शुक्रवार, 17 मई 2024

बेबात की बात 15 : एक चर्चा : यह कौन सी बह्र है [ 122---122----122--1221 ] : क़िस्त 02

 

एक चर्चा : यह कौन सी बह्र है [ 122---122----122--1221 ] : क़िस्त 02

पिछली क़िस्त 01 में मैने इस बहर के नाम की चर्चा की थी और यह बताया कि इसके आख़िरी रुक्न 122 पर तस्बीग़ का ज़िहाफ़ लगा है । अत: इसका नाम बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन मुस्बीग़ होगा।
थोड़ी सी चर्चा ज़िहाफ़ ;तस्बीग़’ की भी कर लेते हैं । यह ज़िहाफ़ उस सालिम रुक्न पर लगता है जिसके अन्त में ’सबब’ [ यानी सबब-ए-ख़फ़ीफ़] आता है
और उसी आख़िर वाले सबब-ए-खफ़ीफ़ पर लगता है । जैसे

122 =मुतक़ारिब= फ़ऊ लुन = यानी लुन [ आख़िरीवाला सबब -2]पर लगेगा = 122+ तस्बीग़ = 1221 = फ़ऊलान = [ मुस्बीग़ कहलायेगा ]
1222 = हज़ज= मफ़ा ई लुन = यानी लुन [आख़िरीवाला सबब- 2] पर लगेगा = 1222+ तस्बीग़ = 12221 = मफ़ाईलान = मुसबीग़ कहलायेगा
2122 =रमल= फ़ा इला तुन = यानी तुन [ आख़िरी वाला सबब-2 ] पर लगेगा = 2122 + तस्बीग़ = 21221 = फ़ाइलयान [ मुस्बीग़ कहलायेगा
यानी सब मे एक ही Rule i,e आखिरी नून के पहले एक अलिफ़ का इज़ाफ़ा ।ड
और यह ज़िहाफ़ अरूज़/ज़र्ब के मुक़ाम के लिए ख़ास है --लगेगा तो मिसरा के आख़िरी वाले रुक्न पर ही और वह भी आखिरी वाले जुज -सबब [2]- पर।
अच्छा एक सवाल --आप के लिए
क्या तस्बीग़ का ज़िहाफ़ -
11212 = मुतफ़ाइलुन =कामिल = पर लग सकता है? या
2212 = मुस तफ़ इलुन = रज़ज पर लग सकता है ?
आखिर इन अर्कान के अन्त में भी तो -2- आता है ।
लग सकता है तो क्यों ? और नहीं लग सकता है तो क्यों?
कल इसी मंच पर मेरे एक मित्र ने इस बहर का नाम हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़ मक्फ़ूफ़ बताया था । उन्होने किसी किताब का हवाला दिया जिसमे उन्होने लिखा देखा होगा और पढ़ा होगा }।
मगर मैं इस नाम से सहमत नहीं हूँ।
मैं इस पर या उस किताब पर तो कोई कमेन्ट नहीं कर सकता। हो सकता है ’हिंदी ग़ज़ल’ के लिए कोई नया अरूज़ शास्त्र बना हो , मुझे पता नहीं।
मगर मै इससे इत्तिफ़ाक़ नही रखता~ अत: इस नाम पर मैं कोई कमेन्ट नहीं कर सकता। पर उर्दू अरूज़ के नुक़्त-ए-नज़र इस बह्र के नाम [ हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़ मक्फ़ूफ़ ] पर ज़रूर कमेन्ट कर सकता हूं।
हज़ज मुसम्मन सालिम के अर्कान है
1222----1222---1222----1222 आप जानते होंगे।

अगर 1222 पर "कफ़" का ज़िहाफ़ लगाया जाए तो ?

