बुधवार, 11 नवंबर 2020

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 001 [ सालिम रुक्न कैसे बनते है ?

 उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 001 [ सालिम रुक्न कैसे बनते है ?


क़िस्त 000 में हम 8-सालिम रुक्न की चर्चा कर चुके है । ये बनते कैसे  हैं , आज हम उसी पर चर्चा करेंगे।

 हर सालिम रुक्न सबब और वतद के योग से बनता है। आप जानते हैं कि शायरी के लिए 8- सालिम रुक्न मुक़र्रर है

। देखिए कैसे यह वतद और सबब के कलमा के  योग से बनते हैं ।


1- फ़ऊलुन فعولن = फ़ऊ+ लुन = 12+ 2 =  1 2 2 =वतद -सबब

2- फ़ाइलुन فا علن = फ़ा + इलुन = 2 + 12 =  2 1 2 =सबब+ वतद

3- मुफ़ाईलुन مفا ٰعلن = मुफ़ा +ई+लुन = 12 + 2 +2 = 1 2 2 2 = वतद + सबब+सबब

4- फ़ाइलातुन فاعلاتن = फ़ा +इला+ तुन = 2 +1 2 + 2 = 2 1 2 2 = सबब+ वतद+ सबब

5- मुस तफ़ इलुन مستفعلن    = मुस+तफ़+इलुन = 2+2+ 12 =2 2 1 2 = सबब+सबब+ वतद 

6- मुतफ़ाइलुन متفاعلن = मु +त+फ़ा+इलुन = (1+1)+2+12= 1 1 2 1 2     =  सबब+सबब +वतद 

7- मुफ़ा इ ल तुन مفاعلتن = मुफ़ा_ इ+ल+तुन =  12 + {1+1) + 2= 1 2 1 1 2 = वतद + सबब+ सबब

8- मफ़ऊलातु مفعلاتُ = मफ़+ऊ+लातु = 2 +2+2 1 = 2 2 2 1 =    सबब+सबब+ वतद 


ध्यान से देखें :- 

[अ] सभी रुक्न में -वतद -एक खूंटॆ [ PEG] की तरह स्थिर  गड़ा हुआ है -और -सबब- एक रस्सी सा बँधा हुआ है इस खूंटे से,-जो कभी -वतद -के बाएं तो कभी दाएं आ जाते है --मगर वतद को छोड़ नही रहे है। इसीलिए मैने पिछले क़िस्त में कहा था कि अरबी में - वतद -का एक अर्थ ’खूँटा’ भी  होता है और सबब का एक अर्थ ’रस्सी’ ।’सबब’ कभी”वतद’ के बाएँ --कभी दाएँ कभी दोनॊ बाएं -कभी दोनो दाएँ  घूम रहे हैं।

[ब] आप देख रहे है -सबब - के किए कहीं -लुन--कहीं - फ़ा- कहीं -ई- कहीं -तुन-- कहीं -मुस-=- कहीं -तफ़- कहीं--मफ़- ये सब दो हर्फ़ी कलमा है जिसमे पहला हर्फ़ ’मुतहर्रिक’ है और दूसरा हर्फ़ :साकिन’ । सवाल यह है कि सबब-ए-ख़फ़ीफ़ के लिए कोई एक  ही कलमा काफी था ,पता नहीं इतने लाने की क्या ज़रूरत थी । यह तो कोई अरूज़ी ही बता सकता है ।

[स] यही बात वतद के लिए भी है । कहीं- फ़ऊ- --कहीं -इलुन- कहीं -मुफ़ा- --कहीं -इला-लिया ,।

[द] मज़े की बात तो सबब-ए-सकील में के लिए है। वाफ़िर [ मफ़ा इ ल तुन ] में इसे --इ-ल- लिया मगर कामिल [ मु त फ़ा इलुन] में इसे मु-त -लिया[ दोनॊ मुतहर्रिक ] । मगर अलग अलग।

इन सभी सालिम अर्कान पर एक एक कर के चर्चा कर लेते हैं ।

1- फ़ऊलुन   فعولن =2 2 1

’फ़ऊलुन’[ फ़े’लुन]- एक सालिम रुक्न है और यह -"बहर-ए-मुतक़ारिब ’ का बुनियादी रुक्न है ।यह 5-हर्फ़ [ फ़े-ऐन- वाव--लाम --नून = 5 ] से मिल कर बना है तो इसे  ’ख़म्मासी’ रुक्न भी कहते हैं [ख़म्स: माने-5-वस्तुओं का समाहार ]-] फ़ऊ --क्या है ? कुछ नहीं है ।यह सालिम रुक्न " वतद-ए-मज्मुआ [फ़ऊ] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [लुन] से मिल कर बना है यानी 12+2 = 1 2  2 से बनता है।

इस हमवज़न अल्फ़ाज़ हैं जैसे-----ज़माना/-- फ़साना-- बहाना--निशाना---वफ़ा कर/ सितमगर/ इशारा/ निगाहों / सितारों /सनम /मुकाबिल  ---  ऎसे बहुत से अल्फ़ाज़।

एक बात और । इसका वज़न हिन्दी के के गण [ देखें क़िस्त 000 ] यगंण [ यमाता = 1 2 2 ] के वज़न पर उतरता है । बस एक व्यवस्था है वज़न दिखाने का ।-फ़े -ऐन-वाव  [ मुतहर्रिक +मुतहर्रिक + साकिन ] है जो वतद-ए-मज़्मुआ की नुमाइन्दगी कर रहा है बस। और लुन ? लुन भी कुछ नहीं है । लाम -नून [ मुतह्र्रिक +साकिन] सबब-ए-ख़फ़ीफ़ की नुमाइन्दगी कर रहा है । 

ज़िहाफ़ [ चर्चा आगे किसी मुनासिब मुक़ाम पर करेंगे] --हमेशा सालिम  रुक्न पर ही लगता है और वह भी सालिम रुकन के ’जुज़’ [ टुकड़े पर ] ही लगता है ।यानी कोई ज़िहाफ़ [ चाहे मुफ़र्द हो या मुरक़्क़ब हो]लगेगा तो सबब के जुज़ पर या वतद के जुज़ पर ही लगेगा । ये ज़िहाफ़ात भी अलग अलग अमल के होते है _- सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात अलग [ जैसे---ख़ब्न--तय्य--क़ब्ज़---कफ़--कस्र--हज़्फ़--आदि

वतद-ए-मज़्मुआ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात अलग [ जैसे-ख़रम--सलम--कतअ’ बतर--इज़ाला आदिक-----॥

इसमें कुछ ज़िहाफ़ात तो शे’र में  -सद्र/इब्तिदा के लिए ही ख़ास है --।] कुछ अरूज़ और ज़र्ब के लिए ख़ास है । ज़िहाफ़ात की चर्चा --आगे कही करेंगे।

2- फ़ाइलुन [2 1 2 ]= مفا ٰعلن 

’फ़ाइलुन’ - एक सालिम रुक्न है और यह "बह्र-ए-मुतदारिक" का बुनियादी रुक्न है। यह भी एक 5- हर्फ़ी यानी ख़म्मासी रुक्न भी कहते हैं[यह रुक्न  सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ फ़ा] +वतद-ए-मज़्मुआ [ इलुन] से मिल कर बना है

 यानी  2+1 2= 2 1 2 के योग से बनता है। आप "फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] से इसकी तुलना करें । देखें कि क्या फ़र्क़ है --व्यवस्था में, वतद-सबब के लिहाज़ से ।

इसके हमवज़न  अल्फ़ाज़ हैं----- प्यार का /आशना / कामना / सामना/ दिल्ररूबा / ऎ सनम/ ऐसे बहुत से अल्फ़ाज़। 

एक बात और। हिंदी के गण से तुलना करें [ देखें 000] तो इसका वज़न ’रगण’ [ राज़भा = 2 1 2] पर उतरता है

इसीलिए कहते हैं कि ये दोनो रुक्न हिन्दी छन्द शास्त्र  से उर्दू अरूज़ में आए हैं और उसमे ’ फ़ाइलुन’ -पहले आया । ठीक ’फ़ऊलुन’ की तरह इस पर वही ज़िहाफ़ लगेगे जो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ और वतद-ए-मज़्मुआ पर लगेंगे मगर कुछ क़ैद के साथ । कारण कि इस रुक्न की शुरुआत "सबब’ [फ़ा]से हो रही है जब कि ’फ़ऊलुन’[फ़ऊ] शुरुआत ’ वतद-ए-मज़्मुआ’ से शुरु हो रही है । ज़िहाफ़ की चर्चा बाद में करेंगे।

3- मुफ़ाईलुन [ 1 2 2 2 ] =مفا ٰعلن 

’मुफ़ाईलुन ’ -भी एक सालिम रुक्न है और यह "बह्र-ए-हज़ज" का बुनियादी रुक्न है ।यह भी एक 7-हर्फ़ी [ मीम---फ़े--अलिफ़--ऐन- ये--लाम--नून=7] सुबाई रुक्न है। यह वतद-ए-मज्मुआ [ मुफ़ा ]+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ई]+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [लुन] से मिल कर बना है यानी  = 12+2+2 = 1 2 2 2 से बनता है । यह हिन्दी छन्द-शास्त्र के किसी गण से नहीं मिलता है ।

इसके हमवज़न अल्फ़ाज़ हो सकते है--- मना कर दो / वफ़ा करना / सितमगर हो/ पता दे दो / निभाना है / --जैसे बहुत से अल्फ़ाज़।

इस रुक्न पर लगने वाले कुछ ख़ास ख़ास ज़िहाफ़ के नाम यहाँ लिख रहा हूँ जैसे ख़रम---कफ़---कस्र--क़ब्ज़---सरम--हत्म--जब्ब:--बत्र--सतर-- । इसके अलावा और भी  फ़र्द और मुरक़्कब ज़िहाफ़ भी लगते हैं।

ज़िहाफ़ की चर्चा बाद में करुँगा। 

4- फ़ाइलातुन  [ 2 1 2 2 ] =فاعلاتن

फ़ाइलातुन - भी एक सालिम रुक्न है और यह ’बह्र-ए-रमल’ का बुनियादी रुक्न है। यह भी एक -7- हर्फ़ी [सुबाई] है। यह रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़[ फ़ा] + वतद-ए-मज्मुआ [इला] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [तुन] =  2+ 1 2 + 2 = 2 1 2 2  से बनता है।यह भी एक 7-हर्फ़ी सुबाई रुक्न है ।

इसके हम वज़न अल्फ़ाज़ हो सकते हैं ---दिल-ए-बीना-- .नासुबूरी----बेहुज़ूरी -- अंजुमन है--- जैसे बहुत से अल्फ़ाज़ ।

इस सालिम रुक्न पर लगने वाले ख़ास ख़ास ज़िहाफ़ है --ख़ब्न---कफ़---क़स्र--तश्शीस---हज़्फ़--शकल आदि । इसके अलावा और भी बहुत से फ़र्द और मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ भी लगते है ।

5- मुसतफ़इलुन [ 2 2 1 2 ]

”’मुसतफ़इलुन’- भी एक सालिम रुक्न है और यह ’बह्र-ए- रजज़" का बुनियादी रुक्न है । यह भी एक 7-हर्फ़ी  सुबाई रुक्न है।

यह रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [मुस] +सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [तफ़]+ वतद-ए-मज्मुआ [ इलुन ] से मिल कर बना है।यानी  2+2+12 =2 2 1 2

इसके हम वज़न अल्फ़ाज़ हो सकते है जैसे - आ जा सनम / आए नहीं / इतना सितम / जैसे बहुत से अल्फ़ाज़ 

इस सालिम रुक्न पर लगने वाले मुख्य ज़िहाफ़ हैं ------ख़ब्न---तय्यी--क़तअ’--इज़ाला और भी बहुत से फ़र्द और मुरक़्क़ब ज़िहाफ़

6- मुतफ़ाइलुन [ 1 1 2 1 2 ]

मुतफ़ाइलुन - भी एक सालिम रुक्न है और यह  ’बह्र-ए-कामिल ’ का बुनियादी रुक्न है। यह भी एक 7-हर्फ़ी सुबाई रुक्न है।

यह रुक्न सबब-ए-सकील [ मु त ] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [फ़ा]+वतद-ए-मज्मुआ [इलुन ] से मिल कर बना है यानी 1 1+ 2+ 1 2 = 1 1 2 1 2 

यहाँ पर प्रदर्शित 1 1 को आप मुतहर्रिक हर्फ़ समझे न कि हिंदी का ’लघु वर्ण’ समझें।

ध्यान देने की बात है कि पहला - सबब- सबब-ए-सकील है और जब कि दूसरा सबब -सबब-ए-ख़फ़ीफ़ है ।कहने का मतलब यह कि 

सबब-ए-सकील पर लगने वाले ज़िहाफ़ात अलग होते हैं जब कि सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात अलग होते हैं।

[ एक विशेष टिप्पणी --पिछली क़िस्त [000] में "फ़ासिला सुग़रा" की चर्चा किए थे कि वह चार हर्फ़ी कलमा जिसमे मुतहर्रिक+ मुतहर्रिक + मुतहर्रिक +साकिन  हर्फ़ हो यानी 1 1 2 जैसे--बरकत-- हरकत आदि जिसमें -ते [ते] साकिन है और बाक़ी सभी मुस्तमिल [ इस्तेमाल किए हुए ] हर्फ़ पर ज़बर का हरकत है । तो मु त फ़ा इलुन को फ़ासिला + वतद से भी दिखा सकते हैं । मगर हमने तो ऊपर सबब और वतद के परिभाषा से ही दिखा दिया और बता दिया । इसीलिए मैने कहा था कि 

फ़ासिला के बग़ैर भी अरूज़ का काम चल सकता है ।]

इस के हमवज़न अल्फ़ाज़ हो सकते है ---यूँ ही बेसबब / न फ़िरा करो / कोई शाम घर / भी रहा करो /[बशीर बद्र की एक ग़ज़ल से]-या ऐसे ही बहुत से जुमले।

या -तू बचा बचा / के न रख इसे / न कही जहाँ / में अमाँ मिली / [ इक़बाल की एक ग़ज़ल से ] 

और इस पर लगने वाले मुख्य मुख्य  ज़िहाफ़ात है ---इज़्मार--वक़्स--क़त’अ--इज़ाला --

7- मफ़ाइलतुन [ 1 2 1 1 2 ]

मफ़ाइलतुन - भी एक सालिम रुक्न है और यह बह्र-ए-वाफ़िर का बुनियादी रुक्न है। यह भी एक 7-हर्फ़ी सुबाई रुक्न है।

यह  वतद-ए-मज्मुआ [ मुफ़ा ]+ सबब-ए-सकील[ इ ल] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़[ तुन] से मिल कर बना है यानी 12 1 1 2 = 1 2 1 1 2 

यहाँ पर प्रदर्शित 1 1 को आप मुतहर्रिक हर्फ़ समझे न कि हिंदी का लघु वर्ण ।

[ एक विशेष टिप्पणी --इस रुक्न को भी फ़ासिला + सबब से दिखा सकते हैं यानी वतद+फ़ासिला = 12 112    और   वतद और सबब से भी।आप को जो सुविधाजनक लगे।

  एक बार ध्यान से देखें -- क्या आप को मफ़ा इ ल तुन [ वाफ़िर] --बरअक्स मु त फ़ाइलुन [ कामिल का नहीं लगता ?

