शनिवार, 14 अप्रैल 2012

ग़ज़ल 039 : कूचा कूचा नगर नगर...

ग़ज़ल039


कूचा कूचा नगर नगर देखा

ख़ुद में देखा उसे अगर देखा!



किस्सा-ए-ज़ीस्त मुख़्तसर देखा

जैसे इक ख़्वाब रात भर देखा



दर ही देखा न तूने घर देखा

ज़िन्दगी तुझको खूबकर देखा



कोई हसरत रही न उसके बाद

उस को हसरत से इक नज़र देखा



हम को दैर-ओ-हरम से क्या निस्बत

उस को दिल में ही जल्वा-गर देखा



दर्द में ,रंज-ओ-ग़म में,हिरमां में

आप को ख़ूब दर-ब-दर देखा



हाल-ए-दिल दीदनी मिरा कब था?

देखता कैसे? हाँ ! मगर देखा



सच कहो बज़्म-ए-शे’र में तुम ने

कोई "सरवर" सा बे-हुनर देखा?



-सरवर



निस्बत =मतलब

हिर्मां में =बदक़िस्मती में

दीदनी =देखने की लायक

गुरुवार, 29 मार्च 2012

ग़ज़ल 038: आफ़त हो ,मुसीबत हो...

ग़ज़ल 038

आफ़त हो, मुसीबत हो, क़ियामत हो, बला हो

मालूम तो हो मेरे लिये कौन हो ,क्या हो ?



कहने को तो बातें है बहुत शाम-ए-मुहब्बत

क्या कीजिए जब दिल ही यह मजबूर-ए-अना हो



मेराज-ए-मुहब्बत है यह मेराज-ए-वफ़ा है

मैं हूँ ,तिरी बस याद हो और हर्फ़-ए-दुआ हो



मैं अपने ही अल्फ़ाज़ में गुमकर्दा-ए-मंज़िल

तुम जान-ए-ग़ज़ल,जान-ए-सुख़न,हुस्न-ए-अदा हो



मजबूर-ए-मुहब्बत हूँ ,गुनहगार नहीं हूँ

तुम कौन सी अक़्लीम-ए-मुहब्बत के ख़ुदा हो?



हो जायेगा बतलाओ गज़ब कौन सा ऐसा ?

गर मंज़िल-ए-उल्फ़त में शिकायत भी रवा हो



गुमराही-ए-सद-राह-ए-मुहब्बत मुझे ख़ुश है

हाँ शर्त ये है तू ही मिरा राह-नुमा हो



दुनिया से जो उम्मीद-ए-वफ़ा तुम को है "सरवर"

इतना तो बताओ भला तुम चाहते क्या हो?



-सरवर

अक़्लीम-ए-मुहब्बत =मुहब्बत की दुनिया

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

ग़ज़ल 037: हसरत-ओ-यास को.....


ग़ज़ल 037


हसरत-ओ-यास को रुख़सत किया इकराम के साथ

इश्क़ में अपनी तो गुज़री बड़ी आराम के साथ



लज़्ज़त-ए-कुफ़्र मिले लज़्ज़ते-ए-इस्लाम के साथ

नाम आ जाये अगर मेरा तिरे नाम के साथ





ऐतबार आये भी तो किस तरह आये तुझ पर ?

रंग-ए-ज़ुन्नार भी है तुहमत-ए-इहराम के साथ



पास आते गये वो ख़्वाब में लहज़ा लहज़ा

दूर होती गई मंज़िल मिरे हर गाम के साथ



वाह री ख़ूबी-ए-क़िस्मत कि सर-ए-शाम-ए-उम्मीद

उसका पैग़ाम जो आया भी तो इल्ज़ाम के साथ



आओ हम मिल के नई राह-ए-मुहब्बत ढूँढे

कब तलक कोई निबाहे राविश-ए-आम के साथ



हसरत-ओ-आरज़ू ,उम्मीद-ओ-तमन्ना ,अरमां

लाख आज़ार हैं मेरी सहर-ओ-शाम के साथ



क्या ही आते हैं मज़े दोनो जहां के "सरवर"

गर्दिश-ए-जाम भी है गर्दिश-ए-अय्याम के साथ



-सरवर



हसरत-ओ-यास =आशा-निराशा/उम्मीद-नाउम्मीद

रंग-ए-जुन्नार = हिन्दू के रंग में

तुहमत-ए-एहराम = हाज़ियों के ढंग में

रविश-ए-आम =आम लोगों का तरीका

गर्दिश-ए-अय्याम =बुरा वक़्त

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

ग़ज़ल 036 : हम ने सब कुछ ही ......

