गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 10

उर्दू बह्र पे एक बातचीत :: क़िस्त 10

  ज़िहाफ़ात
[disclaimer clause -वही जो क़िस्त 1 में था]

[ पिछली क़िस्त 09 में मैने ज़िहाफ़ात [ब0ब0 ज़िहाफ़] के बारे में ज़िक़्र किया था ]

इस मज़्मून में  ज़िहाफ़ क्या होते हैं ,कितने क़िस्म के होते है  ,उर्दू शायरी में इनकी क्या अहमियत या हैसियत है , ज़िहाफ़ात न होते तो क्या होता वग़ैरह वग़ैरह पर बातचीत करेंगे
"ज़िहाफ़" का लगवी मानी [शब्द कोशीय अर्थ] ...न्यूनता ,कमी,छन्द की मात्राओं के काट-छाँट कतर-व्योंत करना वगैरह. होता है
मगर शायरी के इस्तलाह [परिभाषा ] में किसी सालिम रुक्न की वज़न [मात्राओं] में काट-छाँट ,क़तर-ब्योंत करना .कम करने के अमल  को ज़िहाफ़ कहते हैं । ज़िहाफ़ लगाने से हमेशा मात्रा में कमी ही हो जाती है ऐसा भी नहीं है कभी कभी वज़न बढ़ भी जाता है। कैसे बढ़ जाता है इसकी चर्चा आगे करेंगे।
तसव्वुर कीजिये कि ’ज़िहाफ़’ न लगाते या ज़िहाफ़ न होता तो क्या होता ? कुछ नहीं होता । सारे शायर बस उन्हीं 7-सालिम और 12 मुरक्क़ब बहूर में शायरी करते रहते फिर शायरी में रंगा रंगी न आती ,जीवन्तता न आती विविधता न आती । बयान की वुसअत न आती ।
तसव्वुर कीजिये कि आप के ज़ेहन [दिमाग] में कोई मिसरा सरज़द [निसृत] हुआ । ज़रूरी नहीं कि मिसरा किसी बहर में ही हो। असातिज़ा शायर[ उस्ताद शायर] जो हज़ारों अश’आर कहते सुनते पढ़ते आए हैं ,मुमकिन है कि उनके मिसरे किसी बहर में ही सरज़द हों मगर जो नौ-मश्क़ [ नए नए उभरते शायर] शायर हैं उन्हे अपने मिसरे को तरासना होता है किसी ज़िहाफ़ की मदद से-किसी बहर में।
तो फिर ये ज़िहाफ़ है क्या ?
ज़िहाफ़ उर्दू शायरी में एक अमल है जो सालिम बहर की शकल और मात्राओं को बदल देता है और बहर फिर भी आहंग में रहती है
आलिम जनाब कमाल अहमद सिद्दक़ी साहब [ जो उर्दू अरूज़ के मुस्तनद [प्रामाणिक] अरूज़ी है अपनी किताब "आहंग और अरूज़" में इन ज़िहाफ़ात की संख्या 48 [अड़तालिस] बतलाई है। घबराईए नहीं। ये सारे ज़िहाफ़ात न आप को याद रखने है और न ही ये सारे ज़िहाफ़ात किसी एक सालिम् बहर पर ही लगते है। ख़ास ज़िहाफ़ात ख़ास सालिम रुक्न पर ही लगते हैं
ज़िहाफ़ के बारे में कुछ बुनियादी बातें है जो ध्यान देने योग्य हैं
1- सारे ज़िहाफ़ सारे रुक्न पर नहीं लगते । कुछ ज़िहाफ़ कुछ ख़ास रुक्न के लिए ख़ास तौर से निर्धारित है हैं[आगे आयेगा]
2-ज़िहाफ़ के अमल से सालिम रुक्न की वज़न ,शकल और नाम बदल जाते हैं और बदली हुई रुक्न[ बदली हुई शकल] को ’मुज़ाहिफ़’शकल कहते है [आगे आयेगा]
3- यह तो आप जानते ही होंगे और पिछले क़िस्तों में ] में हम बयान भी कर चुके हैं कि सालिम रुक्न -सबब-[2-हर्फ़ी लफ़्ज़]और वतद [3-हर्फ़ी लफ़्ज़] के combination से बनते हैं तो ये ज़िहाफ़ भी ’सबब’ और ’वतद’ पर ही लगते हैं । सबब पे लगने वाले ज़िहाफ़ अलग होते हैं और वतद पे लगने वाले ज़िहाफ़ अलग होते हैं।
4-कुछ ज़िहाफ़ आम होते है जो शे’र के किसी भी मुकाम [ सदर..हश्व...अरूज़...इब्तिदा...ज़र्ब] पर आने वाले रुक्न पर लगते है इसे आम ज़िहाफ़ कहते हैं
जब कि कुछ ज़िहाफ़ सिर्फ़ सदर और इब्तिदा के लिए मख़्सूस है या फिर अरूज़ या ज़र्ब मुकाम के लिए ख़ास है [सदर..हस्व...अरूज़...आदि की चर्चा पिछले क़िस्तों  में कर चुके हैं]उन्हें ख़ास ज़िहाफ़ कहते हैं
3- किसी रुक्न पर एक साथ दो ज़िहाफ़ का भी अमल हो सकता है । उसे मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ [मिश्रित ज़िहाफ़]कहते हैं ।यानी दोनो ज़िहाफ़ रुक्न पर एक साथ ही लगेंगे। यह नहीं कि सालिम रुक्न पर एक ज़िहाफ़ का अमल कर दिया और उसकी मुज़ाहिफ़ शकल मिल गई और फिर उसके बाद उस  मुज़ाहिफ़ शकल पर दूसरे ज़िहाफ़ का अमल किया ।्यह अरूज़ी लिहाज से ग़लत होगा।
ज़िहाफ़ हमेशा सालिम रुक्न पर ही लगता है टूटी-फूटी शकल पर नहीं।
4-कुछ ज़िहाफ़[11-ज़िहाफ़] तो अरबी बहर [ बह्र-ए-कामिल और बहर-वाफ़िर ] के लिए मख़्सूस हैं
5 ज़िहाफ़ का अध्याय इतना विस्तृत है  कि इस संक्षिप्त] आलेख में विस्तृत वर्णन करना संभव नहीं है फिर भी
 हम यहाँ 48 -ज़िहाफ़ के नाम न लिख कर ,चन्द मक़्बूल और मशहूर  ज़िहाफ़ का ही नाम लिख रहा हूँ जो उर्दू शायरी में  [प्रचलित] ,मक़्बूल और आहंग खेज़ है
6- ज़िहाफ़ बनाने के कुछ ख़ास नियम ,क़ायदा,.Rules निर्धारित है कि कौन सा ज़िहाफ़ रुक्न के किस स्थान से कौन से मक़ाम का मात्रा गिरायेगा या साकिन कर देगा या साकित कर देगा या उसके अमल से क्या होगा जैसे---
उदाहरण के लिए -एक ज़िहाफ़ है ’ख़ब्न" ---अगर कोई रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से शुरु होता है तो इस ज़िहाफ़ का काम है. सबब-ए-ख़फ़ीफ़ के दूसरे हर्फ़  को गिराना [ज़ाहिर है कि सबब-ए-ख़फ़ीफ़ का दूसरा हर्फ़ साकिन ही होता है]
फिर उसकी मुज़ाहिफ़ बहर के नाम में "मख्बून’ जोड़ देंगे

वैसे ही एक ज़िहाफ़ है ;कस्र’ ---- अगर कोई रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर खत्म होता है तो ज़िहाफ़ क़स्र आखिरी साकिन को साकित कर के उस से पहले वाले हर्फ़ की हरकत को साकिन कर देता है
और उसकी मुज़ाहिफ़ बहर के नाम में ’मक़्सूर’ जोड़ देंगे जैसे

या ऐसे ही एक ज़िहाफ़ है ’ख़रम’ ---अगर कोई रुक्न वतद मज़्मूआ से शुरू हो रहा है तो शुरू होने वाले पहले हर्फ़ को गिराना ’ख़रम’ कहलाता है
और फिर मुज़ाहिफ़ बहर के नाम में ’अख़रम’ जोड़ देंगे

कहने का मतलब यह कि ऐसे ही हर ज़िहाफ़ का अपना उसूल है ...नियम है ...क़ायदा है...कानून है ,जो अरूज़ की किसी किताब में आसानी से मिल जायेगा
अत: हर ज़िहाफ़ का कुछ न कुछ काम होता है जो रुक्न के किसी न किसी स्थान से वज़न का कमी कर देता है  या काट-छाँट कर देता है
मगर कुछ ज़िहाफ़ ऐसे भी है जो रुक्न के वज़न को बढ़ा भी देते हैं [ रुक्न के हर्फ़-ए-अल आखिर मे] यानी रुक्न के आखिरी हर्फ़ में इज़ाफ़ा भी कर देता है
यहाँ पर सभी ज़िहाफ़ात की चर्चा करना न मुमकिन है न मुनासिब है पर यहाँ हम कुछ ख़ास ख़ास ज़िहाफ़ की चर्चा करेंगे
ज़िहाफ़ के नाम        मुज़ाहिफ़  नाम            
ख़ब्न मख़्बून
इज़्मार मुज़्मार
ख़रम अख़रम
ख़रब अख़रब
ह्ज़्फ़ महज़ूफ़
क़तअ मक़्तूअ
कस्र मक़्सूर
क़फ़ मक़्फ़ूफ़
शकल मश्कूल
सलम असलम
शतर अशतर
बतर अबतर
कब्ज़ मक़्बूज़
वग़ैरह....वग़ैरह....वग़ैरह.....वग़ैरह....

