मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

उर्दू बह्र पर एक बातचीत 67 : शायरी का एक ऐब : शुतुरगर्बा

उर्दू शायरी का एक ऐब : शुतुरगर्बा

डा0 शम्शुर्रहमान फ़ारुक़ी ने अपनी क़िताब " अरूज़ आहंग और बयान’ में लिखा है -

शे’र में ’ग़लती’  और”ऐब’ दो अलग अलग चीज़ हैं। ग़लती महज़ ग़लती है ।न हो तो अच्छा ।
मगर इसकी मौजूदगी में भी शे’र अच्छा हो सकता है ।जब कि ’ऐब’ एक ख़राबी है और शे’र की मुस्तकिल [स्थायी]
ख़राबी का बाइस [कारण] हो सकता है ।

शायरी [ शे’र ] में कई प्रकार के ऐब का ज़िक्र आता है जिसमें  एक ऐब " शुतुर्गर्बा का  ऐब"  भी शामिल है ।
 शुतुर्गर्बा का लग़वी [शब्द कोशीय ] अर्थ "ऊँट-बिल्ली" है यानी शायरी के सन्दर्भ में यह ’बेमेल" प्रयोग के अर्थ में किया जाता है
[शुतुर= ऊँट  और  गर्बा= बिल्ली । इसी ’शुतुर’ से शुतुरमुर्ग भी बना है । मुर्ग= पक्षी । वह पक्षी जो  पक्षियों ऊँट जैसा लगता हो या दिखता हो--]
ख़ैर

अगर आप हिन्दी के व्याकरण से थोड़ा-बह्त परिचित हों तो आप जानते हैं

उत्तम पुरुष सर्वनाम-मैं-
             एकवचन   बहुवचन
मूल रूप     मैं            हम
तिर्यक रूप मुझ         हम
कर्म-सम्प्रदान मुझे          हमें
संबंध     मेरा,मेरे,मेरी     हमारा.हमारे.हमारी

मध्यम पुरुष सर्वनाम-’तू’
           एकवचन बहुवचन
मूल रूप               तू तुम
तिर्यक रूप    तुझ तुम
कर्म-सम्प्रदान    तुझे तुम्हें
संबंध तेरा-तेरे--तेरी तुम्हारे-तुम्हारे-तुम्हारी


अन्य  पुरुष सर्वनाम-’वह’-
            एकवचन बहुवचन
मूल रूप            वह वे
तिर्यक रूप    उस उन
कर्म-सम्प्रदान    उसे उन्हें
संबंध उसका-उसकी-उसके उनका-उनके-उनकी

अन्य पुरुष सर्वनाम-यह-
           एकवचन बहुवचन
मूल रूप            यह ये
तिर्यक रूप    इस इन
कर्म-सम्प्रदान     इसे इन्हें
संबंध इसका-इसकी-इसके/ इनका-इनकी-इनके

कभी कभी शायरी में बह्र और वज़न की माँग पर हम लोग -यह- और -वह- की जगह -ये- और -वो- वे- का भी प्रयोग ’एकवचन’
के रूप में करते है -जो भाव के सन्दर्भ के अनुसार सही होता है
शे’र में एक वचन-बहुवचन का पास [ख़याल] ्रखना चाहिए । व्याकरण सम्मत होना चाहिए।यानी शे’र में सर्वनाम की एवं तत्संबंधित क्रियाओं में  "एक रूपता" बनी रहनी चाहिए
ख़ैर
दौर-ए-हाज़िर [वर्तमान समय ] में नए शायरों के कलाम में यह दोष [ऐब] आम पाया जाता है । अजीमुश्शान शायर [ प्रतिष्ठित शायर] के शे’र भी ऐसे
ऐब से  अछूते नहीं रहे हैं। हालाँ कि ऐसे उदाहरण इन लोगों के कलाम में बहुत कम इक्का-दुक्का ही मिलते है ।
’ग़ालि’ब’ का एक मशहूर शे’र है। आप सबने सुना होगा।