ग़ज़ल 036

हम ने सब कुछ ही मुहब्बत में तिरे नाम किया

और जो बच गया वो वक़्फ़-ए-मय-ओ-जाम किया



खु़द को जैसे भी हुआ खूगर-ए-आलाम किया

फ़ैसला इस तरह तेरा दिल-ए-नाकाम ! किया



शाम को सुब्ह किया ,सुब्ह को फिर शाम किया

हम ने मर मर के ग़म-ए-ज़ीस्त का इकराम किया



कब रहा एक जगह गर्दिश-ए-दौरां को क़ियाम

साक़ी-ए-वक़्त को किसने है भला राम किया ?



एक लम्हा भी नहीं सज्दा-ए-ग़म से खाली

कैसे काफ़िर ने हमें बन्दा-ए-इस्लाम किया



आप का पास-ए-मुहब्बत कोई देखे तो सही

हम को रुस्वा किया और वो भी सर-ए-आम किया



ऐसे बे-फ़ैज़ थे कुछ हाथ न आया अपने

शिकवा-ए-दर्द किया ,शिकवा-ए-अय्याम किया



राह गुम-कर्दा हुए शहर-ए-यक़ीं में जिस दिन

दिल-ए-दिवाना को सर-गश्ता-ए-अउहाम किया



बज़्म-ए-अहबाब में "सरवर" ये ग़ज़ल लाए हो?

और इस पर यह समझते हो बड़ा काम किया !



-सरवर



खूगर-ए-आलाम =तकलीफ़ सहने के काबिल

इकराम = इज्ज़त/इस्तक़्बाल

क़ियाम =घर/निवास

गर्दिश-ए-दौरां =ज़माने का चक्कर

बे-फ़ैज़ = बिना किसी उपकार के

शिकवा-ए-अय्याम =वक़्त की शिकायत

गुम-कर्दा =खो गए

सर-गस्ता:-ए-अउहाम =मुग़ालते में भूले-भटके


-सरवर-





गुरुवार, 8 मार्च 2012

ग़ज़ल 035 : जिस क़दर शिकवे थे....

ग़ज़ल 035

जिस क़दर शिकवे थे सब हर्फ़-ए-दुआ होने लगे

हम किसी की आरज़ू में क्या से क्या होने लगे



बेकसी ने बे-ज़बानी को ज़बां क्या बख़्श दी

जो न कह सकते थे अश्कों से अदा होने लगे



हम ज़माने की सुख़न-फ़हमी का शिकवा क्या करें?

जब ज़रा सी बात पर तुम भी ख़फ़ा होने लगे



रंग-ए-महफ़िल देख कर दुनिया ने नज़रें फेर लीं

आशना जितने भी थे ना-आशना होने लगे



हर क़दम पर मंज़िलें कतरा के दूर होने लगीं

राज़हाये ज़िन्दगी यूँ हम पे वा होने लगे



सर-बुरीदा ,ख़स्ता-सामां ,दिल-शिकस्ता,जां-ब-लब

आशिक़ी में सुर्ख़रू नाम-ए-ख़ुदा होने लगे



आगही ने जब दिखाई राह-ए-इर्फ़ान-ए-हबीब

बुत थे जितने दिल में सब कि़ब्ला-नुमा होने लगे



आशिक़ी की ख़ैर हो "सरवर" कि अब इस शहर में

वक़्त वो आया है बन्दे भी ख़ुदा होने लगे !



-सरवर

सुर्खरू -कामयाब

आगही =जानकारी

क़िब्ला नुमा =आदरणीय

शनिवार, 3 मार्च 2012

ग़ज़ल 034 : नफ़स नफ़स सर-ब-सर.....

ग़ज़ल 034


नफ़स नफ़स सर-ब-सर परेशां,नज़र नज़र इज़्तिराब में है

मगर वो तस्वीर-ए-हुस्न-ए-मानी निक़ाब में थी निक़ाब में है



कोई बताये कि फ़र्क़ कैसा यह आशिक़ी के निसाब में है

मिरे सवालों में कब था आख़िर वो सब जो उन के जवाब में है



मज़ा न ज़ुह्द-ओ-सवाब में है ,न लुत्फ़ जाम-ओ-शराब में है

"ग़म-ए-जुदाई से जान मेरी अजब तरह के अज़ाब में है "



न मुँह से बोलो,न सर से खेलो,अजीब दस्तूर है तुम्हारा

सलाम लेने का यह तरीक़ा तुम्हीं कहो किस किताब में है?



मियान-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल-ओ-हसरत तलाश के लाख मरहले थे

रह-ए-मुहब्बत में कामयाबी बताइये किस हिसाब में है ?



