शनिवार, 30 मई 2020

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 70 [ कसरा -ए-इज़ाफ़त और वाव-ए-अत्फ़ ]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त -70 -[ कसरा-ए-इज़ाफ़त और वाव-ए-अत्फ़ ]


[ यह  बह्र का विषय तो नहीं है पर पाठकों की सुविधा के लिए और शायरी संबंधित जानकारी 
क़िस्तवार यकजा दस्य्तयाब हो सके  ,इसीलिए इसे यहाँ पर लगा रहा हूँ --सादर ]

आप ने उर्दू शायरी में दो या दो से अधिक अल्फ़ाज़ को जुड़े हुए इस प्रकार देखे होंगे

[क]  दर्द-ए-दिल --ग़म-ए-इश्क़---वहसत-ए-दिल ---पैग़ाम-ए-हक़---ख़ाक-ए-वतन---बाम-ए-फ़लक--जल्वा-ए-हुस्न-ए-अजल --जू-ए-आब---राह-ए-मुहब्बत--- बहर-ए-बेकरां----कू-ए-उलफ़त--दर्द-ए-निहाँ --दिल-ए-नादां ---दौर-ए-हाज़िर -बर्ग-ए-गुल - बाद-ए-बहार---चिराग-ए-सहर  ---शब-ए-फ़ुरक़त---रंग-ए-महफ़िल--दिले-नादां ----साहिब-ए-ख़ाना---

और  ऐसे ही  बहुत से  ,हज़ारो अल्फ़ाज़

[ख]  ज़ौक-ओ-शौक़ ----सूद-ओ-जियाँ----ख़्वाब-ओ-ख़याल ---जान-ओ-जिगर--बादा-ओ-ज़ाम ---आब-ओ-हवा ----आब-ओ-गिल ---शे’र-ओ-सुखन-- शम्स-ओ-क़मर  ----शैख़-ओ-बिरहमन---- दैर-ओ-हरम 

  और ऐसे ही  बहुत से  ,हज़ारो अल्फ़ाज़

पहले वाले ग्रुप को ’कसरा-ए-इज़ाफ़त ’ कहते है
दूसरे वाले ग्रुप को  ’वाव-ओ-अत्फ़ ’ कहते हैं

आज हम इन्हीं दो तराक़ीब [तरक़ीब का बहुवचन ] पर बात करेंगे
इन दोनो तरक़ीबों से ग़ज़ल या शे’र की खूबसूरती बढ़ जाती है

हिंदी में  क़सरा-ए-इज़ाफ़त की जगह ’संबंध कारक ---’ जैसे -का-- के--की  का प्र्योग करते है 

दिल का दर्द ---दिल का ग़म------ख़ुदा का पैगाम--- वतन की मिट्टी---रूप की आभा---सुबह का दीया --जुदाई की शाम

 अत्फ़ की जगह -और - का प्रयोग करते है या फिर ’द्वन्द-समास ’ का 

आग और पानी----चाँद और सूरज ---मन्दिर और मसजिद ---हानि और लाभ
या फिर आग-पानी ---चाँद--सूरज----मन्दिर-मसजिद--हानि-लाभ ---जीवन-मरण--यश-अपयश --आदि

हमारे बहुत से हिंदीदाँ दोस्त कभी कभी  शे’र में या ग़ज़ल में -और- की जगह -औ’-- लिख देते हैं शायद बह्र या वज़न मिलाने के चक्कर में ।
उर्दू में -औ’ - नाम की कोई चीज़ नहीं होती । आप शे’र में ’और’ ही लिखिए --बह्र में और अपने आप वज़न ले लेगा ।

सच पूछिए तो वस्तुत: यह ’दो-या दो से अधिक फ़ारसी- अल्फ़ाज़ " जोड़ने की तरक़ीब है । और यही तरक़ीब उर्दू वालों ने भी अपना लिया । चूँकि उर्दू में अरबी फ़ारसी तुर्की हिंदी के भी बहुत से शब्द समाहित हो्ते  गए   अत" ’फ़ारसी अल्फ़ाज़ ’ की शर्त दिन ब दिन खत्म होती गई ।अब उर्दू के कोई दो या दो से अधिक अल्फ़ाज़  इसी तरक़ीब से जोड़े जाते हैं । अब तो कुछ लोग /..अरबी -अरबी- /अरबी -फ़ारसी के शब्द / यहाँ तक कि फ़ारसी-हिंदी शब्द जोड़ कर  भी इज़ाफ़त करने लगे है आजकल । जब कि अरबी में दो शब्द जोड़ने का अलग निज़ाम है । ’अलिफ़-लाम’ का निज़ाम ।बाद में चर्चा करेंगे कभी इस पर ।ख़ैर