अरूज़ में कुछ ज़िहाफ़ ’वतद" के लिए ही मख़्सूस [ख़ास  तौर से निर्धारित ] हैं जो लगेगा तो ’वतद’ पर ही लगेगा जैसे.जैसे.ख़रम..सालिम...हज़ज वग़ैरह वग़ैरह......। यह  और बात है कि वतद के भी 3-भेद [ वतद.ए-मज़्मूआ...वतद-ए-मफ़रुक़...वतद-ए-मौकूफ़ ] होते हैं और इनके लिए भी अलग अलग ’ज़िहाफ़ निर्धारित हैं ...
और कुछ ज़िहाफ़ "सबब" के लिए मख़्सूस है जो लगेगा तो सबब पर ही लगेगा ।जैसे.ख़ब्न...तय्यी...क़ब्ज़..कफ़...वग़ैरह वग़ैरह वग़ैरह ।.यह  और बात है कि सबब के भी 2-भेद [ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ और सबब-ए-सकील] होते है और इनके लिए भी अलग अलग ज़िहाफ़ निर्धारित हैं

 अब ऊपर कही हुई बातों को एक उदाहरण से स्पष्ट करते है
एक बहर है -मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम जिसका वज़न होता है ’फ़ऊलुन...फ़ऊलुन...फ़ऊलुन...फ़ऊलुन [यानी 122    122   122  122 ] .यह सालिम बहर है और ’फ़ऊलुन’-सालिम रुक्न है। "फ़ऊ लुन" --एक वतद [तीन हर्फ़ी  फ़ऊ (1 2) ] और एक सबब [दो हर्फ़ी  लुन (2)} से बना है । अब जो भी ज़िहाफ़ लगेगा वो इसी वतद और सबब पर लगेगा।
 ज़िहाफ़ के अमल से सिर्फ़ इसी बहर यानी बहर-ए-मुतक़ारिब  के 13 से ज़्यादा मुज़ाफ़िफ़ बहर बरामद की जा सकती हैं
[नोट-ध्यान रहे कि हर सालिम रुक्न =8 नं0 [फ़ऊलुन...फ़ाइलुन...फ़ाइलातुन...मफ़ाईलुन....मुसतफ़इलुन.. मुफ़ाइलतुन...मुतफ़ाइलुन...मफ़ऊलात] वतद + सबब् के combination - से ही बना है और ज़िहाफ़ भी इन्ही वतद और सबब के टुकड़े पर लगेंगे।]
अब इसी बहर में एक शे’र पढ़ते हैं.जो बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम में है...[अल्लामा इक़बाल का बड़ा ही मशहूर और दिलकश शे’र है]
122--122---122----122
सितारों के आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं

यह शे’र अरूज़ के लिहाज़ से बिल्कुल वज़न और बहर में है दुरुस्त है साथ ही साथ बहुत ही मानीख़ेज़ [अति अर्थपूर्ण] भी है

अब एक काम करते है
आखिरी रुक्न [औ] र भी हैं [1 2 2] जो शे’र के अरूज़ [मिसरा ऊला ] और इत्तिफ़ाकन शे’र के जर्ब [मिसरा सानी] के मुकाम पर वाके हुआ है में थोड़ी तब्दीली कर देते है [ अल्लामा साहिब से क्षमा याचना सहित] मे से- ’है"- हटा देते है फिर देखते है क्या होता है

122    ---122---  122----12
सितारों के आगे जहाँ और भी
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी
वज़न और बहर के लिहाज़ से यह शे’र भी दुरुस्त है
अब इसका वज़न हो गया 122---122---122---12 यानी सूरत बदल गई और वज़न बदल गया यानी आखिरी रुक्न [1 2 2] के बजाय अब [1 2 ] हो गया यानी आखिरी रुक्न पर कोई ज़िहाफ़ लग गया । जी हाँ ,और उस ज़िहाफ़ का नाम है ’हज़्फ़’ । ज़िहाफ़ "हज़्फ़" का काम है ---अगर किसी रुक्न के अन्त में सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [यहाँ पर [औ] र भी हैं 1 2 2 में "है" (2)] आता है तो "हज़्फ़’ उस सबब-ए-ख़फ़ीफ़ को साक़ित यानी शान्त कर देता है] बज़ाहिर अब मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम बहर ’मुज़ाइफ़’ बहर हो गई और इस बहर का नाम बदल जायेगा यानी ’बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़" [क्योंकि आखिरी रुक्न पर ’हज़्फ़’ का अमल है]
यही सूरत तब भी होगी जब मतला में से ’"भी’-हटा देंगे तब मतला हो जायेगा
122    122    122  12
सितारों के आगे जहाँ और हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और हैं

यानी वज़न 122---122---122--12 हो गया और बहर का नाम बज़ाहिर "मुसम्मन सालिम महज़ूफ़’ होगा । कारण वही कि आखिरी रुक्न में "हज़्फ़’ [1 2 फ़ऊ] है
यहाँ ’हज़्फ़’ -एक ख़ास ज़िहाफ़ है कारण कि यह शे’र के ’अरूज़’ और जर्ब’ मुक़ाम के लिये निर्धारित है । मिसरा ऊला का आखिरी रुक्न का मुक़ाम अरूज़ का मुकाम  है और मिसरा सानी के आखिरी रुक्न का मुकाम "जर्ब’ का मुकाम है और यह ज़िहाफ़ सिर्फ़ इन्हीं दो ख़ास मुक़ाम पर लगेगा अत: यह ख़ास ज़िहाफ़ है
अब आप के सामने अल्लामा साहब के नज़्म के 3-विकल्प है

(1)  सितारों के आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं  -----  बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम[122---122---122---122]

(2) सितारों के आगे जहाँ और भी
    अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी ----------बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़ [122---122---122---12]

(3)  सितारों के आगे जहाँ और हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और हैं --------  बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़ [122---122---122---12]

अब आप यह तय करें कि इन तीनों अश’आर में कौन सा शे’र आप को ज़्यादा पसन्द है और क्यों?
इस नज़्म के अन्य शे’र नीचे लिख रहा हूँ

सितारों के आगे जहाँ और भी है
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं

तू तायर है परवाज़ है काम तेरा
तिरे सामने आसमाँ और भी हैं

गए दिन कि तनहा था मैं अन्जुमन में
यहाँ अब मिरे राज़दाँ और भी हैं

इसी प्रकार हर उर्दू की बहर पर कोई न कोई ज़िहाफ़ लगाया जा सकता है क्योंकि बहर रुक्न से बनता है और रुक्न ’सबब [2-हर्फ़ी लफ़्ज़] और वतद [3-हर्फ़ी लफ़्ज़] ’ से बनता है  और ज़िहाफ़ इन्हीं वतद और सबब पर लगता है।ऐसे ही अन्य बहर और अन्य ज़िहाफ़ पे चर्चा की जा सकती है।
सिर्फ़ इस रुक्न पे ही अगर 8-10 ज़िहाफ़ लग सकते हैं तो आप कल्पना कर सकते है कि 8-सालिम रुक्न पर कितने ज़िहाफ़ लग सकते है और 19- उर्दू की बहरों की कितनी मुज़ाहिफ़ शकलें हो सकती हैं। मगर घबराईए नहीं । कोई भी शायर सभी बहर में शायरी नहीं करता और न ही सभी मुज़ाहिफ़ बहर में शायरी करता है । वो तो ख़ास ख़ास और मक़्बूल बहर में ही शायरी करता है और ये बहरे लगभग 200 के आस-पास बैठती हैं।
अब एक बुनियादी सवाल --
(क) क्या शायरी के लिए ’अरूज़’ का जानना ज़रूरी है?
कत्तई नहीं ,बिना अरूज़ की जानकारी के भी शायरी की जा सकती है। दर हक़ीक़त बिना मुकम्मल अरूज़ की जानकारी के भी लोग शायरी करते  हैं । अरूज़ जानना वैसे ही ज़रूरी नही है जैसे मुहम्मद रफ़ी के गाना गाने के लिए आप को संगीत की विधिवत शिक्षा लेना ज़रूरी नहीं बस आप को वही लय वही सुर वही ताल वही आलाप वही अवरोह वही आरोह मिला कर भी मुहम्मद रफ़ी के [या ऐसे ही किसी और शायर के] गाने गा सकते है। वैसे ही आप किसी उस्ताद शायर के अश’आर के लय [आहंग ] पर भी शे’र कह सकते है मगर
फिर आप को कभी ये पता न लगेगा और न ही बारीकियाँ ही पता चल पायेगी कि कमी कहाँ पर है और क्यों है या इस में और सुधार की कहाँ गुंजाईश है
(ख) क्या एक अच्छा अरूज़ी [उर्दू का छन्द शास्त्र जानने वाला] क्या एक अच्छा शायर भी होता है?
ज़रूरी नहीं कि एक अच्छा अरूज़ी -एक अच्छा शायर भी हो या एक अच्छा शायर अच्छा अरूज़ी भी हो। दोनो अलग अलग बातें हैं अगर किसी शख़्स में ये दोनों सिफ़त एक साथ  हो तो कहना ही क्या....सोने में सुहागा ...या सोने में सुगन्ध !!!