कशाकश-ए-रंज-ए-हिज्र, तौबा! किसे तमन्ना-ए-वस्ल है अब?

ज़हे मुहब्बत,मिरा तख़ैय्युल जो ख़ुद शिनासी के बाब में है



तमाशा-ए-बूद-ओ-हस्त अस्ल-ए-हयात है तो हयात क्या है?

जो बात अबतक हिजाब में थी ,वो बात अब भी हिजाब में है



सहर-गज़ीदा, चिराग़-ए-शब था, भड़क भड़क के जो बुझ गया है

वुजूद, मानिन्द-ए-दूद मेरा तवाफ़-ए-बज़्म-ए-ख़राब में है



ज़माना बेज़ार तुझ से "सरवर",तू आप बेज़ार ज़िन्दगी से

कोई ख़राबी तो है यक़ीनन जो तुझ से ख़ाना-ख़राब में है



-सरवर

इज़्तिराब =बेचैनी

निसाब =जमा-पूंजी/कमाई

ज़ुह्द-ए-सवाब =पाप-पुण्य की बातें

अज़ाब में है = मुश्किल में है

कशाकश =खींच-तान

तख़य्युल =ख़याल में

ख़ुद शिनासी के बाब = खु़द को जानने के अध्याय

बूद-ओ-हस्त =जीवन और अस्तित्व

सहर-गज़ीदा =जिसको सुबह ने काट खाया हो

मानिन्द-ए-दूद =धुआँ-धुआँ सा

ख़ाना ख़राब = बर्बाद

तवाफ़-ए-बज़्म-ए-ख़राब=बर्बाद दुनिया के चक्कर में













शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

ग़ज़ल 033 : नज़र मिली ,बज़्म-ए-शौक़

                                                ग़ज़ल  033



नज़र मिली, बज़्म-ए-शौक़ जागी, पयाम अन्दर पयाम निकला

मगर वो इक लम्हा-ए-गुरेज़ां , न सुब्ह आया ,न शाम निकला



" बड़े तकल्लुफ़ से आया साग़र ,बड़े तजम्मुल से जाम निकला"

हमारा जौक़-ए-मय-ए-वफ़ा ही रह-ए-मुहब्बत में ख़ाम निकला



वफ़ा है क्या, दोस्ती कहाँ की,हमारी तक़दीर है तो यह है

किया जो साये पे अपने तकिया तो वो भी मेह्शर-ख़िराम निकला



मैं आब्ला-पा , दरीदा-दामां खड़ा था सेहराये जूस्तजू में

मगर दलील-ए-सफ़र ये मेरा खु़द-आगही का क़ियाम निकला



न आह-ए-लर्ज़ां, न अश्क-ए-हिरमां, बदन-दरीदा ,न सर-ख़मीदा

तिरी गली से ज़रूर गुज़रा , मगर ब-सद-इहतराम निकला



इक एक हर्फ़-ए-उमीद-ओ-हसरत ग़ज़ल की सूरत में ढल गया है

मिरा सलीक़ा दम-ए-जुदाई खिलाफ़-ए-दस्तूर-ए-आम निकला



कभी यकीं पर गुमां का धोका ,कभी गुमां पर यकीं की तुहमत

हमें खुश आयी ये सदा-लौही ,हमारा हर तरह काम निकला



हज़ार सोचा ,हज़ार समझा ,मगर ज़रा कुछ न काम आया

क़दम क़दम मंज़िल-ए-ख़िरद में ,मिरा जुनूं से ही काम निकला



गुमां ये था बज़्म-ए-बेख़ुदी में ,बहक न जाये कहीं तू "सरवर"

मगर तिरा नश्शा-ए-ख़ुदी तो हरीफ़-ए-मीना-ओ-जाम निकला



-सरवर-



लम्हा-ए-गुरेज़ां = (आप के साथ) बिताए हुए पल

तजम्मुल = शानो-शौकत से

ख़ाम =दोष, ग़लती

तकिया = भरोसा

महशर ख़िराम =क़यामत की चलन

दरीदा दामां =फटा-चिथड़ा दामन

सहराये जुस्तजू = तलाश का रेगिस्तान

आह-ए-लर्ज़ां =काँपती हुई आवाज़

अश्क-ए-हिर्मां =नाउम्मीदी की आँसू

सर-ख़मीदा =झुका हुआ सर,नत-मस्तक

सादा-लौही =कोरा स्लेट/कोरा कागज़

ख़िरद =अक़्ल

बा-सद-ऐहतिराम = सैकड़ों बार इस्तिक़्बाल करते हुए

हरीफ़ =विरोधी