कसरा-ए-इज़ाफ़त =इज़ाफ़त --इज़ाफ़ा शब्द से बना है  जिसका शाब्दिक अर्थ होता है वॄद्धि या बढोत्तरी और  उर्दू में जिसे ’ज़ेर’ कहते है अरबी में अरबी में उसे ’कसरा’ कहते है
दोनों का काम एक ही है । ज़ेर माने-नीचे । उर्दू में किसी हर्फ़ को हरकत [यानी आवाज़ ,स्वर देने के लिए --ज़ेर--जबर--पेश  के निशान लगाते है } ज़ेर -हर्फ़ के नीचे
’ [ छोटा सा / का निशान ] लगाते है । नीचे लगाते है इसीलिए इसे उर्दू में -ज़ेर- और अरबी में -कसरा- कहते है । यह निशान पहले लफ़्ज़ के आखिरी हर्फ़ के नीचे लगाते है 
इस तरक़ीब में जोड़े जाने वाला    पहला लफ़्ज़ संज्ञा [इस्म ] और दूसरा शब्द भी संज्ञा [ इस्म ]हो सकता है
जैसे  साहिब-ए-ख़ाना
ग़म-ए-इश्क़
सरकार-ए-हिन्द
या फिर   पहला शब्द संज्ञा [इस्म] और दूसरा शब्द विशेषण [ सिफ़त ] हो सकता है जैसे
वज़ीर-ए-आज़म
चश्म-ए-नीमबाज़
दिल-ए-शिकस्ता

 तरक़ीब जो भी हो --दूसरा लफ़्ज़ --पहले लफ़्ज़ को qualify or Modify करता है ।

  इसके भी लगाने और दिखाने के तीन नियम है ।
नियम 1-   उर्दू में दो शब्दो के जोड़ने  में अगर पहले शब्द का आखिरी हर्फ़ [ अगर  ’हर्फ़-ए-सही ’ है तो ] कसरा की अलामत ठीक उसी हर्फ़ के ’नीचे’ लगाते है  ज़ेर की शकल में ।

नियम 2- अगर उर्दू  युग्म शब्द [ जुड़ने वाले दो-अल्फ़ाज़] के पहले शब्द का आख़िरी  हर्फ़ अगर हर्फ़-ए-इल्लत का "अलिफ़’ और”वाव’  पर ख़त्म हो रहा है तो  अलिफ़ और वाव के बाद " ये’ का इज़ाफ़ा कर दिया जाता है ।

नियम 3- अगर उर्दू  युग्म शब्द [ जुड़ने वाले दो-अल्फ़ाज़] के पहले शब्द का आख़िरी  हर्फ़ अगर हर्फ़-ए-इल्लत -ई- से ख़त्म हो रहा हो तो अल्फ़ाज़ पर  ’हमज़ा और कसरा ’ लगा कर इज़ाफ़त दिखाते हैं

 [ नोट - घबराइए नहीं । आप को हर्फ़-ए-सही , हर्फ़-ए-इल्लत यह सब जानने की ज़रूरत नहीं और न ही आप इन नियमों के बारे में परेशान  हों ।वह तो बात निकली तो लिख दिया आप के विशेष जानकारी के लिए ।
 हम हिंदी वाले ,ग़ज़ल उर्दू रस्म-उल ख़त  [ लिपि ] में तो लिखते नहीं बल्कि ’देवनागरी लिपि’ में लिखते है । बस आप  समझ लें कि -कसरा-ए-इज़ाफ़त -को -ए- से दिखायेंगे अपने कलाम में ।