1222 [ मफ़ाईलुन ] + कफ़ = मक्फ़ूफ़ 1221 [ मफ़ाईलु ] बरामद होता है ।
यानी आख़िरी हर्फ़ -लु- मुतहर्रिक बरामद होगा यानी आखिरी वाला -1- मुतहर्रिक है ।
कफ़- अगरचे एक आम ज़िहाफ़ है जो बह्र के किसी भी मकाम पर आ सकता है मगर यह - मफ़ाईलु- आख़िरी मुकाम पर नही आ सकता है जिसके अन्त में [लु] -1- मुतहर्रिक है ।
--कारण ? कारण आप जानते होंगे।
किसी मिसरा के आख़िर में मुतहर्रिक हर्फ़ नहीं आ सकता --जब भी आएगा तो साकिन हर्फ़ ही आयेगा ।यह उर्दू भाषा की प्रकृति है । सारे अर्कान उसी प्रकार बनाए गए हैं उर्दू शे’र का हर मिसरा -साकिन - पर गिरता है । मुतहर्रिक पर नहीं।
यही कारण है कि -मफ़ऊलातु -एक सालिम रुक्न होते हुए भी किसी सालिम बहर के अन्त में नहीं आता।
अत: हज़ज का मक्फ़ूफ़ [ 1221 ] शे’र के आख़िरी मुक़ाम [ अरूज़/ ज़र्ब] पर नहीं लाया जा सकता।
मिसरा के आख़िर में लाना सही नहीं होगा।
----
दूसरी बात --
अगर 1222 पर - हज़्फ़ - का ज़िहाफ़ लगाया जाए तो?
1222 + हज़्फ़ = महज़ूफ़ 122 बरामद होगा।
यह ख़ास ज़िहाफ़ है जो अरूज़ /ज़र्ब के मुक़ाम पर ही आ सकता है -- न कि सदर/इब्तिदा या हस्व के मुकाम पर ।

यानी ये दोनो ज़िहाफ़ 1222---1222---1222---1222 पर
लगा दें तो 122---122---122---1221 बरामद तो होगा । मगर
जिस- महज़ूफ़- को जहाँ लगना चाहिए [ यानी अरूज़/ज़र्ब के मुक़ाम पर] --वहाँ तो लगा नही
जिस -मक्फ़ूफ़- को जहाँ नहीं लगना चाहिए --वहाँ लगा हुआ है --अरूज़ ज़र्ब के मुक़ाम पर।
यह अरूज़ के क़ायदे की खिलाफ़वर्जी है ।
फ़ैसला आप करें कि क्या यह नाम -हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़ मक्फ़ूफ़ -सही है?
एक बात और
तसबीग़ का -1- और मक्फ़ूफ़ का -1- क्या दोनों एक ही है?
नहीं ,कत्तई नहीं ।
तसबीग. का -1- साकिन है
मक्फ़ूफ़ का -1- मुतहर्रिक [ लु ] है ।

[ इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर इस हक़ीर से कुछ ग़लतबयानी हो गई हो तो बराए मेहरबानी निशानदिही फ़रमाए कि यह राकिमआइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सके
सादर
-आनन्द.पाठक-








बुधवार, 15 मई 2024

बेबात की बात 14 : यह कौन सी बह्र है [ 122---122----122--1221 ] क़िस्त 01

 एक चर्चा : यह कौन सी बह्र है [ 122---122----122--1221 ]  क़िस्त 01

  पिछली बार एक बह्र [ 122---122---122--121 ] पर एक स्वस्थ चर्चा हुई थी । आज एक और बह्र
122--122--122--1221 पर चर्चा करेंगे। 
कल  मेरे एक मित्र ने एक ग़ज़ल पेश की  और बह्र लिखा 
122---122--122---1222 । चर्चा को विस्तार देने के लिए उसी ग़ज़ल का मतला 
यहाँ  लगा रहा हूँ--

