ग़ज़ल 057 : रोज़-ओ-शब रुलायेगी ....
रोज़-ओ-शब रूलायेगी आप की कमी कब तक ?दर्द-ए-बेकसी कब तक ? रंज-ए-आशिक़ी कब तक?
"सरवर"-ए-परेशां से ऐसी दिल्लगी कब तक?
बे-रुख़ी के पर्दे में नाज़-ओ-दिलबरी कब तक?
दाग़-ए-नारसायी क्यों ज़ख़्म-ए-कज-रवी कब तक?
सुब्ह नौहा-ख़्वां होगी शाम-ए-यास की कब तक?
क्यों न हम भी दिखलायें दाग़-हाये शाम-ए-ग़म ?
महशर-ए-मुहब्बत में ये रवा-रवी कब तक?
अब तो अपनी सूरत भी अजनबी सी लगती है
देगी यूँ फ़रेब आख़िर मेरी ज़िन्दगी कब तक?
सुब्ह-ओ-शाम शिकवा है रोज़-ओ-शब का रोना है
इस तरह निभाओगे हम से दोस्ती कब तक?
राह-ए-मैकदा या-रब! हर क़दम पे खोटी है
कर्ब-ए-तिश्नगी कब तक? जाम ये तही कब तक?
मैं शिकार-ए-नाउम्मीदी ,तू वफ़ा से बेगाना
देखिये रहे अपनी ज़ीस्त अजनबी कब तक?
हो चुकी बहुत बातें ,सोच तो ज़रा "सरवर"
मंज़िले-ए-मुहब्बत में सिर्फ़ शायरी कब तक?
सरवर-
दाग़-ए-नारसायी =न मिलने का दुख
कज-रवी =(प्रेमिका की) टेढ़ी चाल
शाम-ए-यास =ना उम्मीदी की शाम
कर्ब-ए-तिश्नगी =प्यास की बेचैनी
जाम तही =बची-खुची शराब ,तलछट में बची शराब
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