इस पर लगने वाले मुख्य ज़िहाफ़ात हैं------इज़्मार---वक़्स---कतअ’--इज़ाला --और भी बहुत से फ़र्द और मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ भी।

8- मफ़ऊलातु [ 2 2 2 1 ] 

मफ़ऊलातु -- भी एक सालिम 7-हर्फ़ी सुबाई रुक्न तो है मगर यह किसी सालिम बह्र की बुनियादी रुकन नहीं है। हो भी नहीं सकती । कारण कि इसका हर्फ़-उल-आखिर -तु- [ ते पर 

पेश की हरकत है ] मुतहर्रिक है । उर्दू ज़बान की फ़ितरत ऐसी है कि मिसरा का आख़िरी हर्फ़ -साकिन -हर्फ़ पर गिरता है, मुतहर्रिक पर कभी नहीं गिरता ।तो ?

यह मिसरा के आखिर में अपने मुज़ाहिफ़ शक्ल  [ जिसमे आखिरी साकिन हो जाता है ] में ही आ सकता है । हाँ यह रुक्न अपने  सालिम शकल में मुरक़्क़ब बहर के बीच में आ सकती

है और आती भी है । मगर ज़्यादातर अपनी मुज़ाहिफ़ शकल में ही आती है ।

इस के हम वज़न अल्फ़ाज़ तो सालिम शकल में नहीं दिए जा सकते । हाँ क़सरा-ए-इज़ाफ़त और वाव-ओ-अत्फ़ की तरक़ीब से हो सकता है ।

इस पर लगने वाले ्मुख्य मुख्य ज़िहाफ़ात हैं---अज़्ब--क़स्म--जम्म-- अक़्ल --नक़्स-- और भी बहुत से मुफ़र्द और मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ भी।

उर्दू शायरी में प्रचलित 8-सालिम अर्कान की बात तो हो चुकी मगर अबतक "वतद-ए-मफ़रूक़" का ज़िक्र तो आया नहीं जब कि पिछले क़िस्त [000]  में इस पर चर्चा कर चुका हूँ।

ऊपर वर्णित दो रुक्न -ऎसे हैं जिनके इमला की दो शकले [ उर्दू स्क्रिप्ट में लिखने के दो तरीक़े ] मुमकिन है और लिखे जाते हैं । एक तरीक़े को --मुतस्सिल और दूसरा तरीक़े को मुन्फ़सिल कहते है।

मुत्तस्सिल तरीके में अर्कान में मुस्तमिल तमाम हर्फ़ -सिल्सिले- से यानी एक दूसरे से मिला कर लिखते है जब कि -मुन्फ़सिल- तरीक़े में कुछ हर्फ़ में ’फ़ासिला- देकर लिखते है

मुत्तस्सिल तरीक़ा तो वही जो ऊपर लिखा जा चुका है । मुन्फ़सिल तरीका नीचे लिख रहा हूँ ।

तरीक़ा कोई हो- वज़न दोनो में समान ही रहेगा और तलफ़्फ़ुज़ भी लगभग समान रहेगा।

--फ़ाइलातुन [ रमल ] فاع لاتن =’ मुन्फ़सिल शकल ]= 2 1 2 2 = फ़ाअ’ ला तुन = [ फ़ा अ’ में---ऎन ्मुतहर्रिक है यानी --्फ़े [-मुतहर्रिक] +अलिफ़ [साकिन] + ऐन [ मुतहर्रिक } ---यानी वतद-ए-मफ़रुक़ [ दोनो मुतहर्रिक के बीच में फ़र्क है। 

--मुसतफ़इलुन [ रजज़]   مس تفع لن= मुन्फ़सिल शकल = 2 2 1 2 = मुस तफ़अ’ लुन = [ तफ़ अ’ -यहाँ भी -ऎन- मुतहर्रिक है ते -[ मुतहर्रिक] + फ़े [ साकिन ] + ऐन [ मुतहर्रिक ]-- यानी वतद-ए-मफ़रुक़ [ दोनो मुतहर्रिक के बीच में फ़र्क है। 

अब आप कहेंगे कि इस मुक़ाम पर इसकी चर्चा क्यों कर रहे हैं ? बिलकुल सही। इसलिए कर रहे है कि कुछ मुरक़्क़ब बह्र [ जैसे-----\] में यह रुक्न अपने मुन्फ़सिल शकल में ही आती हैं।

और उस बह्र  लगने वाले ज़िहाफ़ -वतद-ए-मफ़रुक -वाले ज़िहाफ़ लगेंगे। बहुत से लोग यही गलती कर देते है और उस मुक़ाम पर भी --वतद-ए- मज्मुआ वाले ज़िहाफ़ लगा देते हैं । हमे इसका पास [ ख़याल ] रखना होगा

ये दोनो कोई नया रुक्न नहीं है । ये तो बस वर्णित रुक्न के बदली शकल हैं ।नया कुछ भी नहीं।

-आनन्द.पाठक-

 


 






रविवार, 1 नवंबर 2020

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 000 [ अरूज़ की कुछ बुनियादी बातें ]

   उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 000 [ अरूज़ की कुछ बुनियादी बातें ]


भूमिका : बहुत दिनों बाद जब अपने ब्लाग के इस श्रृंखला के पुनरीक्षण और परिवर्धन करने की सोच रहा था तो
ध्यान में आया कि अरूज़ की कुछ बुनियादी बातें  ऐसी थीं जो इस इस  श्रृंखला में सबसे पहले आनी चाहिए थी जिससे
पाठक गण को आगे के क़िस्तों को समझने/समझाने में सुविधा होती । जब तक यह बात 
ध्यान में आती तबतक बहुत विलम्ब हो चुका था और 75-क़िस्त लिखा जा चुका था । ख़ैर कोई बात नहीं।
जब जगे तभी सवेरा।
यह वो बुनियादी बातें है जिनका ज़िक्र हर क़िस्त में आता रहता है और वज़ाहत करती रहनी पड़्ती है । इसीलिए सोचा कि ये सब बातें
यकजा कर लूँ जिससे क़िस्तों में  बारहा ज़िक्र न करना पड़े। 
इसी लिए इस क़िस्त की संख्या 000 डालना पड़ा.जो क़िस्त 01 से पहले आना चाहिए था ।
इस क़िस्त में ,अरूज़ की कुछ बुनियादी बातों पर चर्चा करेंगे।

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1- जैसे हिंदी [संस्कृत] के छन्द-शास्त्र में ’वार्णिक छन्दों’ में मात्रा गणना और अनुशासन के लिए ’गण’ निर्धारित 

किए गये हैं जिसे हम ’दशाक्षरी सूत्र"  -यमाताराजभानसलगा - से याद रखते हैं । यानी

[1] यगण = यमाता = 1 ऽ ऽ  = 1 2 2 

[2] मगण = मातारा = ऽ ऽ ऽ = 2 2 2  

[3] तगण = ताराज = ऽ ऽ 1  = 2 2 1

[4] रगण = राजभा =  ऽ 1 ऽ = 2 1 2 

[5] जगण = जभान = 1 ऽ 1 =  1 2 1 

[6] भगण = भानस = ऽ 1 1 =  2 1 1 

[7] नगण = नसल  = 1 1  1 =  1 1 1 

[8] सगण = सलगा = 1 1 ऽ = 1 1 2 

यानी 1-2 के तीन-तीन वर्ण के combination /permutation 8- गण बनते है जहाँ [ 1= लघु वर्ण   ] और 

[ ऽ = दीर्घ वर्ण ]  मानते हैं ।

2-  जैसे हिंदी में [ और संस्कृत में भी ]  छन्दों के लिए 8- गण की व्यवस्था है ,वैसे ही ’उर्दू’ में  भी  ’अरूज़’ के लिए भी 8- रुक्न [ ब0व0 अर्कान ]

की व्यवस्था है जो निम्न हैं । अरूज़ को आप उर्दू शायरी का छन्द शास्त्र समझिए ।

-सालिम  रुक्न --- बह्र का नाम 

[1] फ़ऊलुन   =  1 2 2  = बह्र-ए-मुतक़ारिब का सालिम रुक्न=  5- हर्फ़ी रुक्न [ख़म्मासी रुक्न]

[2]   फ़ाइलुन   =  2 1 2  = बह्र-ए-मुतदारिक का सालिम रुक्न=     -do-

[3] मफ़ाईलुन  = 1 2  2 2 = बह्र-ए-हज़ज का  सालिम रुक्न =    7- हर्फ़ी रुक्न[सुबाई रुक्न]

[4]  फ़ाइलातुन =  2 1 2 2 = बह्र-ए-रमल का सालिम रुक्न  -do-

[5]  मुसतफ़इलुन= 2 2 1 2 = बह्र-ए-रजज़ का सालिम रुक्न =   -do-

[6]        मु त फ़ाइलुन = 1 1 2 1 2 = बह्र-ए-कामिल का सालिम रुक्न  = -do-

[7]  मुफ़ा इ ल तुन = 1 2  1 1 2= बह्र-ए-वाफ़िर का सालिम रुक्न  =  -do-

[8]        मफ़ ऊ लातु    =  2  2  2 1 = ---   ---             =  -do-

   नोट1 -  ’मफ़ऊलातु’--एक सालिम रुक्न तो है मगर इससे कोई ’ सालिम बह्र " नहीं बनती । कारण ? आगे किसी मुक़ाम पर चर्चा करेंगे।

उर्दू में अर्कान को अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे--अफ़ाइल--तफ़ाइल--औज़ान -मीज़ान -- उसूल -- नाम कुछ भी हो अर्थ वही है । 
यह सालिम रुक्न कैसे बनते हैं ,इसकी भी चर्चा आगे किसी मुक़ाम पर करेंगे। आइन्दा चर्चा में हम ’रुक्न’/ अर्कान [ रुक्न का ब0व0] -लफ़्ज़ ही इस्तेमाल करेंगे।
यहाँ पर ये अर्कान उर्दू के किस ’दायरे’ [ वृत्त] से निकलते है --उसकी चर्चा नहीं करेंगे। कारण? कारण कि हमे इसकॊ ज़रूरत नहीं पड़ेगी
अगर विस्तार से समझना हो इसके बारे में तो अरूज़ की किसी भी किताब में ब आसानी मिल जायेगी ।
नोट2 -  पाँच हर्फ़ी [5-हर्फ़ी ]रुक्न को ’ख़म्मासी रुक्न " कहते हैं  जैसे फ़ऊलुन--फ़ाइलुन [2-रुक्न ]
सात हर्फ़ी [7-हर्फ़ी] रुक्न को ’सुबाई रुक्न’-कहते हैं जैसे  मुफ़ाईलुन---फ़ाइलातुन---मुस तफ़ इलुन--मुतफ़ाइलुन---मुफ़ाइलतुन--मफ़ऊलातु  [ 6-रुक्न]
3-  यह भी क्या इत्तिफ़ाक़ है कि हिंदी के छन्द गणना के लिए  8-  बुनियादी गण  और उर्दू के अरूज़ के लिए भी  8-बुनियादी सालिम रुक्न ! ख़ैर

4- उर्दू शायरी के लिए थोड़ी बहुत उर्दू के हरूफ़ [ हर्फ़ का ब0व0] ,क़वायद [ क़ायदा का ब0व0] की जानकारी होनी चाहिए। हो तो बेहतर।और मैं आशा करता हूँ कि इतनी बहुत जानकारी अवश्य होगी। जानकारी होगी तो आप को अरूज़,बह्र,वज़न समझने /समझाने में   और आसानी होगी।

5-       उर्दू के मात्र दो -रुक्न [ फ़ऊलुन 1 2 2  और फ़ाइलुन 2 1 2  ] ऐसे सालिम रुक्न हैं जो हिंदी के .गण [  यगण 1 2 2  और  रगण 2 1 2 ] से मेल खाते हैं

इसीलिए कहा जाता है कि ये दो वज़न --हिंदी से उर्दू में आए हैं और उसमें भी ’फ़ाइलुन [2 1 2 ]  वज़न ’ पहले आया ।


6- जैसे  हम हिंदी में  ’वर्ण-माला ’ होती  हैं .वैसे ही उर्दू में हिज्जे होते है जिसे  ’हरूफ़-ए-तहज्जी, कहते हैं । इन की संख्या 35-या  36 ।उर्दू मे हरूफ़-ए-तहज्जी में 

बहुत से हर्फ़ ’अरबी’ से आए ,कुछ फ़ारसी तुर्की हिंदी से भी आए ।.जब जब और जैसे जैसे उर्दू को मुख्तलिफ़ आवाज़ों की ज़रूरत महसूस होती गई ,हर्फ़ आते गए अलामात [ चिह्न] बनाते गए। यही बात हिंदी में भी हुई । उर्दू हर्फ़ की कुछ  आवाजें  हिंदी में नहीं थी अत: हिंदी के वर्ण में --नुक़्ता [ अलामत ] लगा कर काम चलाते हैं।क़---ख़--ग़---ज़--अ’ --आदि। मगर यह भी नाकाफी था । जैसे उर्दू में --ज़- की आवाज़ के लिए  के 5- हर्फ़ होते है , मगर हमने सबके लिए -एक- ही वर्ण -ज़- रखा।