कहां थे गई रात अग़्यार के साथ
दगा तुम न करना मिरे प्यार के साथ//1


अगर्चे मैने इस बह्र का नाम मंच पर  ’कमेन्ट सेक्शन ’ लिख दिया था फिर भी कुछ लोगों में भ्रम की स्थिति बनी रही।चूँकि कमेन्ट सेक्शन में इतनी जगह नही होती कि कोई बात विस्तार से लिखा जा सके या कही जा सके । अत:  स्वतन्त्र रूप में यह लेख यहाँ लिख रह हूँ कि मैं अपनी बात स्पष्ट रूप से बता सकूँ।
122---122----122---1221 
इस बह्र का नाम है - बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन मुस्बीग़ ।
 अगर आप इतने से सन्तुष्ट हैं तो फिर आगे पढ़ने की ज़रूरत नहीं। इतनी जानकारी से भी आप का काम चल जायेगा और आप
शायरी करते रह सकते हैं
----    --------
  अगर आप इतने से सन्तुष्ट नही है और यह जानना चाहते हैं कि यह बह्र कैसे बनी, यह नाम कैसे बना, यह मुस्बीग़ क्या बला है तो आप आगे पढ़ सकते है। ध्यान रहे यह अरूज़ का विषय है तो वज़ाहत अरूज़ के क़ायदे-क़ानून Rules Regulation से ही की जा सकती है। 
लेख बोझिल हो सकता है अत: जिन्हे अरूज़ की थोड़ी बहुत जानकारी हो, जो अरूज़ से दिलचस्पी रखते हों ,अरूज़ आशना हैं ,पढ़ सकते है। जो मज़ीद मालूमात के तलबगार हैं वह भी पढ़ सकते हैं । ध्यान रहे ’सरदर्द" की जिम्मेदारी इस ग़रीब की न होगी । 
ख़ैर आगे बढ़ते हैं----
122---122---122---122-- इस बह्र को आप बख़ूबी पहचानते होंगे । हम आप सब इससे परिचित हैं।
बहुत आसान बह्र है । हर नया शायर या शायरा  इस बह्र में तबअ’आज़माई करते हैं । पुराने शायरों ने भी की है।
नाम है --बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम 
 आख़िरी वाले -122- [ जो अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर है --एक ज़िहाफ़ लगाते है-- ज़िहाफ़ ’तस्बीग़;
लगभग  50 ज़िहाफ़ों में ;तस्बीग़’ एक ज़िहाफ़ का नाम है --यह कैसे अमल करता है , क्या बदलाव करता है , कैसे बदलाव करता है इस पर चर्चा नही करेंगे । पर हाँ इसके अमल से जो रुक्न बरामद होती है  -उसे हम -मुस्बीग़-कहते है। यानी
122 + ज़िहाफ़ तस्बीग़ = मुज़ाहिफ़ मुस्बीग़  1221 
यानी
फ़ऊ लुन् + तस्बीग़ = फ़ऊ लान् [ 12 21 ]= यानी लुन् [2] को लान् [ 21] कर दिया । यानी लाम और नून के बीच में एक अलिफ़ बढ़ा दिया
यही तस्बीग़ है ।

तस्बीग़-ज़िहाफ़ हमेशा अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर ही लगता है । बह्र के आख़िरी रुक्न पर ही लगता है। यह एक ख़ास ज़िहाफ़ है।  
यहाँ ध्यान देने की एक बात है --लुन मे [ लाम मुतहर्रिक+ नून साकिन ] मगर तस्बीग़ ने मुतहर्रिक और साकिन के बीच में एक अलिफ़ [ साकिन ] और बढ़ा दिया
यानी लान = मुतहर्रिक[लाम] + साकिन[अलिफ़] + साकिन [नून]
ध्यान दीजिए जो साकिन [अलिफ़] का इज़ाफ़ा हुआ है वह बीच में हुआ है ,लुन के अन्त में नही हुआ है।
मैं यही कहना चाहता हूं -तस्बीग - साकिन का इज़ाफ़ा तो करता है मगर मिसरा के अन्त में नहीं करता है । 
मिसरा के अन्त में जो साकिन हर्फ़ का इज़ाफ़ा करने की जो छूट है --वह अलग केस है। इस केस में लागू नहीं होगा।वह छूट क्यों है ? उससे बह्र पर क्या फ़र्क पड़ता है। उसकी चर्चा पहले भी
किसी मंच पर कर चुका हूँ । इंशा अल्लाह , कभी यहाँ भी कर दूंगा।
 इस बह्र को इस बिना पर ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता कि यह बह्र नज़र से नहीं गुज़री या कहीं दिखी नहीं।
122--122--122--1221-- एक मान्य मुज़ाहिफ़ बह्र हुई  जो अरूज़ के नियम से बनी  है । और इसका आख़िरी हर्फ़ साकिन --ज़िहाफ़ के कारण ्हुआ है न कि
किसी प्रकार की "छूट" के कारण नहीं।
[ ऐसी बह्र या इस प्रकार की बह्र  के कुछ ग़ज़ल या शे’र के उदाहरण अगले क़िस्त में दे दूँगा]
 चूँकि किसी ग़ज़ल की बह्र ’ मतला’ से ही निर्धारित होती है । और यहाँ शायर ने मतला के दोनो मिसरों में 122--122--122--1221 बाँधा है  
अत: इस मुज़ाहिफ़ [अब यह बह्र सालिम नहीं रही] का नाम होगा ---बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन मुसबीग़ ।
[ इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर इस हक़ीर से कुछ ग़लतबयानी हो गई हो तो बराए मेहरबानी निशानदिही फ़रमाए कि यह राकिमआइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सके ।
सादर