मैने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक
-ग़ालिब-

इस शे’र में बह्र और वज़न के लिहाज़ से कोई ख़राबी  नहीं है मगर ’शुतुरगर्बा’ का ऐब है। कैसे ?
पहले मिसरा में "मैनें और दूसरे मिसरा में ’हम’ --जो अज़ रूए-क़वायद [ व्याकरण के हिसाब से ] दुरुस्त नहीं है
अगर शे’र में ’मैने’ की जगह ’हमने" कह दिया जाय तो फिर यह शे’र ठीक हो जाएगा । हो सकता है कि ग़ालिब के किसी मुस्तनद दीवान
[प्रामाणिक दीवान ] में शायद यही  सही रूप  लिखा हो ।”
’मोमिन’ की एक मशहूर ग़ज़ल है --जिसे आप सभी ने सुना होगा । ---तुम्हें याद हो कि न याद हो ---। नहीं नहीं मैं आप की बात नहीं कर रहा हूँ । यह तो उस ग़ज़ल की ’रदीफ़’ है । इस ग़ज़ल को कई गायकों ने अपने बड़े ही दिलकश अन्दाज़ में गाया है
यदि आप ने इस ग़ज़ल के मक़्ता पर कभी ध्यान दिया हो तो मक़्ता यूँ है

जिसे आप कहते थे आशना,जिसे आप कहते थे बावफ़ा
मैं वही हूँ मोमिन-ए-मुब्तिला ,तुम्हें याद हो कि न याद हो 
-मोमिन-

यह शे’र बह्र-ए-कामिल की एक खूबसूरत मिसाल है । इस शे’र में भी बह्र और वज़न के हिसाब से कोई नुक़्स नहीं है
पहले मिसरा में ’आप’ और दूसरे मिसरा में ’तुम्हें’ --यह शुतुरगर्बा का ऐब है
मगर यह कलाम इतना कर्ण-प्रिय , दिलकश और मक़्बूल है कि  हम लोगों का ध्यान इस तरफ़ नहीं जाता ।
मगर ऐब है तो है --और चला  आ रहा है ।
[नोट - अगर मिसरा सानी मे थोड़ी सी तरमीम कर दी जाये तो मेरे ख़याल से मिसरा सही हो जायेगा
 जिसे तुम भी कहते थे  आशना  ,जिसे तुम भी कहते थे बावफ़ा 
’आप ’ [ 2 1] की जगह ’तुम भी [ 2 1 ]   यानी  ’भी ’   मुतहर्रिक ---मेरे ख़याल से वज़न और बह्र अब भी बरक़रार है ] शे’र की तासीर में क्या फ़र्क पड़ा -नहीं मालूम ]


एक बात और
सिर्फ़ असंगत सर्वनाम के प्रयोग या वचन  के प्रयोग से ही यह ’ऐब’ होता हो नहीं । कभी कभी इससे सम्बद्ध ’क्रियाओं’ के असंगत प्रयोग से भी यह दोष उत्पन्न होता है
ग़ालिब का ही एक शे’र लेते हैं

वादा आने का वफ़ा कीजिए ,यह क्या अन्दाज़ है 
तुम्हें क्या सौपनी है अपने घर की दरबानी मुझे ?
-ग़ालिब-

मिसरा उला  मे "कीजिए" से ’आप’ का बोध हो रहा है जब कि मिसरा सानी में ’तुम्हें’ -कह दिया
है न असंगत प्रयोग ? जी हां ,यहाँ शुतुर गर्बा का ऐब है ।

 एक मीर तक़ी मीर का शे’र देखते हैं

ग़लत था आप से  ग़ाफ़िल गुज़रना
न समझे हम कि इस क़ालिब में तू था 
-मीर तक़ी मीर-

वही ऐब । पहले मिसरे में ’आप’ और दूसरे मिसरे में ’तू’ " ग़लत है ।ऐब है॥शुतुरगर्बा ऐब।

 अगर आप क़दीम [पुराने ] शो’अरा के कलाम इस नुक़्त-ए-नज़र से देखेंगे तो  ऐसे ऐब आप को भी नज़र आयेंगे।

किसी का ’ऐब’ देखना कोई अच्छी बात तो नहीं ।मगर हाँ -- ऐसे दोष को देख कर आप अपने शे’र-ओ-सुखन में इस दोष से बच सकते हैं
और ख़ास कर अपने नौजवान साथियों से ,शायरों से यह निवेदन है कि अपने कलाम में शे’र-शायरी में ऐसे ’ऐब’ से बच सकें।

सादर
-आनन्द.पाठक-

गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 66 [ अल्लामा इक़बाल की एक ग़ज़ल की तक़्तीअ’ बह्र-ए-कामिल]

