सवाल : ग़ज़ल .शे’र या माहिया के मिसरों में मात्रा गिनने में भ्रम की स्थिति क्यों बनी रहती है ?
उत्तर : । बहुत से मित्रों ने यह सवाल किया है । उत्तर यहाँ लगा रहा हूँ जिससे इस ब्लाग के अन्य मित्र भी मुस्तफ़ीद
लाभान्वित हो सकें ।
हिंदी मे मात्रा ’लघु [ 1 ] और दीर्घ [ 2 ] के हिसाब से गिनी जाती है । हिंदी में "मात्रा गिराने " का
कोई विचार नहीं होता ।हिंदी में जैसा लिखते हैं वैसा ही बोलते है ।अगर हम -भी--थी--है
--की --सी--्सू--कू--कु --जैसे वर्ण लिखेंगे तो हमेशा [2] ही गिना जायेगा क्योंकि सभी वर्ण
अपनी पूरी आवाज़ देते हैं और खुल कर आवाज़ देते हैं ।
मगर उर्दू में शायरी ’तलफ़्फ़ुज़ " के आधार पर चलती है । जैसा लिखते हैं कभी कभी वैसा बोलते नहीं ।
वहाँ पर वज़न /भार का ’कन्सेप्ट’ है --मुतहर्रिक हर्फ़ [1] और साकिन हर्फ़ का ’कन्सेप्ट’ है
उर्दू में -भी--थी--है---की --सी---्सू--कू--को जैसे सभी हर्फ़ एक साथ ही -2-[दीर्घ ] की भी हैसियत रखते है और
मुतहर्रिक [1] की भी हैसियत रखते है । यह निर्भर करती है कि यह हर्फ़ मिसरा के रुक्न के किस मुक़ाम पर
इस्तेमाल किया गया है । बह्र में उस मक़ाम पर वज़न की क्या माँग है । अगर रुक्न [1] का वज़न माँगता है यानी मुतहर्रिक हर्फ़
माँगता है तो इन हरूफ़ को [1] मानेंगे और अगर रुक्न [2] का वज़न माँगता है तो [2] गिनेंगे ।
इसीलिए शायरी करने से पहले ’अरूज़’ की जानकारी यानी रुक्न और बह्र की जानकारी हो तो बेहतर।
चलते चलते एक बात और--
उर्दू का हर लफ़्ज़--मुतहर्रिक से शुरु होता है और साकिन पर खत्म होता है ।
इसी बात को और साफ़ करते हुए --कुछ अश’आर की तक़्तीअ कर के देखते है --
*बह्र-ए-कामिल* एक बड़ी ही मक़्बूल बह्र है जिसका बुनियादी सालिम रुक्न है --*मु* *त*फ़ा*इ*लुन --[ 1 1 2 1 2 ]
जिसमें -*मु*- [मीम]--*त*--[ते] - और -*इ* [ ऐन] मुतहर्रिक है जिसे हमने -1- से दिखा्या हैं यहाँ ।
इसकी एक मशहूर आहंग है --*बह्र-ए-कामिल मुसम्मन सालिम*
मु त फ़ा इ लुन --मु त फ़ा इ लुन --मु त फ़ा इ लुन --मु त फ़ा इ लुन यानी
1 1 2 1 2 ------1 1 2 1 2----1 1 2 1 2-----------1 1 2 1 2
इस बह्र में अमूमन हर नामचीन शायर ने ग़ज़ल कही है ।यहाँ हम बशीर बद्र साहब के 2-3 अश’आर और
अल्लामा इक़बाल के 1-शे’र इसी बह्र में कहे हुए ,देखते हैं कि ऊपर कही हुई बात साफ़ हो जाए ।
पूरी ग़ज़ल इन्टर्नेट पर मिल जाएगी।
[1] कभी यूँ भी आ मेरी आँख में कि मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे मगर इसके बाद सहर न हो
बशीर बद्र-
[2] अभी इस तरफ़ न निगाह कर मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ
मेरा लफ़्ज़ लफ़्ज़ हो आईना तुझे आईने में उतार लूँ
बशीर बद्र
[3] यूँ ही बेसबब न फिरा करो कोई शाम घर भी रहा करो
वह ग़ज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो
बशीर बद्र
[4] कभी ऎ हक़ीकत-ए-मुन्तज़र ,नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मेरी जबीन-ए-नियाज़ में
-इक़बाल-
यहाँ हम मात्र 2-शे’र की तक़्तीअ करेंगे जिससे बात साफ़ हो जाये । बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर लें और मुतमुईन [ निश्चिन्त]
हो लें --अगर आप को ज़ौक़-ओ-शौक़ फ़रमाते हो तो ।
1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2
क*भी* यूँ *भी* आ / *मे**री* आँख में /कि *मे* री न ज़र /*को* ख़ बर न हो
1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2
मु *झे* एक रा /त न वा ज़ दे / म ग *रिस* के बा /द स हर न हो
ध्यान दें