-आनन्द.पाठक-

 



सोमवार, 6 मई 2024

बेबात की बात 13: 122--122-122-12 पर एक चर्चा

 एक चर्चा : बह्र 122---122---122---12 का सही नाम ?


[ नोट - यह आलेख उन लोगों के लिए है जो अरूज़, बह्र, वज़न आदि में दिलचस्पी रखते हैं या ज़ौक़-ओ-शौक़ फ़रमाते है।
कारण ? चूँकि यह सवाल अरूज़ का है, ग़ज़ल का है, बह्र का है तो जवाब भी अरूज़ के क़ायदे, क़ानून , रुल्स के हिसाब से ही दिए जा सकते हैं।
अतिरिक्त जानकारी के लिए अन्य लोग भी पढ़ सकते हैं ।]
----- ----
इसी मंच पर एक बह्र [ 122---122----122---12--] पर बहस चल रही है ।
किसी ने कहा मक्सूर है , किसी ने कहा महज़ूफ़ है
मैने कहा महज़ूफ़ है ---शब भर रहा चर्चा तेरा ।
[ महज़ूफ़ --मक्सूर मुज़ाहिफ़ रुक्न का नाम है ]
महज़ूफ़ या मक्सूर पर लोगों की अपनी अपनी दलीलें हो सकती हैं। मैं महज़ूफ़ के हक़ में अपनी वज़ाहत [ स्पष्टीकरण पेश कर रहा हूँ।
अगर यह बह्र 122--122--122--122 होती तो इसके नाम में कोई लफ़ड़ ही नहीं होता--सीधा नाम --सीधी बहर
बह्र--ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
मगर जब इस पर ज़िहाफ़ लगा हो [ यहाँ आख़िरी रुक्न पर ज़िहाफ़ लगा है] --तो बह्र का नाम क्या होगा ?
वैसे ज़िहाफ़ का विषय तो बहुत विस्तृत है फिर भी आगे बढ़ने से पहले थोड़ा ज़िहाफ़ के बारे में संक्षेप में चर्चा कर लेते है।
ज़िहाफ़ एक प्रकार का अरूज़ी अमल है जो सालिम रुक्न पर लगता है और सालिम रुक्न के वज़न को परिवर्तित कर देता है। और बह्र का नाम भी उसी
अनुसार बदल जाता है।
लगभग 50 ज़िहाफ़ात में से निम्नलिखित 2-ज़िहाफ़ भी शामिल हैं--
--हज़्फ़
-- कस्र
सालिम रुक्न पर हज़्फ़ जिहाफ़ के अमल के बाद जो परिवर्तित रुक बरामद होगी उस रुक्न को ; महज़ूफ़’ कहते है। उसी प्र्कार
क़स्र ज़िहाफ़ के अमल से जो परिवर्तित रुक्न हासिल होगी उसे ’मक़्सूर’ कहते हैं
यानी
122+ हज़्फ़ = 12
122+ क़स्र = 121
अच्छा एक बात और
यह दोनों ज़िहाफ़ ख़ास ज़िहाफ़ कहलाते है और यह बह्र के आख़िरी मुक़ाम के सालिम रुक्न [ जर्ब/ अरूज़ के मुक़ाम ] पर ही अमल करते है।
अत: इस लिहाज़ से
122--122--122--12 का नाम होगा -: बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़
और
122---122--122--121 का नाम होगा ;- बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन मक़्सूर