शायरी सिर्फ़ बहर--वज़न ..रुक्न...मात्रा का ही खेल नहीं असल बात तो उसके ’कथ्य’ में होती है....शे’र की बुनावट में होती है ..मुहावरो के सही प्रयोग में होता  है और यही शायर का हुनर है और यही शे’र का हुस्न है।वरना आजकल तो मंच पर हर तीसरा आदमी शायरी कर रहा है कुछ लोगों की शायरी में कथ्य और बुनावट की बात तो छोड़ ही दीजिए ..मात्रा वज़न क़ाफ़िया रदीफ़ का तो .मालिक .अल्ला अल्ला खैर सल्ला..और उस पर  तुर्रा ये कि 50-100 वाह वाह भी करते मिल जायेंगे हर मंच पर।यही कारण है कि फ़क़त तुक भिड़ा देना या तुकबन्दी कर देना ही शायरी नहीं होती।
चलते चलते----
[ नोट : और अन्त में
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उन से मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत ख़यालबन्दी या ग़लत बयानी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
अस्तु
-आनन्द.पाठक-
09413395592

शनिवार, 30 अगस्त 2014

उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 09


[Disclaimer clause --वही जो मज़मून क़िस्त 1- में था]

अहबाब-ए-महफ़िल !
    
बहुत दिनों बाद एक बार फिर इस ब्लाग पर हाज़िर हो रहा हूँ। ताख़ीर[विलम्ब] के लिए माज़रतख्वाह[क्षमा प्रार्थी] हूँ। दीगर कामों में मसरूफ़[व्यस्त] था। माहिया निगारी और तन्ज़-ओ-मिज़ाह को माइल [ आकर्षित] हो गया था ।मुझे लगा कि उर्दू बहर पर इस मज़्मून का कोई तलबगार नहीं है तो दीगर अक़्सात के लिए हौसला न हुआ । हमारे एक हिन्दीदाँ  दोस्त ने जब यह कहा कि इन मज़ामीन से वो काफी मुस्तफ़ीद हुए है और कुछ कुछ ग़ज़ल कहने का ज़ौक़-ओ-शौक़ पैदा हो रहा है तो मैं जज़्बाती हो गया कि कोई तो है जो इस मज़ामीन से मुस्तफ़ीद हो रहा है ,यही  सोच कर फिर आ गया हूँ अब ये सिलसिला चलता रहेगा। ख़ुदा इस कारफ़रमाई की तौफ़ीक़ अता करे।

पिछले क़िस्त -8 में मैने उर्दू शायरी में मुस्तमिल [इस्तेमाल में] 19- बहूर [ ब0ब0 बह्र] का ज़िक़्र किया था और उनके नाम और वज़न पर बातचीत की थी ।
www.urdu-se-hindi.blogspot.com पर देख सकते हैं

 इस से पहले कि हम इन बहूर पर बा तरतीब चर्चा करें उस से पहले ’ज़िहाफ़’ पे चर्चा करना मैं ज़रूरी समझता हूँ जिस से आइन्दा मुज़ाहिफ़ बहरें समझने में कारीं को आसानी होगी। 

  ज़िहाफ़....
 यह तो आप जानते है कि बहर ’रुक्न’ से बनती है और इसमे सालिम रुक्न 7- हैं । आप की सुविधा के लिए एक बार फिर दुहरा रहा हूँ
1- फ़ ऊ लुन      = 1 2 2 = बह्र मुतक़ारिब की बुनियादी और सालिम रुक्न है

2-फ़ा इ लुन   = 2 1  2 = बह्र मुतदारिक की बुनियादी और सालिम रुक्न है

3-मफ़ा ई लुन =   1 2 2 2 = बह्र हज़ज  की बुनियादी और सालिम रुक्न है

4- फ़ा इला तुन=  2 1 2 2 = बह्र रमल की बुनियादीौर सालिम  रुक्न है

5- मुस तफ़ इलुन= 2 2 1 2 = बह्र रजज़ की बुनियादी और सालिम रुक्न है

6- मफ़ा इल तुन = 1 2 1 1 2= बह्र वाफ़िर की बुनियादी और सालिम रुक्न है

7- मुत फ़ा इलुन = 1 1 2 1 2= बह्र कामिल की बुनियादी और सालिम रुक्न है

एक रुक्न " मफ़ ऊ ला तु" भी सालिम है मगर वो किसी बहर की बुनियादी रुक्न नहीं है इसका इस्तेमाल बहर-ए-मुक्तज़िब में करते है मगर मुज़ाहिफ़ शकल में करते हैं
कारण ? कारण यह कि इसका हर्फ़-उल-आखिर [यानी आखिरी हर्फ़ ’तु’ -पर हरकत है और उर्दू शायरी में शे’र का हर्फ़-उल-आखिर ’साकिन’ होता है .हरकत नहीं
जब हम  इसे किसी शे’र में इस रुक्न को बाँधेंगे -जैसे  मफ़ ऊ ला तु" -----मफ़ ऊ ला तु" ----मफ़ ऊ ला तु" ----मफ़ ऊ ला तु"  तो [अरूज़ और ज़र्ब] आखिरी हर्फ़ ’हरकत ’ ’तु’ पर गिरेगा जो शायरी में अरूज़ के लिहाज़ से जायज़ नहीं है इसी लिए इसे सालिम शकल में इस्तेमाल नहीं करते है

तो फिर?

या तो इसे शे’र के  दर्मियान [ इब्तिदा--हश्व..-सदर ] में इस्तेमाल कर सकते है -अरूज़ और ज़र्ब में नहीं। और अगर अरूज़ और ज़र्ब में इस्तेमाल करना ही है तो इस सालिम रुक्न की सालिम शकल के बज़ाय ’ मुज़ाहिफ़ शकल [ इस पर ज़िहाफ़ लगा कर कि आखिरी हर्फ़ साकिन हो जाय ] में इस्तेमाल करेंगे।
 आप ऊपर देखेंगे कि मैने रुक्न के सामने ’बुनियादी और सालिम’ लिखा है । मतलब यह कि इस रुक्न की "ज्यों की त्यों’ [ बिना किसी काट छांट के या रद्द-ओ-बदल के] करते है तो उसे सालिम बहर कहते है 
जैसे - बहर-ए-मुतक़ारिब मुसद्दस सालिम’ या  बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम 
या बहर-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम .... वग़ैरह वग़ैरह

आप अगर ग़ौर से देखे तो रुक्न -1 और रुक्न-2 ,पाँच हर्फ़ी [122 या 212] है जिसे ख़्म्मासी अर्कान कहते है  जब कि बाक़ी रुक्न 7-हर्फ़ी है जिसे सुबाई अर्कान[ब0ब0 रुक्न] कहते हैं । दिलचस्प बात यह है कि उर्दू शायरी में सुबाई [7-हर्फ़ी] अर्कान पहले आया जब कि ख़्म्मासी अर्कान [5-हर्फ़ी] बाद में आया । कहते है 5-हर्फ़ी अर्कान हिन्दी छन्द से आया ।

देखिये कैसे?

हिन्दी छन्द शास्त्र में गण की गणना के लिए ’दशाक्षरी सूत्र है -" यमाताराजभानसलगा" । यह आप सब जानते होंगे
यगण   = यमाता = 1 2 2 = फ़ ऊ लुन
रगण   = राजभा  = 2 1 2 = फ़ा इ लुन  

क्लासिकी अरूज़ की किताबों में यही सालिम रुक्न दिया हुआ या बताया गया है  
मगर
कमाल अहमद सिद्दक़ी साहब [ अरूज़ के उस्ताद माने जाते हैं ] ने अपनी किताब "आहंग और अरूज़" में कहा है तकीनिकी रूप से 8-हर्फ़ी बहुर भी मुमकिन है और उन्होने उस का बाक़यादा नाम भी दिया है जिसकी यहाँ पर चर्चा करना ग़ैर मुनासिब है

बहर बज़ाहिर [स्पष्ट है] रुक्न से बनते है ,रुक्न पर ज़िहाफ़ के अमल से बनते है और कभी कभी तखनीक की अमल से भी बनते हैं यह स्वयं में अलग विषय है

मुरब्ब:---मुसम्मन---मुसद्दस...मुज़ाहिफ़..किसे कहते है -पिछले अक़सात [ब0ब0 क़िस्त ] में बताया जा चुका है। एक बार फिर याद दिहानी करते हुए
मुरब्ब:  =अगर किसी मिसरा में 2-रुक्न [शे’र मे 4-रुक्न ] आते हैं तो उसे मुरब्बा: कहते हैं।[मुरब्ब: माने ही होता है वो समकोण चतर्भुज[4] जिसकी सब रेखायें बराबर हो यानी वर्गाकार
मुसद्दस = अगर किसी मिसरा में 3-रुक्न [शे’र में 6-रुक्न] आते हैं तो उसे मुसद्दस कहते हैं [मुसद्दस माने ही होता 6-पहलू वाला षट्कोण]
मुसम्मन= अगर किसी मिसरा में 4-रुक्न [शे’र में 8-रुक्न] आते है तो उसे मुसम्मन कहते है[ मुसम्मन मानी ही होता है 8-पहलू वाला यानी अष्ट्कोण]

अगर किसी शेर में 8-12-16 रुक्न आये तो? 

