिक सूचना / जानकारी  मिलती रहे--सादर\



 


बेबात की बात 02: हर शाख़ पे उल्लू बैठा है--

 बेबात की बात 02 : हर शाख़ पे उल्लू बैठा है---


" हर शाख पे उल्लू बैठा है----" यह जुमला आप ने कई बार सुना होगा और सुनाया भी होगा। जुमले के इतने ही अंश पढ़ने से सामने वाला समझ जाता है

"--अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा" । फिर सुनने-सुनाने वाला - दोनों एक व्यंग्य पूर्ण मुस्कान बिखरते है।

यह जुमला तब पढ़ते है जब किसी व्यक्ति के कारण किसी इदारा.संस्था या संगठन के अनिष्ट होने की संभावना दिखती है ।

प्राय:  इस जुमले को एक शे;र की तरह पढ़ते है --यानी

"हर शाख पे उल्लू बैठा है ,अन्जाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा !

दर असल यह  एक शे’र का --मिसरा सानी  है । असल शे’र यूँ है---- [ आगे बताऊंगा।

 बहुत से अश’आर उर्दू शायरी में "ज़र्ब उल मिस्ल " [ यानी कहावत ] की हैसियत रखते है जो हर आम-ओ-ख़ास [ जन साधारण ] के जुबान-ए-ज़द  रहता है

 जो मौक़े दर मौक़े पढ़ते रहते है । यह शे’र भी ऎसी ही एक मिसाल है। ऐसे शे’र अपने शायर से कहीं बड़े हो जाते है और शायर का नाम गौण हो जाता है । अति प्रयोग के कारण ऐसे अश’आर में मूल पाठ में विकृति  भी आ जाती है। ख़ैर----

मूल शे’र यूँ है ----

 दीवार-ए-चमन पे ज़ाग़-ओ-ज़गन, मसरूफ़ है नौह: ख्वानी में

 हर शाख़ पे उल्लू बैठा है ,अंजाम-ए-गुलिस्तां  क्या होगा ।

-कमाल सालारपुरी-

ज़ाग़ -ओ-ज़ग़न = चील कौअे

नौहाख्वानी में = रोने धोने मे

यह शे’र जनाब "कमाल सालारपुरी" साहब [ 1927-2010] का है ।

आइंदा कभी यह शे’र पढ़े तो शायर कमाल सालारपुरी साहब को एक बार ज़रूर याद कर लें।


हालाँकि इसी मौज़ू और इसी ज़मीन  पर शौक़ बहराइच का भी एक शे’र है। लोग ग़लती से ऊपर वाले शे’र को ग़लती से कभी कभी शौक़ बहराइची के नाम से भी मन्सूब [ जोड देते हैं] कर देते हैं।


बरबाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था

हर शाख़ पे उल्लू बैठा है, अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा

     -शौक़ बहराइची-

कुछ लोगों का मानना है कि दूसरा ’वर्जन’ --पहले वाले से ज़ियादा असरदार है ।ख़ैर  असल तो असल होता है।

सादर

-आनन्द पाठक-