इक़बाल साहब की एक बहुत मशहूर ग़ज़ल है 

कभी हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में
तरब-आशना-ए-ख़रोश हो तो नवा है महरम-ए-गोश हो
वो सरोद क्या कि छुपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ए-साज़ में
तू बचा बचा के रख इसे तिरा आइना है वो आइना
कि शिकस्ता हो तो अज़ीज़-तर है निगाह-ए-आइना-साज़ में
दम-ए-तौफ़ किरमक-ए-शम्अ ने ये कहा कि वो असर-ए-कुहन
तिरी हिकायत-ए-सोज़ में मिरी हदीस-ए-गुदाज़ में
कहीं जहाँ में अमाँ मिली जो अमाँ मिली तो कहाँ मिली
मिरे जुर्म-ए-ख़ाना-ख़राब को तिरे अफ़्व-ए-बंदा-नवाज़ में
वो इश्क़ में रहीं गर्मियाँ वो हुस्न में रहीं शोख़ियाँ
वो ग़ज़नवी में तड़प रही वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ मैं
मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा
तिरा दिल तो है सनम-आश्ना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में
[रेख्ता के सौजन्य से ]
शब्दार्थ 
1-ईश्वरीय प्रेम का साधक 5- ईश्वर की नज़र में 
2-सांसारिक प्रेम का चोला 6-शरण ,शान्ति
3-श्रद्धानत माथा 7-गुनाह
4-टूटा  8-क्षमा करुणा कॄपा
9- ग़ज़नवी के एक नजदीक़ी गुलाम ’अयाज़’ के घुँघराले बालों में 

यह ग़ज़ल बहुत ही फ़लसफ़ाना और बुलन्द मयार का है
----    ----

मेरे एक मित्र ने अनुरोध किया था कि "उर्दू बह्र पर एक बातचीत: क़िस्त8 में वर्णित
बह्र-ए-कामिल कुछ ख़ास समझ में नहीं आया और कहीं कहीं उन्हें कुछ समझने में दुविधा
भी थी ।
मैने सोचा कि बह्र-ए-कामिल की तफ़्सीलात किसी ख़ास ग़ज़ल से की जाय तो शायद मेरे मित्र को
बह्र-ए-कामिल समझने में कुछ सुविधा हो ।
इस लिए मैने अल्लामा इक़बाल साहब की एक मशहूर ग़ज़ल --कभी ऎ हक़ीक़त-ए-मुन्तज़िर---" लिया है
जो बह्र-ए-कामिल की एक उम्दा मिसाल है ।
यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है ।...
...
 अरूज़ में निम्न लिखित दो बह्रें  ऐसी हैं जो अरबी अदब -ओ-अरूज़ से उर्दू शायरी में आई है
1-बह्र-ए-कामिल जिसका बुनियादी रुक्न ’मु त फ़ाइलुन [ 1 1 212 ] है और जिसमें  -मीम [1]- और -ते [1]- मुतहर्र्रिक हैं यानी इन दोनो हरूफ़ पर ’हरकत’ है 
2-बह्र-ए-वाफ़िर  जिसका बुनियादी  रुक्न ’मफ़ा इ ल तुन [ 12 1 1 2 ] है जिसमें -ऐन[1]- और -लाम[1]-मुतहर्रिक है यानी इन दोनों हरूफ़ पर ’हरकत’ है 

