ग़ज़ल 058 :रह-ए-वफ़ा में ग़म-ए-जुदाई....
रह-ए-वफ़ा में ग़म-ए-जुदाई कभी मिरा हम-क़दम न होता
तुझे ख़ुदा का जो ख़ौफ़ होता तो ख़्वार में ख़म-ब-ख़म न होता
मुझे सर-ए-बज़्म-ए-ग़ैर तेरी निगाह-ए-कम-आशना ने मारा
जो मुझ पे अह्सान यूँ न होता , तिरा यह अह्सान कम न होता
तुम्हारी इस बन्दगी के सदक़े मिरा मुक़द्दर उरूज पर है
जो इश्क़ जल्वा-कुशा न होता तो दिल मिरा जाम-ए-जम न होता
बुरा हो इस ज़िन्दगी का जिस ने हमें किया ख़्वार आशिक़ी में
:जो हम न होते तो दिल न होता जो दिल न होता तो ग़म न होता:
निगाह-ए-लुत्फ़-ओ-करम जो करते हमारे जानिब भी गाहे-गाहे
तो हस्र-ए-उल्फ़त में हमको शिकवा कभी तुम्हारी क़सम न होता
कभी तो हंगाम-ए-ज़िन्दगी में निगाह मिलती सलाम होता
तुझे भी दुनिया की दाद मिलती मुझे भी मरने का ग़म न होता
भला मैं इस तरह क्यों भटकता फ़िसाद-ए-हुस्न-ए-नज़र के हाथों
अगर तिरी राह-ए-जुस्तजू में फ़रेब-ए-दैर-ओ-हरम न होता
ग़मों के हाथों ही आज "सरवर" है इश्क़ में बा-मुराद-ए-मंज़िल
सितम बा शक्ल-ए-करम जो होता करम बा शक्ले-सितम न होता
-सरवर
ख़्वार में =बदहाली में
ख़म-बा-ख़म =उलझन
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