तो नाम तो वही रहेगा मुरब: ...मुसद्दस.....मुसम्मन   मगर उसके आगे एक शब्द ’मुज़ाअफ़’ जोड़ देते  है [मुज़ाअफ़ माने ही होता है दो-गुना करना]
अर्थात अगर किसी शे’र में 16-रुक्न है तो उसे कहेंगे -’ बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन मुज़ाअफ़ सालिम’ -या 16-रुक्नी बहर

अब सामने एक दिलचस्प पहलू आया -आप ने ध्यान नहीं दिया !
अगर किसी शे’र में 8 रुक्न है तो?

क्या यह "मुरब्ब: मुज़ाअफ़"[4x2=8]  कहलायेगा या  मुसम्मन [8] कहलायेगा?
वो तो शे’र की बुनावट देखने के बाद ही कहा जा सकता है
मुरब्ब: में हश्व नहीं होता सिर्फ़ इब्तिदा-अरूज़ और सदर-ज़र्ब होता है जब कि मुसम्मन के एक मिसरा में 2-हश्व [शे’र में 4-हश्व होते हैं]
अब आप पूछेंगे कि यह सदर----हश्व-----अरूज़---इब्तिदा----ज़र्ब क्या बला है?
जनाब ये बला नहीं हैं शे’र के हुस्न है और ये  शे’र में रुक्न के ख़ास  मुकाम के नाम है
एक मुसम्मन शे’र पढ़ता हू‘ तो ये मकामात वाज़ेह [स्पष्ट] हो जायेंगे

जिगर मुरादाबादी  का एक शे’र है

इक लफ़्ज़-ए-मुहब्बत है , अदना सा फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़, फ़ैले तो ज़माना  है

अब इसकी तक़्तीअ करते है 

221---1222   //221---1222
 सदर    / हश्व        // हश्व      / अरूज़
इक लफ़्ज़/-ए-मुहब्बत है //, अदना  ए’/ फ़साना है

  इब्तिदा  /हश्व       //  हश्व    /  ज़र्ब 
सिमटे तो/ दिले आशिक़ //,फ़ैले तो/ ज़माना  है

इस शे’र की बह्र का नाम है "हज़ज मुसम्मन अखरब’ और बीच में जो // लगाया है उसे अरूज़ी वक्फ़ा कहते है । अरूज़ी वक्फ़ा के बारे में कभी विस्तार से और अलग से बात करेंगे

मिसरा उला में 4-रुक्न है और मिसरा सानी में भी 4-रुक्न है अत: कुल मिला कर 8-रुक्न हुए तो बज़ाहिर मुसम्मन है। रुक्न 1 2 2 2 [मफ़ा ई लुन ] है जो बह्र-ए-हज़ज का बुनियादी रुक्न है तो हज़ज मुसम्मन हुआ और रुक्न 221 जो सदर और इब्तिदा के मुकाम पर है और [1 2 2 2 पर ख़र्ब का ज़िहाफ़ लगा तो शकल 2 2 1 में बदल गई यानी मुज़ाहिफ़ बहर हो गई] 

सदर और अरूज़ /या इब्तिदा और ज़र्ब के बीच जो रुक्न है वो हश्व के मुकाम  है 

अर्थात मुसम्मन बहर के एक मिसरा में 2 हश्व ,मुसद्दस बहर में 1 हश्व और मुरब्ब: बहर मे वो भी नहीं यानी कोई हश्व नहीं ।
अच्छा ,कभी आप ने सोचा है बहर में रुक्न 2..4...6....8...16 ही क्यों होते हैं  5....7....9. .रुक्न क्यों नहीं होते?? कारण आप जानते हैं । भाई शे’र में 2- मिसरा जो होते है तो 5--7--9 को कैसे divide करेंगे। हम ने तो ऐसी कोई बह्र देखी नहीं है .आप की नज़र से कभी कोई गुज़री हो तो बताईयेगा। 
 मैं इन मकामात का नाम इस लिए लिख रहा हूँ कि जब हम ज़िहाफ़ की चर्चा करेंगे तो इन का ज़िक़्र आयेगा क्योंकि कुछ ज़िहाफ़ इब्तिदा और सदर मुकाम पर आने वाले रुक्न के लिए मख़्सूस [ख़ास तौर से निर्धारित हैं] जब कि कुछ ज़िहाफ़ अरूज़ और ज़र्ब मुकाम के लिए मख़्सूस होते है\य़ानी हर ज़िहाफ़ हर मुकाम पर नहीं लगते 

एक बात और

ज़िहाफ़ सिर्फ़ रुक्न पर लगते है और रुक्न की शकल [वज़न ] बदल जाती है
आप तो जानते ही है कि रुक्न - सबब [2-हर्फ़ी लफ़्ज़ जैसे..फ़ा....लुन..मुस..मुत तफ़ ..आदि.]और वतद[ 3-हर्फ़ी लफ़्ज़ जैसे..फ़ऊ..मफ़ा..इला..इलुन.........] के combination & permutation से बनते हैं तो ज़िहाफ़ भी इन्ही सबब और वतद  [जिसकी चर्चा हम पिछले क़िस्त में कर चुके हैं ] पर ही अमल आते है और रुक्न की शकल बदल जाती है ।

चलते चलते एक बात और कह दें कि अगर इन सालिम बहर ,मुरक्क़ब बहर ,मुज़ाहिफ़ बहर ,बहर जो तखनीक के अमल से बरामद होती हैं फिर मुसम्मन...मुसद्दस..मुरब्ब; को भी जोड़ लें फिर सदर ---अरूज़--इब्तिदा--अरूज़ को भे जोड़ लें तो इन बहरों की संख्या लगभग 200 के आस पास बैठती है
कोई भी शायर इतने बहर में शायरी नहीं करता ।वो तो चन्द मक़्बूल बहर में ही शायरी करता है । कहते हैं ग़ालिब ने अपने दीवान में 19-20 किस्म के बहूर ही इस्तेमाल किए है जब कि मीर तक़ी मीर ने 28-30 क़िस्म के बहूर इस्तेमाल किए हैं

शायरी में सिर्फ़ बहर और वज़न ही नहीं ’कथन ’[content]   भी मानी रखता है 

[ नोट : और अन्त में 
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उन से मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत ख़यालबन्दी या ग़लत बयानी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अस्तु

अब ज़िहाफ़ात [ब0ब0 ज़िहाफ़] के बारे में अगले क़िस्त में चर्चा करेंगे]
जारी है...... 

-आनन्द.पाठक-
09413395592
  
 

बुधवार, 6 अगस्त 2014

ग़ज़ल 046:हिकायत-ए-ख़लिश-ए-जान-ए-बेकरार...

ग़ज़ल 046

हिकायत-ए-ख़लिश-ए-जान-ए-बेक़रार न पूछ !
शुमार-ए-शाम-ओ-सहर ऐ निगाह-ए-यार! न पूछ !

हमारे दिल की ख़बर हम से बार बार न पूछ !
जो सच कहेंगे तो गुज़रेगा ना-गवार ! न पूछ !

जो आ रही है शब-ए-ग़म वो कैसे गुज़रेगी ?
गुज़र चुकी जो मिरी शाम-ए-इन्तिज़ार, न पूछ!

शराब-ओ-शे’र-ओ-ग़ज़ल,नग़्मा-ओ-रबाब-ओ-चंग
रम-ए-नफ़स का ये सामान-ए-ऐतिबार! न पूछ !

मैं अपने सामने हूँ और नज़र नहीं आता !
गु़बार-ए-ख़ातिर-ए-हस्ती-ए-नाबकार न पूछ !

कहाँ कहाँ न मिला हम को दाग़-ए-रुस्वाई ?
दराज़-दस्ती-ए-दामान-ए-तार-तार न पूछ !

शिकस्तगी ही ता’रुफ़ को मेरे काफी है
मेरे नुमूद-ओ-हक़ीक़त ,मिरा दयार न पूछ !

विसाल हिज़्र-ए-मुसलस्सल का इस्तिआरा है
मआल-ए-वस्ल! ज़हे-रंग-ए-ख़ू-ए-यार न पूछ !

हम अह्ल-ए-दिल हैं समझते हैं राज़-ए-हस्त-ओ-बूद
खिज़ां के भेष में रंगीनी-ए-बहार ? न पूछ !