इन दोनों बह्र के बाबत  कुछ दिलचस्प बातें भी है ।दर्ज-ए-ज़ैल है [नीचे लिखी हैं]
[1] यह दोनो बह्रें अरबी  अरूज़ से आईं हैं
[2] क्लासिकल अरूज़ के 8-सालिम अर्कान में यही दो अर्कान ऐसे हैं जिसमे ’दो मुतहर्रिक’[ 1 1 ] एक साथ आते हैं
[3] यही दो अर्कान ऐसे है जिसमें ’फ़ासिला’ का प्रयोग करना पड़ता है वरना सभी रुक्न में "वतद और सबब’ से काम चल जाता है । काम तो ख़ैर वतद और सबब से इस में भी चल जायेगा
      [ फ़ासिला --वो चार हर्फ़ी कलमा जिसमे हरूफ़ ’हरकत +हरकत+हरकत+ साकिन" के क्रम में हो उसे "फ़ासिला सग़रा" कहते हैं जैसे शब्द "हरकत" खुद ही फ़ासिला सुग़रा है।इसी प्रकार ’बरकत’ भी
  फ़ासिला की एक शकल और है जिसे "फ़ासिला कबरा" कहते है जिसमे 5-हरूफ़ एक् साथ [ हरकत+हरकत+हरकत+हरकत+साकिन] वाले कलमा हो । उर्दू शायरी "फ़ासिला कबरा" को
सपोर्ट नहीं करती।ख़ैर
[4] उर्दू शायरी में जो ज़िहाफ़ात लगभग 50-के आसपास है उसमें से 11-ज़िहाफ़ तो सिर्फ़ इन्ही दो अर्कान पर लगते है । मगर खूबी यह कि कोई शायर इस बह्र में 2-4 ज़िहाफ़ से ज़्यादा प्रयोग नहीं करता
कारण कि बह्र-ए-कामिल का मुसम्मन सालिम आहंग खुद ही इतना आहंगखेज़ और दिलकश है कि अन्य कोई आहंग आजमाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती । यहाँ तक कि लोग मुसद्दस सालिमऔर मुरब्ब ्सालिम
में भी ग़ज़ल नहीं कहते हैं । और करते भी होंगे तो आटे में नमक के बराबर ।
[5]  यह दोनो रुक्न आपस में ’बरअक्स’ [ Mirror Image ] हैं । देखिए कैसे ?

मु त फ़ाइलुन [ 1 1 2 1 2 ] = फ़ासिला सुग़रा [1 1 2 ]+वतद मज़्मुअ’[ 1 2]---कामिल का रुक्न
मफ़ा इ ल तुन [ 1 2 1 1 2 ]= वतद मज़्मुअ’ [ 1 2 ] + फ़ासिला सुग़रा [ 1 1 2 ]-- वाफ़िर का रुक्न
देखिए दोनो रुक्न में फ़ासिला या वतद location ! Mirror image लगता है कि नहीं ?

[6]   बह्र-ए-कामिल में तो अमूमन सभी शायरों ने ग़ज़ल कही .मगर बह्र-ए-वाफ़िर में बहुत कम ग़ज़ल कही गई लगभग न के बराबर । शायद बह्र-ए-वाफ़िर के रुक्न की बुनावट ही ऐसी हो जो आहंगखेज न हो।दिलकश न हो।
हाँ आप या कोई अन्य बह्र-ए-वाफ़िर में शायरी करना चाहे तो मनाही भी नही । यह आप का फ़न होगा।
 [7] इन दो-अर्कान में 3-हरकत एक साथ आ रहे है मगर ख़याल रहे इन पर तस्कीन-ए-औसत का अमल नहीं होगा ? कारण ? कारण यह कि तस्कीन-ए-औसत का अमल हमेशा ’ मुज़ाहिफ़ रुक्न" पर होता है
’सालिम रुक्न’ पर कभी नहीं होता।
चूंकि इसमे 3-हरकत एक साथ आ रहे हैं तो ्यहाँ सारा खेल ’मुतहर्रिक ’ हर्फ़ का है
ज़रूरी नहीं कि जिस हर्फ़ पर ’ज़बर ’ का अलामत लगा हो --मात्र वही हर्फ़ मुतहर्रिक हों जिस हर्फ़ पर ’ज़ेर’ और ’पेश’ ’[यानी स्वर ]  की अलामत लगा होता है या दो-चस्मी के साथ हो  वह भी मुतहर्रिक होता है जैसे -कि- कू- के --भी--थी--

ब इक़बाल साहब की ग़ज़ल की तक़्तीअ’ पर आते हैं
1   1  2  1  2 / 1  1  2  1  2   /  1  1  2  1 2  /1  1  2 1 2 = 1 1 2 1 2---1 1 212---1 1 2 1 2 ---1 1 2 1 2
क भी ऎ हक़ी /क़ ते मुन त ज़िर  / न ज़ (र आ)  लिबा / से म जाज़ में 
1   1   2 1  2    / 1 1  2  1 2  / 1 1  2    1 2  / 1 1   2 1 2 = 1 1 2 1 2---1 1 212---1 1 2 1 2 ---1 1 2 1 2
कि ह ज़ारों सिज/ द त ड़प रहे / है ,मि (री ) जबी /ने -नि याज़ में