हिंदी में अब आम आदमी के दैनिक बातचीत में -अब यह नुक़्ते का भी फ़र्क दिनो दिन मिटता जा रहा है -लेखन में भी और उच्चारण में भी।

मगर हम शे’र और ग़ज़ल  बावज़ूद इन बारीकियों के भी समझ जाते हैं ।

7- साकिन हर्फ़  : हरूफ़-ए-तहज्जी के तमाम हर्फ़ मूलत: साकिन होते हैं जब तक कि उन पर कोई ’हरकत’ न दी जाए । आप इन्हें संस्कृत के ’ हलन्त’ वाला’ व्यंजन समझ सकते हैं ।जैसे -क्-ज़्-प्

फ़्-- आदि। चूंकि यह हर्फ़ बिना स्वर के होते है। जब इन हर्फ़ पर  पर ’हरकत’ [ ज़ेर--ज़बर-पेश की] दी जाती है  इनको स्वर दिया जाता है  तब यह अपनी अपनी आवाज़ देते हैं।

वरना तो शान्त ही रहते हैं । इसीलिए इन्हे ’साकिन’ [ शान्त] कहते है॥

उर्दू का हर लफ़्ज़ ’साकिन’ पर ही ख़त्म होता है । ज़ुबान की फ़ितरत ही ऐसी है ।


8-  मुतहर्रिक हर्फ़  : जब किसी साकिन हर्फ़ को ’हरकत’  [ ज़बर, ज़ेर. पेश की ] दी जाती है  यानी स्वर दिया जाता है  तो वैसी ही अपनी आवाज़ देते हैं ।  वैसे तो उर्दू में 7-क़िस्म की हरकत होती है 

ज़बर---ज़ेर--पेश--मद्द--जज़्म--तस्द्दीद--तन्वीन । मगर इसमें 3- [ ज़बर-ज़ेर-पेश ] ही मुख्य हैं । यह् सब् बातें उर्दू के किसी भी क़वायद [व्याकरण ] की किताब में ब आसानी मिल जायेगी

जैसे 

-क्- ज़बर =क । -क्-ज़ेर =कि । क्-पेश =कू 

ज़्- ज़बर  =ज़   ।ज़्-ज़ेर  = जि  ।ज़्-पेश =ज़ू

प् - ज़बर = प  ।  प् ज़ेर् = पि   ।  प् पेश =पू


अगर किसी”हर्फ़’ पर कोई ’अलामत ’ न लगी हो तो समझ लें कि ’ज़बर’ की अलामत  तो ज़रूर होगी । यह बात अलग है कि लोग लिखते वक़्त उसे दिखाते नहीं ।

  अगर आप मुतहर्रिक [ हरकत लगा हुआ हर्फ़ ] और साकिन [ बिना हरकत लगा हुआ हर्फ़ ] अच्छी तरह समझ लें तो आगे चल कर शे’र का वज़न ,बह्र समझने में और तक़्तीअ’ 

करने में , शब्द के मात्रा गणना करने में आप को कोई असुविधा नहीं होगी । उर्दू लफ़्ज़ का पहला ’हर्फ़’ -मुतहर्रिक होता है । यानी उर्दू का कोई लफ़्ज़ ’साकिन’ हर्फ़ से शुरू नहीं होता ।


9-   सबब = "दो-हर्फ़ी कलमा " को सबब कहते हैं जैसे -- अब--तब--ग़म--दिल---रंज-- नम-- की --भी---तुम--हम --मन--इत्यादि

सबब---दो प्रकार के होते है 

[क]   सबब-ए-ख़फ़ीफ़

[ख]    सबब-ए-सकील

 

सबब-ए-ख़फ़ीफ़ = वह ’दो हर्फ़ी कलमा ’ [ अर्थ पूर्ण भी हो सकता है ,अर्थहीन भी हो सकता है ]-जिसमें पहला हर्फ़ ’ मुतहर्रिक’ हो और दूसरा हर्फ़ ’साकिन ’ हो । यानी [मुतहर्रिक साकिन ] बज़ाहिर हर दो हर्फ़ी कलमा सबब-ए-ख़फ़ीफ़

ही होगा  क्योंकि उर्दू का पहला हर्फ़ तो मुतहर्रिक होता है और आख़िरी हर्फ़ साकिन ही होता है [ देखे ऊपर 7- और 8 ] इसे -2- की अलामत से दिखाते हैं। वैसे सबब का एक मानी [अर्थ]  -रस्सी- भी होता है 1

अभी  आप रस्सी { Rope ] ज़ेहन में रखें बाद में ज़रूरत पड़ेगी रुक्न की बुनावट समझने में ।


जैसे  अब --ख़त --तब--फ़ा--लुन--तुन--मुस--तफ़-- दो--गो--आदि

अब = -[अ] अलिफ़- मुतहर्रिक -+-[ब] बे साकिन = वज़न 2 

ख़त  = ख़ [ख़े]  मुतहर्रिक + त [ तोये]  साकिन     = वज़न 2


सबब-ए-सकील = वह -’दो हर्फ़ी कलमा’ - जिसमें पहला हर्फ़ मुतहर्रिक हो और दूसरा हर्फ़ भी मुतहर्रिक हो । यानी "मुतहर्रिक+ मुतहर्रिक"

उर्दू में ऐसा स्वतन्त्र शब्द मिलना मुश्किल है [ देखे पैरा 7-और 8 ] मगर उर्दू की [ वस्तुत:  फ़ारसी की 1-2 तरक़ीब है जिसे उर्दू ने भी अपना लिया है ] कसरा-ए-इज़ाफ़त और वाव-ए-अत्फ़ ।

इस से  ठीक इससे पहले वाले साकिन हर्फ़ पर ’हरकत’ आ ही जाती है या महसूस होती है । इसे 1-1 के अलामत से दिखाते है 

  जैसे 

ग़म-ए-दिल = वैसे ग़म [ स्वतन्त्र रूप से ] में -म[मीम ] तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- मीम [म] पर हरकत [ एक भारीपन = सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है ।अत: -गम- का वज़न  यहाँ [ 1 1 ] लिया जायेगा

दिल-ए-नादाँ =  वैसे दिल [ स्वतन्त्र रूप से ] में -लाम [ल ] तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- लाम [ल] पर हरकत [ एक भारीपन  सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है ।अत: -दिल का वज़न यहाँ [ 1 1 ] लिया जायेगा

दौर-ए-हाज़िर=  वैसे दौर  [ स्वतन्त्र रूप से ] में -र[ रे  ] तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- रे [र] पर हरकत [ एक भारीपन  सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है । अत: दौर का वज़न यहाँ [2 1 ] लिया जायेगा


रंज-ओ-अलम = वैसे रंज [ स्वतन्त्र रूप से ] में -ज़  तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- ज़ -पर हरकत [ एक भारीपन  सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है । अत: रंज़ का वज़न  [2 1 ] लिया जायेगा 

जान-ओ-जिगर = वैसे जान [ स्वतन्त्र रूप से ] में -न [नून ] तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- नून [न ] पर हरकत [ एक भारीपन  सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है ।अत: जान का वज़न 2 1 लिया जायेगा।


10 - वतद = 3-हर्फ़ी कलमा को वतद कहते है । अगर हम आप से कहें कि 2-हर्फ़ [ मुतहर्रिक और साकिन ] से 3- हर्फ़ी कलमा के कितने arrangment हो सकते है ? बज़ाहिर 3- हो सकते है । अर्थ पूर्ण भी हो सकता है ,अर्थहीन भी हो सकता है ]

अनदेखिए कैसे 

[अ]    मुतहर्रिक + मुतहर्रिक + साकिन

[ब]     मुतहर्रिक + साकिन + मुतहर्रिक

[स]     मुतहर्रिक + साकिन + साकिन 


जी,बिलकुल दुरुस्त । अत: वतद 3- प्रकार के होते है । वतद का एक अर्थ  "खूँटा’ [ PEG] भी  है । ये खूँटा--रस्सी का क्या लफ़ड़ा है --इसको बाद में समझायेंगे जब सालिम रुक्न कैसे बनते है पर चर्चा करेंगे ।


 [अ] वतद -ए--मज्मुआ =  वो तीन हर्फ़ी कलमा जिसमें पहला और दूसरा हर्फ़ ’मुतहर्रिक’ हो ।

जैसे --- जैसे ----अबद--असर---सहर--बरस--सफ़र--

 मज्मुआ--इसलिए कहते है कि दो- मुतहर्रिक एक साथ ’ जमा’ [ मज़्मुआ] हो गए। यानी मुतहर्रिक की ’तकरार- या मुकर्रर हो गया ।कभी कभी "वतद-ए- मक्रून" भी कहते है । मगर हम आइन्दा ’वतद-ए-मज्मुआ ’ ही कहेंगे


[ब] वतद-ए- मफ़रूक़  = वो तीन हर्फ़ी कलमा जिसमे पहला हर्फ़  मुतहर्रिक -दूसरा हर्फ़ साकिन--तीसरा                                                 हर्फ़ मुतहर्रिक हो । मफ़्रूक़ - इसलिए कहते हैं कि दो मुतहर्रिक के position में                                                     "फ़र्क़’ [ मफ़्रूक़ ] है 

                                            जैसे ’फ़ाअ’ [ -ऐन मुतहर्रिक ]-- एक रुक्न का  "जुज’ [टुकड़ा ] है यह। 

वतद-ए-मौक़ूफ़ =    वो तीन हर्फ़ी कलमा जिसमें पहला हर्फ़ मुतहर्रिक + दूसरा हर्फ़ साकिन+ तीसरा हर्फ़ साकिन                             हो ।से ----अब्र--उर्द--अस्ल--बुर्ज---जुर्म --

11-      फ़ासिला = सबब और वतद के अलावा दो परिभाषायें और भी है --4- हर्फ़ी कलमा और 5- हर्फ़ी कलमा के लिए । मगर हम यहाँ उनकी चर्चा नहीं करेंगे।कारण कि  बग़ैर  इसके भी हमारा काम चल जायेगा ।अब बात निकल गई तो थोड़ी सी चर्चा कर ही लेते हैं । 4- हर्फ़ी कलमा क्या है ? दो सबब है । यानी    सबब -ए-सकील+सबब-ए-ख़फ़ीफ़  =  अब आप फ़ासिला की परिभाषा खुद ही बना सकते है ।

यानी वो 4-हर्फ़ी कलमा जिसमे हरकत +हरकत+हरकत+साकिन वाले हर्फ़ एक साथ हों \

जैसे  "लफ़्ज़ "हरकत " खुद ही फ़ासिला है ।ह+र+क+त् । ऐसे लफ़्ज़् को ’फ़ासिला सुग़रा ’ कहते हैं

5-हर्फ़ी कलमा क्या है ? सबब-ए-सकील + वतद-ए-मज्मुआ = यानी हरकत+हरकत+हरकत +हरकत +साकिन= 5 हर्फ़ =ऐसे लफ़्ज़ को फ़ासिला कबरा कहते है।


बस आप समझ लीजिए कि उर्दू ज़ुबान की फ़ितरत ऐसी है कि यह "फ़ासिला कब्रा"-’सपोर्ट’ नही करती या नहीं कर पाती।


  [ नोट : आप पैरा 11-नहीं भी समझेंगे तो भी ’अरूज़’ का काम चल जायेगा । समझ लेंगे तो बेहतर। आप इन बुनियादी इस्तलाहात [ परिभाषाओं से ] घबराये नहीं।

 आगे चल कर ये परिभाषायें बड़े काम की साबित होंगी।बह्र और वज़न समझने में। उकताहट तो हो रही होगी मगर धीरे धीरे यह सब आप को भी अजबर [ कंठस्थ ] हो जायेगा ।धीरज रखिए ।


12  ज़ुज   :    सालिम रुक्न सबब और वतद के योग से बनता है। इन्हीं टुकड़ो से बनता है । कैसे बनता है इसकी चर्चा आगे करेंगे।इन्ही टुकड़ो को ’ज़ुज’ कहते हैं।


13 ज़िहाफ़ :    ज़िहाफ़ एक अमल है जो हमेशा ’सालिम रुक्न ’ पर ही लगता है। दरअस्ल -यह अमल ’सबब’ और ’ वतद’ पर ही होता है । ज़िहाफ़ से-सालिम रुक्न के वज़न में कतर-ब्यॊत हो जाती है। कमी -बेशी हो जाती है 

   और सालिम रुक्न का रूप बदल जाता है । इस बदली हुई शकल को " मुज़ाहिफ़ रुक्न’ कहते हैं । प्राय: वज़न में नुक़सान  भी हो जाता है ।कभी कभी वज़न बढ़  भी जाता है । पर वज़न में ज़्यादातर: कमी ही हो होती है  ।

ज़िहाफ़ की चर्चा किसी क़िस्त में विस्तार से करेंगे। 

शे’र में ’लोकेशन’ के लिहाज़ से ज़िहाफ़ 2-क़िस्म के होते हैं।

[अ] आम ज़िहाफ़ : वह ज़िहाफ़ जो शे’र के किसी मुक़ाम पर आ सकता है। [ शे’र के मुक़ाम के लिए नीचे देखें ] जैसे-- ख़ब्न---क़ब्ज़--त्य्यै --

[ब]  ख़ास ज़िहाफ़ : वह ज़िहाफ़ जो शे’र के किसी ’ख़ास’ मुक़ाम पर ही आ सकता है  [शे’र के मुक़ाम के लिए नीचे देखें ] जैसे--क़स्र----हज़्फ़ --खरम---

  सालिम रुक्न पर अमल संख्या के लिहाज़ से ज़िहाफ़ 2-किस्म के होते है। 

[अ]  मुफ़र्द ज़िहाफ़ : या ’एकल’ ज़िहाफ़। वह ज़िहाफ़ जो सालिम रुक्न पर ’अकेले’ ही अमल करता एक बार ही अमल करता  है ।

[ब]        मुरक़्क़ब ज़िहाफ़   या मिश्रित ज़िहाफ़ । वह ज़िहाफ़ जि दो या दो से अधिक ज़िहाफ़ से मिल कर बने हों।