हिंदी में कसरा-ए-इज़ाफ़त दिखाने या लिखने  का तरीका-

आप ने [ देवनागरी लिपि में छपा ]अश’आर ज़रूर  देखा होगा --कि ऐसे तरक़ीब को  कभी कभी  ’रंगे-महफ़िल ’   --दर्दे-दिल ---ग़मे-दिल --जैसे दिखाते हैं
और कहीं कहीं इसी चीज़ को ; रंग-ए-महफ़िल ---- दर्द-ए-दिल ---ग़म-ए-दिल --के तरीक़े से भी दिखाते है ।
 तरीक़ा अलग अलग है मगर भाव और अर्थ में कोई फ़र्क़ नहीं है । यह व्यक्तिगत अभिरुचि  ज़ौक़-ओ-शौक़ का सवाल है  कि आप इसे कैसे लिख कर दिखाते हैं । इस [ - ] से ही पता चल जाता है कि
यह  शब्द ’पर कसरा इज़ाफ़त है और इस शब्द के आख़िरी हर्फ़ पर ’कसरा ’ [ यानी -ज़ेर- का निशान [अलामत ] लगा हुआ है ।

वैसे जहाँ तक मेरा सवाल  है मैं  ’ग़म-ए-दिल ’ वाली तरक़ीब ही पसन्द करता हूँ ।

एक बात और ’जानेमन ’ जान-ए-मन ? या जाने-मन ? क्या ? आप बताए ?
मैं तो यही बता सकता हूँ कि यहाँ -’मन-’  हिंदी वाला मन  mood  वाला  मन नही बल्कि फ़ारसी वाला है -मन -मतलब -Me ,Mine वाला है यानी ’मेरी जान "
अब बताइए ’ जानेमन ’ क्या ?
ख़ैर
कसरा ए-इज़ाफ़त  और  शे’र पर अमल
आप को शायद याद हो [ ------याद हो कि न याद हो ] जब अर्कान की चर्चा कर रहे तो तो एक इस्तलाह [ परिभाषा]  था --’सबब-ए-सक़ील का -" और -’सबब-ए-ख़फ़ीफ़ ’ का  । वतद-ए-मफ़रूक़ का भी ज़िक्र आया था ।
सबब-ए-सक़ील = यानी वो दो हर्फ़ी जुमला जिसमे दोनो हर्फ़ मुतहर्रिक हों । यानी  दोनो हर्फ़ों पर कोई न कोई ’हरकत [ जबर--ज़ेर---पेश ] लगे हों
मगर उर्दू ज़ुबान का मिज़ाज ऐसा कि उसके हर लफ़्ज़ का आख़िरी हर्फ़ ’साकिन’ होता है [ लफ़्ज़ का आख़िरी हर्फ़  का मुतहर्रिक  नहीं होता } तो सबब-ए-सक़ील शब्द फिर कौन से होंगे जिसमें दोनों हर्फ़ हरकत वाले हों ?

बस इसी मुक़ाम पर ’कसरा-ए-इज़ाफ़त ’ की ENTRY होती है । देखिए कैसे ?
ग़म्-ए-दिल् --
ग़म् [ 2 ]  = म् -साकिन् है
दिल् [2]   = ल् -साकिन् है
मगर जब ’ग़म-ए-दिल ’ पढ़ेंगे तो फिर -म्- पर एक हल्का सा वज़न आ जायेगा। हल्का ही सही एक भार [ सक़ील ] आ जायेगा -म्- के तलफ़्फ़ुज़ में फिर म् --साकिन न हो कर मुतहर्रिक का आभास देगा ।यानी
ग़म-ए-दिल में -ग़म-- [ 1 1 ] माना जायेगा  । इसी कसरा-ए-इज़ाफ़त की वज़ह से ।


खाक्-ए-वतन्  में
ख़ाक् = में -क्- साकिन् है
वतन् = में   -नून् =-साकिन् है
परन्तु
ख़ाक-ए-वतन्  = में  -क- मुतहारिक् का आभास दे रहा है   [ ख़ाक ----वतद-ए-मफ़रूक़= 2 1 ] इसी कसरा-ए-इज़ाफ़त की वज़ह से ।
यही बात् ’ वाव् -ए-अत्फ़् ’ के साथ भी है ।
जैसे
आब-ओ-गिल [ पानी-मिट्टी ] देखें
आब् = में -ब्- साकिन है
गिल् =ल् -साकिन है
परन्तु
आब-ओ-गिल्   =  मे -ब- मुतहर्रिक् का आभास् देगा- अत्फ़् की तरक़ीब् के कारण् [ आब ----वतद्-ए-मफ़रूक़्  2 1 ] इसी कसरा-ए-इज़ाफ़त की वज़ह से ।


