ग़ज़ल 053 : मरीज़-ए-इश्क़ पर .......
मरीज़-ए-इश्क़ पर पल में क़ियामत का गुज़र जाना
"सिरहाने से किसी का उठ के वो पिछले पहर जाना "
किसी को हम-नफ़स समझा, किसी को चारागर जाना
मगर दुनिया को हमने कुछ नहीं जाना ,अगर जाना
मक़ाम-ए-ज़ीस्त को हम ने भला कब मोतबर जाना ?
मिला जो लम्हा-ए-फ़ुर्सत उसे भी मुख़्तसर जाना
इलाही ! हम ग़रीबों की ही क्यों यह आज़माईश है ?
दवा का बे-असर रहना , दुआ का बे-असर जाना
तबस्सुम ज़ेर-ए-लब तेरा,दलील-ए-सुब्ह-ए-जान-ओ-दिल
तेरा नज़रें चुराना ,नब्ज़-ए-हस्ती का ठहर जाना
हक़ीक़त है तो बस इतनी सी है हंगामा-ए-हस्ती की
"यहाँ पर बे-ख़बर रहना ,यहाँ से बे-ख़बर जाना "
सलाम ऐसी मुहब्बत को ,भला ये भी मुहब्बत है !
किसी की याद में जीना ,किसी के ग़म में मर जाना
रह-ए-उल्फ़त में हम से और क्या उम्मीद रखते हो ?
ये क्या कम है कि अपनी ज़ात को गर्द-ए-सफ़र जाना?
तू ख़ुद को लाख समझे बा-कमाल-ओ-बाहुनर "सरवर"
तुझे लेकिन ज़माने ने हमेशा बे-हुनर जाना !
-सरवर
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