गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 43 [ बह्र-ए-वाफ़िर की सालिम बहूर]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 43 [ बह्र-ए-वाफ़िर की सालिम बहूर]

[क्षमा याचना : इस क़िस्त के विलम्ब हेतु क्षमा प्रार्थी हूँ कारण कि 1-महीने के लिए अपने गॄह जिला -" गाजीपुर" [उ0प्र0] प्रवास पर चला गया था ।  

Disclaimer Clause--वही जो क़िस्त 1 में हैं---

बह्र-ए-वाफ़िर का बुनियादी रुक्न है -- ’मफ़ा इ ल तुन ’

कामिल = मुतफ़ाइलुन = सबब-ए-सक़ील [मु त] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [फ़ा] + वतद-ए- मज्मुआ [ इलुन]  से बना है। उसी तरह
वाफ़िर = मफ़ा इ ल तुन =मफ़ा [ वतद-ए-मज्मुआ] + इ ल [ सबब-ए-सक़ील] + तुन [ सबब-ए-ख़फ़ीफ़] से बना है 
अगर आप ध्यान दे देखें तो इन दोनों बह्रों में ’वतद मज्मुआ’ का स्थान बदला है । कामिल -में यह आखिरी ’जुज’ [टुकड़ा] है जब कि वाफ़िर- में यह पहला टुकड़ा है । इसी लिए क्लासिकल अरूज़ की किताबों में ’वाफ़िर’ की चर्चा पहले की गई है जब कि कामिल-की चर्चा बाद में की गई है। ख़ैर ,इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

कामिल और वाफ़िर दोनो ही ’अरबी[ बह्रें है जो अरबी शायरी से उर्दू शायरी में आई है । जब कि दोनों ही बह्रें -अरबी शायरी की काफी मानूस और लोकप्रिय बहर हैं मगर न जाने क्यों  ’वाफ़िर’ उर्दू शायरी में उतनी लोकप्रिय न हो  सकी जितनी ’कामिल’ हुई जिसकी सालिम बह्र में अमूमन कई शायरों ने एक से बढ़ कर एक उम्दा कलाम कहे हैं। ख़ैर--
 एक दिलचस्प बात और-
ऊपर तो हमने इन दोनो रुक्न को ’वतद’ और ’सबब ’ से विश्लेषण [ तजज़िया ] कर के  दिखा दिया और सन्तोष जनक ढंग से दिखा दिया ,मगर अरब वाले इसे ’ फ़ासिला’ से दिखाते है
अब आप कहेंगे उअह ’फ़ासिला’ कहाँ से आ गया । घबराइए नहीं -  ’फ़ासिला’ पर भी एक चर्चा कर लेते हैं । हालाँ कि ज़रूरत तो नही है--मगर जानने और समझने में कोई हर्ज भी नहीं है

गुज़िस्ता अक़सात में [ [पिछले क़िस्तों में ] वतद और सबब की चर्चा चुका हूँ -
फ़ासिला - चार [4] हर्फ़ी कलमा को फ़ासिला कहते हैं 
इसके दो भेद होते है
[1] फ़ासिला-ए-सुग़रा : - वो चार हर्फ़ी कलमा जिसमे -शुरु के तीन हर्फ़ तो मुतहर्रिक [ मय हरकत ] हो और आख़िरी हर्फ़ ’साकिन’ हो। यानी [हरकत+हरकत+हरकत+साकिन] जैसे --हरकत---बरकत---अबज़द--अमजद---
उर्दू का हर ’लफ़्ज़’ आप जानते है कि हरकत से शुरू होता है[यानी पहला हर्फ़ मुतहर्रिक होता है ]  और साकिन पर ख़त्म होता है  । कहीं कहीं इसे फ़ासिला-ए-सूलत भी कहते है

[2] फ़ासिला-ए-कबरा :- वो पाँच हर्फ़ी कलमा जिसमे शुरू के तो चार हर्फ़ तो मुतहर्रिक [मय हरकत के] हों और आख़िर हर्फ़ [हर्फ़ उल आखिर] साकिन हो । ख़ैर आखिरी हर्फ़ साकिन तो होगा ही होगा। 
यानी [हरकत + हरकत+हरकत+हरकत+साकिन] कभी कभी इसे फ़ासिला-ए-ज़ब्त भी कहते है
ख़ैर--अब इस परिभाषा से  -जो अहल-ए-अरब ने बताए हैं 

बहर-ए-कामिल  = फ़ासिला-ए-सुग़रा + वतद-ए-मज्मुआ 
बहर-ए-वाफ़िर  = वतद -ए-मज्मुआ  + फ़ासिला-ए-सुग़रा