कहते हैं कुल ज़िहाफ़ात की संख्या लगभग 50- के आस पास हैं 


14  सालिम बह्र : वह बह्र जो सालिम रुक्न [ ऊपर लिखे हुए ] के तकरार [ आवृति] से बनती है । सालिम -इसलिए कि ये अर्कान अपनी सालिम शकल [ बिना नुक़सान के ] में ही इस्तेमाल होती हैं 

’मुफ़ऊलातु’ -सालिम रुक्न से कोई सालिम बह्र नहीं बनती । वज़ाहत ऊपर नोट में दे दी गई है। सालिम बह्र --जैसे -- मुतक़ारिब --मुतदारिक --हज़ज--रमल --रजज़ --कामिल--वाफ़िर--

इनकी संख्या 7- हैं 

15- मुरक़्कब बह्र   या मिश्रित बह्र ।वह बह्र जो 2-या 2 से अधिक सालिम रुक्न से मिल कर बनती है । जैसे -- मुज़ार’ ख़फ़ीफ़--मुज्तस--बसीत -- जदीद--[ आगे के क़िस्त में ज़िक्र आयेगा]  इनकी संख्या 12- हैं 

-

16- मिसरा  : एक काव्यमयी अर्थ पूर्ण ,सार्थक  लाइन [ पंक्ति]  जो  अरूज़ के मान्य वज़न / अर्कान /बह्र /आहंग के अनुसार हो ,को मिसरा कहते है । 


17 शे’र = एक शे’र दो-मिसरों से मिल कर बनता है । पहले मिसरा को ’मिसरा ऊला’ [ ऊला/उला= अव्वल ] कहते है और दूसरे मिसरे को ’मिसरा सानी’ कहते हैं । [सानी= दूसरा]


18 मतला = किसी ग़ज़ल के पहले शे’र को  [जहाँ से ग़ज़ल तुलुअ’ -शुरु होती है ]"मतला कहते है । इसके दोनो मिसरों में ’हम क़ाफ़िया" इस्तेमाल होता है ।

19       मक़्ता  = किसी ग़ज़ल का आख़िरी शे’र  [ जहाँ ग़ज़ल क़त’ -ख़त्म हो जाती है कट जाती है ]  को ’मक़्ता’ कहते हैं । अगर शायर ’तख़्ल्लुस" डालना चाहे तो इसी मक़्ता के शे’र में डालता है ।

’तख़्ल्लुस’ डालना ---मक़्ता की आवश्यक शर्त नहीं है --आप की मरजी। आप डालना चाहे डालें ,न डालना चाहे न डालें।

20 तख़ल्लुस  [Pen Name ] = बहुत से शायर अपना "उपनाम" रखते हैं -जो बाद में उनकी पहचान बन जाती है । जैसे ग़ालिब--दाग़-- ज़ौक़--जिगर -- जब कि इनके असल नाम और हैं।’


21  -शे’र के मुक़ाम :  किसी शे’र में  अर्कान के ’लोकेशन’ के आधार पर उन मक़ामात के नाम भी दिए गए हैं जिससे उन स्थानों को पहचानने में या समझने में सुविधा हो ।


सद्र  = मिसरा ऊला के पहले   रुक्न के पहले मुक़ाम को - सद्र- कहते है ।

अरूज़  = मिसरा ऊला के अन्तिम मुक़ाम को   -अरूज़- कहते हैं


इब्तिदा = मिसरा सानी के पहले मुक़ाम को -इब्तिदा- कहते हैं

ज़र्ब      = मिसरा सानी के अन्तिम मुकाम को --ज़र्ब-कहते हैं ।


हस्व    = किसी शे’र के [ सदर/अरूज़ या इब्तिदा/ ज़र्ब के बीच ] उन तमाम मुक़ामात को -हस्व- कहते है 

   इस परिभाषा की ज़रूरत क्यों पड़ी ? इसलिए पड़ी कि कुछ -ज़िहाफ़- सदर और इब्तिदा के लिए मख़्सूस [ ख़ास है ] तो आप ब आसानी समझ जाएँ कि अमुक ज़िहाफ़ किस मुक़ाम के रुक्न पर लगेगा।

  वैसे ही अगर हम कहें कि अमुक -ज़िहाफ़- अरूज़/ज़र्ब के लिए मख़्सूस[ ख़ास]  है तो आप समझ लें कि इस अमुक ज़िहाफ़ का अमल कहाँ होगा।


एक उदाहरण से देखते हैं 

सितारों से आगे  जहाँ और भी हैं

अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं -इक़बाल -

-सद्र  - /  हस्व    / हस्व     / अरूज़

सितारों /से आगे  /जहाँ औ /र भी हैं

-------------------

  -इब्तिदा-/   --हस्व--/ -हस्व-  / ज़र्ब  

अभी इश्/ क़ के इम् / तिहाँ औ /र भी हैं

       एक और उदाहरण देखते हैं ---

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है 

आख़िर इस दर्द की दवा क्या है     -ग़ालिब-

  --सद्र--      / --हस्व--  / -अरूज़-

दिल-ए-नादाँ / तुझे हुआ /क्या है 

--------------

--सद्र---        / -हस्व--     / - ज़र्ब-

आख़िर इस दर्/ द  की दवा /क्या है    


22- मुरब्ब: बह्र  :- वह शे’र जिसमें -’चार अर्कान [4] - का इस्तेमाल हुआ हो । यानी एक मिसरा में -दो रुक्न [2]- हो ।बज़ाहिर मुरब्ब: में -हस्व- का मुक़ाम नहीं होता। यानी 

मिसरा ऊला मे --सद्र और अरूज़-- और मिसरा सानी में -इब्तिदा और ज़र्ब । हो गए 4-रुक्न के मुक़ाम। 


23-    मुसद्दस बह्र   : वह शे’र जिसमें -छह  अर्कान [6] का इस्तेमाल हुआ हो यानी  एक मिसरा में  -तीन[3]- अर्कान हो । बज़ाहिर मुसद्दस शे’र के एक मिसरा में -एक हस्व- का  ही  मुक़ाम- आयेगा।


24 -   मुसम्मन बह्र       : वह शे’र जिसमें -आठ- अर्कान [ 8 ]का इस्तेमाल हुआ हो यानी एक मिसरा में -चार [4] अर्कान हो । बज़ाहिर मुसम्मन शे’र के ए्क मिसरा में -दो हस्व - का मुक़ाम आयेगा

       [नोट -याद रहे ये ’अर्कान’ सालिम भी हो सकते है या मुज़ाहिफ़ रुक्न [ सालिम रुक्न  पर ज़िहाफ़ लगा हुआ ] भी हो सकते है या दोनो के मिश्रण भी हो सकते है । यह सब बह्र के नामकरण में आयेगा।

25    मुज़ायफ़ [ मुज़ाइफ़] बह्र: मुज़ायफ़/मुज़ाइफ़ के मा’नी होता है -दो गुना- करना । किसी शे’र में अगर अर्कान की संख्या को -दो गुना - कर दें तो उसके नाम में ’मज़ाइफ़’- शब्द जोड़ देंगे जिससे पता लग सके की शे’र मूलत: 

मुरब्ब: / मुसद्दस/ मुसम्मन ही है -बस अर्कान की संख्या को -दो गुना- कर के कहा गया है । यानी "मुरब्ब: मुज़ाइफ़" --में 8-अर्कान हैं। मुसद्दस मुज़ाइफ़ में -12- अर्कान हैं । मुसम्मन मुज़ाइफ़ में 16- अर्कान है

मुसम्मन मुज़ाइफ़ को कभी कभी 16-रुक्नी बह्र भी कहते हैं। 


{ नोट - मुज़ाहिफ़ और मुज़ाइफ़ में ’कन्फ़्यूज’ नहीं होइएगा । मुज़ाहिफ़ ---ज़िहाफ़ शब्द से बना है ।जब कि मुज़ाइफ़ -[ -ह- नहीं है ]   जिसके मा’नी होता है दो-गुना ।

26 - कसरा-ए-इज़ाफ़त और वाव-ओ-अत्फ़ =  विस्तार से समझने के लिए देखे क़िस्त नं0-70 


27- तस्कीन-ए-औसत का अमल = इस विषय पर विस्तार से अलग  एक आलेख  प्रस्तुत कर दूँगा । यहाँ संक्षेप में चर्चा कर लेता हूँ । 

= अगर किसी ’एकल  मुज़ाहिफ़ रुक्न " में -तीन मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ लगातार एक के बाद एक [ मुतस्सिल]  आ जाए तो बीच [ औसत ] वाला मुतहर्रिक  -साकिन- माना जाता है

  इससे रुक्न की शकल बदल जायेगी । बदली हुई रुक्न को ’ मुसक्किन ’कहते हैं।

 यहाँ दो-तीन बातें ध्यान देने की है । तस्कीन-ए-औसत का अमल 


[अ] हमेशा मुज़ाहिफ़ रुक्न पर ही होता है । सालिम रुक्न पर कभी नही होता।

[ ब] इसका अमल बह्र- के किसी मुज़ाहिफ़ रुक्न पर एक साथ सभी रुक्न पर या अलग अलग रुक्न हो सकता है शर्त यह है कि इस से बह्र बदलनी नहीं  चाहिए जिस मुज़ाहिफ़ बह्र पर इसका अमल हो रहा है ।

अगर यही स्थिति ’दो-आस पास [ adjacent and consecutive ] रुक्न में आ जाए तो फिर इस अमल को "तख़्नीक़ का अमल" कहते है और बरामद रुक्न को ’मुख़्न्निक़" कहते है। 


इन तमाम इस्तलाहात [ परिभाषाओं ] को समझने के लिए उदाहरण के तौर पर 1-2 लेते हैं जिससे बात और साफ़ हो जाएगी।


ग़ज़ल 01 :  

अर्कान फ़ऊलुन-फ़ऊलुन-फ़ऊलुन-फ़ऊलुन

बह्र बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम


सितारॊं से आगे जहाँ और भी हैं

अभी इश्क़ के इम्तिहाँ  और भी है  -1-


तही ज़िन्दगी से नहीं ये फ़ज़ाएँ

यहाँ सैकड़ों कारवां और भी हैं   -2-


कनाअत न कर आलम-ओ-रंग-ओ-बू पर

चमन और भी आशियाँ और भी हैं -3-


अगर खो गया तो इक नशेमन तो क्या ग़म

मुक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुगाँ और भी हैं -4-


तू शाहीं  है परवाज़ है काम तेरा

तेरे सामने आसमाँ और भी हैं -5-


इसी रोज़-ओ-शब में उलझ कर न रह जा

कि तेरे ज़मान-ओ-मकाँ  और भी हैं -6-


गए दिन कि तनहा था मैं अंजुमन में 

यहाँ अब मेरे राज़दाँ  और भी हैं -7-


-इक़बाल-


इस ग़ज़ल में --

शे’र की संख्या  =   7 [ किसी ग़ज़ल में कितने शे’र हो सकते है या होने चाहिए .इस पर अरूज़ ख़ामोश है ]

मतला  = पहला शे’र न-1 = जिसके दोनो मिसरों का ’हम क़ाफ़िया- जहाँ- और -इम्तिहाँ- है 

मतला का मिसरा ऊला = सितारों के आगे----

मतला का मिसरा सानी  = अभी इश्क़ के इम्तिहाँ ---

[ वैसे हर शे’र  का  पहला मिसरा  - मिसरा उला कहलाता है और दूसरा मिसरा मिसरा सानी कहलाता है ।

हुस्न-ए-मतला  = इस ग़ज़ल में ’हुस्न-ए-मतला; नहीं है । अगर होता तो ठीक ’मतला’ के नीचे आता और उसके भी दोनों मिसरे " हम काफ़िया" होते।

मक़ता  = आख़िरी शे’र -7 =  यहाँ पर शायर ने अपना तख़्ल्लुस ; इक़बाल : नहीं डाला है । मक़्ता में  तख़्ल्लुस डालना कोई अनिवार्य शर्त

नहीं है । ग़ज़ल में कोई न कोई शे’र तो आख़िरी होगा ही ।वही मक़्ता होगा।

क़ाफ़िया  = काफ़िया का बहु वचन ’क़वाफ़ी’ है।  यहाँ क़वाफ़ी हैं---जहाँ--इम्तिहाँ--कारवाँ--आशियाँ--फ़ुगाँ--आसमाँ--मकाँ--राज़दां ---

हर शे’र के मिसरा सानी में  "हम क़ाफ़िया" आना ज़रूरी है लाज़िमी है । क़ाफ़िया का अर्थ पूर्ण [ बा मा’नी होना ] ज़रूरी है ।

रदीफ़  = यहाँ रदीफ़ - और भी हैं-- । रदीफ़ एक शब्द लफ़्ज़ भी हो सकता है या एक जुमला भी हो सकता है ।रदीफ़ का मतला [ और हुस्न-ए-मतला भी ]

 के दोनो मिसरों में और हर शे’र के मिसरा सानी में आना ज़रूरी है ।

अर्कान        = इस ग़ज़ल में जो रुक्न इस्तेमाल किए गए है -उसका नाम "फ़ऊलुन "[ 1 2 2 ] है और बिना किसी काट-छाँट के --पूरा का पूरा सालिम शकल में इस्तेमाल

हुआ है अत: इसे "सालिम बह्र " कहेंगे। मान लीजिए अगर किसी कारण वश [ ज़िहाफ़ के कारण ] किसी रुक्न में कोई काट-छाँट हो जाती [ यानी 122 की जगह 22 ही हो जाता तो]

फिर हम इसे ’सालिम ’ न कह कर "मुज़ाहिफ़’ [ उस ज़िहाफ़ के नाम के साथ] जोड़ देते। इत्तिफ़ाक़न इस बहर में कोई ज़िहाफ़ नहीं लगा है --सब रुक सालिम के सालिम ही हैं।

 

बह्र  = "फ़ऊलुन"-  चूंकि बहर मुतक़ारिब का बुनियादी रुक्न तय किया गया अत: ग़ज़ल में इस बह्र का नाम होगा --बह्र-ए-मुतक़ारिब-। और चूंकि यह रुक्न  मिसरा में 4- बार [ यानी 

=शे’र में 8-बार ] इस्तेमाल हुआ है तो हम इसे ’मुसम्मन’ कहेंगे। तब बह्र का पूरा नाम होगा----बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम--। हम प्राय: इसे 

122---122---122---122-- कर के दिखाते हैं । इस  बह्र के बारे में  या अन्य बह्र के बारे में आगे विस्तार से बात की गई है । मान लीजिए अगर किसी शे’र के एक मिसरे मे 3-ही अर्कान

यानी पूरे शे’र मे 6-अर्कान होते तो ] हम फ़िर मुसम्मन नहीं कहते बल्कि ’मुसद्दस’ कहते हैं ।

शे’र के मुक़ामात के लिए  उदाहरण के तौर पर कोई एक शे’र ले लेते है । मान लीजिए 5-वाँ शे’र लेते हैं 

--A----   /---B---/ ---C---/ --D--

तू शाहीं  /है परवा/ज़ है का/म तेरा

-------------------------------

--E----/---F--/--G------/--H-

तेरे सा/मने आ/ समाँ औ  /र भी हैं


 सद्र  = A =-- तू शाहीं --[ 1 2 2 ]

अरूज़ =D =--म तेरा -  - [ 1 2 2 ]

इब्तिदा  =E =  --तेरे सा-- [ 1 2 2 ] 

अरूज़ =H = -र भी है     [ 1 2  2 ]

हस्व = B--C--F--G  = है परवा= ज है का--= मने आ--= समाँ और--=  सभी 1 2 2 

नोट-1-  आप के मन में एक सवाल उठ रहा होगा कि --तू--है---तेरे का -ते--देखने में तो - 2 -वज़न का लगता है मगर यहाँ -1- के वज़न पर क्यों लिया गया ?[ देखिए किस्त -75 ]

        2-  यह तो मुसम्मन शे’र था तो इसमें 4- हस्व आ गया। अगर यह शे’र ’मुसद्दस’ होता तो 2- ही हस्व आता है । और मुरब्ब: शे’र होता तो कोई ’हस्व का मुक़ाम नहीं होता । सोचिए क्यों ?


