एक चर्चा : यह कौन सी बह्र है [ 122---122----122--1221 ] क़िस्त 01
पिछली बार एक बह्र [ 122---122---122--121 ] पर एक स्वस्थ चर्चा हुई थी । आज एक और बह्र
122--122--122--1221 पर चर्चा करेंगे।
कल मेरे एक मित्र ने एक ग़ज़ल पेश की और बह्र लिखा
122---122--122---1222 । चर्चा को विस्तार देने के लिए उसी ग़ज़ल का मतला
यहाँ लगा रहा हूँ--
122---122--122---1222 । चर्चा को विस्तार देने के लिए उसी ग़ज़ल का मतला
यहाँ लगा रहा हूँ--
कहां थे गई रात अग़्यार के साथ
दगा तुम न करना मिरे प्यार के साथ//1
अगर्चे मैने इस बह्र का नाम मंच पर ’कमेन्ट सेक्शन ’ लिख दिया था फिर भी कुछ लोगों में भ्रम की स्थिति बनी रही।चूँकि कमेन्ट सेक्शन में इतनी जगह नही होती कि कोई बात विस्तार से लिखा जा सके या कही जा सके । अत: स्वतन्त्र रूप में यह लेख यहाँ लिख रह हूँ कि मैं अपनी बात स्पष्ट रूप से बता सकूँ।
122---122----122---1221
इस बह्र का नाम है - बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन मुस्बीग़ ।
अगर आप इतने से सन्तुष्ट हैं तो फिर आगे पढ़ने की ज़रूरत नहीं। इतनी जानकारी से भी आप का काम चल जायेगा और आप
शायरी करते रह सकते हैं
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अगर आप इतने से सन्तुष्ट नही है और यह जानना चाहते हैं कि यह बह्र कैसे बनी, यह नाम कैसे बना, यह मुस्बीग़ क्या बला है तो आप आगे पढ़ सकते है। ध्यान रहे यह अरूज़ का विषय है तो वज़ाहत अरूज़ के क़ायदे-क़ानून Rules Regulation से ही की जा सकती है।
लेख बोझिल हो सकता है अत: जिन्हे अरूज़ की थोड़ी बहुत जानकारी हो, जो अरूज़ से दिलचस्पी रखते हों ,अरूज़ आशना हैं ,पढ़ सकते है। जो मज़ीद मालूमात के तलबगार हैं वह भी पढ़ सकते हैं । ध्यान रहे ’सरदर्द" की जिम्मेदारी इस ग़रीब की न होगी ।
ख़ैर आगे बढ़ते हैं----
122---122---122---122-- इस बह्र को आप बख़ूबी पहचानते होंगे । हम आप सब इससे परिचित हैं।
बहुत आसान बह्र है । हर नया शायर या शायरा इस बह्र में तबअ’आज़माई करते हैं । पुराने शायरों ने भी की है।
नाम है --बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
आख़िरी वाले -122- [ जो अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर है --एक ज़िहाफ़ लगाते है-- ज़िहाफ़ ’तस्बीग़;
लगभग 50 ज़िहाफ़ों में ;तस्बीग़’ एक ज़िहाफ़ का नाम है --यह कैसे अमल करता है , क्या बदलाव करता है , कैसे बदलाव करता है इस पर चर्चा नही करेंगे । पर हाँ इसके अमल से जो रुक्न बरामद होती है -उसे हम -मुस्बीग़-कहते है। यानी
122 + ज़िहाफ़ तस्बीग़ = मुज़ाहिफ़ मुस्बीग़ 1221
यानी
फ़ऊ लुन् + तस्बीग़ = फ़ऊ लान् [ 12 21 ]= यानी लुन् [2] को लान् [ 21] कर दिया । यानी लाम और नून के बीच में एक अलिफ़ बढ़ा दिया
यही तस्बीग़ है ।
तस्बीग़-ज़िहाफ़ हमेशा अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर ही लगता है । बह्र के आख़िरी रुक्न पर ही लगता है। यह एक ख़ास ज़िहाफ़ है।
यहाँ ध्यान देने की एक बात है --लुन मे [ लाम मुतहर्रिक+ नून साकिन ] मगर तस्बीग़ ने मुतहर्रिक और साकिन के बीच में एक अलिफ़ [ साकिन ] और बढ़ा दिया
यानी लान = मुतहर्रिक[लाम] + साकिन[अलिफ़] + साकिन [नून]
ध्यान दीजिए जो साकिन [अलिफ़] का इज़ाफ़ा हुआ है वह बीच में हुआ है ,लुन के अन्त में नही हुआ है।
मैं यही कहना चाहता हूं -तस्बीग - साकिन का इज़ाफ़ा तो करता है मगर मिसरा के अन्त में नहीं करता है ।
मिसरा के अन्त में जो साकिन हर्फ़ का इज़ाफ़ा करने की जो छूट है --वह अलग केस है। इस केस में लागू नहीं होगा।वह छूट क्यों है ? उससे बह्र पर क्या फ़र्क पड़ता है। उसकी चर्चा पहले भी
किसी मंच पर कर चुका हूँ । इंशा अल्लाह , कभी यहाँ भी कर दूंगा।
इस बह्र को इस बिना पर ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता कि यह बह्र नज़र से नहीं गुज़री या कहीं दिखी नहीं।
122--122--122--1221-- एक मान्य मुज़ाहिफ़ बह्र हुई जो अरूज़ के नियम से बनी है । और इसका आख़िरी हर्फ़ साकिन --ज़िहाफ़ के कारण ्हुआ है न कि
किसी प्रकार की "छूट" के कारण नहीं।
[ ऐसी बह्र या इस प्रकार की बह्र के कुछ ग़ज़ल या शे’र के उदाहरण अगले क़िस्त में दे दूँगा]
चूँकि किसी ग़ज़ल की बह्र ’ मतला’ से ही निर्धारित होती है । और यहाँ शायर ने मतला के दोनो मिसरों में 122--122--122--1221 बाँधा है
अत: इस मुज़ाहिफ़ [अब यह बह्र सालिम नहीं रही] का नाम होगा ---बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन मुसबीग़ ।
[ इस मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर इस हक़ीर से कुछ ग़लतबयानी हो गई हो तो बराए मेहरबानी निशानदिही फ़रमाए कि यह राकिमआइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सके ।
सादर
-आनन्द.पाठक-
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