आप ध्यान से देखें तो ये दोनो बह्रें -आपस में ’बर अक्स’ [ Mirror Image] हैं
 बहर-ए-कामिल = फ़ासिला-ए-सुग़रा + वतद-ए-मज्मुआ
= [हरकत+हरकत+हरकत+साकिन] + वतद -ए-मज्मुआ
हम जानते हैं कि सबब-ए-सक़ील की परिभाषा ही है दो-हर्फ़ी कलमा जो हरकत+हरकत की बुनावट में हो
और सबब-ए-ख़फ़ीफ़ वो दो हर्फ़ी कलमा हो हरकत+साकिन की बुनावट में हो 
= [ (सबब-ए-सक़ील) + (सबब-ए-ख़फ़ीफ़)] + वतद-ए-मज्मुआ
=मु त + फ़ा + इलुन = मुतफ़ाइलुन = 1 1 212   जो बहर-ए-कामिल का बुनियादी रुक्न है । उसी तरह

बह्र-ए-वाफ़िर  = वतद-ए-मज्मुआ+ फ़ासिला सुग़रा 
= वतद-ए-मज्मुआ + [हरकत+हरकत+हरकत+साकिन]
= वतद-ए-मज्मुआ+[ सबब-ए-सक़ील+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़]
= मफ़ा                  + इ ल                 + तुन         = मफ़ा इ ल तुन = 12 112 = जो वाफ़िर की बुनियादी रुक्न है 
एक बात और - अरबी में बहुत से अल्फ़ाज़ /कलमा ऐसे हैं  जो 3-मुतहर्रिक या 4- मुतहर्रिक तक आसानी से support कर लेते है मगर उर्दू में बहुत कम ऐसे अल्फ़ाज़ है जो 3-या-4 मुतहर्रिक तक ’सपोर्ट’ करते है ।-नाम मात्र क॥

तो फिर बहर-ए-वाफ़िर में उतने अश’आर क्यों नहीं कहे गए

शायद एक कारण तो यह हो सकता है कि वाफ़िर के ’मफ़ा इ ल तुन ’  में जो बीच में तीन मुतहर्रिक [ ऐन--लाम--ते] आ गया है जो शे’र के लय /प्रवाह/आहंग को तोड़ देता है -नामानूस बना देता हो
और दूसरी बात यह कि शायरों को ’वाफ़िर’ तक आते आते इतने आहंगख़ेज़ अर्कान [जैसे रमल--हज़ज--मुतक़ारिब--मुतदारिक और इनके मुज़ाहिफ़ शक्लें ] मिल जाते है कि शायरी करने के लिए कि शायरों ने इधर कोई ख़ास ध्यान देने की ज़रूरत ही न समझी हो । मगर मैदान खुला है --मनाही नहीं है--अगर आप में इस बह्र में शायरी कर सकते है तो अच्छा ,वरना तो यह बहर फिर अरूज़ कि किताबों में ही रह जायेगी
ऊपर जो कुछ मैने लिखा [ एक दिलचस्प बात और----------से लेकर--------अरूज़ की किताबों में ही रह जायेगी----तक] बस आप की जानकारी के लिए लिख दिया वरना तो उर्दू के तमाम अर्कान ’सबब’ और वतद’ से विश्लेषित के जा सकते है ।फ़ासिला के बारे में न भी जाने तो कोई हर्ज नहीं-काम चल जायेगा। ख़ैर----

अब हम वाफ़िर के बह्र/वज़न पर चर्चा करते है
[1] वाफ़िर मुरब्ब: सालिम 
मफ़ा इ ल तुन---मफ़ा इ ल तुन  [ शे’र में 4 बार ]
12  1 1  2   ------1  2  1 1 2
  उदाहरण डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से

न चाहा कभी किसी को सनम
तुम्हारे सिवा ,तुम्हारी क़सम

तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
1  2   1  1  2 /  1  2  1  1 2
न चा हा कबी / किसी को सनम     [ चाहा के ’ह’ पर हरकत है यानी मुतहर्रिक है [1]
1 2  1   1  2  /  1 2  1 1 2
तुमा रे  सिवा / ,तुमा री क़सम       [ यहा -रे- और -री- मुतहर्रिक है [1] का वज़न है

[2] वाफ़िर मुसद्दस सालिम 
मफ़ा इ ल तुन---मफ़ा इ ल तुन -------मफ़ा इ ल तुन  [ शे’र में 6 बार ]
12  1 1  2   ------1  2  1 1 2 -------1 2  1 1  2
उदाहरण ; कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब के हवाले से