अगर आप यहाँ तक सन्तुष्ट हैं तो फिर आगे पढ़ने की ज़रूरत नहीं } इतने से ही आप का काम चल जाएगा।
- अगर आप इतने से सन्तुष्ट नही है तो आगे बढ़्ते है ---
----- -----
--- हज़्फ़ ज़िहाफ़ कैसे अमल करता है?
अगर किसी सालिम रुक्न में आख़िरी जुज [ टुकडा सबब ए ख़फ़ीफ़ हो यानी 2 पर गिर रहा हो ] तो उसको मिटा देने ,गिरा देने को हज़्फ़ का अमल कहते है
हज़्फ़ का शब्दकोशीय अर्थ ही होता है---विच्छेद कर देना, अलग कर देना किसी शब्द से एक अक्षर कम कर देना\
[ सबब-ए-ख़फ़ीफ़, वतद-ए-मज्मुआ आप किसी अरूज़ की किताब से ्बआसानी पढ़ सकते है और नहीं तो मेरे ब्लाग
www.arooz.co.in ---पर देख सकते है।
122 = फ़ऊ लुन् = लन् बोले तो [ अरूज़ की भाषा में ] सबब-ए-ख़फ़ीफ़ = हिंदी में बोले तो 2
अगर इस आखिरी वाले 2 को 122 से हटा दे या गिरा दें तो क्या बचेगा ? 12 बचेगा और क्या?
यही तो हज़्फ़ का अमल है और यही 12 तो महज़ूफ़ है 122 का ।
यानी
122--122---122---12 हुआ बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़।

अच्छा अब मक़्सूर की भी बात कर लेते हैं___
--- क़स्र ज़िहाफ़ कैसे अमल करता है ?
अगर किसी सालिम रुक्न के आख़िरी टुकड़ा सबब-ए-ख़फ़ीफ़ हो यानी 2 पर गिर रहा हो ] तो -लुन्-[ लाम् मुतहर्रिक + नून् साकिन ] के आख़िरी नून [न् ] को गिराना या मिटाना और इसके पहले
वाला जो लाम [ वह अभी मुतहर्रिक है] को साकिन [1] कर देना ही तो मक़सूर है ।
मक़्सूर का शब्दकोशीय माने ही होता है " छोटा किया गया, जो कम किया गया हो ह्रस्व किया गया हॊ ।
122 = फ़ऊ लुन् = लुन् बोले तो 2= यानी लाम मुतहर्रिक+ नून साकिन = यही तो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ है= नून को मिटा दे और लाम [ मुतहर्रिक को साकिन यानी- 1- कर दें]
तो क्या बचेगा ? 1 2 1 बचेगा और यही 121 सालिम रुक्न 122 की मक़्सूर शकल है।
यानी
122---122---122---121 का नाम -बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन मक़्सूर
-----
इस चर्चा को यही खत्म करता हूँ । हो सकता है कि यह चर्चा आप लोगों को बोझिल हो जाए, सरदर्द पैदा कर दे. अरूज़ के प्रति वितॄष्णा पैदा कर दे।
जो हो । मगर् अरूज़ है एक दिलचस्प विषय।
लेकिन जाते जाते एक सवाल छोड़ जाता हूँ-- बताइएगा
[अ] -8 सालिम अर्कान में ये दोनो ज़िहाफ़ किन किन सालिम रुक्न पर लग सकते है?
[ब] -क्या यह बह्र-ए-कामिल पर भी लग सकता है ?
[नोट --इस मंच केअसातिज़ा से गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लतबयानी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़रमाएँ ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ }
सादर
-आनन्द.पाठक-