मक़ाम-ए-शौक़ में किन मंज़िलों से गुज़रा है !
ये तेरा अपना ही "सरवर"!ये जाँनिसार ! न पूछ

-सरवर
हिकायत =हाल-चाल
रबाब-ओ-चंग =साज/वाद्य यंत्र यानी ख़ुशियां
रम-ए-नफ़स =सांसों की भाग-दौड़ यानी ज़िन्दगी
नाबकार =व्यर्थता
नुमूद =धूम-धाम/शान-ओ-शौक़त/तड़क-भड़क
इस्तिआरा =मूर्त रूप/बा शक्ल
हस्त-ओ-बूद = जीवन का अस्तित्व




प्रस्तुताकर्ता
-आनन्द पाठक-
09413395592

क़िस्त 006 : चन्द माहिए : डा0 आरिफ़ हसन ख़ान के

    26
तनहा ही रहना है
जीवन भर मुझ को
अब दर्द ये सहना है
---------
27
दुशवार हुआ जीना
इश्क़ न हो रुसवा
आसान नहीं मरना
------
28
मेरा क्या जीना है
तुझ को ख़ुश देखूँ
बस एक तमन्ना है
-------
29
तू ख़ूब फले-फूले
दर्द उठाऊँ मैं
तू ख़ुशियों में झूले
--------
30
आँसू क्यों बहते हैं
हम तो तेरा हर ग़म
चुप रह कर सहते हैं
-------


प्रस्तुतकर्ता

-आनन्द.पाठक
09413395592

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

विविध 005 : एक सूचना : मैं नहीं गाता हूँ ...[गीत ग़ज़ल संग्रह]



मित्रो !
आप सभी को सूचित करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है कि आप लोगों के आशीर्वाद व प्रेरणा से मेरी चौथी किताब "मै नहीं गाता हूँ....." [ गीत गज़ल संग्रह] सद्द: प्रकाशित हुई है
3-किताबें जो प्रकाशित हो चुकी हैं

1  -शरणम श्रीमती जी ----[व्यंग्य संग्रह}

2 - अभी सम्भावना है ...[गीत ग़ज़ल संग्रह]

3 - सुदामा की खाट .....[व्यंग्य संग्रह] 

मुझे इस बात का गर्व है कि इस मंच के सभी मित्र  इन तमाम गीतों और ग़ज़लों के आदि-श्रोता रहे हैं और सबसे पहले आप लोगो ने ही इसे पढ़ा ,सुना और आशीर्वाद दिया है


मिलने और प्रकाशक का पता  ---[मूल्य 240/-]

   अयन प्रकाशन
1/20 महरौली ,नई दिल्ली- 110 030

दूरभाष 2664 5812/ 9818988613
------------------

पुस्तक के शीर्षक के बारे में कुछ ज़्यादा तो नहीं कह सकता ,बस इतना समझ लें

मन के अन्दर एक अगन है ,वो ही गाती है
मैं नहीं गाता हूँ......

इस पुस्तक की भूमिका आदरणीय गीतकार और मित्र श्री राकेश खण्डेलवाल जी ने लिखी है 
आप लोगों की सुविधा के लिए यहाँ लगा रहा हूँ ...
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कुछ बातें


कभी हिमान्त के बाद की पहली गुनगुनाती हुई सुबह में किसी उद्यान में चहलकदमी करते हुए पहली पहली किरणों को ओस की बून्दों से प्रतिबिम्बित होकर कलियों की गंध में डूबे इन्द्रधनुष देखा है आपने ? कभी पांव फ़ैलाये हुये बैठे हवा के झोंके से तितलियों के परों की सरगोशी सुनी है आपने ?तट पर किसी पेड़ की झुकी हुई पत्तियों की परछाईं से महरों की आंखमिचौली का आनन्द लिया है आपने ??

संभव है आपकी व्यस्त ज़िन्दगी में आपको समय न मिल सका हो इन सब बातों के सुनने और अनुभूत कर पाने के लिये लेकिन यह सभी बातें सहज रूप से आपको मिल जाती हैं आनन्द पाठक के गीतों में । और सबसे अहम बात तो ये है कि सब अनुभूतियाँ उनकी रचनाओं में ऐसे उतरती हैं मानो उनके अधरों से फ़िसलते हुये सुरों के सांचे में भावानायें पिघल कर शब्द बन गई हों और आप ही आप आकर बैठ गई हों.

आनन्द पाठक की प्रस्तुत पुस्तक  -"मैं नहीं गाता हूँ...." में  संकलित जो रचनायें हैं वे न केवल उनकी सूक्ष्मदर्शिता की परिचायक हैं अपितु आम ज़िन्दगी के निरन्तर उठते प्रश्नों का मूल्यांकन करने हुये समाधान की कोशिश करती हैं. वे अपने आप को समय के रचनाकार से विलग नहीं करते:-

शब्द मेरे भी चन्दन हैं रोली बने
भाव पूजा की थाली लिये आ गया
तुमको स्वीकार हो ना अलग बात है
दिल में आया ,जो भाया, वही गा गया

और बिना किसी गुट में सम्मिलित हुये सबसे अलग  अपनी आप कहने की इस प्रक्रिया में आनन्द जी पूरी तरह सफ़ल रहे हैं ।रोज की ज़िन्दगी के ऊहापोह और असमंजस की स्थितियों को वो सहज वार्तालाप में बखान करते हैं—

आजीवन मन में द्वन्द रहा मैं सोच रहा किस राह चलूँ
हर मठाधीश कहता रहता मैं उसके मठ के द्वार चलूँ
मुल्ला जी दावत देते हं, पंडित जी उधर बुलाते हैं
मन कहता रहता है मेरा, मैं प्रेम नगर की राह चलूँ

और उनके मन का कवि सहसा ही चल पड़ता है सारी राहों को छोड़ ,एक शाश्वत प्रीति के पथ पर और शब्द बुनने लगते है वह संगीत जो केवल शिराओं में गूँजता है. मन सपनों से प्रश्न करने लगता है और उन्ही में उत्तर ढूँढ़ते हुये पूछता है

तुमने ज्योति जलाई होगी , यार मेरी भी आई होगी ?

और प्रश्न बुनते हुये यह अपने आप को सब से अलग मानते हुये भी सबसे अलग होने को स्वीकृति नहीं देता
ये कहानी नई तो नहीं है मगर
सबको अपनी कहानी नई सी लगे
बस खुदा से यही हूँ दुआ मांगता
प्रीति अपनी पुरानी कभी न लगे

आनन्द जी के गीत जहाँ  अपना विवेचन और विश्लेषण ख़ुद करते हैं वहीं एक सन्देश भी परोक्ष रूप से देते जाते हैं-

मन के अन्दर ज्योति छुपी है क्यों न जगाता उसको बन्दे

और

जितना सीधी सोची थी पर उतनी सीधी नहीं डगरिया
आजीवन भरने की कोशिश फिर भी रीती रही गगरिया

आनन्द जी के गीतों में जहाँ अपने आपको  अपने समाज के आईने में देखने की कोशिश है वहीं अनुभूति की गहराईयों का अथाहपन भी. उनकी इस अनवरत गीत यात्रा में इस पड़ाव पर वे सहज होकर कहते हैं

जीवन की अधलिखी किताबों के पन्नों पर
किसने लिखे हैं पीड़ा के ये सर्ग न पूछो.


आनन्द जी की विशेषता यही है कि उनकी कलम किसी एक विधा में बँध कर नहीं रहती. जब ग़ज़ल कहते हैं तो यही आनन्द फिर ’आनन’ [तख़्ल्लुस] हो जाता है। सुबह का सूर्य चढ़ती हुई धूप के साथ जहाँ उनके मन के कवि को बाहर लेकर आता है वहीं ढलती हुई शाम का सुनहरा सुरमईपन उन्के शायर को नींद से उठा देता है और वे कहते हैं

हौसले   परवाज़  के लेकर  परिन्दे   आ  गए
उड़ने से पहले ही लेकिन पर कतर  जातें हैं क्यों?

लेकिन व्यवस्था की इस शिकायत के वावज़ूद शायर हार नहीं मानता और कहता है

आँधियों से न कोई गिला कीजिए
लौ दिए की बढ़ाते रहा कीजिए

सीधे साधे शब्दों में हौसला बढ़ाने वाली बात अपने निश्चय पर अडिग रहने का सन्देश और पथ की दुश्वारियों ने निरन्तर जूझने रहने का संकल्प देती हुई यह पंक्तियाँ आनन्द पाठक  ’आनन’ की सुलझी हुई सोच का प्रमाण देती हैं हर स्थिति में गंभीर बात को व्यंग्य के माध्यम से सटीक कहने की उनकी विशिष्ट शैली अपने आप में अद्वितीय है. स्वतंत्रता के ६७ वर्षों के बाद के भारतीय परिवेश की सामाजिक और राजनीति परिस्थितियों से पीड़ित आम आदमी के पीड़ा को सरल शब्दों में कहते हैं

जो ख्वाब हमने देखा वो ख्वाब यह नहीं है
गो धूप तो हुई है पर ताब  वो नहीं है

और अपनी शिकायतों के एवज में मिलते हुये दिलासे और अपनी  आस्थाओं  पर अडिग रहते हुए भरोसे की बातें दुहराई जाने पर उनका शायर बरबस कह उठता है

तुमको खुदा कहा है किसने? पता नहीं है
दिल ने भले कहा हो हमने कहा नहीं है.

आनन्दजी की कलम से निकले हुये गीत, गज़ल लेख और व्यंग्य अपनी आप ही एक कसौटी बन जाते हैं जिस पर समकालीन रचनाकारों को अपनी रचनाओं की परख करनी होती है. 

मेरी आनन्दजी से यही अपेक्षा है कि अपनी कलम से निरन्तर प्रवाहित होने वाली रचनाओं को निरन्तर साझा करते रहें और बेबाक़ कहते रहें

सच सुन सकोगे तुम में अभी वो सिफ़त नहीं
कैसे सियाह रात को मैं चाँदनी कहूँ  ?

शुभकामनायें
राकेश खंडेलवाल
१४२०५ पंच स्ट्रीेट
सिल्वर स्प्रिंग, मैरीलेंड ( यू.एस.ए )
+१-३०१-९२९-०५०८
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पुस्तक मिलने का पता  ...मूल्य 150/-
अयन प्रकाशन
1/20 महरौली ,नई दिल्ली 110 030
दूरभाष  011 2664 5812
मोबाईल 098189 88613

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आनन्द.पाठक
09413395592



सोमवार, 23 जून 2014

ग़ज़ल 045 :इक रिवायत के सिवा कुछ न था....

ग़ज़ल 045

इक रिवायत के सिवा कुछ न था तक़्दीर के पास
क़िब्ला-रू हो गये हम यूँ बुत-ए-तदबीर के  पास !

क्या हदीस-ए-ग़म-ए-दिल,कौन सा क़ुरान-ए-वफ़ा?
एक तावील नहीं साहेब-ए-तफ़्सीर  के पास !

दिल के आईने में क्या जाने नज़र क्या आया ?
मुद्दतों बैठे रहे हम तिरी तस्वीर के पास !

अश्क-ए-नौउमीदी-ओ-हसरत ही मुक़द्दर ठहरा
एक तोहफ़ा था यही हर्फ़-ए-गुलूगीर के पास !

गोशा-ए-सब्र-ओ-सुकूं ?हैफ़ ! न दीवार न दर!
थक के मैं बैठा रहा हसरत-ए-तामीर के पास !

हम हक़ी़कत के पुजारी थे ,गुमां-गश्त न थे
और सिर्फ़ ख़्वाब थे उस ज़ुल्फ़-ए-गिरहगीर के पास!

क्या कहें गुज़री है क्या इश्क़ में अह्ल-ए-दिल पर
रह्न-ए-शमशीर कभी और कभी ज़ंजीर के पास!

तू ने ऐ जान-ए-ग़ज़ल! यह भी कभी सोचा है ?
क़ाफ़िए क्यों न रहे "सरवर"-ए-दिल्गीर के पास !

                         -सरवर-


क़िब्ला-रू         =काबे की तरफ़ मुँह किए
बुत-ए-तदबीर =कोशिशों की मूर्ति
हदीस-ए-ग़म =ग़म की नई बात
तावील =व्याख्या/वज़ाहत
तफ़्सीर =तशरीह/व्याख्या
हर्फ़-ए-गुलूगीर =ऐसी दुख भरी बात कि गला भर आए
गोशा                         =घर का कोई कोना
ज़ुल्फ़े-गिरह्गीर = प्रेमिका/प्रेयसी
दिल्गीर =दुखी

शुक्रवार, 13 जून 2014

क़िस्त 005 : चन्द माहिए : डा0 आरिफ़ हसन ख़ान के



         21
ये दर्द सहूँ कब तक
काश ,मिरे दिल पर
अब मौत ही दे दस्तक
--------
22
तुझे दूर से चाहूँगा
जब तक ज़िन्दा हूँ
ये फ़र्ज़ निबाहूँगा
-----
23
तेरी राह सजाऊँगा
अपनी पलकों से
हर ख़ार उठाऊँगा
-------
24
अब कोई नहीं अपना
तू भी छोड़ चला
एक तेरा सहारा था
-------
25
ये दर्द सहूँगा मैं
तेरी ख़ुशी के लिए
अब अश्क पीऊँगा मैं
----
प्रस्तुत कर्ता
-आनन्द.पाठक
09413395592

गुरुवार, 22 मई 2014

ग़ज़ल 044 : लरज़ रहा है दिल....

ग़ज़ल 044

लरज़ रहा है दिल-ए-सौगवार आँखों में
खटक रही है शब-ए-इन्तिज़ार आँखों में !

ज़रा न फ़र्क़ ख़ुदी और बेख़ुदी में रहा
न जाने क्या था तिरी मयगुसार आँखों में

यह दर्द-ए-दिल नहीं,है बाज़गस्त-ए-महरुमी
ये अश्क-ए-ग़म नहीं, है ज़िक्र-ए-यार आँखों में

सुरूर-ए-ज़ीस्त से खाली नहीं ख़िज़ां हर्गिज़
मगर है शर्त  रची हो बहार आँखों में

ज़रा ज़रा से मिरे राज़ खोल देता है
छुपा है कौन मिरा राज़दार  आँखों में ?

मक़ाम-ए-शौक़ की सरमस्तियां, अरे तौबा !
सुरूर-ए-आशिक़ी दिल में ख़ुमार आँखों में

क़दम क़दम पे तिरी याद गुल खिलाती है
यह किसने भर दिया रंग-ए-बहार आँखों में?

नबर्द-आज़मा दुनिया से क्या हुआ "सरवर"
कुछ और बढ़ गया अपना वकार आँखों में !

-सरवर

लरज़ रहा है =काँप रहा  है
बाज़गस्त        =प्रतिध्वनि/गूँज
सरमस्तियां -उन्माद
नवर्द-आज़्मा =लड़ाकू
वकार -इज्ज़त

क़ाफ़िया -एक चर्चा-2



पिछले दिनों, मेरे कुछ मित्रों ने इस मंच पर अपनी कुछ ग़ज़लें पेश की थीं । कुछ ग़ज़लें वस्तुत: क़ाबिल-ए-दाद थीं। कुछ अश’आर  कामयाब और पुरअसरात भी थे । काफी लोगों ने सराहा।वाह वाह भी किया। कुछ में शे’रियत तग़ज़्ज़ुल और ख़यालात इतने उम्दा थे कि सरसरी निगाह  से ग़ज़ल में कुछ कमी मालूम नहीं हुई। हरचन्द मैने एक कमी की जानिब हल्का सा इशारा भी किया था मगर बात सही जगह नहीं पहुँची। और वो कमी थी क़ाफ़िया बन्दी की।

चाँद चाहे जितना खूबसूरत हसीन हो और उसमें दाग़ है तो उस दाग़ की गाहे-बगाहे चर्चा तो होती ही है

यह चर्चा उन पाठको के लिए है जो ग़ज़ल कहने का ज़ौक़-ओ-शौक़ फ़र्माते है और सही ग़ज़ल ,बहर .वज़न क़ाफ़िया रदीफ़ के प्रति मुहब्बत रखते हैं । आप सभी इस बात से इत्तिफ़ाक़ रखते होंगे कि ग़ज़ल ’लिखना’ तो  आसान है पर ’कहना’ मुश्किल है तुकबन्दी ग़ज़ल तो नहीं होती।

ग़ज़ल -1
तबस्सुम के बिना चेहरा किसी का खिल नहीं सकता
किसी के हुस्न का जादू  किसी  पर  चल नहीं सकता

मोहब्बत   की   निगाहों   से   सभी   को   देखनेवाला
 का फूल  दुनिया में  कहीं भी  खिल नहीं सकता
-------
--------
हमेशा   नेकियों   की   रोशनी   है   जिसकी  राहों  में
बदी की  राह पर ' घायल'  कभी वो  चल नहीं सकता 

[क़ाफ़िया ..खिल....ढल...जल...खिल...बाँधा गया है]

ग़ज़ल 2
मुझे मालूम है तुम बिन कभी दिल खिल नहीं सकता
सहन कर अब जुदाई का कभी इक पल नहीं सकता

तुम्हारा साथ तो माफ़िक बहुत इस दिल को आता है
मगर इस राह पर मैं और आगे चल नहीं सकता

-------
--------- 
वफ़ा बदनाम हो मुझको ’ख़लिश’ बर्दाश्त ना होगा
दिया इक बार जो वापस कभी ले दिल नहीं सकता

[क़ाफ़िया ...खिल...पल...साहिल...दिल..खुल...चल..बांधा गया है]

ग़ज़ल 3

दरमियां फ़ासला नहीं होता
काश ! तुम से मिला नहीं होता

चन्द रोज़ और याद आओगे
उम्र भर रतजगा नहीं होता

-----------------------
-----------------------

ख़्वाब  सच्चाइयों मैं ढलने दो
नींद में फ़ैसला नहीं होता
[क़ाफ़िया ---पता...रास्ता..आप सा...ख़ुदा..बाँधा गया है]

इन तीनों ग़ज़लों में जो एक बात common है वो है क़ाफ़िया का ठीक से न लगना] हम क्रमश: इन पर विचार करते हैं

ग़ज़ल -1 और ग़ज़ल -3

मतला में के मिसरा उला में क़ाफ़िया ’खिल’ और मिसरा सानी में ’चल’ बाँधा है .जो हमक़ाफ़िया नहीं है। शायद इस ग़ज़ल में क़ाफ़िया ’ल’[लाम] समझ लिया गया है जब कि क़ाफ़िया ’इल’ का है [ हर्फ़-ए-रवी लाम है और माकिब्ला हरकत ज़ेर की है-लाम साकिन है]
खिल के साथ मिल ...दिल...साहिल...ही आयेगा ।यदि मिसरा उला में ’चल’ बाँधा है तो मिसरा सानी में जल...फल...पल...हलचल बाँधना चाहिए था । अत: क़ाफ़िया उलझ गया।

मान लेते हैं कि मतला में क़ाफ़िया ;दिल’ और खिल’ बाँधा होता तो लाज़िम होगा कि आईन्दा अश’आर में क़ाफ़िया ’साहिल”’.....महफ़िल...मिल...ही [यानी हर्फ़-ए-रवी ’लाम’ माकिब्ला हरकत ज़ेर की] आयेगा

मान लेते हैं अगर मतला में काफ़िया ’चल....पल...बाँधा है तो लाजिमी होगा कि आइन्दा अश’आर में क़ाफ़िया ....टल..फल कल... [हर्फ़-ए-रवी ’लाम’ माकिब्ला हरकत ’जबर’ ] ही बाँधा जायेगा
क़ाफ़िया मतला से ही तय होता है

ग़ज़ल -3
इस ग़ज़ल में वहीं ग़लती है जो उपर लिखा है ।मतला के मिसरा उला में ’फ़ासला और मिसरा सानी में ’मिला’ बाँधा है।
चलिये ’फ़ासला’ को ’फ़ासिला’ पढ़ लेते हैं[उर्दू में फ़ासला को फ़ासिला: भी बोलते हैं और यही सही तलफ़्फ़ुज़ भी है जिसे शायर नें फ़ासला लिखा है -फ़ासिला लिखता तो ज़्यादा सही होता ।कम अज़ कम मिला से हमक़ाफ़िया तो हो जाता ] तो ’मिला’ क़ाफ़िया दुरुस्त है

मगर बाद के क़वाइफ़ [काफ़िया का ब0ब0] ग़लत है ।कारण वही जो ऊपर लिखा है। फ़ासिला ...मिला का हम क़ाफ़िया काफ़िला सिलसिला...वग़ैरह हो सकते है ...रतजगा..रास्ता..ख़ुदा...नहीं हो सकता ..क्योंकि ये हमक़ाफ़िया नहीं है

शायद मेरे दोस्त  ने ’आ’ का क़ाफ़िया समझ लिया\

यहाँ क़ाफ़िया ’आ’ का नहीं हैं । अलिफ़ तो सिर्फ़ हर्फ़-ए-रवी का ’वस्ल ’ है हर्फ़--ए-रवी ’ल’[लाम है]

हाँ अगर वो मतला में मिसरा उला में ’-ला’ और मिसरा सानी में ’-जा’....-गा’...-ता...’ बाँधते तो फिर बाक़ी क़वाइफ़ दुरुस्त है

हो सकता है कि मेरा ख़याल ग़लत भी हो अत:सभी  दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि मेरी ग़लत बयानी की निशान्दिही करें ताकि मैं आइन्दा अपने को सही कर सकूं।

सादर
-आनन्द.पाठक
09413395592

गुरुवार, 15 मई 2014

क़िस्त 004 : चन्द माहिए : डा0 आरिफ़ हसन खान के

16
इन हिज्र की रातों में
आग बरसती है
अकसर बरसातों में
------
17
मैं रोना भूल गया
ख़ुश्क हुईं आँखें
जिस दिन से तू बिछड़ा
-----
18
हर साँस में तू ही तू
गुल में बसी जैसे
भीनी भीनी ख़ुशबू
-------
19
तस्वीर बनाता हूँ
दिल को लहू कर के
मैं तुझ को सजाता हूँ
------
20
आकाश को छू लेता
साथ जो तू देती
क़िस्मत भी बदल देता



बुधवार, 7 मई 2014

ग़ज़ल 043:ख़ुशा-वक़्तए कि वादे कर के

ग़ज़ल 043

ख़ुशा-वक़्तए कि वादे कर के तुम हम से मुकरते थे
"यही रातें थीं और बातें थीं वो दिन क्या गुजरते थे"!

रहीन-ए-सद-निगाह-ए-शौक़ थी सब जल्वा-आराई
नज़र पड़ती थी जितनी उन पे वो उतना निखरते थे

क़यामत-ख़ेज़ वो मंज़र भी इन आँखों ने देखा है
क़यामत हाथ मलती थी जिधर से वो गुज़रते थे

यही है जिसकी चाहत में रहे गुमकर्दा-ए-मंज़िल?
यही दुनिया है सब जिसके लिए बेमौत मरते थे?

हिसार-ए-ज़ात से बाहर अजब इक और आलम था
तिरे जल्वे सिमटते थे ,तिरे जल्वे  बिखरते थे

अना की किर्चियां बिखरी पड़ी थी राह-ए-आख़िर में
ये आईने तो हमने ज़िन्दगी भर ख़ूब बरते थे

हमारी बेबसी यह है कि अब हैं खु़द से बेगाना
कभी वो दिन थे अपने आप पर हम फ़क्र करते थे

किसी के ख़ौफ़-ओ-ग़म का ज़िक्र क्या है जान-ए-फ़ुर्क़त में
वो आलम था कि हम ख़ुद अपने ही साये से डरते थे

हुई मुद्दत कि हम हैं और शाम-ए-दर्द-ए-तन्हाई
कहाँ हैं सब वो चारागर हमारा दम जो भरते थे

ख़ुदा रख़्खे सलामत तेरा जज़्ब-ए-आशिक़ी "सरवर"
सुना है वो भरी महफ़िल में तुझको याद करते थे

-सरवर

खुशा-वक़्तए =अरे वाह ! क्या ख़ूब !
रहीन-ए-सद-निगाहे शौक़ =प्यार भरी सौ नज़रों की वज़ह से
            हिसार-ए-ज़ात से = अपने आप के घेरे से
अना          =अहम
किर्चियां         =टुकड़े
हैज़ान-ए-फ़ुर्क़त = जुदाई की बेचैनी




प्रस्तोता
आनन्द.पाठक
09413395592

मंगलवार, 6 मई 2014

क़िस्त 003 : चन्द माहिए : डा0 आरिफ़ हसन ख़ान के

तू माँग के देख ज़रा
तेरी ख़ुशी के लिए
मैं जान भी दे दूँगा
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12
ये तो नहीं सोचा था
खो देंगे तुझ को
जब तुझ को चाहा था
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13
फेरी जो नज़र तू ने
आँख झपकते ही
सब मंज़र थे सूने
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14
आँधी हूँ ,बगूला हूँ
तुझ से बिछड़ कर मैं
ख़ुद आप को भूला हूँ
-------
15
शायद कोई पत्थर हूँ
ज़िन्दा जो अब तक
मैं तुझ से बिछड़ कर हूँ

क़ाफ़िया : एक चर्चा 1

अहबाब-ए-ब्लाग
आदाब
हाल ही में ,अपने ब्लाग ’गीत ग़ज़ल गीतिका’ पर दर्ज़-ए-ज़ैल एक रवायती ग़ज़ल पेश किया था


ऐसे समा गये हो ,जानम मेरी नज़र में
तुम को ही ढूँढता हूँ हर एक रहगुज़र में

इस दिल के आईने में वो अक्स जब से उभरा
फिर उसके बाद कोई आया नहीं नज़र में

पर्दा तो तेरे रुख पर देखा सभी ने लेकिन
देखा तुझे नुमायां ख़ुरशीद में ,क़मर में

जल्वा तेरा नुमायां हर शै में मैने देखा
शम्स-ओ-क़मर में गुल में मर्जान में गुहर में

वादे पे तेरे ज़ालिम हम ऐतबार कर के
भटका किए हैं तनहा कब से तेरे नगर में

आये गये हज़ारों इस रास्ते पे ’आनन’
तुम ही नहीं हो तन्हा इस इश्क़ के सफ़र में

शब्दार्थ
शम्स-ओ-क़मर में =चाँद सूरज में
मर्जान में ,गुहर में= मूँगे में-मोती में

----मेरे एक दोस्त ने सवाल उठाया कि चूँकि मतले में क़ाफ़िया मैने ’नज़र’ और ’रहगुज़र ’ बाँधा है तो आइन्दा ’अश’आर के क़वाइफ़ भी ’ज़र’ पर ही ख़त्म होने चाहिए।अत:ग़ज़ल में क़ाफ़िया ’क़मर’... गुहर..सफ़र ...ना रवा और नादुरुस्त है
मैनें अपनी जानिब से वज़ाहत पेश कर दी है जो मैं अपने ब्लाग के पाठकों की जानकारी व सुविधा के लिए यहाँ भी लगा रहा हूँ
अगर इस वज़ाहत में अगर मुझ से कोई ग़लती हो गई हो तो दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि आप मुझे ज़रूर मुतवज्जेह करायें जिस से मैं खुद को सही कर सकूँ

