गुरुवार, 22 अगस्त 2019

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 64 [ एक गीत की तक़्तीअ]

[नोट :--मेरे एक मित्र ने एक गीत के चन्द [मुखड़े] मिसरे की तक़्तीअ जाननी चाही है ।यह आलेख उसी सन्दर्भ में  लिखा गया है। मैने सोचा कि इस ब्लाग के अन्य पाठक गण जो ग़ज़ल बह्र अरूज़ में दिलचस्पी रखते हैं वो भी इस सवाल के उत्तर से लाभान्वित हो सकें। 
एक बार पुन: स्पष्ट कर दूँ कि मैं कोई शायर या अरूज़ी नही हूँ -न ही मैं ऐसा कोई दावा ही करता हूँ --बस अदब आशना हूँ-अरे अरे आप नाराज़ न होईए--यह मेरा तकिया-कलाम है--हा हा हा 
मेरे इन आलेखोंसे पता नही आप लाभान्वित होते है या नहीं ,कह नहीं सकता ,मगर आप के सवालों से मुझे बहुत फ़ायदा होता है । उत्तर देने के बहाने --अरूज़ की किताबों का एक बार नज़र-ए-सानी कर लेता हूँ और मुस्तफ़ीद होता हूँ। 
       येअरूज़ का सबक़ है ,होता कहाँ है पूरा
       हर बार पढ़ रहा हूँ  ,हर बार  है अधूरा 
                                   --आनन्द.पाठक-

____________________________________________________
सवाल :--     आदरणीय पाठक साहब
                   आदाब
सर एक तो मुझे "कसमें वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या "की तक़ती अगर बता सकें तो मेहरबानी होगी
दूसरे जो आपके ब्लाग थे उरुज़ से मुताअल्लिक़ अगर वो सब के सब आप मुझे भेज दें तो बड़ी मेहरबानी होगी
      धन्यवाद

उत्तर :
दूसरे भाग का उत्तर कल दे चुका हूँ

पहले भाग --यानी तक़्तीअ -का उत्तर अब देने की कोशिश कर रहा हूँ
इस गीत का 2-शे’र ले रहा हूँ । समझने समझाने में सहूलियत होगी

क़स्मे,वादे,प्यार वफ़ा सब // बातें हैं बातों का क्या !
कोई किसी का नहीं,ये झूठे// नातें हैं नातों का क्या !

होगा मसीहा सामने तेरे  // फिर भी न तू बच पायेगा
तेरा अपना ख़ून ही आख़िर // तुझ को आग लगायेगा

आसमान के उड़ने वाले // मिट्टी में मिल जायेगा 
कस्मे वादे प्यार वफ़ा सब -----

// --यहाँ अरूज़ी वक़्फ़ा है और यह मिसरा बह्र-ए-शिकस्ता भी है
इन अश’आर की तक़्तीअ [मेरे ख़याल से] "मीर की बह्र"** से की जा सकती है
[** यह  जनाब शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब का दिया हुआ नाम है -कारण कि मीर तक़ी मीर ने अपनी ग़ज़लों में]इस बहर का कसरत से इस्तेमाल किया है
मीर की बह्र पर एक विस्तृत आलेख अपने ब्लाग www.urdu-se-hindi.blogspot.com [ or www.urdusehindi.blogspot.com] उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 59 
पर लगा चुका हूँ आप चाहें तो एक बार वहाँ देख सकते हैं। पूरा का पूरा मज़्मून यहाँ लगाना मुनासिब नहीं ]
मीर की बह्र के मूल अर्कान यूँ है
फ़े’लु---फ़ऊलु--फ़ऊलु--फ़ऊलुन // फ़े’लु---फ़ऊलु--फ़ऊलु--फ़ अ’ल
21-----121-----121----122---//  21----121----  -121--  -12 
---------------A--------------//  ----------B-------------
यह बह्र   --बह्र-ए-मुतक़ारिब की दो मुख़तलिफ़ मुज़ाहिफ़ बह्रों से मिल कर बनी है
’तख़नीक’ के अमल से A  के 16-औज़ान और  B  --- के 16-औज़ान बरामद किए जा सकते हैं जो बाहम मुतबादिल होते है । इन सारे औज़ान का ज़िक़्र मैने अपने ब्लाग में किया है
पार्ट --B --  में   पार्ट  -A- के बनिस्बत ’एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ =2"  कम है
यहाँ हम उन्हीं औज़ान का ज़िक्र करेंगे जो हमारे तक़्तीअ करने में दरपेश होगी
A  के उन 16-औज़ान में से दर्ज-ए-ज़ैल वज़न भी शामिल हैं
[क]      22---22---21---122
[ख[       21---121--122--22
[ग] 21---122--21---122
[घ]  22---21----122---22
समझने में सुविधा हो --इस लिए  हर लाइन में  ’रुक्न’ के नाम नहीं लिख रहा हूँ आप चाहें तो लिख सकते है जैसे
22= फ़े’लुन
21= फ़े’लु
122= फ़ऊलुन  वग़ैरह वग़ैरह