कसरा-ए-इज़ाफ़त  =    आलम-ए-रंग  -या - मुक़ामात-ए-आह  आदि जैसे शब्द-संयोजन को ’कसरा-ए-इज़ाफ़त कहते हैं । -ए- यहाँ कसरा-ए-इज़ाफ़त है किसका अर्थ यहा है [ रंग की दुनिया ]

वाव -ए- अत्फ़     =     रंग-ओ -बू   या  आह-ओ-फ़ुग़ाँ  --आदि जैसे शब्द संयोजन को  ’वाव-ए-अत्फ़’ कहते है । =वाव-यहाँ संयोजक है दो शब्दों का जिसका अर्थ होता है "और"



ग़ज़ल 02 

2122--------/--1212-----/-22

वक़्त-ए-पीरी/ शबाब की   / बातें

ऐसी हैं जै    /सी ख़्वाब की/  बातें 1


उसके घर ले चला मुझे देखो

दिल-ए-ख़ाना ख़राब की बातें 2


मुझको रुस्वा करेंगी ख़ूब ऎ दिल

ये तेरी इज़्तराब की बातें 3


देख ऎ दिल न छेड़ किस्सा-ए-ज़ुल्फ़

कि ये हैं पेंच-ओ-ताब की बातें 4


जिक्र क्या जोश-ए-इश्क़ में ऎ ’ ज़ौक़’

हम से हों सब्र-ओ-ताब की बातें 5

-ज़ौक़-


नोट -वैसे मूल ग़ज़ल में 11-अश’आर हैं । हमने चर्चा के लिए यहाँ  मात्र  5-ही अश;आर का इन्तख़ाब [ चुनाव है] किया है ।


इस ग़ज़ल में --

शे’र की संख्या  =   5 [ किसी ग़ज़ल में कितने शे’र हो सकते है या होने चाहिए .इस पर अरूज़ ख़ामोश है ]

मतला  = पहला शे’र न-1 = जिसके दोनो मिसरों का ’हम क़ाफ़िया- --शबाब- और -ख़्वाब - है 

मतला का मिसरा ऊला = वक़्त-ए-पीरी------

मतला का मिसरा सानी  = ऐसी हैं जैसे -----

[ वैसे हर शे’र  का  पहला मिसरा  - मिसरा उला कहलाता है और दूसरा मिसरा मिसरा सानी कहलाता है ।

हुस्न-ए-मतला  = इस ग़ज़ल में ’हुस्न-ए-मतला; नहीं है । अगर होता तो ठीक ’मतला’ के नीचे आता और उसके भी दोनों मिसरे " हम काफ़िया" होते।

मक़ता  = आख़िरी शे’र -5 =  यहाँ पर शायर ने अपना तख़्ल्लुस ; ज़ौक़ :  डाला है । उनका असल नाम -शेख़ इब्राहिम था । ज़ौक़-इनका तख़्ल्लुस्स था । यह उस्ताद शायर थे ।  मक़्ता में  तख़्ल्लुस डालना कोई अनिवार्य शर्त

नहीं है । ग़ज़ल में कोई न कोई शे’र तो आख़िरी होगा ही ।वही मक़्ता होगा।

क़ाफ़िया  = काफ़िया का बहु वचन ’क़वाफ़ी’ है।  यहाँ क़वाफ़ी हैं---शबाब--ख़्वाब---ख़राब---इज़्तराब---ताब---वग़ैरह 

हर शे’र के मिसरा सानी में  "हम क़ाफ़िया" आना ज़रूरी है लाज़िमी है । क़ाफ़िया का अर्थ पूर्ण [ बा मा’नी होना ] ज़रूरी है ।

रदीफ़  = यहाँ रदीफ़ - की बातें -- । रदीफ़ एक शब्द लफ़्ज़ भी हो सकता है या एक जुमला भी हो सकता है ।रदीफ़ का मतला [ और हुस्न-ए-मतला भी ]

 के दोनो मिसरों में और हर शे’र के मिसरा सानी में आना ज़रूरी है ।

अर्कान        = इस ग़ज़ल में जो मुरक्क़ब रुक्न [ यानी 2 किस्म के - सालिम रुक्न और उस पर ज़िहाफ़ लगा हुआ - इस्तेमाल हुआ है॥ इसी लिए इसे मुरक़्क़ब बह्र कहते है 

और ज़िहाफ़ लगा हुए अर्कान है तो मुरक़्क़ब मुज़ाहिफ़ बह्र कहेंगे । सालिम बह्र नहीं कहेंगे।-उसका नाम "फ़ऊलुन "[ 1 2 2 ] है और बिना किसी काट-छाँट के --पूरा का पूरा सालिम शकल में इस्तेमाल

हुआ है अत: इसे "सालिम बह्र " कहेंगे। मान लीजिए अगर किसी कारण वश [ ज़िहाफ़ के कारण ] जो अर्कान इस्तेमाल हुए हैं--वो हैं --फ़ाइलातुन---मुसतफ़इलुन--फ़ाइलातुन [ 2122--2212--2122-

 

बह्र  = यह मुरक़्क़ब बह्र है ।और चूंकि एक मिसरा में 3-अर्कान [यानी पूरे शेर में 6- अर्कान ]  अत: इसे हम ’मुसद्दस" कहेंगे और चूंकि यह अर्कान अपने मुज़ाहिफ़ शकल में इस्तेमाल हुए है 

इस बह्र का ख़ास नाम है -- बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ - है 

शे;र के मुक़ामात 

शे’र के मुक़ामात के लिए  उदाहरण के तौर पर कोई एक शे’र ले लेते है । मान लीजिए पहला  शे’र लेते हैं  यहाँ

--A----        /---B--        -/ ---C--

वक़्त-ए-पीरी/ शबाब की   / बातें

-------------------------------

--E----     /---F-         -/--G---

ऐसी हैं जै /सी ख़्वाब की/  बातें


 सद्र  = A =-- वक़्त-ए-पीरी    [2 1 2 2  ]

अरूज़ = C =--  बातें               [ 2 2 ]

इब्तिदा  =E =  --ऐसी है जै--   -[ 2 1 2 2  ] 

अरूज़ = G =   --बातें             [  2  2 ]

हस्व = B---F-= --शबाब की--- सी ख़्वाब की   [ 1 2 1 2 ] 


नोट-  यह शे’र ’मुसद्दस’ होता तो 2- ही हस्व आया  । और मुरब्ब: शे’र होता तो कोई ’हस्व का मुक़ाम नहीं आता । सोचिए क्यों ?


कसरा-ए-इज़ाफ़त  =    वक़्त-ए-पीरी / दिल-ए-ख़ाना / किस्सा-ए-ज़ुल्फ़/ जोश-ए-इश्क़ -आदि जैसे शब्द-संयोजन को ’कसरा-ए-इज़ाफ़त कहते हैं । -ए- यहाँ कसरा-ए-इज़ाफ़त है किसका अर्थ  होता है -का-

वाव -ए- अत्फ़     =     पेच-ओ-ताब/सब्र-ओ-ताब --आदि जैसे शब्द संयोजन को  ’वाव-ए-अत्फ़’ कहते है । =वाव-यहाँ संयोजक है दो शब्दों का जिसका अर्थ होता है "और"


तक़्तीअ’ =  तक़्तीअ’ का शब्दकोशीय अर्थ तो होता है किसी चीज़ के टुकड़े टुकड़े करना । पर शायरी के सन्दर्भ में किसी शे’र [ या मिसरा] के टुकड़े टुकड़े करना । यह एक अमल है जिससे किसी शे’र  या मिसरा का पता 

लगाते है कि मिसरा सही वज़न या बह्र में है या नहीं । यानी मिसरा बह्र से कहीं ख़ारिज़ तो नहीं है । इसके भी अपने उसूल हैं होते हैं । तक़्तीअ’ हमेशा ’तलफ़्फ़ुज़’ [ शे’र के अल्फ़ाज़ के उच्चारण ] के अनुसार ही 

होती है ---लिखे हुए अल्फ़ाज़ [ मक़्तूबी ] पर नहीं होता ।  तक़्तीअ’ में नून गुन्ना की गणना नहीं करते। मिसरा के टुकड़े -- मान्य  बह्र और अर्कान के मुताबिक़  किया जाता है  और देखते है कि अर्कान के ’मुतहर्रिक ’ की जगह

कोई मुतहर्रिक हर्फ़ और साकिन के मुक़ाम की जगह ’साकिन’ हर्फ़ आ रहा है कि नही । अगर अर्कान के अनुसार  आ रहे हैं तो मिसरा बह्र में है ,वरना ख़ारिज़ है।तक़्तीअ’ पर विस्तार से किसी मुनासिब मुक़ाम परअलग से बात करेंगे।

जैसे -इक़बाल का एक शे’र है --


न आते हमें इसमे तक़रार क्या थी

मगर वादा करते हुए आर क्या थी 


हम जानते हैं कि यह शे’र मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम में है । कैसे? सतत अभ्यास से समझ में आ जायेगा। अत: इस मिसरा के टुकड़े भी वैसे ही करेंगे।

1  2 2  / 1 2  2 / 1  2   2  / 1 2  2

न आते /हमें इस/ मे तक़ रा /र क्या थी

1  2  2   / 1  2 2   / 1 2 2  / 1 2 2 

मगर वा/ दा करते / हुए आ /र क्या थी 

यह शे’र बिलकुल वज़न में है और बह्र में है और यह तक़्तीअ से ही पता चलेगा।

मैं यह तो दावा नहीं करता कि सभी बुनियादी इस्तलाहात [ परिभाषाओं ]  पर बात कर ली ।अगर आइन्दा मज़ीद [अतिरिक्त ] बुनियादी परिभाषायें वक़्तन फ़क़्तन [ समय समय पर ] याद आते रहेंगे--या ज़रूरत महसूस होती रहेगी तो यहाँ पर लिखता चलूँगा।

नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता  गुज़ारिश  है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी  निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं  ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]

-आनन्द.पाठक-
Mb     8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com

सोमवार, 19 अक्तूबर 2020

गज़ल 059 : रह-ए-उल्फ़त निहायत ...

 गज़ल 059 : रह-ए-उल्फ़त निहायत ... 


रह-ए-उल्फ़त निहायत मुख़्तसर मालूम होती है
हमें हर राह तेरी रह-गुज़र मालूम होती है

हमें यह ज़िन्दगी इक दर्द-ए-सर मालूम होती है
न होना चाहिए ऐसा मगर मालूम होती है

मुसीबत में इक ऐसा वक़्त भी आता है इन्सां पर
ज़रा सी छाँव भी अपना ही घर मालूम होती है

न हम बदले, न दिल बदला ,न रंग-ए-आशिक़ी बदला
मगर बदली हुई तेरी नज़र मालूम होती है

कभी तुम भी किसी से दिल लगा कर देखते साहेब! 
ज़रा सी चोट भी इक उम्र भर मालूम होती है

हर आहट पर मिरी साँसों की हर लै जाग उठती है
शब-ए-उम्मीद यादों का सफ़र मालूम होती है

हमें दुनिया भला क्या राह से अपनी लगायेगी
वो अपने आप से ही बेख़बर मालूम होती है

तिरे शे’रों पे इतनी दाद "सरवर" सख़्त हैरत है !
हमें ये साज़िश-ए-अह्ल-ए-हुनर मालूम होती है

-सरवर-

ग़ज़ल 058 :रह-ए-वफ़ा में ग़म-ए-जुदाई....

 


ग़ज़ल 058 :रह-ए-वफ़ा में ग़म-ए-जुदाई....

