गज़ल 059 : रह-ए-उल्फ़त निहायत ...
रह-ए-उल्फ़त निहायत मुख़्तसर मालूम होती है
हमें हर राह तेरी रह-गुज़र मालूम होती है
हमें यह ज़िन्दगी इक दर्द-ए-सर मालूम होती है
न होना चाहिए ऐसा मगर मालूम होती है
मुसीबत में इक ऐसा वक़्त भी आता है इन्सां पर
ज़रा सी छाँव भी अपना ही घर मालूम होती है
न हम बदले, न दिल बदला ,न रंग-ए-आशिक़ी बदला
मगर बदली हुई तेरी नज़र मालूम होती है
कभी तुम भी किसी से दिल लगा कर देखते साहेब!
ज़रा सी चोट भी इक उम्र भर मालूम होती है
हर आहट पर मिरी साँसों की हर लै जाग उठती है
शब-ए-उम्मीद यादों का सफ़र मालूम होती है
हमें दुनिया भला क्या राह से अपनी लगायेगी
वो अपने आप से ही बेख़बर मालूम होती है
तिरे शे’रों पे इतनी दाद "सरवर" सख़्त हैरत है !
हमें ये साज़िश-ए-अह्ल-ए-हुनर मालूम होती है
-सरवर-
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