[ ध्यान देने की बातें --- तक़्तीअ के बारे में
एक बात तो यह  कि जहाँ इज़ाफ़त-ए-कसरा होता है वहाँ इज़ाफ़त के ठीक पहले वाला हर्फ़ मुतहर्रिक माना जाता है । यही बात ’अत्फ़’ [ जैसे रंज-ओ-ग़म ] के साथ भी है।
उदाहरण - दर्द-ए-दिल --में दूसरा हर्फ़ [दाल]-द- मुतहर्रिक हो जाता है वरना तो दर्द में दूसरा -द- साकिन ही होता है
ग़म-ए-दिल -में  -म- [मीम] को मुतहर्रिक हो जाता है  वरना सिर्फ़ लफ़्ज़  ’ग़म’ में -मीम- साकिन ही होता है
उसी प्रकार हक़ीक़त-ए-मुन्तज़िर  में -त- [ते-] मुतहर्रिक हो जाएगा वरना तो मात्र हक़ीक़त शब्द में -त- तो साकिन ही होता है।
यहीं एक बात और वाज़ेह कर दूँ
1-उर्दू में हर लफ़्ज़ का पहला हर्फ़ ’मुतहर्रिक’ होता है और आखिरी हर्फ़ ’साकिन’ पर गिरता है । यानी उर्दू का कोई लफ़्ज़ साकिन से शुरु नहीं होता ,। हिन्दी में भी नहीं होता
2- दूसरी बात वस्ल की है --नज़र आ लिबास---में न ज़ (र+आ} --यानी -रे- के साथ -अलिफ़ मद्द- का वस्ल होकर तलफ़्फ़ुज़ न ज़ रा का सुनाई देगा यानी 1 1 2 का वज़न आयेगा और यही लिया भी  गया है
यही बात --है मेरी इक --के साथ भी है ।  मि (रिक)  -रे-के साथ -इक- का वस्ल हो कर -रिक-की आवाज़ दे रहा है यानी 2 [सबब-ए-ख़फ़ीफ़] का वज़न दे रहा है
3- हज़ारों - में -रों-- मुतहर्रिक है ।सिज़्दे में -दे- मुतहर्रिक है
4- एक बात और--बहुत से लफ़्ज़ आप को ऐसे दिखाई दे रहे होंगे जिन्हे सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2]  होना चाहिए मगर बह्र की माँग पर उसे मुतहर्रिक लिया जा रहा है [ मगर कुछ शर्तों के साथ]
यानी तलफ़्फ़ुज़ के हिसाब से तक़्तीअ में लिया जायेगा
5-अरबी में  जबर--ज़ेर--पेश बड़े ही वाज़ेह तरीक़े से लिखते है और दिखाते हैं जिससे पता चलता है कि कौन सा हर्फ़ मुतहर्रिक है मगर न जाने क्यों उर्दू में यह अलामत अब धीरे धीरे कम क्यों दिखी जाने लगी है जिससे मुतहर्रिक हर्फ़ पहचानने
में ज़रा मुश्किल पेश आती है ।यही बात हिंदी में भी देखी जा सकती है । संस्कृत से हिंदी में आये कुछ  तत्सम  शब्दों में [ जैसे  अकस्मात् --अर्थात् ---श्रीमान्--पश्चात् ---] हिंदी में ’हलन्त’ का न लगाना भी ऐसा ही है ।  मगर अनुभव और प्रैक्टिस मश्क़ के साथ साथ मुतहर्रिक और् साकिन्  हर्फ़ समझना आसान हो जाता है । मोटा-मोटी  साकिन् हर्फ़्--हलन्त् व्यंजन् के equivalent समझिए।

अब एक दूसरा शे’र लेते हैं
1  1  2  1  2  / 1  1  2  1  2  / 1  1   2 1 2  / 1 1  2 1 2
तू ब चा ब चा / के न रख इ से / ,ति रा आइना / है वो आइना
1   1     2  1   2   / 1 1   2 1  2    / 1 1   2 1    2   / 1 1  2 1 2
कि शि कस् त: हो / तो अ ज़ी ज़ तर / ,है नि गाह--आ / इ न: साज़  में

ध्यान् देने की बात --तक़्तीअ’ के बारे में
-तू-- के-ति--रा--वो --यह सब मुतहर्रिक शुमार होंगे । जो उर्दू लिपि जानते है वह इसे बा आसानी समझ सकते है
हम हिंदी वालों की मुश्किल यह है कि देवनागरी में लिखे होने के कारण ज़रा समझना मुश्किल हो जाता है
जैसे --आइना--आईना--आइन: [ हम हिंदी में कभी आइन: नही लिखते ] यही कारण है कि इस शे;र में बह्र की माँग पर
-ना- न: के दो अलग अलग वज़न -एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] और दूसरा -न: [1] - मुतहर्रिक लिया गया है

बाक़ी अश’आर के  तक़्तीअ’  आप इसी तरह कर सकते हैं

चलते चलते एक बात और--आप के लिए

मोमिन की एक मशहूर ग़ज़ल है 

वो जो हम में तुम में क़रार था ,तुम्हें याद हो कि न याद हो
वही यानी वादा निबाह का ,तुम्हें याद हो कि न याद हो

वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे पेशतर ,वो करम कि था मेरे हाल पर
मुझे याद सब है ज़रा ज़रा , तुम्हें याद हो कि न याद हो

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जिसे आप कहते थे आशना ,जिसे आप कहते थे बावफ़ा
मैं वहीं हूँ मोमिन-ए-मुबतिला ,तुम्हें याद हो कि न याद हो

[ मक़्ता वाले शे’र में एक ’ऐब’ है --आप बताएँ कि वह कौन सा ऐब है ?

या बशीर बद्र साहब की एक ग़ज़ल है

युँ ही बेसबब न फिरा करो ,कोई शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है ,उसे चुपके चुपके पढ़ा करो

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अभी राह में कई मोड़ हैं ,कोई आएगा कोई जाएगा
तुम्हे जिस ने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो


या इस हक़ीर की एक ग़ज़ल के चन्द अश’आर भी बर्दाश्त कर लें

वो जो चढ़ रहा था सुरूर था  ,जो उतर रहा है ख़ुमार है
वो नवीद थी तेरे आने की  , तेरे जाने की  ये पुकार  है

ये जुनूँ नहीं  तो  है और क्या . तुझे आह ! इतनी समझ नहीं
ये लिबास है किसी और का ,ये लिबास तन का उधार है

आप बताएँ कि तमाम अश’आर की बह्र क्या है ? जी बिल्कुल सही
ज़रा तक़्तीअ’ कर के भी जाँच लें  तो बेहतर
उमीद करता हूँ कुछ हद तक मैं अपनी बात स्पष्ट कर दिया हूँगा
अगर कोई ग़लतबयानी हो गई हो तो आप से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि मुझे आगाह कर दें जिससे मैं आइन्दा
अपने आप को दुरुस्त कर सकूँ

सादर
-आनन्द.पाठक-

बुधवार, 18 दिसंबर 2019

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 65 [फ़िराक़ साहब की एक ग़ज़ल की तक़्तीअ]

फ़िराक़ साहब की एक ग़ज़ल है ----

ये तो नहीं कि ग़म नहीं
हाँ मेरी आँख  नम नहीं

तुम भी तो तुम नहीं हो आज
हम भी तो आज हम नहीं

नश्शा सँभाले हैं मुझे
बहके हुए क़दम नहीं

क़ादिर-ए-दो जहाँ है ,गो
इश्क़ के दम में दम नहीं

मौत अगरचे मौत है
मौत से ज़ीस्त कम नही

अब न ख़ुशी की है ख़ुशी
ग़म भी अब तो ग़म नहीं

मेरी निशश्त है ज़मीं
ख़ुल्द नहीं ,इरम नहीं

-फ़िराक़ गोरखपुरी-

एक मंच पर मेरे किसी मित्र ने इस ग़ज़ल की बह्र जाननी चाही थी। उनका कहना था कि चूँकि यह ग़ज़ल ’फ़िराक़’ साहब की 
है तो यक़ीनन यह किसी न किसी बह्र में होगी
------------------------------------------
यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है