मैनें [जितना मुझे आता है या जितना मैं इधर-उधर से पढ़ा और समझ सका हूँ ] अपनी तरफ़ से वज़ाहत कर दी है मैं चाहूँगा कि इस मंच के अन्य आलिम मेम्बरान इस वज़ाहत पर मज़ीद रोशनी डाले तो दीगर मेम्बरान जो ग़ज़ल कहने और लिखने का ज़ौक़-ओ-शौक़ ्फ़र्माते हैं ,मुस्तफ़ीद हो सकें

आ0 ......
आदाब
पहले तो आप का शुक्रिया अदा कर दूँ कि इस ग़ज़ल को आप ने बड़ी शिद्दत और मुहब्बत से पढ़ा और अपनी राय ज़ाहिर की मतला में ’नज़र ’ के साथ ’रहगुज़र’ बाँधा है तो आने वाले अश’आर में ’ज़र’ क़ाफ़िया ही आना चाहिए
आप की निशानदिही कुछ हद तक सही है कि मतला में क़ाफ़िया अगर ’नज़र’ और रह गुज़र’ बाँधा है तो इल्तिज़ाम[लाज़िम] हो जाता है कि आईन्दा अश’आर में भी यही क़ाफ़िया ’ज़र’ मुस्तमिल हो।

ये सारा मुबहम [भ्रम] ’हिन्दी ग़ज़ल बनाम उर्दू ग़ज़ल" की है । मुस्तक़्बिल में एक मज़्मून इसी मौज़ू पर तफ़सील से राकिम करेंगे ।इन्शा अल्लाह।

फ़िलहाल ,अगर यह गज़ल उर्दू स्क्रिप्ट में लिखी गई होती तो उर्दू के निकात-ए-सुखन के मुताबिक़ इस ग़ज़ल में क़ाफ़िया ’ज़र’ नहीं ’र’ माकिब्ला जबर की हरकत  [’रे’ यहाँ हर्फ़-ए-रवी] है जो साकिन है और जो आईन्दा अश’आर में लाया भी गया है

मतला के मिसरा ऊला में नज़र को अगर उर्दू स्क्रिप्ट में लिखें तो [नून जोये रे ] से लिखेंगे यानी नज़र का ’ज़’ ज़ोये से है जब कि मिसरा सानी में रहगुज़र का ’ज़’ ’ज़े’ से है और दोनों ही मुख़्तलिफ़ हर्फ़ हैं और मुख़तलिफ़ आवाज़ भी है [ये बात दीगर है कि दोनो की सौत [आवाज़ों] में फ़र्क़ अमूमन महसूस नहीं होता और हिन्दी में सारे ’ज़’ एक जैसा ही सुनाई पड़ता है

इसी मुख़्तलिफ़ हर्फ़ की बिना पर ग़ालिब की 2-ग़ज़ल से बात वाज़ेह कर रहा हूँ

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी जुल्फ़ के सर होने तक

 जिसमें उन्होने मतला में काफ़िया "र’[हर्फ़ रे- हर्फ़-ए-रवी है और साकिन भी है] बाँधा है ’सर’ नहीं बाँधा ,सबब ये कि असर का ’स’ [अरबी वाला हर्फ़ ’से’ वाला है] जब कि ’सर’ का ’स’[हर्फ़ सीन वाला ’स’ है] और दोनो ही मुखतलिफ़ हर्फ़ हैं। इस लिए बाद में सर का क़ाफ़िया न लगा कर ’र’ का क़ाफ़िया लगाया है उन्होने।
फिर बाद में गुहर,जिगर,नज़र सहर बाँधा है जो ऐन क़वायद-ए-क़ाफ़िया के मुताबिक़ है
अगर आप बोर न हो रहे हों और अगर इजाज़त हो तो एक मिसाल और दे दूँ कि बात मज़ीद वाज़ेह हो जाय
’ग़ालिब’ का ही एक और मतला है

वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
वो शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल कहाँ

 फिर आइन्दा अश’आर में उन्होने ज़माल ख़त-ओ-ख़ाल ख़याल...वगैरह वग़ैरह बाँधा है -’साल’ नहीं तज़्वीज़ किया
कारण वही ’विसाल’ का ’स’[हर्फ़ सुवाद वाला है] जब कि ’साल’ का ’स’-हर्फ़ सीन वाला है। कहने का मतलब ये कि जब दोनों ही हर्फ़ मुखतलिफ़ है तो फिर ’र’ का क़ाफ़िया लाना जायज़ और दुरुस्त है

 अब अपनी ग़ज़ल के क़ाफ़िया पे आते है

मतला में नज़र और रहगुज़र बांधा हैं और दोनो का मक्तूबी ’ज़’ अलग अलग है नज़र का ’ज़’[ हर्फ़ ज़ोय वाला है जब कि गुज़र का ’ज़’ -हर्फ़ ’ ज़े’ वाला है और दोनो मुख़तलिफ़ है आइन्दा अश’आर मे ’र’ का ही क़ाफ़िया चलेगा ’ज़र’ का नहीं
और ’र’ यहाँ [ हर्फ़-ए-रवी है साकिन और मुक़य्यद भी है]

हाँ ,अगर मतला में ’नज़र’ के साथ मंज़र या ;मुन्तज़र’ लाता तो फिर लाज़िम होता कि ’आइन्दा अश’आर मे ’ज़र’ का ही क़ाफ़िया बाँधा जाये

ये तो रही बात निकात-ए-सुखन उर्दू ग़ज़ल की

हिन्दी ग़ज़ल में साकिन हर्फ़ का ्कोई concept नहीं है ज़्यादातर क़ाफ़िया ’सौती क़ाफ़िया’ [ सुनने के आधार पर ही बाँधते हैं या जैसा कि हिन्दी में बोला जाता है] ही बांधा जाता है
यही कारण है कि दुष्यन्त कुमार जी ’शहर’ का वज़न हिन्दी में [श हर 1-2]  में बाँधा है जब कि उर्दू वाले इसे [2-1 शह र] में बाँधते हैं

उम्मीद करता हू कि बात शायद वाज़ेह हो गई होगी । ये मेरा ज़ाती ख़याल है आप का इस से मुत्तफ़िक़ [सहमत] होना ज़रूरी नहीं

आप तो जानते है कि इल्म-ए-क़ाफ़िया खुद में एक तवील दर्स है और इधर उधर से थोड़ा बहुत मुताअला: कर सका हूँ समझ सका हूँ ,लिख दिया । हो सकता है कि मैं ग़लत भी होऊं

-आनन्द.पाठक


रविवार, 20 अप्रैल 2014

ग़ज़ल 042 : अजीब कैफ़-ओ-सुकूँ.....

ग़ज़ल 042

अजीब कैफ़-ओ-सुकूँ तेरी जुस्तजू में था
गुमां-नवर्द मैं सेहरा-ए-आरज़ू में था

न शायरी में,न ही जाम-ए-मुश्कबू में था
वो लुत्फ़ जो तिरे अन्दाज़-ए-गुफ़्तगू में था

इक उम्र मैं रहा सदफ़िक्र-ए-ला-इलाह में गुम
मगर अयाँ तू मिरी एक ज़र्ब-ए-हू में था

रहा हमेशा मुहब्बत की आबरू बन कर
वो इज़्तिराब जो मेरी रग-ए-गुलू में था

तिरे ख़याल ने कब फ़ुर्सत-ए-नज़ारा दी
हज़ार कहने को दुनिया-ए-रंग-ओ-बू में था

जहां में किसको मिला शौक़-ओ-जज़्बा-ए-मंसूर
ये  एहितिराम-ए-मुहब्बत किसू किसू में था

खु़द अपने आप से बेगाना कर गया मुझको
सुरूर-ओ-कैफ़-ए-ख़ुदी जो तिरे सुबू में था

नमाज़-ए-इश्क़ में "सरवर" कहाँ पे जा पहुँचा
वो काबा-रू था जहाँ मंज़िल-ए-वुज़ू में था !

-सरवर-
शब्दार्थ

क़ैफ़-ओ-सुकूँ =नशा और शान्ति
गुमां-नवर्द =गुमान की कश्मकश
            सहरा-ए-आरज़ू =आशा का रेगिस्तान
सद =सैकड़ों
अयाँ =जाहिर
ज़र्ब-ए-हू =दिल से निकली आवाज़
रग-ए-गुलू = गले की नस
जज़्ब-ए-मंसूर       = मंसूर की जज़्बात की तरह
                                (मंसूर एक वली जिन्होंने ’अनलहक़’ कहा था और इस अपराध में
                                 उनकी गर्दन उड़ा दी गई थी)
काबा-रू में =परम पवित्र स्थिति में
मंज़िल-ए-वुज़ू में =इबादत का पहला क़दम