रह-ए-वफ़ा में ग़म-ए-जुदाई कभी मिरा हम-क़दम न होता
तुझे ख़ुदा का जो ख़ौफ़ होता तो ख़्वार में ख़म-ब-ख़म न होता

मुझे सर-ए-बज़्म-ए-ग़ैर तेरी निगाह-ए-कम-आशना ने मारा
जो मुझ पे अह्सान यूँ न होता , तिरा यह अह्सान कम न होता

तुम्हारी इस बन्दगी के सदक़े मिरा मुक़द्दर उरूज पर है
जो इश्क़ जल्वा-कुशा न होता तो दिल मिरा जाम-ए-जम न होता

बुरा हो इस ज़िन्दगी का जिस ने हमें किया ख़्वार आशिक़ी में
:जो हम न होते तो दिल न होता जो दिल न होता तो ग़म न होता:

निगाह-ए-लुत्फ़-ओ-करम जो करते हमारे जानिब भी गाहे-गाहे
तो हस्र-ए-उल्फ़त में हमको शिकवा कभी तुम्हारी क़सम न होता

कभी तो हंगाम-ए-ज़िन्दगी में निगाह मिलती सलाम होता
तुझे भी दुनिया की दाद मिलती मुझे भी मरने का ग़म न होता

भला मैं इस तरह क्यों भटकता फ़िसाद-ए-हुस्न-ए-नज़र के हाथों
अगर तिरी राह-ए-जुस्तजू में फ़रेब-ए-दैर-ओ-हरम न होता

ग़मों के हाथों ही आज "सरवर" है इश्क़ में बा-मुराद-ए-मंज़िल
सितम बा शक्ल-ए-करम जो होता करम बा शक्ले-सितम न होता

-सरवर 
ख़्वार में =बदहाली में
ख़म-बा-ख़म =उलझन
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ग़ज़ल 057 : रोज़-ओ-शब रुलायेगी ....

 ग़ज़ल  057  : रोज़-ओ-शब रुलायेगी .... 

रोज़-ओ-शब रूलायेगी आप की कमी कब तक ?
दर्द-ए-बेकसी कब तक ? रंज-ए-आशिक़ी कब तक?

"सरवर"-ए-परेशां से ऐसी दिल्लगी कब तक?
बे-रुख़ी के पर्दे में नाज़-ओ-दिलबरी कब तक?

दाग़-ए-नारसायी क्यों ज़ख़्म-ए-कज-रवी कब तक?
सुब्ह नौहा-ख़्वां होगी शाम-ए-यास की कब तक?

क्यों न हम भी दिखलायें दाग़-हाये शाम-ए-ग़म ?
महशर-ए-मुहब्बत में ये रवा-रवी कब तक?

अब तो अपनी सूरत भी अजनबी सी लगती है
देगी यूँ फ़रेब आख़िर मेरी ज़िन्दगी कब तक?

सुब्ह-ओ-शाम शिकवा है रोज़-ओ-शब का रोना है
इस तरह निभाओगे हम से दोस्ती कब तक?

राह-ए-मैकदा या-रब! हर क़दम पे खोटी है
कर्ब-ए-तिश्नगी कब तक? जाम ये तही कब तक?

मैं शिकार-ए-नाउम्मीदी ,तू वफ़ा से बेगाना
देखिये रहे अपनी ज़ीस्त अजनबी कब तक?

हो चुकी बहुत बातें ,सोच तो ज़रा "सरवर"
मंज़िले-ए-मुहब्बत में सिर्फ़ शायरी कब तक?
सरवर- 
दाग़-ए-नारसायी =न मिलने का दुख
कज-रवी =(प्रेमिका की) टेढ़ी चाल
शाम-ए-यास =ना उम्मीदी की शाम
कर्ब-ए-तिश्नगी =प्यास की बेचैनी 
जाम तही =बची-खुची शराब ,तलछट में बची शराब
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ग़ज़ल 056: अफ़्सोस ख़ुद को खुद पे.....

 ग़ज़ल 056: अफ़्सोस ख़ुद को खुद पे.....


अफ़्सोस ख़ुद को ख़ुद पे नुमायां न कर सके
हम ज़िन्दगी को साहब-ए-ईमां न कर सके

राह-ए-तलब में कार-ए-नुमायां न कर सके
अश्क़-ए-जुनूं को आईना-सामां न कर सके

वो इश्क़ क्या जो दर्द का दर्मां न कर सके 
वो दर्द क्या जो इश्क़ को आसां न कर सके

हर लम्हा-ए-हयात हिसाब अपना ले गया
"हम ज़िन्दगी में फिर कोई अरमां न कर सके

दामान-ए-आरज़ू की दराज़ी तो देखिए
खु़द से भी ज़िक्र-ए-तंगी-ए-दामां न कर सके

यूँ मुब्तिला-ए-कुफ़्र-ए-तमन्ना रहे कि हम
चाहा हज़ार,दिल को मुसलमां न कर सके

क्यों मुझसे लाग है तुझे ऐ शूरिश-ए-हयात
वो काम कर जो गर्दिश-ए-दौरां न कर सके !

इतनी तो हो मजाल कि ख़ुद को समेट लें
क्या ग़म जो हम तलाफ़ी-ए-हिज्रां न कर सके

इस दर्जा फ़िक्र-ए-शेहर-ए-निगारां में गुम रहे
हम खु़द भी अपनी ज़ात का इर्फ़ां न कर सके

"सरवर" चलो है मैकदा-ए-इश्क़ सामने
मुद्दत हुयी ज़ियारत-ए-इन्सां न कर सके

-सरवर

आईना-सामां =आईने की तरह
नुमायां =ज़ाहिर/व्यक्त
कार-ए-नुमाया =बहुत बड़ा काम
दर्मा =इलाज
मुब्तिला = गिरफ़्त में
तलाफ़ी-ए-हिज़्रा =जुदाई की भरपाई
इरफ़ाँ न कर सके =जान न सके
=

ग़ज़ल 055 : रोज़-ओ-शब इस में बपा ...

 ग़ज़ल 055  : रोज़-ओ-शब इस में बपा ...



रोज़-ओ-शब इस में बपा शोर-ए-कि़यामत क्या है ?
ये मिरा दिल है कि आईना-ए-हैरत ? क्या है ?

बात करने में बताओ तुम्हें ज़हमत क्या है?
इक नज़र भी न उठे ,ऐसी भी आफ़त क्या है.?

जान कर तोड़ दिया रिश्ता-ए-दाम-ए-उम्मीद
"आज मुझ पर यह खुला राज़ कि जन्नत क्या है"

नाला-ए-नीम-शबी , आह-ओ-फ़ुग़ां-ए-सेहरी
गर नहीं है यह इबादत, तो इबादत क्या है?

मुझ को आग़ाज़-ए-मुहब्बत से ही फ़ुर्सत कब है?
क्या बताऊँ तुझे अंजाम-ए-मुहब्बत क्या है?

"मीर"-ओ-’इक़्बाल’से,"ग़ालिब"से ये पूछें साहेब! 
शायरी चीज़ है क्या ,शे’र की अज़मत क्या है

जब से मैं दीन-ए-मुहब्बत में गिरिफ़्तार हुआ
कुफ़्र-ओ-ईमान की ,वल्लाह ! हक़ीक़त क्या है?

हम ग़रीबों पे जो दस्तूर-ए-ज़बां-बन्दी है 
कोई मजबूरी है तेरी कि है आदत ? क्या है?

हर्फ़-ओ-मानी हुए बे-रब्त ,क़लम टूट गया
मंज़िल-ए-शौक़ में ये आलम-ए-वहशत क्या है?

डूब कर ख़ुद में पता ये चला ,हर सू तू है !
हम-नशीं ! तफ़्रक़ा-ए-जल्वत-ओ-ख़ल्वत क्या है?

काम से रखता हूँ काम अपना सदा ही यारो !
मुझको दुनिया से भला फिर ये शिकायत क्या है?

एक पल चैन नहीं "सरवर’-ए-बदनाम तुझे !
कुछ तो मालूम हो आख़िर तिरी नियत क्या है?

-सरवर- 
अज़्मत =महत्व
दीन-ए-मुहब्बत =मुहब्बत का धर्म
हर्फ़-ओ-मानी =शब्द और अर्थ ,कथन और भाव
बे-रब्त =बिना संबंध के,आपस में बिना ताल-मेल के
हर-सू =हर तरफ़
तफ़र्क़ा = फ़र्क़
===========================

ग़ज़ल 054 : दिल ही दिल में डरता हूँ...........

 ग़ज़ल 054 : दिल ही दिल में डरता हूँ...........


दिल ही दिल में डरता हूँ कुछ तुझे ना हो जाए
वरना राह-ए-उल्फ़त में जाए जान तो जाए

मेरी कम नसीबी का हाल पूछते क्या हो
जैसे अपने ही घर में राह कोई खो जाए

गर तुम्हे तकल्लुफ़ है मेरे पास आने में
ख़्वाब में चले आओ यूँ ही बात हो जाए

झूठ मुस्कराए क्या आओ मिल के अब रो लें
शायरी हुई अब कुछ गुफ़्तगू भी हो जाए

ये भी कोई जीना है?खाक ऐसे जीने पर
कोई मुझ पे हँसता है ,कोई मुझको रो जाए

मेरे दिल के आँगन में किस क़दर अँधेरा है
काश ! चाँदनी बन कर कोई इसको धो जाए

याद एक धोखा है ,याद का भरोसा क्या 
तुम ही खु़द यहाँ आकर ,याद से कहो जाए

देख कर चलो ’सरवर’! जाने कौन उल्फ़त में
फूल तुमको दिखला कर ,ख़ार ही चुभो जाए

-सरवर- 

तकल्लुफ़ =तकलीफ़
ख़ार = काँटा

ग़ज़ल 053 : मरीज़-ए-इश्क़ पर .......

 ग़ज़ल 053 : मरीज़-ए-इश्क़ पर .......


मरीज़-ए-इश्क़ पर पल में क़ियामत का गुज़र जाना
"सिरहाने से किसी का उठ के वो पिछले पहर जाना "

किसी को हम-नफ़स समझा, किसी को चारागर जाना
मगर दुनिया को हमने कुछ नहीं जाना ,अगर जाना

मक़ाम-ए-ज़ीस्त को हम ने भला कब मोतबर जाना ?
मिला जो लम्हा-ए-फ़ुर्सत उसे भी मुख़्तसर जाना

इलाही ! हम ग़रीबों की ही क्यों यह आज़माईश है ?
दवा का बे-असर रहना , दुआ का बे-असर जाना

तबस्सुम ज़ेर-ए-लब तेरा,दलील-ए-सुब्ह-ए-जान-ओ-दिल
तेरा नज़रें चुराना ,नब्ज़-ए-हस्ती का ठहर जाना

हक़ीक़त है तो बस इतनी सी है हंगामा-ए-हस्ती की
"यहाँ पर बे-ख़बर रहना ,यहाँ से बे-ख़बर जाना "

सलाम ऐसी मुहब्बत को ,भला ये भी मुहब्बत है !
किसी की याद में जीना ,किसी के ग़म में मर जाना 

रह-ए-उल्फ़त में हम से और क्या उम्मीद रखते हो ?
ये क्या कम है कि अपनी ज़ात को गर्द-ए-सफ़र जाना?

तू ख़ुद को लाख समझे बा-कमाल-ओ-बाहुनर "सरवर"
तुझे लेकिन ज़माने ने हमेशा बे-हुनर जाना !

-सरवर

ग़ज़ल 052 : दामन-ए-तार-तार ये.......

 ग़ज़ल 052 : दामन-ए-तार-तार ये.......


दामन-ए-तार-तार ये,सदक़ा है नोक-ए-ख़ार का
शुक्र-ए-ख़ुदा कि मुझसे कुछ रब्त तो है बहार का!

तेरे मक़ाम-ए-जब्र से मेरे मक़ाम-ए-सब्र तक
सिलसिला-ए-आरज़ू रहा दीदा-ए-अश्कबार का

क़िस्सा-ए-दर्द कह गया लह्ज़ा-ब-लह्ज़ा नौ-ब-नौ
"पर भी क़फ़स से जो गिरा बुल्बुल-ए-बेक़रार का"

मंज़िल-ए-शौक़ मिल गई कार-ए-जुनूं हुआ तमाम
इश्क़ को रास आ गया आज फ़राज़ दार का !

ज़ीस्त की सारी करवटें पल में सिमट के रह गईं
सदियों का तर्जुमां था लम्हा वो इन्तिज़ार का

ज़िक्र-ए-हबीब हो चुका फ़िक्र-ए-ख़ुदा की ख़ैर हो !
चाक रहा वो ही मगर दामन-ए-तार-तार का !

सोज़-ओ-गुदाज़-ए-ज़िन्दगी अपना ख़िराज ले गया
नौहा-कुनां में रह गया हस्ती-ए-कम-अयार का

हुस्न की सर-बुलंदियाँ इश्क़ की पस्तियों से हैं
सोज़-ए-खिज़ां से मोतबर साज़ हुआ बहार का

नाम-ए-ख़ुदा कोई तो है वज़ह-ए-शिकस्त-ए-आरज़ू
यूँ ही तो बेसबब नहीं शिकवा ये रोज़गार का ?

नाम-ओ-नुमूद एक वहम और वुजूद इक ख़याल !
अपने ही आईने में हूँ अक्स मैं हुस्न-ए-यार का !

हर्फ़-ए-ग़लत था मिट गया अपने ही हाथ मर गया
अब क्या ख़बर कि क्या बने "सरवर’-ए-सोगवार का !


-सरवर-

रब्त =संबंध 
नौ-ब-नौ =नया-नया
अश्कबार =रोनेवाला 
क़फ़स =पिजड़ा
फ़राज़ दार =ऊँची फाँसी का तख़्ता 
सोज़-ओ-गुदाज़=सुख-दुख,रस
ख़िराज =महसूल’
हस्ती-ए-कम-अयार=बेकार की ज़िन्दगी 
पस्तियां =लघुता,विनम्रता
मोतबर =ऐतबार के क़ाबिल 
नुमूद =प्रगट,अवतार
सोगवार =शोकग्रस्त

ग़ज़ल 051 : हो गई मेराज-ए-इश्क़........

 ग़ज़ल 051 : हो गई मेराज-ए-इश्क़........ 


हो गई मेराज-ए-इश्क़-ओ-आशक़ी हासिल हमें
पहले दर्द-ए-दिल मिला ,बाद उसके दाग़े-दिल हमें !

बन्दगान-ए-आरज़ू में कर लिया शामिल हमें
आप ने ,शुक्र-ए-ख़ुदा ! समझा किसी क़ाबिल हमें !

कम-निगाही ,तंग दामानी ,वुफ़ूर-ए-आरज़ू
ज़िन्दगी! तेरी तलब में यह हुआ हासिल हमें !