B  के उन 16-औज़ान में से दर्ज-ए-ज़ैल वज़न भी शामिल हैं

[च] 22---22---22---2
[ख]  21---122---22--2
[ग] 22   -21--122   -2
समझने में सुविधा हो --इस लिए  यहाँ भी हर लाइन में ’रुक्न’ के नाम नहीं लिख रहा हूँ आप चाहें तो लिख सकते है जैसे

अब आप के दिए हुए गीत के मिसरे की तक़्तीअ पर आते हैं
22     /22   / 21  / 122      //  22 / 2  2 / 2 2 /  2 
क़स्मे,/वादे,’/प्यार/ वफ़ा सब // बातें/ हैं बा /तों का/ क्या !
---------क----------------//---------च-----
______________________________________________

21    /  121       / 122   / 2 2 //   22 / 22  / 22    / 2
कोई / किसी का / नहीं,ये/  झूठे// नातें /हैं ना /तों का /क्या !   
-----  ख-----------------------//--------च------
___________________________________________________
 2  1 /  122  /  21  / 1 2 2 // 2   1   / 1 2   2 / 2 2 /2
होगा /मसीहा /साम /ने तेरे  // फिर भी/ न तू बच/ पाये /गा
----ग---- // ------  ख------   
_____________________________________________
22   / 2 2  /  21  / 122      // 2  2      / 21  / 122  / 2
तेरा /अपना /ख़ून /ही आख़िर // तुझ को/ आग/ लगाये/ गा
----------क---                  //     ------ग-------
_______________________________________________
22--21      /  1 2  2  /   2 2//  22  /    2 2    / 2 2 /2 
आसमान** /के उड़ने /वाले // मिट्टी /   में मिल/ जाये/ गा 
----------घ--------------//--------च------

**एक सवाल ---कि यहाँ ’आसमान’ को 22-21 की वज़न पर क्यों लिया ?
वैसे तो ’आसमान ’ का वज़न --- 2121 [फ़ाइलान ] होगा
या फिर ’आसमाँ’  का वज़न       212     [ फ़ाइलुन ] होगा
जी बिल्कुल सही । आप दुरुस्त हैं । मगर
यहाँ  ’आसमान’ जिस मुक़ाम पर आ रहा है और बह्र की माँग भी है इस लिए इसे हम ने तोड़ दिया  ---"आ सम्--आन’ [22-21 ] --इससे न तो अर्थ में फ़र्क़ पड़ा .न ही धुन में ,न ही गाने में .न ही भाव में और बह्र की माँग भी पूरी  होगई
अगर आप मन्ना डे जी का इस गीत का गायन ध्यान से सुने तो गाया भी इसी लय में है
यह तो आप जानते ही होंगे कि यह गीत हिंदी फ़िल्म ’उपकार’ का है और गीतकार  ’इन्दीवर’ जी है ।
उन्होने लिखा ---आसमान के उड़नेवाले----
चलते चलते एक सवाल----
सवाल यह कि
[1]  आसमान पे उड़नेवाले ---
[2]   आसमान  में  उड़नेवाले
[3]    आसमान के उड़नेवाले