अगर  शायर ने अपनी ग़ज़ल की ’बह्र’ न लिखी या न बताई हो तो ग़ज़ल की बह्र निकालना अपेक्षाकृत एक मुश्किल काम है ।
वैसे आज भी किसी भी ग़ज़ल -संग्रह में ग़ज़ल के ऊपर " बह्र’ लिखने का प्रचलन नहीं है ।ज़माना-ए-क़्दीम
में भी नहीं था ।कारण मालूम नहीं ।
हो सकता है , पुराने ज़माने में जिन लोगों को शायरी का ज़ौक़-ओ-शौक़ था या अदब आशनाई  थी वो
बह्र के मुत्तालिक़ मज़ीद मालूमात रखते रहे हों और किसी शायर की कही हुई ग़ज़ल पहचान लेते हों और उन्हे मालूम
था कि ग़ज़ल बह्र से कहाँ ख़ारिज़ हो रही है या कहाँ  वज़न पर नहीं है।यह मेरा जाती ख़याल है ।आप का इससे मुतफ़्फ़िक़ होना ज़रूरी नहीं
यह समस्या आज भी है । मेरे एक मित्र ने बताया कि लोग आजकल ’ग़ज़ल’ सुनते है ,सुनाते है
जो बह्र या अरूज़ जानते पहचानते हैं उनके लिए बह्र लिखने की ज़रूरत नहीं और जो नहीं जानते हैं उनके लिए लिखने का कोई फ़ायदा
 नहीं।
ख़ैर
लिखी हुई ग़ज़ल का बह्र निकालना [ अगर वह सामान्य मशहूर , मक़्बूल प्रचलित आम बह्र में नहीं है  तो]  अपेक्षाकृत इसलिए मुश्किल है 
कि बह्र अपनी माँग पर [कुछ शर्तों के साथ ] हर्फ़ का वज़न गिराना माँगती है ।कहाँ हर्फ़ का वज़न गिराना है और कहाँ नहीं गिराना है यह बह्र जानने
के बाद और ’तक़्तीअ” करने के बाद ही पता चलेगा --पहले नहीं
इसका एक सरल उपाय यह है कि ग़ज़ल का हम वह ’मिसरा’ [या शे’र] का इन्तख़ाब करेंगे जिसमे किसी हर्फ़ का वज़न न गिराया गया हो और यदि
गिराया भी गया हो तो कम से कम जायज तरीके से गिराया गया हो। हम यहाँ मिसरा इस लिए कह रहे है कि यदि मिसरा का सही वज़न या बह्र निकल गया तो
फिर शे’र क्या पूरी की पूरी ग़ज़ल उसी  बह्र और वज़न में होगी । इसे आप "रिवर्स इंजीनियरिंग " कह सकते हैं
अब  ’फ़िराक़’ साहब की ग़ज़ल पर आते है
यह ग़ज़ल मैने और मेरे मित्र दोनो ने  ’राजपाल ’ ्प्रकाशन से फ़िराक़ साहब की ग़ज़लों पर प्रकाशित एक संग्रह से नकल किया है।
वस्तुत: यह ग़ज़ल एक लम्बी ग़ज़ल है [ दो ग़ज़लें -एक ही ज़मीन ,एक ही रदीफ़ और एक ही हम क़ाफ़िया  पर कही गई है ।इसमें लगभग 30-अश’आर हैं]
हमने यहाँ अपने मक़सद के लिए चन्द अश’आर ही नकल किए हैं।

हम इस ग़ज़ल की एक मिसरा  का इन्तेखाब करते है

" खुल्द नहीं ,इरम नहीं "----कारण कि इस मिसरा में हर्फ़ का वज़न गिराने की नौबत ही नही है ।’सेफ़-गेम’

इस मिसरा का वज़न ठहरता है
2     1  1 2  / 1 2  1 2 = 2112---1212
खुल द नहीं / इ रम नहीं

[ अब आप कहेंगे ’इरम’ को आप ने ’इर म [ 21] के वजन पर क्यों नहीं लिया। वज़ह साफ़ है इरम का तलफ़्फ़ुज़ ’इ रम ’[1 2 ] है न कि ’इर म ’ है [ 2 1 ] ख़ैर]

