शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

उर्दू बहर पर एक बातचीत --क़िस्त 8



[Disclaimer clause  : -वही भाग 1 का ]

[प्राक् कथन-- इस मज़मून [आलेख] के भाग-7 तक इस मंच पर तथा अपने Blog                    
 www.urdu-se-hindi.blogspot.in पर लगा चुका हूँ ,पाठकगण यदि देखना चाहें तो वहाँ देख सकते हैं

 मुद्दत के बात फिर इस सिलसिले पर लौट रहा हूँ ।ताख़ीर[विलम्ब] के लिए माज़रत [क्षमा] चाहूंगा । ताख़ीर का सबब यह कि मेरी मस्रूफ़ियत दीगर कामों में जैसे अन्य मंच पर चर्चा परिचर्चा में भाग लेना ,गीत ग़ज़ल व्यंग्य हास-परिहास लेखन में व्यस्त हो जाना आदि आदि। अंग्रेजी में इसे All in One ,Good for none कहते हैं जिसका मैं जीता जागता उदाहरण हूँ।

मेरे ब्लाग के मित्रों और  मंच के अन्य मित्रों की इच्छा का मान रखते हुए यह सिलसिला एक बार फिर शुरु कर रहा हूँ ।ख़ुदा इस कारफ़र्माई की तौफ़ीक़ अता करे ।]

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जैसे किसी काव्य के दो-पहलू होते है ,वैसे ही उर्दू शायरी में भी दो-पहलू हैं
1-कला पक्ष ---में भाषा ,अलंकार छन्द कव्य सौष्ठ्व बह्र वज़न फ़साहत आदि रख सकते हैं
2-भाव पक्ष ----में रस ,तग़ज़्ज़ुल,रंग,तख़य्युल, शे’रियत लताफ़त-ओ-बलाग़त आदि रख सकते हैं

आप तो जानते ही होंगे कि उर्दू शायरी में मुस्तमिल [इस्तेमाल में] बहूर [बह्र का ब0ब0] अरबी और फ़ारसी से आया है । अरबी की बहुत सी बह्रें उर्दू में अब राईज़ [प्रचलित] नहीं है ।
 दौर-ए-हाज़िर [वर्तमान समय में] उर्दू शायरी में 19-बह्रें राइज हैं ,दर्ज़-ए-ज़ैल [ निम्न लिखित] हैं

नाम वज़न   रुक्न
सालिम बहूर
1 बह्र-ए-मुतक़ारिब 1 2 2 फ़ ऊ लुन्
2 बह्र-ए-मुत्दारिक़ 2 1 2 फ़ा इ लुन्
3 बह्र-ए-हज़ज 1 2 2 2 मफ़ा ई लुन्
4 बह्र-ए-रमल 2 1 2 2 फ़ा इला तुन्
5 बह्र-ए-रजज़ 2 2 1 2 मुस तफ़ इलुन्
   मुक़्तज़िब 2 2 2 1     मफ़ ऊ लात
*6 बह्र-ए-वाफ़िर 1 2 1 1 2   मफ़ा इ ल तुन्
7 बह्र-ए-कामिल 1 1 2 1 2   मु तफ़ा इ लुन्

