ग़ज़ल 036
हम ने सब कुछ ही मुहब्बत में तिरे नाम किया
और जो बच गया वो वक़्फ़-ए-मय-ओ-जाम किया
खु़द को जैसे भी हुआ खूगर-ए-आलाम किया
फ़ैसला इस तरह तेरा दिल-ए-नाकाम ! किया
शाम को सुब्ह किया ,सुब्ह को फिर शाम किया
हम ने मर मर के ग़म-ए-ज़ीस्त का इकराम किया
कब रहा एक जगह गर्दिश-ए-दौरां को क़ियाम
साक़ी-ए-वक़्त को किसने है भला राम किया ?
एक लम्हा भी नहीं सज्दा-ए-ग़म से खाली
कैसे काफ़िर ने हमें बन्दा-ए-इस्लाम किया
आप का पास-ए-मुहब्बत कोई देखे तो सही
हम को रुस्वा किया और वो भी सर-ए-आम किया
ऐसे बे-फ़ैज़ थे कुछ हाथ न आया अपने
शिकवा-ए-दर्द किया ,शिकवा-ए-अय्याम किया
राह गुम-कर्दा हुए शहर-ए-यक़ीं में जिस दिन
दिल-ए-दिवाना को सर-गश्ता-ए-अउहाम किया
बज़्म-ए-अहबाब में "सरवर" ये ग़ज़ल लाए हो?
और इस पर यह समझते हो बड़ा काम किया !
-सरवर
खूगर-ए-आलाम =तकलीफ़ सहने के काबिल
इकराम = इज्ज़त/इस्तक़्बाल
क़ियाम =घर/निवास
गर्दिश-ए-दौरां =ज़माने का चक्कर
बे-फ़ैज़ = बिना किसी उपकार के
शिकवा-ए-अय्याम =वक़्त की शिकायत
गुम-कर्दा =खो गए
सर-गस्ता:-ए-अउहाम =मुग़ालते में भूले-भटके
-सरवर-
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