इस क़दर आसूदा-ए-राहे-मुहब्बत हो गये
ढूंढती फिरती है हर सू शोरिश-ए-मंज़िल हमें !

लम्हा-लम्हा लह्ज़ा-लह्ज़ा वो क़रीब आते गये
रफ़्ता-रफ़्ता कर गए ख़ुद आप से ग़ाफ़िल हमें !

बन गया ख़ुद अपना हासिल आलम-ए-ख़ुद रफ़्तगी
देखती ही रह गई दुनिया-ए-आब-ओ-गिल हमें

दीदा-ए-बीना दिल-ए-ख़ुश्काम फ़िक्र-ए-बेनियाज़
अब कोई मुश्किल नज़र आती नहीं मुश्किल हमें !

खु़द को ही तारीख़ दुहराती है जब "सरवर’ तो फिर
क्यों नज़र आया नहीं माज़ी में मुस्तक़्बिल हमें ?

-सरवर

शोरिश =हंगामा.झगड़ा.फ़साद
हर सू =हर तरफ़
मेराज-ए-इश्क़ =प्रेम की उच्चता
वुफ़ूर-ए-आरज़ू = तीव्र-इच्छा
कम निगाही =उपेक्षा
तंग-दामानी = ग़रीबी
आसूदा = तृप्त होना/सन्तुष्ट होना
शोरिल =उन्माद
आब-ओ-गिल =पानी-मिट्टी
मुस्तक़्बिल =भविष्य

ग़ज़ल 050 : ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला

 ग़ज़ल 050 : ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला........


ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला
एक पर्दा जो उठा दूसरा पर्दा निकला !

मंज़र-ए-ज़ीस्त सरासर तह-ओ-बाला निकला
गौ़र से देखा तो हर शख़्स तमाशा निकला !

एक ही रंग का ग़म खाना-ए-दुनिया निकला
ग़मे-जानाँ भी ग़मे-ज़ीस्त का साया निकला !

इस राहे-इश्क़ को हम अजनबी समझे थे मगर
जो भी पत्थर मिला बरसों का शनासा निकला !

आरज़ू ,हसरत-ओ-उम्मीद, शिकायत ,आँसू
इक तेरा ज़िक्र था और बीच में क्या क्या निकला !

जो भी गुज़रा तिरी फ़ुरक़त में वो अच्छा गुज़रा
जो भी निकला मिरी तक़्दीर में अच्छा निकला !

घर से निकले थे कि आईना दिखायें सब को
हैफ़ ! हर अक्स में अपना ही सरापा निकला !

क्यों न हम भी करें उस नक़्श-ए-कफ़-ए-पा की तलाश
शोला-ए-तूर भी तो एक बहाना निकला !

जी में था बैठ के कुछ अपनी कहेंगे ’सरवर’
तू भी कमबख़्त ! ज़माने का सताया निकला !

-सरवर-

शनासा = परिचित ,जाना-पहचाना
नक़्स-ए-कफ़-ए-पा = पाँवों के निशान
हैफ़ ! = हाय !

ग़ज़ल 049 : छोड़िए छोड़िए यह ढंग पुराना--

 ग़ज़ल  049 : छोड़िए छोड़िए यह ढंग पुराना साहिब !



छोड़िए छोड़िए यह ढंग पुराना साहिब !
ढूँढिए आप कोई और बहाना साहिब !

खत्म आख़िर हुआ हस्ती का फ़साना साहिब
आप से सीखे कोई साथ निभाना साहिब !

भूल कर ही सही ख़्वाबों में चले आयें आप
हो गया देखे हुए एक ज़माना साहिब !

हमने हाथों की लकीरों में तुम्हें ढूँढा था
वो भी था इश्क़ का क्या एक ज़माना साहिब !

क्यों गए ,कैसे गए ,ये तो हमें याद नहीं
हाँ मगर याद है वो आप का आना साहिब !

कू-ए-नाकामी-ओ-नाउम्मीदी-ओ-हसरतसंजी
हो गया अब तो यही अपना ठिकाना साहिब !

क़स्रे-उम्मीद ,वो हसरत के हसीन ताज महल
हाय! क्या हो गया वो ख़्वाब सुहाना साहिब ?

रहम आ जाए है दुश्मन को भी इक दिन लेकिन
तुमने सीखा है कहाँ दिल का दुखाना साहिब ?

आते आते ही तो आयेगा हमें सब्र हुज़ूर 
खेल ऐसा तो नही दिल का लगाना साहिब !

इसकी बातों में किसी तौर न आना ’सरवर’
दिल तो दीवाना है ,क्या इसका ठिकाना साहिब !

-सरवर-

कू-ए-नाकामी-ओ-नाउम्मीदी-ओ-हसरतसंजी= असफलता,निराशा और अपना दुख 
बयान करने की जगह
क़स्रे-उम्मीद = उमीदों का महल

रविवार, 18 अक्तूबर 2020

विविध 010 : दर्द-ए-बेकसी कब तक --[पी0 के0 स्वामी ]

 ग़ज़ल ०३


दर्द-ए-बेकसी कब तक रंज-ए-आशिक़ी कब तक
रास मुझ को आयेगी ऐसी ज़िन्दगी कब तक ! 

सोज़-ए-दिल छिपाएगा अश्क की कमी कब तक 
खुश्क लब दिखाएंगे आरज़ी खुशी कब तक ! 

तिश्नगी मुक़द्दर में साथ तो नहीं आयी 
चश्म-ए-मस्त बतला तू ऐसी बेरुखी कब तक ! 

ज़ब्त छूटा जाता है सब्र क्यों नहीं आता 
देखिये दिखाती है रंग बेकसी कब तक ! 

दिल में हैं मकीं लेकिन सामने नहीं आते 
रखेगा भला आखिर सब्र आदमी कब तक ! 

दर पे आँख अटकी है उखड़ी उखड़ी सांसे हैं 
नातवां सहे आखिर तेरी ये कमी कब तक ! 

मेहरबान वो हों तो लुत्फ़-ए-इश्क सादिक है 
बंदगी में कटेगा ’स्वामी’ ज़िन्दगी कब तक !! 

- पी0 के0 स्वामी-

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2020

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 75 [ उर्दू शायरी में मात्रा गणना ]

 सवाल :  ग़ज़ल .शे’र या माहिया  के मिसरों में मात्रा गिनने में  भ्रम की स्थिति क्यों बनी रहती है ?


उत्तर : । बहुत से मित्रों ने यह सवाल किया है । उत्तर यहाँ लगा रहा हूँ जिससे इस ब्लाग के अन्य मित्र भी मुस्तफ़ीद

लाभान्वित हो सकें ।

 हिंदी मे मात्रा ’लघु [ 1 ] और दीर्घ [ 2 ] के हिसाब से गिनी जाती है । हिंदी में  "मात्रा गिराने " का 

कोई विचार नहीं होता ।हिंदी में जैसा लिखते हैं वैसा ही बोलते है ।अगर हम -भी--थी--है

--की --सी--्सू--कू--कु --जैसे वर्ण लिखेंगे तो हमेशा [2] ही गिना जायेगा क्योंकि सभी वर्ण 

अपनी पूरी आवाज़ देते हैं  और खुल कर आवाज़ देते हैं  ।

मगर उर्दू में शायरी ’तलफ़्फ़ुज़ " के आधार पर चलती है । जैसा लिखते हैं कभी कभी वैसा बोलते नहीं । 

वहाँ पर वज़न /भार का ’कन्सेप्ट’ है --मुतहर्रिक हर्फ़ [1] और साकिन हर्फ़ का ’कन्सेप्ट’ है 

उर्दू में -भी--थी--है---की --सी---्सू--कू--को जैसे  सभी हर्फ़ एक साथ ही  -2-[दीर्घ ] की भी हैसियत रखते है और 

मुतहर्रिक [1] की भी हैसियत रखते है । यह निर्भर करती है कि यह हर्फ़ मिसरा के रुक्न के किस मुक़ाम पर 

इस्तेमाल किया गया है । बह्र में उस मक़ाम पर वज़न की क्या माँग है । अगर रुक्न [1] का वज़न माँगता है यानी मुतहर्रिक हर्फ़ 

माँगता है तो इन हरूफ़ को [1] मानेंगे और अगर रुक्न [2] का वज़न माँगता है तो [2] गिनेंगे ।

इसीलिए शायरी करने से पहले ’अरूज़’ की जानकारी यानी रुक्न और बह्र की जानकारी हो तो बेहतर।

चलते चलते एक बात और--

उर्दू का हर लफ़्ज़--मुतहर्रिक से शुरु होता है और साकिन पर खत्म होता है । 

 इसी बात को और साफ़ करते हुए --कुछ अश’आर की तक़्तीअ कर के देखते है --

*बह्र-ए-कामिल* एक बड़ी ही मक़्बूल बह्र है जिसका बुनियादी सालिम रुक्न है --*मु* *त*फ़ा*इ*लुन --[ 1 1 2 1 2 ]

 जिसमें -*मु*- [मीम]--*त*--[ते] - और -*इ* [ ऐन]  मुतहर्रिक है जिसे हमने -1- से दिखा्या  हैं यहाँ ।

इसकी एक मशहूर आहंग है --*बह्र-ए-कामिल मुसम्मन सालिम* 

मु त फ़ा इ लुन --मु त फ़ा इ लुन --मु त फ़ा इ लुन --मु त फ़ा इ लुन  यानी 

1 1 2 1 2 ------1 1 2 1 2----1 1 2 1 2-----------1 1 2 1 2

इस बह्र में अमूमन हर नामचीन शायर ने ग़ज़ल कही है ।यहाँ हम बशीर बद्र साहब  के 2-3 अश’आर और 

अल्लामा इक़बाल के 1-शे’र  इसी बह्र में कहे हुए ,देखते हैं कि ऊपर कही हुई बात साफ़ हो जाए ।

पूरी ग़ज़ल इन्टर्नेट पर मिल जाएगी।

[1]  कभी यूँ भी आ मेरी आँख में कि मेरी नज़र को ख़बर न हो

मुझे एक रात नवाज़ दे  मगर इसके बाद   सहर न हो 

बशीर बद्र-

[2] अभी इस तरफ़ न निगाह कर मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ

मेरा लफ़्ज़ लफ़्ज़ हो आईना  तुझे आईने में  उतार  लूँ 

बशीर बद्र

[3] यूँ ही बेसबब न फिरा करो कोई शाम घर भी रहा करो

वह ग़ज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो

बशीर बद्र 

[4]  कभी ऎ हक़ीकत-ए-मुन्तज़र ,नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में 

कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मेरी जबीन-ए-नियाज़  में 

-इक़बाल-

यहाँ हम मात्र 2-शे’र की तक़्तीअ करेंगे जिससे बात साफ़ हो जाये । बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर लें और मुतमुईन [ निश्चिन्त]

हो लें  --अगर आप को ज़ौक़-ओ-शौक़ फ़रमाते हो तो ।

  1  1  2  1  2         /  1 1  2 1 2        / 1  1   2  1 2     / 1  1  2  1 2

 क*भी* यूँ *भी* आ / *मे**री* आँख में /कि *मे* री न ज़र /*को* ख़ बर न हो

1  1      2 1 2    / 1  1 2  1 2  /  1 1  2   1   2  / 1  1   2 1 2

मु *झे* एक रा     /त न वा ज़ दे /  म ग *रिस* के बा /द   स हर न हो 

ध्यान दें 

मिसरा उला में ---पहला -भी- [1] लिया जब कि दूसरा- भी- [2] लिया है ।क्यों ? क्योंकि उस मक़ाम पर जैसी बह्र की माँग थी वैसा लिया।

यही -भी-एक साथ [1] की भी हैसियत रखता है और [2] [ यानी सबब-ए-ख़फ़ीफ़] की भी हैसियत रखता है । अगर यह भेद आप नहीं जान पाएँगे

तो आप हिंदी मात्रा गणना के अनुसार हर जगह इसे ’दीर्घ वर्ण ’ मान कर -2- जोड़ते जाएंगे---जो ग़लत होगा और कह देंगे कि बशीर बद्र साहब की

यह ग़ज़ल बह्र से ख़ारिज़ है । मुझे उम्मीद है कि आप ऐसा कहेंगे नहीं ।

और हर्फ़ भी देख लेते है  नीचे लिखे अक्षर देखने में तो -2- [दीर्घ] लगते है मगर यहाँ हम ले रहे हैं -1- मुतहर्रिक मान कर । क्योंकि मैने पहले ही कह दिया

है कि ऐसे अक्षर दोनो  हैसियत रखते है--आप जैसा चाहें इस्तेमाल करें।

इसी को हम हिंदी में ’मात्रा’ गिराना समझते हैं।जब कि अरूज़ में मात्रा गिराने का कोई  ’Concept ’ नहीं है । साकित करने का  concept है।

 ==वह ’तलफ़्फ़ुज़’ से ’कन्ट्रोल’ करेंगे --हल्का सा उच्चारण में दबा कर ।

मे = 1= क्योंकि मुतहर्रिक है 

री = 1=  -do-

को=1=   -d0-चो

झे= 1= -do-

लगे हाथ दूसरे मिसरे में  --*मगर इस*  --पर बात कर लेते हैं।

 इसे हमने -म ग *रिस*- [ 1 2 2--] पर लिया है । सही है । -रे- का वस्ल हो गया है।सामने वाले -अलिफ़- से 

 क्योंकि बह्र की माँग वहाँ यानी उस मुक़ाम पर वही थी --सो वस्ल करा दिया।

अब एक सवाल यह उठता है कि ’अलिफ़ - का वस्ल  [ या ऐसा ही कोई और वस्ल ] *Mandatory*  है या *Obligatory* है ?