अब हमें इस मिसरा का वज़न 2112---1212 मिल गया
एक बात तो साफ़ हो गई यह कोई ऐसा शे’र है जिसमे मिसरा में दो और शे’र में 4- अर्कान मुस्तमिल है ] और इसमें से कोई सालिम रुक्न इस्तेमाल नहीं हुआ है अत:
यह कोई ;मुरब्ब: और मुज़ाहिफ़ बह्र है
किस सालिम रुक्न का मुज़ाहिफ़ वज़न " [यानी किस सालिम रुक्न पर ज़िहाफ़ लगा है।
थोड़ा सा ध्यान से देखे  2 1 1 2 --- यह कहीं  2 2 1 2 [ मुस तफ़ इलुन ] पर तो कोई  ज़िहाफ़ नहीं लगा है
जी हाँ ,लगा है”मुस तफ़ इलुन ’[2 2 1 2 ] पर अगर ’तय्यी’ का ज़िहाफ़ लगा दें तो वज़न बरामद होगा --2 1 1 2 [ मुफ़ त इलुन ---यहाँ -ते- और -ऐन- मुतहर्रिक है
और इसे ’मुत्तवी’ कहते हैं
 तो फिर 1 2 1 2 क्या है ?- यदि "मुस तफ़ इलुन" [ 2 2 1 2 ] पर ख़ब्न का ज़िहाफ़ लगा दें तो बरामद होगा ’मफ़ा इलुन [1 2 1 2 और इसे मख़्बून कहते है
और मख़्बून आम ज़िहाफ़ भी है यानी यह शे;र के किसी मुक़ाम पर आ सकता है और यह यहाँ ’अरूज़’ और जर्ब के मुक़ाम पर आया है

अब यह बात तो साफ़ हो गई कि उक्त दोनो अर्कान सालिम रुक्न [मुस तफ़ इलुन = 2 2 1  2 ] का ही मुज़ाहिफ़ शकल है और यह "बह्र-ए-रजज़" का बुनियादी रुक्न है
अत: हम कह सकते हैं कि इस ग़ज़ल की बह्र है
"बह्र-ए-रजज़ मुरब्ब: मुतव्वी मख़्बून "

अब एक-दो शे’र की तक़्तीअ कर के और जाँच कर लेते हैं
2  1  1  2 / 1  2   1  2   = 2 1 1 2 - 1 2 1 2 = मुफ़ त इलुन ---मफ़ा इलुन
ये तो नहीं / कि ग़म नहीं
2   1 1  2  / 1  2  1 2 =2 1 1 2 - 1 2 1 2 = मुफ़ त इलुन ---मफ़ा इलुन

हाँ मेरी आँ /ख  नम नहीं

[ध्यान दें-- यहाँ -ये- [2] मुस के वज़न पर लिया गया है । अगर कहीं  किसी अन्य ग़ज़ल में ’बह्र’ की माँग होती तो यही -ये- [ मुतहर्रिक 1 ] की वज़न पर लिया जाता ।और -मेरे को ’मि री ” [दोनो मुतहर्रिक 1 1 ] के वज़न पर किया है जो अज रू- ए- अरूज़ ऐन मुताबिक़ भी है 

दूसरा शे’र देखते हैं
 2   1    1 2   / 1 2 1 2   = 2 1 1 2 - 1 2 1 2 = मुफ़ त इलुन ---मफ़ा इलुन
नश श:  सँभा/ ले हैं मुझे
2    1  1 2  / 1  2 1 2  = 2 1 1 2 -- 1 2 1 2 = मुफ़ त इलुन ---मफ़ा इलुन
बह के हुए / क़ दम नहीं

अब एक शे’र और [ जो परेशानी का सबब बना हुआ है ]
   2   1 1 2  / 1  2 1 2  =2 1 1 2 - 1 2 1 2 = मुफ़ त इलुन ---मफ़ा इलुन
अब न ख़ुशी /की है ख़ुशी
 2      1  2    / 1  2 1  2  = 2 1 2 ----1 2 1 2   [ पहले रुक्न 212 में -एक मुतहर्रिक कम आ रहा है
ग़म भी अब / तो ग़म नहीं

 यक़ीनन मिसरा सानी वज़न में नहीं आ रहा है । कहीं कुछ कमी तो है 
चूँकि हमने यह ग़ज़ल ’देवनागरी’ [हिंदी वर्जन] से नकल किया है अत: हो सकता है
उर्दू वर्जन में शायद यह शे’र सही नकल हो -कह नहीं सकता।

यदि किसी सज्जन को उर्दू वर्जन का सही शकल दस्तयाब हो सके तो बराय मेहरबानी इस हक़ीर को आगाह कराइएगा ताकि इस शे’र की सही तक़्तीअ पेश की जा सके ।

चलते चलते एक बात और---

यदि मेरे इस मज़्मून में कोई ग़लतबयानी हो गई हो तो दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि बराय मेहरबानी उसकी निशानदिही ज़रूर कर दें ताकि आइन्दा अपने आप को दुरुस्त कर सकूँ
सादर
-आनन्द.पाठक-