एक दो  शे’र देखते हैं तो बात और साफ़ हो जायेगी --
इक़बाल साहब का एक शे’र है । आप सबने सुना होगा --सितारों के आगे जहाँ और भी हैं -- ग़ज़ल । यह  गज़ल "बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम" में है
यह  भी आप जानते होंगे । यानी   122---122 --  122 --   122 में है ।

कनाअत न कर आलम-ए-रंग-ओ- बू पर 
चमन और भी  आशियाँ  और भी  हैं 

अगर खो गया इक नशेमन तो क्या ग़म 
मुक़ामात-ए-आह-ओ- फ़ुगाँ और भी हैं 

 अब हम इसकी तक़्तीअ’ कर के देखेंगे कि ’इज़ाफ़त ’ और अत्फ़’ की  क्या भूमिका होगी ।

1   2   2    / 1 2   2     / 1  2      2    / 1  2   2
 कनाअत / न कर आ /ल  म-ए -रं /ग- ओ-  बू पर 
चमन औ /र भी  आ शियाँ  औ /र भी  हैं 

अगर खो /गया इक /  नशेमन / तो क्या ग़म 
मुक़ामा /त-ए-आ ह-ओ-/ फ़ुगाँ औ/र भी हैं 

यहाँ पर  -आलम-ए-रंग-ओ- बू  को देखते हैं । इसकी तक़्तीअ /-ल मे रं /  1 2 2 / पर की  गई है
और -मुक़ामात-ए-आह-ओ- फ़ुगाँ  की तक़्तीअ  / त आ हो / 1 2 2 / के वज़न पर की गई है

जानते हैं क्यों ?

बह्र और रुक्न की माँग पर शायर को यह इजाजत है कि वह ’कसरा-ए-इज़ाफ़त’  वाले पहले अल्फ़ाज़ के आखिरी हर्फ़ को ’खींच कर [ इस्बाअ’ ] कर पढ़े या ’ खींच कर न पढ़े "
उसी प्रकार "वाव-ओ-अत्फ़  ’ वाले पहले अल्फ़ाज़ के आख़िरी हर्फ़ को ’खींच कर [ इस्बाअ’ ] कर पढ़े या ’ खींच कर न पढ़े "
एक बात और -मुक़ामात - में -त- तो साकिन है तो मुतहर्रिक क्यों लिया ?
 इसलिए कि -त- जिस मुकाम पर है शे’र में -वह मुक़ाम मुतहर्रिक [ फ़ ऊ लुन 1 2 2  में -फ़े- के मुकाम पर है और -फ़े-मुतहर्रिक है रुक्न में   ] है और इस साकिन -त- को ]कसरा-ए-इज़ाफ़त ने उसे मुतहर्रिक कर दिया या मुतहर्रिक का आभास दे रहा है
और -ते -खींच कर नहीं पढ़ा बल्कि -त- की वज़न पर पढ़ा ।

उसी प्रकार आह-ओ-फ़ुगाँ में -ह- को खींच कर पढ़ा --हो - के वज़न पर । शायर की मरजी --शायर को इजाजत है ।
यही बात आलम-ए-रंग के साथ है और  रंग-ओ-बू के साथ है ---। वो मिला कर पढ़े या मिला कर न पढ़े --शायर की मरजी --शायर को इजाजत है ।

[ नोट- आप सभी आलिम साहिबान  से दस्तबस्ता गुज़ारिश है  कि अगर इस हक़ीर से कोई ग़लतबयानी हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशानदिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ ]

-आनन्द.पाठक-

बुधवार, 20 मई 2020

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 69 [ बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन मुज़ाहिफ़ ]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 69 [ बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन मुज़ाहिफ़ ]

किसी की ग़ज़ल का एक मतला है

नहीं उतरेगा अब कोई फ़रिश्ता  आसमाँ से 
उसे डर लग रहा  होगा  अहल-ए-जहाँ  से 

इस मतले की बह्र और अर्कान इस हक़ीर के मुताबिक़ दर्ज--ए-ज़ेल
यूँ ठहरता है ।

मुफ़ाईलुन---मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--- फ़े’लुन
1 2  2  2--- 1 2 2 2 ---1 2 2 2 ---1 2 2 
बहर-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम महज़ूफ़ 

