ग़ज़ल 056: अफ़्सोस ख़ुद को खुद पे.....
अफ़्सोस ख़ुद को ख़ुद पे नुमायां न कर सके
हम ज़िन्दगी को साहब-ए-ईमां न कर सके
राह-ए-तलब में कार-ए-नुमायां न कर सके
अश्क़-ए-जुनूं को आईना-सामां न कर सके
वो इश्क़ क्या जो दर्द का दर्मां न कर सके
वो दर्द क्या जो इश्क़ को आसां न कर सके
हर लम्हा-ए-हयात हिसाब अपना ले गया
"हम ज़िन्दगी में फिर कोई अरमां न कर सके
दामान-ए-आरज़ू की दराज़ी तो देखिए
खु़द से भी ज़िक्र-ए-तंगी-ए-दामां न कर सके
यूँ मुब्तिला-ए-कुफ़्र-ए-तमन्ना रहे कि हम
चाहा हज़ार,दिल को मुसलमां न कर सके
क्यों मुझसे लाग है तुझे ऐ शूरिश-ए-हयात
वो काम कर जो गर्दिश-ए-दौरां न कर सके !
इतनी तो हो मजाल कि ख़ुद को समेट लें
क्या ग़म जो हम तलाफ़ी-ए-हिज्रां न कर सके
इस दर्जा फ़िक्र-ए-शेहर-ए-निगारां में गुम रहे
हम खु़द भी अपनी ज़ात का इर्फ़ां न कर सके
"सरवर" चलो है मैकदा-ए-इश्क़ सामने
मुद्दत हुयी ज़ियारत-ए-इन्सां न कर सके
-सरवर
आईना-सामां =आईने की तरह
नुमायां =ज़ाहिर/व्यक्त
कार-ए-नुमाया =बहुत बड़ा काम
दर्मा =इलाज
मुब्तिला = गिरफ़्त में
तलाफ़ी-ए-हिज़्रा =जुदाई की भरपाई
इरफ़ाँ न कर सके =जान न सके
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