 इस पर कभी बाद में अलग से चर्चा करेंगे।

अब अल्लमा इक़बाल के शे’र पर आते हैं 

 1   1 2 1 2 / 1 1    2    1  2  / 1 1  2    1  2   / 1   1  2 1 2 

            कभी ऎ हक़ी/कत-ए-मुन् त ज़र/ ,न ज़ र आ लिबा/स-ए-मजाज़ में 

1     1 2  1 2   / 1 1 2  1  2   / 1  1 2  1 2  / 1  1   2 1 2 

कि हज़ारों सज / दे त  ड़प रहे  / हैं मे री जबी /न-ए-नियाज़  में 

नोट -- हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र

लिबास-ए-मजाज़

जबीन-ए-नियाज़ 

जैसे लफ़्ज़ को ’कसरा-ए-इज़ाफ़त" की  तरक़ीब कहते है ।इस पर पहले भी बातचीत कर चुका हूँ।

वैसे तो हक़ीक़त का -*त*- 

लिबास का-*स*- 

जबीन  का-*ज* -

तो दर अस्ल --साकिन हर्फ़ है [ उर्दू का हर लफ़ज़ ’साकिन’ पर ख़त्म  होता है । मगर ’कसरा-ए-इज़ाफ़त ’ [-ए-] की बदौलत  -त--स--ज-- मुतहर्रिक हो जाते है यानी -1- का वज़न

देने लगते  हैं। ऊपर तक़्तीअ’ भी उसी हिसाब से की है । 

एक बात और -- --नज़र आ लिबास-- न ज़ रा [ 1 1 2---] वही बात -र- के साथ अलिफ़ का वस्ल हो गया -सो -2- ले लिया ।

चलते चलते मेरे कुछ मित्र पूछते रहते है --कि हम 1-1  को 2 मान सकते है  ?

यानी  दो लघु वर्ण  को एक दीर्घ ? हिंदी छन्द शास्त्र के हिसाब से मान लीजिए मगर अरूज़ के लिहाज़ से नहीं मान सकते [ कुछ विशेष अवस्था में छोड़ कर]

क्यों ?

अगर इसी केस में देख लें--कि अगर हम 1 1 को =2 मान लें तो क्या होगा ? 11212-----11212----11212----11212 का क्या होगा ?

बह्र फिर  2212---2212----2212----2212   यानी [ मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन ] यानी *बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम*

हो जायेगी । फिर ?


जाना था जापान ,पहुँच गए चीन ,समझ गए ना ।

नोट ; इस मंच पर मौजूद असातिज़ा [ गुरुजनों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश [करबद्ध प्रार्थना ] है अगर कुछ ग़्लर
बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी निशानदिहि [ रेखांकित ] कर दे कि जिससे मै आइन्दा [ आगे से] खुद
को दुरुस्त कर सकूँ ।

सादर

-आनन्द.पाठक-


उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 74 [ आहंग एक-नाम दो ]

 उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 74 [ आहंग एक-नाम दो ]


    आज शकील बदायूँनी की ग़ज़ल केचन्द अश’आर मुलाहिज़ा फ़रमाएँ
 शकील बदायूँनी साहब का परिचय देने की कोई ज़रूरत नहीं है--आप सब लोग
परिचित होंगे।
अभी इन अश’आर का लुत्फ़ [आनन्द] उठाएँ ---इसके "बह्र" की बात बाद में करेंगे

लतीफ़ पर्दों से थे नुमायाँ मकीं के जल्वे मकाँ से पहले
मुहब्बत आइना हो चुकी थी  वुजूद-ए-बज़्म-ए-जहाँ  से  पहले

न वो मेरे दिल से बाख़बर थे ,न उनको एहसास-ए-आरज़ू था
मगर निज़ाम-ए-वफ़ा था क़ायम कुशूद-ए-राज़-ए-निहाँ से पहले

---
---
अज़ल से शायद लिखे हुए थे ’शकील’ क़िस्मत में जौर-ए-पैहम 
खुली जो आँखे इस अंजुमन में ,नज़र मिली आस्माँ  से पहले

 एक दूसरी ग़ज़ल --के चन्द अश’आर--

न अब वो आँखों में बरहमी है ,न अब वो माथे पे बल रहा है
वो हम से ख़ुश हैं ,हम उन से ख़ुश हैं ज़माना करवट बदल रहा है

खुशी न ग़म की ,न ग़म खुशी का अजीब आलम है ज़िन्दगी का
चिराग़-ए-अफ़सुर्दा-ए-मुहब्बत न बुझ रहा है न जल  रहा है

ये काली काली घटा ये सावन फ़रेब-ए-ज़ाहिद इलाही तौबा
वुज़ू में मसरूफ़ है बज़ाहिर ,हक़ीक़तन हाथ मल रहा है 

 एक और ग़ज़ल --के चन्द अश’आर

स इक निगाहे करम है काफी अगर उन्हे पेश-ओ-पस नहीं है
ज़ह-ए-तमन्ना कि मेरी फ़ितरत असीर-ए-हिर्स-ए-हवस नहीं है

कहाँ के नाले ,कहाँ की आहें जमी हैं उनकी तरफ़ निगाहें
कुछ इस तरह मह्व-ए-याद हूँ मैं कि फ़ुरसत-ए-यक नफ़स नहीं है
------------------------
ऐसे ही चन्द अश’आर अल्लामा इक़बाल साहब की एक ग़ज़ल के ---

ज़माना आया है बेहिज़ाबी का आम दीदार-ए-यार होगा
सुकूत था परदावार जिसका वो राज़ अब आशकार होगा

खुदा के आशिक़ तो है हज़ारों बनों में फिरते है मारे मारे
मै उसका बन्दा बनूँगा जिसको ख़ुदा के बन्दों से प्यार होगा

न पूछ इक़बाल का ठिकाना अभी वही क़ैफ़ियत है उसकी
कहीं सर-ए-रहगुज़ार बैठा सितम-कशे इन्तिज़ार  होगा

 आप इन अश’आर को पढ़िए नहीं ।गुनगुनाइए --धीरे  गुनगुनाइए --गाइए तब इस आहंग का
 आनन्द आयेगा । ये सभी ग़ज़लें गूगल पर मिल जायेगी ।
अगर ’पढ़ना" ही है तो इनको  पढ़िए नहीं --समझिए--भाव समझिए -- तासीर [ प्रभाव ] समझिए --शे’रियत समझिए
तग़ज़्ज़ुल  समझिए--मयार देखिए--बुलन्दी समझिए--फिर देखिए कि हम लोग कहाँ खड़े हैं ।

 कितना दिलकश  आहंग है । इस बह्र में और भी शोअ’रा [ शायरों ] ने
अपनी अपनी ग़ज़ले कहीं है --मुनासिब मुक़ाम [ उचित स्थान] पर उनकी भी चर्चा करूँगा।
। आहंग [लय ] से पता चल गया होगा ।ये तमाम ग़ज़लें एक ही बहर में हैं ।
और वो आहंग है --
A 121--22  / 121--22 // 121--22 / 121--22 
  बह्र-ए-मुक़्तज़िब मुसम्मन मख़्बून मरफ़ूअ’ , मख़्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन मुज़ाइफ़
बड़ा लम्बा नाम है -मख्बून --मक्फ़ूफ़ -सब ज़िहाफ़ का नाम है ।

B 121-22 /121--22 / 121--22 / 121-22 
इसी आहंग का दूसरा नाम भी है 
बह्र-ए-मुतक़ारिब मक़्बूज़ असलम मुसम्मन मुज़ाहिफ़ 
 
यानी बह्र एक --नाम दो ? दोनो ही मुज़ाइफ़--।दोनो ही 16-रुक्नी॥ दोनो ही दो-दो- रुक्न का इज़्तिमा [ मिला हुआ ] है
शकल भी बिलकुल एक जैसी ।

बस ,यहीं पर controversy है ।
 कुछ अरूज़ की किताबों में --A- की सही मानते हैं  और  इसे  बह्र-ए-मुक़्तज़िब के अन्दर रखते है
कुछ अरूज़ की किताबों में --B -को सही मानते है । बह्र-ए-मुतक़ारिब के अन्दर रखते है
दोनों की अपनी अपनी दलाइल [ दलीलें ] हैं । अपने अपने ’जस्टीफ़िकेशन ’ हैं ।

-A-सही माना भी जाए कि -B- सही माना जाए।

आप इस चक्कर में क्यों पड़ें ?----बस ग़ज़ल  गुनगुनाए और रसास्वादन करें

चलिए पहले - B -पर चर्चा कर लेते है ।

B 121-22 /121--22 / 121--22 / 121-22
इसी आहंग का नाम  है
बह्र-ए-मुतक़ारिब मक़्बूज़ असलम मुसम्मन मुज़ाहिफ़

मुतक़ारिब का बुनियादी रुक्न है --"फ़ऊलुन--[ 1 2 2 ]

फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] + क़ब्ज़ =  मक़्बूज़ =फ़ऊलु =1 2 1
फ़ऊलुन [ 1 2 2 ]  + सलम = असलम =फ़अ’ लुन = 2 2
[ कब्ज़ और सलम --ये सब ज़िहाफ़ है । और इनके  अमल के  के निज़ाम [ व्यवहार की नियम  ] है । यह खुद में
एक अलग विषय है --इसमे विस्तार में जाने से बेहतर है कि हम बस इसे यहाँ मान लें ।

अर्थात [ 121--22 ]    एक आहंग बरामद हुआ । अब इसी की तकरार [ repetition ] करें

मिसरा में 4-बार या शे’र में 8-बार तो उक्त आहंग मिलेगा
चूँकि  शे’र 16- अर्कान हो जायेंगे अत: इसे 16-रुक्नी बह्र भी कहते है    ।

अब इक़बाल के अश’आर की तक्तीअ’ इसी बह्र  से करते हैं---

1  2  1---2 2  /  1 2 1--2 2  / 1  2 1 - 2 2 / 1  2 1-2 2
ज़मान: -आया / है बे हि-ज़ाबी /का आम -दीदा /र यार -होगा

  1  2  1 - 2 2  / 1 2 1- 2  2    /  1 2 1 --2  2   / 1 2 1-2 2
सुकूत -था पर /द: वार -जिसका / वो राज़ -अबआ /शकार -होगा

{ ध्यान दीजिये --अब-आशकार - में =अलिफ़ की वस्ल नहीं हुई है ?
क्यों नहीं हुई ?  ज़रूरत ही नहीं पड़ी । बह्र या रुक्न ने मांगा ही नहीं ।
माँगता तो ज़रूर करते ।

बाक़ी 2-अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर के देख लें ।कही शे’र
बह्र से ख़ारिज़ तो नहीं हो रही है ? अभ्यास का अभ्यास हो जायेगा -
आत्म विश्वास का आत्म विश्वास बढ़ जायेगा ।

अब -A-  वाले आहंग पर आते हैं --
A 121--22  / 121--22 // 121--22 / 121--22 
  बह्र-ए-मुक़्तज़िब मुसम्मन मख़्बून मरफ़ूअ’ , मख़्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन मुज़ाइफ़
मुक़तज़िब का बुनियादी अर्कान है --- मफ़ऊलातु--मुस तफ़ इलुन ---मफ़ऊलातु---मुस तफ़ इलुन
यानी   2221---2212------2221-----2212

मफ़ऊलातु [ 2221 ] + ख़ब्न + रफ़अ’  =  मुज़ाहिफ़ मख़्बून मरफ़ूअ’  1 2 1 = फ़ऊलु [ 1 2 1 ] बरामद होगा
मुस तफ़ इलुन [ 2 2 1 2 } + ख़ब्न + रफ़अ’+ तस्कीन =  मुज़ाहिफ़ मख़्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन = 2 2 = फ़अ’ लुन  बरामद होगा

[ ख़ब्न  और रफ़अ’ --ये सब ज़िहाफ़ है । और इनके  अमल के  के निज़ाम [ व्यवहार की नियम ] है । यह खुद में
एक अलग विषय है --इसमे विस्तार में जाने से बेहतर है कि बस आप इसे यहाँ मान लें ।

अब इस औज़ान से शकील के किसी शे’र का तक़्तीअ’ करते है और देखते हैं --
 1   2   1 - 2   2 /  1 2  1  - 2 2  /  1 2  1  - 2 2 / 1 2   1 - 2 2
न अब वो -आँखों /में बर ह  -मी है ,/न अब वो -माथे /पे बल र-हा है

  1   2   1 - 2   2   / 1  2   1  - 2  2   /  1 2 1 - 2  2    / 1 2 1 - 2 2
वो हम से -ख़ुश हैं ,/ ह मुन से  -ख़ुश हैं / ज़मान: -कर वट /ब दल र -हा है[

[ध्यान दीजिए-- हम-उन से - में -मीम- के साथ अलिफ़ का वस्ल हो गया और
ह मुन से [ 1 2 1 ]  रख दिया ।
क्यों भाई ? इसलिए कि  कि ज़रूरत पड़ गई । बह्र या रुक्न मांग रहा है  यहाँ ।

बाक़ी 2-अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर के देख लें ।कही शे’र
बह्र से ख़ारिज़ तो नहीं हो रही है ? अभ्यास का अभ्यास हो जायेगा
आत्म विश्वास का आत्म विश्वास बढ़ेगा ।

अब सवाल यह है कि --जब दोनो आहंग एक हैं --तो नाम क्यों मुखतलिफ़ है ।
सही नाम क्या होगा ?
सही नाम मुझे भी नहीं मालूम } दोनो किस्म के अरूज़ियों की अपनी अपनी दलीले हैं
-A--वालों का कहना है [ जिसमे मैं भी हूँ --जब कि मैं अरूज़ी नहीं हूँ -एक अनुयायी हूँ ]
कि -B - वाले सही नही हैं । कारण कि ज़िहाफ़ ’सलम’ [ मुज़ाहिफ़ "असलम ’-एक खास
ज़िहाफ़ है जो शे’र के सदर/इब्तिदा के लिए मख़्सूस [ ख़ास] है --वो हस्व में लाया ही नही जा सकता
तो  zihaaf ka निज़ाम कैसे सही होगा ?

खैर --आप तो ग़ज़ल के आहंग का मज़ा लीजिए--- गुनगुनाइए--गाइए --- अरूज़ की बात अरूज़ वाले जाने ।

[नोट ; इस मंच पर मौजूद असातिज़ा [ गुरुजनों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश [करबद्ध प्रार्थना ] है अगर कुछ ग़्लर
बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी निशानदिहि [ रेखांकित ] कर दे कि जिससे मै आइन्दा [ आगे से] खुद
को दुरुस्त कर सकूँ ।

सादर
-आनन्द.पाठक-