बहुत पी चुका हूँ ज़ह्र-ए-हयात पीर-ए-मुग़ाँ
ये मैकदा है शराब पिला ,शराब मुझे 

 तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
1  2    1  1 2 /  1 2  1   1 2    / 1 2 1 1  2
ब हुत पी चुका/ हूँ ज़ह्र-ए-हया /त पीर-ए-मुग़ाँ        [यहाँ ज़ह्र-ए-हयात  = ज़ह् र्- हया [ 2 1 1 2  ] का वज़न् है --र् मुतहर्रिक् हो गया आगे ’क़सरा-इज़ाफ़त की वज़ह से]
1  2     1 1 2/   1 2 1 1  2    / 1 2 1  1 2 
य मय कदा है / शरा ब पिला ,/ शरा ब मुझे

[3] वाफ़िर मुसम्मन सालिम
मफ़ा इ ल तुन---मफ़ा इ ल तुन -------मफ़ा इ ल तुन -------मफ़ा इ ल तुन  [ शे’र में 8 बार ]
12  1 1  2   ------1  2  1 1 2 -------1 2  1 1  2---------1  2  1 1  2
उदाहरण  अकबर इलाहाबादी का एक शे’र है

फ़िराक़ की शब न होगी सहर अजल से कहो कि आए इधर
अज़ाब मे हूँ निजात मिले कहाँ तलक अब सहूँ मै सितम 

तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
1  2    1   1  2    / 1 2   1 1  2   /  1  2    1  1 2  / 1   2  1 1  2
फ़िरा क़ की शब / न हो गी स हर/  अ जल से कहो /कि आ ए इ धर
1   2  1 1  2 /  1 2  1 1  2  /  1 2 1  1    2         / 12  1 1    2
अज़ा ब मे हूँ / निजा त मिले / कहाँ  त ल {क +अ) ब/ स हूँ  मै सि तम्

त लक् +अ ब्  = त ल ,कब्  [1 1 2 ] -यहाँ क् के साथ ’अलिफ़्’ का वस्ल् हो कर ’क’ -मुतहार्रिक् हो गया है जो ’ब्’ [यानी कब् [2] सबब-ए-ख़फ़ीफ़् के वज़न् पर् आ गया
तलक् = हरकत्+हरकत्+साकिन् =12 =वतद् मज्मुआ है जैसे सितम्

वाफ़िर के सालिम बह्रों का बयान ख़त्म हुआ । अगले क़िस्त में अब हम वाफ़िर की मुज़ाहिफ़ बहूर पर चर्चा करेंगे
चलते चलते एक बात और---
आप सभी पाठकों से अनुरोध है कि अगर आप की नज़र से बह्र-ए-वाफ़िर का कोई शे’र किसी उस्ताद शायर का  गुज़रे तो कॄपा कर के मुझे  ’इमेल ’ कर दें कि मैं  संकलित कर सकूं

--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....

एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात  और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब  सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब  , अजीज  दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  का  और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल  से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से  कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर में इतनी  बिसात कहाँ  इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में  मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस  आलिम साहिबान  के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........

न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्ब्त ,अदब आशना  हूँ

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or
www.urdusehindi.blogspot.com
-आनन्द.पाठक-



















 


मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

विविध 007 : एक सूचना :उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 38 [ बहर-ए-रमल की मुसम्मन मुज़ाहिफ़ बह्रें ] के अन्तर्गत

उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 38 [ बहर-ए-रमल की मुसम्मन मुज़ाहिफ़ बह्रें ] के अन्तर्गत

आइटम 11- बहर-ए-रमल मुसम्मन मश्कूल -की चर्चा करते वक़्त एक ग़लत बयानी हो गई थी -जिस की तरफ़  ध्यानाकर्षण मेरे एक  मित्र ’श्री अजय तिवारी जी" -[जो उर्दू /अरूज़ के अच्छे जानकार है  ] ने किया
अत: आप सभी से अनुरोध है उक्त आलेख निम्न संशोधन के साथ पढ़ें
[मूल आलेख में भी यह संशोधन कर दिया है ]
 मगर यह बहर तो "मुज़ारे मुसम्मन अख़रब" की बह्र है [जिसकी चर्चा मैं ’मुरक़्क़ब बहूर’ के वक़्त आने वाले क़िस्त में करेंगे ] अर्थात तस्कीन के अमल से बह्र बदल गई तो इस तस्कीन का अमल जायज नहीं है अत: ऊपर कही हुई बात रद्द की जाती है ]
बह्र-"मुज़ारिअ मुसम्मन अख़रब " की चर्चा उर्दू शायरी की बहुत मक़्बूल बहर है और तमाम शो"अरा ने इस बह्र में शायरी की है --इस बहर की चर्चा उदाहरण सहित आइनदा अक़सात में  उचित मौक़े पर करूँगा ]

इस बिन्दु की तरफ़  मेरे मित्र एवं नियमित पाठक जो अरूज़ के अच्छे जानकार है श्री अजय तिवारी जी ने ध्यान दिलाया -मैं उनका आभारी हूँ


मैं   आ0 तिवारी जी का आभारी हूँ

आनन्द.पाठक