[नोट-किसी मंच पर किसी मित्र को इस बह्र तकि जवीज पर ऐतराज़ था
उनका कहना था कि यह बह्र दुरुस्त नहीं है ऐसी कोई बह्र नहीं होती।

क्यों नही होती -? इस बात का तो उन्होने कोई सन्तोष जनक जवाब नहीं दिया।
मैं अपना जवाब आप लोगों के बीच दे रहा हूँ । आप बताएँ मेरी वज़ाहत 
कहाँ तक सही है और कहाँ तक ग़लत ?

यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है ।]

अगर मुफ़ाईलुन [1 2 2 2 ]  पर ’हज़्फ़’ का ज़िहाफ़ लगाया जाए तो फ़े’लुन [1 2 2 ] या ’फ़ऊलुन’ बरामद होगा।

हज़्फ़ का ज़िहाफ़ : अगर रुक्न के आख़िर में ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़ ’ हो [जैसे यहाँ -लुन-है ] तो उसको गिरा देना
’हज़्फ़’ का काम है और मुज़ाहिफ़ रुक्न [1 2 2]  जो बरामद होती है -को ’महज़ूफ़ ’ कहते हैं । और यह ज़िहाफ़ किसी शे’र के ’अरूज़/ज़र्ब
कि लिए मख़्सूस है [ यानी ख़ास है ।

यह ज़िहाफ़ ’ मुफ़ाईलुन’ [1 2 2 2 ] पर नहीं लगेगा ऐसी  कहीं  कोई मनाही तो नहीं ?

मुमकिन है कि मेरे मित्र को  यह बह्र किसी अरूज़ की किताब में न दिखी हो
या किसी मुस्तनद शायर का कोई कलाम  इस बहर में उनके ज़ेर-ए-नज़र न गुज़रा हो।

1-अरूज़ , बह्र का सिर्फ़ क़ायदा -क़ानून-निज़ाम  बताता है । किताबों में अरूज़ के प्रत्येक बह्र के
[ मुरब्ब: .मुसद्दस, मुसम्मन या मुज़ाहिफ़  }लिए उदाहरण देना या तफ़्सीलात पेश करना
मुमकिन नहीं है और न कोई मुसन्निफ़ [लेखक ] ऐसा करता है । अत: प्रत्येक बह्र किताबों में आ ही जाय
ज़रूरी नहीं।अत: जो बह्र किताबों में न मिले या न दिखे - वह बह्र नही हो सकती -कहना मुनासिब नहीं।

2- मेरा मानना है जबतक कोई बह्र अरूज़ के ऐन निज़ाम , के मुताबिक़ हो और क़वाईद और क़वानीन की कोई
खिलाफ़वर्जी न करता हों तो उसे बह्र मानने में किसी को एतराज़ नहीं होना चाहिए ।या जबतक अरूज़ कोई मनाही न करता हो
या कोई क़ैद न लगाता हो ,तो ऐसे बह्र में तबाज़्माई की जा सकती है ।

3- यह बात सही है कि शायरों ने ज़्यादातर कलाम "बहर-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम " या बह्र-ए-हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़ में कहें  हैं
     मेरा कहना है कि अगर बह्र-ए-हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़ जब मानूस और राइज है और शे’र या ग़ज़ल कहे जा सकते है  तो फिर इसके ’मुसम्मन महज़ूफ़’
      शकल में शे’र क्यॊं नहीं कहे जा सकते हैं ।
4- अगर शायरों ने इस बह्र [ हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़ ] में कम शायरी की तो इसका मतलब यह तो नहीं कि यह बह्र वज़ूद नहीं क़रार

     पा सकती । शायरों ने मुद्दत से "बह्र-ए-वाफ़िर" में भी कलाम पेश नहीं किए तो क्या ’बहर-ए-वाफ़िर ’  वज़ूद में नहीं होना चाहिए ?

सुधी पाठकों से अनुरोध है कि अगर कोई ग़लत बयानी हो गई हो तो बराए मेहरबानी निशान्दिही करें ,मज़ीद रोशनी डालें कि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ।
सादर

-आनन्द पाठक-