अगर यह गीत आप लिखते तो ऊपर के तीन  विकल्पॊ में से कौन सा विकल्प चुनते ?
बह्र और वज़न के लिहाज़ गीत में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।
सवाल इस लिए कर रहा हूँ कि ग़ज़ल कहने में सिर्फ़ बह्र--रुक्न--वज़न--आहंग ही काफ़ी नहीं होता।मुहावरों का सही प्रयोग --सही अर्थ प्रेषण की क्षमता भी काफ़ी मायने रखती है।
आशा करता हूँ कि मैं अपनी बात कहने में शायद कुछ हद तक कामयाब हुआ हूँगा
अगर कोई ग़लत बयानी हुई तो बराए मेहरबानी निशान दिही ज़रूर कीजियेगा ताकि मैं अपने आप को दुरुस्त कर सकूँ\
सादर
-आनन्द.पाठक---

बुधवार, 21 अगस्त 2019

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 63 [एक शे’र और तीन बह्र]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त  63  [एक शे’र और तीन बह्र]

[A] मेरे  एक मित्र ने 
शबीना अदीब की ग़ज़ल भेजी जिसका मतलाऔर उसकी बह्र 1212---212---122---1212---212--122 बताई

ख़ामोश लब हैं झुकीं हैं पलकें ,दिलों में उल्फ़त नई -नई है
अभी तकल्लुफ़ है गुफ़्तगू में ,अभी मोहब्बत नई-नई है


[B] मेरे एक दूसरे मित्र नें शंका-समाधान चाहा कि क्या  यह

मफ़ाइलातुन---मफ़ाइलातुन----मफ़ाइलातुन--मफ़ाइलातुन
12122--------12122--------12122--------12122
की बह्र हो सकती है ?कृपया मार्ग दर्शन करें।
----  =====  -----
यह आलेख उन्हीं प्रश्नों के उत्तर में लिखा गया है । मैं चाहता हूँ कि इस मंच के पाठक गण भी इस विषय पर अपनी राय से  मुझे वाक़िफ़ करायें ।

प्रश्न :
कष्ट दे रहा हूं।

क़मर जौनपुरी से आपका संपर्क.सूत्र मिला।
अभी कुछ शायर मित्रों के बीच  बहस चली।

मफ़ाइलातुन मफ़ाइलातुन मफ़ाइलातुन मफ़ाइलातुन
12 122 x4
बहर.नहीं है।
उनका कहना है।
रजज़ मखबून मरफू मुखल्ला
मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़उलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़उलुन
1212  212  122  1212 212  22 होती है।
हमारी गजल मतला है
हमारी मिल्लत के जिंदगी अब तमाम नक्शे बदल गये हैं।
बुझे बुझे से दिलों के अरमां जफ़ा की सूरत में ढल गये है।
12122x4
क्या सही.है मार्ग दर्शित करे़ं। कष्ट को🙏
जबकि जनाब जोश मलीहा बादी, एवं जनाब अदम ने 
12122x4 पर गजल पढ़ी हैं
----    =====--------  =====
उत्तर:----

जी भ्रम की कोई स्थिति नहीं है

मुफ़ाइलुन /फ़ाइलुन /फ़उलुन/ मुफ़ाइलुन /फ़ाइलुन /फ़उलुन
1212/  212  /122/  1212/ 212 / 22  के
इस निज़ाम को हम 3-तरीक़ो से लिख सकते हैं

[क] इस बह्र का सही स्वरूप होगा
121       -22  /121       -22     /121-        22     /121-22
फ़ऊलु--फ़े’लुन/फ़ऊलु--फ़े’लुन / फ़ऊलु--फ़े’लुन /फ़ऊलु--फ़े’लुन
बह्र-ए-मुतक़ारिब मक़्बूज़ असलम मुसम्मन मुज़ाइफ़

[ख]     12122          /12122        /12122       /12122
मुफ़ाइलातुन /मुफ़ाइलातुन/मुफ़ाइलातुन/मुफ़ाइलातुन
बह्र-ए-जमील मुसम्मन सालिम

[ग] 121-         22     /121     -22      /121-       22     /121-     22
फ़ऊलु--फ़े’लुन/फ़ऊलु--फ़े’लुन / फ़ऊलु--फ़े’लुन /फ़ऊलु--फ़े’लुन
बह्र-ए-मुक्तज़िब मुसम्मन मख़्बून मरफ़ूअ’ मउख़्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन मुज़ाइफ़

अब इन तीनों तरीकों पर कुछ बातचीत कर लेते हैं

[क] ---क्लासिकल अरूज़ की किताब में सिर्फ़ 5-हर्फ़ी और 7-हर्फ़ी रुक्न का ही ज़िक्र है । फ़ऊलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलातुन--मुफ़ाईलुन---मुसतफ़इलुन---मुफ़ाइलतुन---मु तफ़ाइलुन---मफ़ऊलातु आदि [ जो दो सबब और एक वतद के मेल से बना है] यानी 2 हर्फ़ी और 3-हर्फ़ी शब्दों के combination and permutaion se | 

उनमें 8-हर्फ़ी रुक्न का ज़िक्र नहीं है यानी”मुफ़ाइलातुन’ [12122] नामक सालिम रुक्न  का ज़िक्र नहीं है ।
मगर मुतक़ारिब में ’ फ़ऊलुन ’ [122] पर ज़िहाफ़ात के अमल से यह बह्र यानी 
121---22/ 121-22/121--22/121-22      बनाई जा सकती है। 
  देखिए कैसे?
फ़ऊलुन [122] का मुज़ाहिफ़ मक़्बूज़ [ कब्ज़ ज़िहाफ़ लगा हुआ] होता है ’फ़ऊलु [121] --जिसमे यहलाम मुतहर्रिक है  और  फ़ऊलुन [122] का मुज़ाहिफ़ असलम [ सलम ज़िहाफ़ लगा हुआ] होता है ’फ़े’लुन [22] 
[121-22] क्या हुआ? 
 मुतक़ारिब मक़्बूज़ असलम  हुआ।
तो फिर इसका ’मुसम्मन’ क्या होगा?
 [121-22]  / [121-22]  यानी 4-रुक्न एक मिसरा में या 8-रुक्न एक शे’र में
तो फिर "मुसम्मन मुज़ाइफ़" क्या होगा ? 
121-22]  / [121-22]  //121-22]  / [121-22]  --यानी 8-रुक्न एक मिसरा में और 16-रुक्न एक शे’र में । "मुज़ाइफ़’ मानी ही ’दो-गुना’ होता है [ ध्यान रहे ’मुज़ाहिफ़’ शब्द ---ज़िहाफ़ से बना है और मुज़ाइफ़ शब्द  ---जाइफ़ से बना है । कन्फ़्यूज न हों।

यानी पूरी बहर हो गई 
[121-22]-           --[121-22]--            -[121-22]--        --[121-22]
[फ़ऊलु-फ़े’लुन]--- [फ़ऊलु-फ़े’लुन]---[फ़ऊलु-फ़े’लुन]----[फ़ऊलु-फ़े’लुन]
और इस बह्र का नाम होगा बह्र-ए-मुतक़ारिब मक़्बूज़ असलम मुसम्मन मुज़ाइफ़

[ख]    मगर अरूज़ के नियम से 8-हर्फ़ी [ दो वतद और एक सबब के मेल से भी ] रुक्न बन सकते है । कोई मनाही नहीं है । कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब ने अपनी किताब "आहंग और अरूज़" में इस बात का ज़िक्र किया है । उनका कहना है कि ख़्वाजा  नसीरुउद्दीन तौसी ने इस [फ़ऊलु-फ़े’लुन][121-22] को मिला कर एक सालिम  रुक्न [12122--मुफ़ाइलातुन ] का नाम दिया [यानी मुफ़ा+इला+तुन = वतद-ए-मज्मुआ+ वतद-ए-मज्मुआ+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़। कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब ने  इस रुक्न से  बनी बह्र का नाम "बह्र-ए-जमील ’ रखा।
बस इसी दो वतद और एक सबब के उलट-फेर से आप ने 6-और भी मज़ीद सालिम रुक्न बनाए और दिखाए और इन मज़ीद 6-रुक्न का मुख़्तलिफ़ नाम भी दिया है । उर्दू की प्रचलित 19-बहर में इस बहर का नाम नहीं है। मगर अज रु-ए-अरूज़  मुमकिन है । सिद्दीक़ी साहब ने तो यहाँ तक कहा है कि अरूज़ियों को इस मसले पर ग़ौर फ़रमाना चाहिए। ख़ैर।

[ ग]    बह्र-ए-मुक़्तज़िब ,उर्दू शायरी की उन 19- राइज़ बहूर में से एक बह्र है जिसका मूल अर्कान होता है  " मफ़ऊलातु--मुसतफ़इलुन [ 2221---2212 ] जिसपर ज़िहाफ़ात लगाने से --निम्न बह्र भी बरामद हो सकती है
-121-         22     /121     -22      /121-       22     /121-     22
फ़ऊलु--फ़े’लुन/फ़ऊलु--फ़े’लुन / फ़ऊलु--फ़े’लुन /फ़ऊलु--फ़े’लुन
और डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  ने अपनी किताब  मेराज-उल-अरूज़ में इस बह्र का नाम दिया है--- "बह्र-ए- मुक्तज़िब मुसम्मन मख़्बून मरफ़ूअ’ मख़्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन मुज़ाइफ़" और इसका औचित्य भी बताया है । कारण भी बताए हैं ।


शकील बदायूनी साहब की एक बहुत ही मशहूर ग़ज़ल का दो अश’आर लगा रहा हूँ

लतीफ़ पर्दों से थे नुमायाँ मकीं के जल्वे मकां से पहले
मुहब्बत आईना हो चुकी थी वज़ूद-ए-बज्म-ए-जहाँ से पहले

अज़ल से शायद लिखे हुए थे ’शकील’ किस्मत में जौर-ए-पैहम
खुली जो आँखें इस अंजुमन में नज़र मिली  आसमाँ  से पहले


अब आप बताए आप इसकी तक़्तीअ किस बह्र में करना चाहेंगे????
चलिए इसकी तक़्तीअ’ एक बहर में मैं कर देता हूँ
1    2  1/  2  1 /  1 2  1 / 2 2  //  1 2 1 /    2   2    1 2  1 / 2  2  = यानी  121-22/121-22//121-22/121-22
लतीफ़ /पर् दों /से थे नु /मायाँ //मकीं के /जल् वे /मकां से /पहले
   1  2  1 -2  2  /1   2  1  /2  2    // 1 2 1 /  2  2 /  1  2   1 / 2 2  = 121-22/121/22//121-22/121-22
मुहब्बत आई /न: हो चु /की थी //वज़ूद-/बज  मे / जहाँ  से /पहले

एक बात मुहब्बत-आईना को हमने 121--22/1 पर क्यों लिया ?
सामान्यतया
मुहब्बत = मु हब्  बत्  वज़न   फ़ऊलुन [1 2 2]  के वज़न् पर् लेते है
आईना  का ’अलिफ़् मद्’  मुहब्बत के -त- से वस्ल हो गया और वस्ल के कारण इसका -- तलफ़्फ़ुज़--  -मु +हब+ ब--ता ई  = 1 2 1-22 का हो गया  और वज़न 121-22  -फ़ऊलु-फ़े’लुन पर आ गया जो अज रु-ए-अरूज़ दुरुस्त है और बह्र की इस मुक़ाम पर माँग भी है
आप चाहे इस बह्र का जो नाम दे दें।


मैने अरूज़ के नुक्त-ए-नज़र बात साफ़ कर दी । अब आप पर निर्भर करता है कि आप उपर्युक्त  तीनों में से किस बह्र में  शायरी करते है -तीनों बह्र सही और दुरुस्त है ---वज़न बराबर रहेगा।
आशा करता हूँ कि मैने अपनी बात स्पष्ट कर दी होगी
सादर
आनन्द.पाठक-
8800927181
उर्दू बह्र पर एक बातचीत
नोट + बह्र  पर और जनाकारी के लिए आप मेरे ब्लाग 
उर्दू बह्र पर एक बातचीत --पर भी देख सकते हैं
https://aroozobahr.blogspot.com/