मुरक़्क़ब बहूर

8 बह्र-ए-तवील 1 2 2 + 1 2 2 2 [ फ़ऊलुन्+मफ़ाईलुन्]
9 बह्र-ए-मदीद 2 1 2 2 + 2 1 2 [फ़ाइलातुन्+फ़ाइलुन् ]
10 बह्र-ए-बसीत 2 2 1 2 + 2 1 2 [मुस तफ़ इलुन्+फ़ाइलुन्]
11  बह्र-ए-मुशाकिल 2 1 2 2 + 1 2 2 2 + 1 2 2 2 [फ़ाइलातुन्+ मफ़ाईलुन्+मफ़ाईलुन्]
**12 बह्र-ए-मुन्सरिअ 2 2 1 2 + 2 2 2 1 [मुस तफ़ इलुन्+ मफ़ ऊ लात]
**13 बह्र-ए-मुक़्तज़िब 2 2 2 1 + 2 2 1 2 [मफ़ ऊ लात +मुस तफ़ इलुन्]
**14  बह्र-मज़ारिअ 1 2 2 2 + 2 1 2 2 [मफ़ाईलुन्+फ़ाइलातुन्]
**15  बह्र-ए-मुज्तस   2 2 1 2 + 2 1 2 2 [मुस तफ़ इलुन्+ फ़ाइलातुन्]
**16  बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ 2 1 2 2 + 2 2 1 2 + 2 1 2 2 [ फ़ाइलातुन्+मुस तफ़ इलुन्+फ़ाइलातुन्]
**17  बह्र-ए-सरीअ 2 2 1 2 +2 2 1 2 + 2 2 2 1   [  मुस तफ़ इलु्न्+मुस तफ़ इलुन्+मफ़ ऊ लात]
**18  बह्र-ए-क़रीब 1 2 2 2 + 1 2 2 2 + 2 1 2 2  [मफ़ाईलुन्+ मफ़ाईलुन्+फ़ाइलातुन्]
**19 बह्र-ए-ज़दीद    2 1 2 2 + 2 1 2 2 + 2 2 1 2 [फ़ाइलातुन्+फ़ाइलातुन्+मुस तफ़ इलुन्]

घबड़ाइए नहीं । । मैं  तो बस जो इधर उधर से कुछ पढ़ा अपने हिन्दी दाँ दोस्तों के बताने समझने व समझाने के लिए लिख रहा हूँ।ताईराना नज़र {विहंगम दृष्टि}से इस लिए लिख रहा हूँ कि आप को शे’र-ओ-शायरी और उसकी तासीर समझने में सुविधा हो।ग़ज़ल और तुकबन्दी में फ़र्क महसूस कर सके । शरद तैलंग जी का एक शे’र है-

सिर्फ़ तुकबन्दियां ही हैं काफी नहीं
शायरी कीजिए शायरी की तरह

 यहाँ कुछ बातें स्पष्ट कर दें

[1]-कि एक अच्छा ’अरूज़ी’ [ बह्र /छन्द शास्त्र को जानने वाला ] एक अच्छा ’शायर’ भी हो ज़रूरी नहीं और यह भी ज़रूरी नहीं कि एक अच्छा ’शायर" एक अच्छा ’अरूज़ी’ भी हो। दोनो अलग अलग बाते हैं। अगर एक ही शख़्स में ये दोनो सिफ़त [गुण] हो तो समझिए सोने में सुगन्ध भी है।

[1]अ-कि आप बग़ैर इल्म-ए-अरूज़ [छन्द शास्त्र की ग्यान ] के भी शायरी कर सकते हैं वैसे ही कि बिना राग के ज्ञान के बिना फ़िल्मी गाना गाते है। किसी उस्ताद शायर की ग़ज़ल के सहारे सहारे कभी चुटकी बजा कर ,कभी टेबल थपथपा कर बह्र मिला सकते है। दर हक़ीक़त कुछ लोग ऐसा करते भी हैं और दिन में 2-4 "ग़ज़ल" लिख भी लेते है मगर इस से आप को ग़लत-सही का अन्दाज़ा नहीं लग सकता।

[1] ब--- कि ग़ज़ल सिर्फ़ बहर ,वज़न,रुक्न ,रदीफ़ या काफ़िया का पैमां बन्दी ही नहीं होता। वो इस से भी आगे बहुत कुछ होता है

[2]---कि बह्र-ए-मुतक़ारिब और बह्र मुतदारिक़ का रुक्न 5-हर्फ़ी है और इसका ईज़ाद बाद में हुआ यानी 7-हर्फ़ी रुक्न का ईज़ाद पहले हुआ था।

[2]अ-- बहर 6 और 7 अरबी शायरी का है ।अगर आप ग़ौर से देखे तो बहर-ए-वाफ़िर [12 112] ,बहर-ए-कामिल [112 12 ] का बरअक्स [प्रतिबिम्ब mirror image] है | बह्र-ए-कामिल खुद मे इतनी मक़्बूल और आहंग्ख़ेज़ बहर है इसी बहर में अल्लामा इक़बाल की एक ग़ज़ल बड़ी मशहूर है---

कभी ऎ हक़ीक़त-ए-मुन्तज़िर ,नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में  [11212--1121--11212-11212]
कि हज़ारों सिजदे तड़प रहे हैं ,मेरी इक जबीन-ए-नियाज़ में

जो मैं सर-ब-सिजदा हुआ कभी ,तो ज़मीं से आने लगी सदा
तेरा दिल तो है सनम-आश्ना ,तुझे क्या मिलेगा  नमाज में 

कहने का मतलब ये है कि ऐसे मानूस बहर में कम ही शे’र या ग़ज़ल  देखने को मिलते हैं

[3]-अगर आप ग़ौर फ़र्मायें तो देखेंगे कि 7-हर्फ़ी रुक्न[1 से लेकर 5 तक और मफ़ऊलात तक] में 1 की रोटेशन कैसे बदल रही है यानी आप कल्पना करें कि 2 -2 -2- 1 किसी वृत्त पर हो और आप तीन -तीन  अंक एक साथ का गिर्दान लें तो किसी न किसी बह्र का वज़न बनता जायेगा । अरूज़ की भाषा में इस वृत को ’दायरा’ कहते हैं

[4]- मफ़ऊलात को ’सालिम’ बह्र में नहीं रखा गया जब कि इसके रुक्न [2 2 2 1 ] सालिम हैं। कारण कि यह रुक्न अपने सालिम शक्ल में इस्तेमाल नहीं होती । क्यों ? इस लिए कि उर्दू शायरी में मिसरा या शे’र का आख़िरी ’हर्फ़’ साकिन होता है जब कि ’मफ़ऊलात’ का आखिरी हर्फ़ ’त’ पे हरकत है । अगर इस रुक्न को मुसद्दद [ मिसरे में 3 रुक्न -मफ़ऊलात -,मफ़ऊलात-मफ़ऊलात ] या ’मुसम्मन में [ मिसरे में 4 रुक्न] बांधे तो आखिरी ’हर्फ़’ जो होगा वो हरकत पे ख़त्म होगा जो उर्दू के शे’र में ज़ायज नहीं माना जाता है। तब ?? इसी लिए इस रुक्न की ’मुज़ाहिफ़’[ बदली हुई] शक्ल इस्तेमाल करते हैं जिससे ’मिसरे’ का आख़िरी ’हर्फ़’ साकिन पे गिरे।
[ पाठकों की जानकारी के लिए- हिन्दी  में आजकल ’साकिन’ और ’हरकत’ का concept  नहीं है । संस्कृत में है।
साकिन को मोटा मोटी आप यूँ समझे ’हलन्त’ लगा हुआ वर्ण जैसे तत्पशचात्...कदाचित्..अकस्मात्. और हरकत को आप मोटा मोटी यूँ समझे जैसे ’रात’ ’बात’ यानी ’त’ पर जबर या फ़त्ता: का [हरकत] है]

[5]- ऊपर एक से लेकर सात तक ’सालिम’ बह्रें कहलाती है कारण कि इसके रुक्न बिना किसी काट-छांट या कतर-ब्योंत के अपने सालिम शक्ल में ही इस्तेमाल में होती हैं । इन सालिम बह्र पे मैं इसी मंच पे सोदाहरण चर्चा कर चुका हूं [ क़िस्त 1 से क़िस्त 7 तक] में  देखा जा सकता है

मुतक़ारिब बहर में ये फ़िल्मी गीत भी आप ने सुना होगा
बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम में यह गाना

"इशारों इशारों में दिल लेने वाले,  [122---122--122--122]
बता ये हुनर तूने सीखा कहाँ से" 
या
तुम्हें प्यार करते हैं करते रहेंगे
 कि दिल बन के दिल में धड़कते रहेंगे

या बह्र-ए-हजज़ मुसम्मन सालिम [1222] में यह गाना

ख़ुदा भी आस्मां से जब ज़मीं पे देखता होगा [1222--1222--1222--1222]
मेरे महबूब को किसने बनाया सोचता  होगा

 फ़िल्मी गीत का मिसाल देने का मक़सद फ़क़त इतना ही है कि आप बहर की आहंग [लय] मौसिकी [संगीत] तअस्सुर[प्रभाव] और दिलकशी से कितना मुत्तस्सिर [प्रभावित] होते हैं जब कोई ग़ज़ल बह्र में होती है । बह्र से ख़ारिज़ गज़ल की बात ही क्या करना

[आप ’तक़्तीअ’ कर के देख भी सकते हैं ,ऐसे बहुत से फ़िल्मी गीत या ग़ज़ल मिल जायेंगे जो किसी न किसी बहर में होंगे]

[6]- ऊपर 8 से लेकर 19 तक की बह्र को ’मुरक़्क़ब’ [यानी मिश्रित ] बहर कहते हैं । कारण कि ये बहर दो या तीन रुक्न से मिल कर बनती है ।ये रुक्न मुसद्दस या मुसम्मन की सूरत में अलग अलग ही गिने जाते हैं यानी बह्र-ए-तवील की अगर कोई मुसम्मन शकल होगी तो मिसरा ऊला में रुक्न की सूरत होगी [1 2 2 + 1 2 2 2 ,1 2 2 + 1 2 2 2 ] जब कि बह्र तवील का अफ़ाईल है [ 1 2 2 + 1 2 2 2 ]

[6[अ] बज़ाहिर [स्पष्टतया] बहर 8 से लेकर 14 तक ,मिसरा या तो मुरब्ब[शे’र में 4-रुक्न] या मुसम्मन [शे’र में 8-रुक्न] में ही बाँधा जा सकता है । मुसद्दस [ शे’र में 6-रुक्न] तो क़त्तई नहीं बांधा जा सकता।

[7]- बह्र **12-से लेकर **19 तक और बह्र-ए-वाफ़िर [**6] ,उर्दू शायरी में जब भी बाँधी गईं तो मुज़ाहिफ़ शकल में ही बांधी गईं। दीगर अल्फ़ाज़ में हम यह कह सकते हैं कि ये बहरें अपनी ’मुज़ाहिफ़" शकल में ही मुस्तमिल रहीं ।

[7]अ--11 ,16,17,18,और 19 बहर , ग़ज़ल में अपनी मुसद्दस शक्ल में इस्तेमाल होती हैं कारण साफ़ है कि ये बह्रें तीन रुक्न मिला कर तो बना है तो किसी शे’र में छह ही रुक्न तो आयेंगे न। मुसम्मन में तो कत्तई नहीं बाँधा जा सकता।

 [7] ब---इन बह्र्रों में हालाँकि  मुसम्मन शकल बाँधने में कोई मनाही नहीं है और अगर कभी कोई शायर मुसम्मन शकल में शेर कहना चाहे तो उसके लिए अलग से शर्त निर्धारित है जिसकी चर्चा मैं अगले किसी क़िस्त में करूँगा जब इन बहर की चर्चा करूंगा

[8]- इन 19 बह्रों के अलावा भी उर्दू शायरी में और बहुत से बह्रें इस्तेमाल में होती हैं । आखिर वो बह्रे कहाँ से आती हैं या कैसे बनती हैं? ये बहरें ’ज़िहाफ़’ से बनती है । जब किसी सालिम रुक्न पे ’ज़िहाफ़’ लगाते हैं तो रुक्न की शकल और नाम बदल जाते हैं । उर्दू शायरी मे 49-क़िस्म के ज़िहाफ़ हैं जिसमें से कुछ ज़िहाफ़ तो कुछ ख़ास बहर पे लगते है ,और कुछ शे’र के  ख़ास location[ पे लगते हैं .यानी इब्तिदा अरूज़/जर्ब] के लिए मख़्सूस [ ख़ास तौर से निर्धारित ] हैं इनके अपने क़वानीन [कानून] और क़वायद [क़ायदे] हैं । ऐसे तर्मीम शुदा बहरें लगभग 19-20 के आस पास बैठती हैं [ फ़ेहरिस्त {सूची} इसी मंच पर कभी लगा दूँगा}

[9]- घबराईए नहीं । अरूज़ सीखना और समझना कोई मुश्किल नहीं । सीखने के बाद ये सब आसान सा हो जाता है।
अगर हम ये 19-बहर और ज़िहाफ़ लगी बह्रें यानी मुज़ाहिफ़ बहरें और जोड़ लें तो ऐसे बहूर की तादाद सैकड़ों में [लगभग 200] के आसपास बैठती है

[10] - मगर आप घबराईए नहीं । कोई भी शायर इन 200 बहरों में अपनी शायरी नहीं करता और न उस से इसकी उम्मीद की जाती है । हर शायर के अपने ख़ास पसन्द दीदा बहर होते है। जिस पर उनका अधिकार होता है और वो उसी बहर में शायरी करते है जो उनको दिलकश लगता है ।अब बह्र-ए-कामिल को ही ले लीजिये । आहंगखेज़ और दिलकश बहर होने के बावज़ूद शायरों नें इस बहर में शायरी करने से  न जाने क्यों गुरेज़ किया ।इस बहर की मिसाल कम ही देखने को आती है ।इसी तरह ,अगर अज़ीम शो’अरा अगर कुछ ही बह्र में शायरी फ़र्मायेंगे तो मुस्तक़बिल [भविष्य ] में वो बहरें धीरे धीरे ख़त्म जायेंगी। ग़ालिब के दीवान में 19-अक़्साम [क़िस्में] [सालिम ,मुरक्क़ब और मुज़ाहिफ़ सब मिला कर ]  बह्र मिलते हैं-ऐसा कहा जाता है॥,जब कि मीर तक़ी मीर के छह दीवान में 28 क़िस्म के बहर का प्रयोग हुआ है

[11]- दरस्ल शायरी सिर्फ़ बहर ,रदीफ़ ,क़ाफ़िया ,वज़न फ़साहत का ही खेल नहीं बल्कि तग़ज़्ज़ुल शे’रियत ,बलाग़त-ओ-लताफ़त [काव्य सौष्ठव] तख़्ख़्य्युल .लसानी, तसव्वुरात का खेल है इसके बग़ैर शे’र बेमानी .फ़ीका .सपाट..बेजान  है भले ही वो शे’र या ग़ज़ल बहर में हो ,रदीफ़ में हो या क़ाफ़िया बन्दी सही ही क्यों न हो।सच्चा शे’र तो दो मिसरों में कायनात का तसव्वुफ़ समेटने की बात है

[12] -घबराईए नहीं ।  बिना अरूज़ जाने  आप भी ’एक दिन में चार ग़ज़ल ’-कह सकते हैं मगर अरूज़ समझने अरूज़ जानने  के बाद चार दिन में एक शे’र भी सरज़द [निस्सृत] नहीं होता । सच्चे शे’र की तो बात ही छॊड़ दीजिए। ये बात मैं अपनी ज़ाती तज़ुरबात के बिना[आधार] पर कह रहा हूँ । पहले जब अरूज़ नहीं पढ़ा था तो मैं भी एक दिन में ’तथाकथित’ ग़ज़ल लिख लेता था। मगर अब  नहीं होता .लगता है कि जो शे’र कह रहा हूँ उस शे’र में जान नहीं है ,सपाट है ,नाक़िस [बेकार] है । फिर भी कुछ न कुछ नाक़िस शे’र कहने की कोशिश करता ही रहता हूँ । ख़ैर आजकल तो हर कोई ग़ज़ल कह रहा है।

[13]- आप अगर ग़ज़ल कहने का इब्तिदाईया शौक़-ओ-ज़ौक़ फ़र्माते हैं तो दो चार मानूस[प्रिय] बहर चुन लें और उसी में ग़ज़ल कहने की कोशिश करें कि कम अज कम बहर और वज़न तो सही हो।

कभी मौक़ा मिला तो मुरक़्क़ब बहरों पर भी आइन्दा अक़्सात [क़िस्तों ] में चर्चा करूंगा। शायद उस से पहले ज़िहाफ़ पे चर्चा लाजिमी होगा बाईस कि[कारण कि] ज़िहाफ़ सालिम रुक्न पे ही लगती है और इन्ही सालिम बहूर से कई ’मुज़ाहिफ़’ बहरें बनती हैं

और अन्त में 
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उन से मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं उसे दुरुस्त कर सकूं और  बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अस्तु

-आनन्द.पाठक
09413395592