मिसरा उला में ---पहला -भी- [1] लिया जब कि दूसरा- भी- [2] लिया है ।क्यों ? क्योंकि उस मक़ाम पर जैसी बह्र की माँग थी वैसा लिया।
यही -भी-एक साथ [1] की भी हैसियत रखता है और [2] [ यानी सबब-ए-ख़फ़ीफ़] की भी हैसियत रखता है । अगर यह भेद आप नहीं जान पाएँगे
तो आप हिंदी मात्रा गणना के अनुसार हर जगह इसे ’दीर्घ वर्ण ’ मान कर -2- जोड़ते जाएंगे---जो ग़लत होगा और कह देंगे कि बशीर बद्र साहब की
यह ग़ज़ल बह्र से ख़ारिज़ है । मुझे उम्मीद है कि आप ऐसा कहेंगे नहीं ।
और हर्फ़ भी देख लेते है नीचे लिखे अक्षर देखने में तो -2- [दीर्घ] लगते है मगर यहाँ हम ले रहे हैं -1- मुतहर्रिक मान कर । क्योंकि मैने पहले ही कह दिया
है कि ऐसे अक्षर दोनो हैसियत रखते है--आप जैसा चाहें इस्तेमाल करें।
इसी को हम हिंदी में ’मात्रा’ गिराना समझते हैं।जब कि अरूज़ में मात्रा गिराने का कोई ’Concept ’ नहीं है । साकित करने का concept है।
==वह ’तलफ़्फ़ुज़’ से ’कन्ट्रोल’ करेंगे --हल्का सा उच्चारण में दबा कर ।
मे = 1= क्योंकि मुतहर्रिक है
री = 1= -do-
को=1= -d0-चो
झे= 1= -do-
लगे हाथ दूसरे मिसरे में --*मगर इस* --पर बात कर लेते हैं।
इसे हमने -म ग *रिस*- [ 1 2 2--] पर लिया है । सही है । -रे- का वस्ल हो गया है।सामने वाले -अलिफ़- से
क्योंकि बह्र की माँग वहाँ यानी उस मुक़ाम पर वही थी --सो वस्ल करा दिया।
अब एक सवाल यह उठता है कि ’अलिफ़ - का वस्ल [ या ऐसा ही कोई और वस्ल ] *Mandatory* है या *Obligatory* है ?
इस पर कभी बाद में अलग से चर्चा करेंगे।
अब अल्लमा इक़बाल के शे’र पर आते हैं
1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2
कभी ऎ हक़ी/कत-ए-मुन् त ज़र/ ,न ज़ र आ लिबा/स-ए-मजाज़ में
1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2
कि हज़ारों सज / दे त ड़प रहे / हैं मे री जबी /न-ए-नियाज़ में
नोट -- हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र
लिबास-ए-मजाज़
जबीन-ए-नियाज़
जैसे लफ़्ज़ को ’कसरा-ए-इज़ाफ़त" की तरक़ीब कहते है ।इस पर पहले भी बातचीत कर चुका हूँ।
वैसे तो हक़ीक़त का -*त*-
लिबास का-*स*-
जबीन का-*ज* -
तो दर अस्ल --साकिन हर्फ़ है [ उर्दू का हर लफ़ज़ ’साकिन’ पर ख़त्म होता है । मगर ’कसरा-ए-इज़ाफ़त ’ [-ए-] की बदौलत -त--स--ज-- मुतहर्रिक हो जाते है यानी -1- का वज़न
देने लगते हैं। ऊपर तक़्तीअ’ भी उसी हिसाब से की है ।
एक बात और -- --नज़र आ लिबास-- न ज़ रा [ 1 1 2---] वही बात -र- के साथ अलिफ़ का वस्ल हो गया -सो -2- ले लिया ।
चलते चलते मेरे कुछ मित्र पूछते रहते है --कि हम 1-1 को 2 मान सकते है ?
यानी दो लघु वर्ण को एक दीर्घ ? हिंदी छन्द शास्त्र के हिसाब से मान लीजिए मगर अरूज़ के लिहाज़ से नहीं मान सकते [ कुछ विशेष अवस्था में छोड़ कर]
क्यों ?
अगर इसी केस में देख लें--कि अगर हम 1 1 को =2 मान लें तो क्या होगा ? 11212-----11212----11212----11212 का क्या होगा ?
बह्र फिर 2212---2212----2212----2212 यानी [ मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन ] यानी *बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम*
हो जायेगी । फिर ?
जाना था जापान ,पहुँच गए चीन ,समझ गए ना ।
नोट ; इस मंच पर मौजूद असातिज़ा [ गुरुजनों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश [करबद्ध प्रार्थना ] है अगर कुछ ग़्लर
बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी निशानदिहि [ रेखांकित ] कर दे कि जिससे मै आइन्दा [ आगे से] खुद
को दुरुस्त कर सकूँ ।
सादर
-आनन्द.पाठक-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें