सोमवार, 19 अक्तूबर 2020

गज़ल 059 : रह-ए-उल्फ़त निहायत ...

 गज़ल 059 : रह-ए-उल्फ़त निहायत ... 


रह-ए-उल्फ़त निहायत मुख़्तसर मालूम होती है
हमें हर राह तेरी रह-गुज़र मालूम होती है

हमें यह ज़िन्दगी इक दर्द-ए-सर मालूम होती है
न होना चाहिए ऐसा मगर मालूम होती है

मुसीबत में इक ऐसा वक़्त भी आता है इन्सां पर
ज़रा सी छाँव भी अपना ही घर मालूम होती है

न हम बदले, न दिल बदला ,न रंग-ए-आशिक़ी बदला
मगर बदली हुई तेरी नज़र मालूम होती है

कभी तुम भी किसी से दिल लगा कर देखते साहेब! 
ज़रा सी चोट भी इक उम्र भर मालूम होती है

हर आहट पर मिरी साँसों की हर लै जाग उठती है
शब-ए-उम्मीद यादों का सफ़र मालूम होती है

हमें दुनिया भला क्या राह से अपनी लगायेगी
वो अपने आप से ही बेख़बर मालूम होती है

तिरे शे’रों पे इतनी दाद "सरवर" सख़्त हैरत है !
हमें ये साज़िश-ए-अह्ल-ए-हुनर मालूम होती है

-सरवर-

ग़ज़ल 058 :रह-ए-वफ़ा में ग़म-ए-जुदाई....

 


ग़ज़ल 058 :रह-ए-वफ़ा में ग़म-ए-जुदाई....

रह-ए-वफ़ा में ग़म-ए-जुदाई कभी मिरा हम-क़दम न होता
तुझे ख़ुदा का जो ख़ौफ़ होता तो ख़्वार में ख़म-ब-ख़म न होता

मुझे सर-ए-बज़्म-ए-ग़ैर तेरी निगाह-ए-कम-आशना ने मारा
जो मुझ पे अह्सान यूँ न होता , तिरा यह अह्सान कम न होता

तुम्हारी इस बन्दगी के सदक़े मिरा मुक़द्दर उरूज पर है
जो इश्क़ जल्वा-कुशा न होता तो दिल मिरा जाम-ए-जम न होता

बुरा हो इस ज़िन्दगी का जिस ने हमें किया ख़्वार आशिक़ी में
:जो हम न होते तो दिल न होता जो दिल न होता तो ग़म न होता:

निगाह-ए-लुत्फ़-ओ-करम जो करते हमारे जानिब भी गाहे-गाहे
तो हस्र-ए-उल्फ़त में हमको शिकवा कभी तुम्हारी क़सम न होता

कभी तो हंगाम-ए-ज़िन्दगी में निगाह मिलती सलाम होता
तुझे भी दुनिया की दाद मिलती मुझे भी मरने का ग़म न होता

भला मैं इस तरह क्यों भटकता फ़िसाद-ए-हुस्न-ए-नज़र के हाथों
अगर तिरी राह-ए-जुस्तजू में फ़रेब-ए-दैर-ओ-हरम न होता

ग़मों के हाथों ही आज "सरवर" है इश्क़ में बा-मुराद-ए-मंज़िल
सितम बा शक्ल-ए-करम जो होता करम बा शक्ले-सितम न होता

-सरवर 
ख़्वार में =बदहाली में
ख़म-बा-ख़म =उलझन
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ग़ज़ल 057 : रोज़-ओ-शब रुलायेगी ....

 ग़ज़ल  057  : रोज़-ओ-शब रुलायेगी .... 

रोज़-ओ-शब रूलायेगी आप की कमी कब तक ?
दर्द-ए-बेकसी कब तक ? रंज-ए-आशिक़ी कब तक?

"सरवर"-ए-परेशां से ऐसी दिल्लगी कब तक?
बे-रुख़ी के पर्दे में नाज़-ओ-दिलबरी कब तक?

दाग़-ए-नारसायी क्यों ज़ख़्म-ए-कज-रवी कब तक?
सुब्ह नौहा-ख़्वां होगी शाम-ए-यास की कब तक?

क्यों न हम भी दिखलायें दाग़-हाये शाम-ए-ग़म ?
महशर-ए-मुहब्बत में ये रवा-रवी कब तक?

अब तो अपनी सूरत भी अजनबी सी लगती है
देगी यूँ फ़रेब आख़िर मेरी ज़िन्दगी कब तक?

सुब्ह-ओ-शाम शिकवा है रोज़-ओ-शब का रोना है
इस तरह निभाओगे हम से दोस्ती कब तक?

राह-ए-मैकदा या-रब! हर क़दम पे खोटी है
कर्ब-ए-तिश्नगी कब तक? जाम ये तही कब तक?

मैं शिकार-ए-नाउम्मीदी ,तू वफ़ा से बेगाना
देखिये रहे अपनी ज़ीस्त अजनबी कब तक?

हो चुकी बहुत बातें ,सोच तो ज़रा "सरवर"
मंज़िले-ए-मुहब्बत में सिर्फ़ शायरी कब तक?
सरवर- 
दाग़-ए-नारसायी =न मिलने का दुख
कज-रवी =(प्रेमिका की) टेढ़ी चाल
शाम-ए-यास =ना उम्मीदी की शाम
कर्ब-ए-तिश्नगी =प्यास की बेचैनी 
जाम तही =बची-खुची शराब ,तलछट में बची शराब
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ग़ज़ल 056: अफ़्सोस ख़ुद को खुद पे.....

 ग़ज़ल 056: अफ़्सोस ख़ुद को खुद पे.....


अफ़्सोस ख़ुद को ख़ुद पे नुमायां न कर सके
हम ज़िन्दगी को साहब-ए-ईमां न कर सके

राह-ए-तलब में कार-ए-नुमायां न कर सके
अश्क़-ए-जुनूं को आईना-सामां न कर सके

वो इश्क़ क्या जो दर्द का दर्मां न कर सके 
वो दर्द क्या जो इश्क़ को आसां न कर सके

हर लम्हा-ए-हयात हिसाब अपना ले गया
"हम ज़िन्दगी में फिर कोई अरमां न कर सके

दामान-ए-आरज़ू की दराज़ी तो देखिए
खु़द से भी ज़िक्र-ए-तंगी-ए-दामां न कर सके

यूँ मुब्तिला-ए-कुफ़्र-ए-तमन्ना रहे कि हम
चाहा हज़ार,दिल को मुसलमां न कर सके

क्यों मुझसे लाग है तुझे ऐ शूरिश-ए-हयात
वो काम कर जो गर्दिश-ए-दौरां न कर सके !

इतनी तो हो मजाल कि ख़ुद को समेट लें
क्या ग़म जो हम तलाफ़ी-ए-हिज्रां न कर सके

इस दर्जा फ़िक्र-ए-शेहर-ए-निगारां में गुम रहे
हम खु़द भी अपनी ज़ात का इर्फ़ां न कर सके

"सरवर" चलो है मैकदा-ए-इश्क़ सामने
मुद्दत हुयी ज़ियारत-ए-इन्सां न कर सके

-सरवर

आईना-सामां =आईने की तरह
नुमायां =ज़ाहिर/व्यक्त
कार-ए-नुमाया =बहुत बड़ा काम
दर्मा =इलाज
मुब्तिला = गिरफ़्त में
तलाफ़ी-ए-हिज़्रा =जुदाई की भरपाई
इरफ़ाँ न कर सके =जान न सके
=

ग़ज़ल 055 : रोज़-ओ-शब इस में बपा ...

 ग़ज़ल 055  : रोज़-ओ-शब इस में बपा ...



रोज़-ओ-शब इस में बपा शोर-ए-कि़यामत क्या है ?
ये मिरा दिल है कि आईना-ए-हैरत ? क्या है ?

बात करने में बताओ तुम्हें ज़हमत क्या है?
इक नज़र भी न उठे ,ऐसी भी आफ़त क्या है.?

जान कर तोड़ दिया रिश्ता-ए-दाम-ए-उम्मीद
"आज मुझ पर यह खुला राज़ कि जन्नत क्या है"

नाला-ए-नीम-शबी , आह-ओ-फ़ुग़ां-ए-सेहरी
गर नहीं है यह इबादत, तो इबादत क्या है?

मुझ को आग़ाज़-ए-मुहब्बत से ही फ़ुर्सत कब है?
क्या बताऊँ तुझे अंजाम-ए-मुहब्बत क्या है?

"मीर"-ओ-’इक़्बाल’से,"ग़ालिब"से ये पूछें साहेब! 
शायरी चीज़ है क्या ,शे’र की अज़मत क्या है

जब से मैं दीन-ए-मुहब्बत में गिरिफ़्तार हुआ
कुफ़्र-ओ-ईमान की ,वल्लाह ! हक़ीक़त क्या है?

हम ग़रीबों पे जो दस्तूर-ए-ज़बां-बन्दी है 
कोई मजबूरी है तेरी कि है आदत ? क्या है?

हर्फ़-ओ-मानी हुए बे-रब्त ,क़लम टूट गया
मंज़िल-ए-शौक़ में ये आलम-ए-वहशत क्या है?

डूब कर ख़ुद में पता ये चला ,हर सू तू है !
हम-नशीं ! तफ़्रक़ा-ए-जल्वत-ओ-ख़ल्वत क्या है?

काम से रखता हूँ काम अपना सदा ही यारो !
मुझको दुनिया से भला फिर ये शिकायत क्या है?

एक पल चैन नहीं "सरवर’-ए-बदनाम तुझे !
कुछ तो मालूम हो आख़िर तिरी नियत क्या है?

-सरवर- 
अज़्मत =महत्व
दीन-ए-मुहब्बत =मुहब्बत का धर्म
हर्फ़-ओ-मानी =शब्द और अर्थ ,कथन और भाव
बे-रब्त =बिना संबंध के,आपस में बिना ताल-मेल के
हर-सू =हर तरफ़
तफ़र्क़ा = फ़र्क़
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ग़ज़ल 054 : दिल ही दिल में डरता हूँ...........

 ग़ज़ल 054 : दिल ही दिल में डरता हूँ...........


दिल ही दिल में डरता हूँ कुछ तुझे ना हो जाए
वरना राह-ए-उल्फ़त में जाए जान तो जाए

मेरी कम नसीबी का हाल पूछते क्या हो
जैसे अपने ही घर में राह कोई खो जाए

गर तुम्हे तकल्लुफ़ है मेरे पास आने में
ख़्वाब में चले आओ यूँ ही बात हो जाए

झूठ मुस्कराए क्या आओ मिल के अब रो लें
शायरी हुई अब कुछ गुफ़्तगू भी हो जाए

ये भी कोई जीना है?खाक ऐसे जीने पर
कोई मुझ पे हँसता है ,कोई मुझको रो जाए

मेरे दिल के आँगन में किस क़दर अँधेरा है
काश ! चाँदनी बन कर कोई इसको धो जाए

याद एक धोखा है ,याद का भरोसा क्या 
तुम ही खु़द यहाँ आकर ,याद से कहो जाए

देख कर चलो ’सरवर’! जाने कौन उल्फ़त में
फूल तुमको दिखला कर ,ख़ार ही चुभो जाए

-सरवर- 

तकल्लुफ़ =तकलीफ़
ख़ार = काँटा

ग़ज़ल 053 : मरीज़-ए-इश्क़ पर .......

 ग़ज़ल 053 : मरीज़-ए-इश्क़ पर .......


मरीज़-ए-इश्क़ पर पल में क़ियामत का गुज़र जाना
"सिरहाने से किसी का उठ के वो पिछले पहर जाना "

किसी को हम-नफ़स समझा, किसी को चारागर जाना
मगर दुनिया को हमने कुछ नहीं जाना ,अगर जाना

मक़ाम-ए-ज़ीस्त को हम ने भला कब मोतबर जाना ?
मिला जो लम्हा-ए-फ़ुर्सत उसे भी मुख़्तसर जाना

इलाही ! हम ग़रीबों की ही क्यों यह आज़माईश है ?
दवा का बे-असर रहना , दुआ का बे-असर जाना

तबस्सुम ज़ेर-ए-लब तेरा,दलील-ए-सुब्ह-ए-जान-ओ-दिल
तेरा नज़रें चुराना ,नब्ज़-ए-हस्ती का ठहर जाना

हक़ीक़त है तो बस इतनी सी है हंगामा-ए-हस्ती की
"यहाँ पर बे-ख़बर रहना ,यहाँ से बे-ख़बर जाना "

सलाम ऐसी मुहब्बत को ,भला ये भी मुहब्बत है !
किसी की याद में जीना ,किसी के ग़म में मर जाना 

रह-ए-उल्फ़त में हम से और क्या उम्मीद रखते हो ?
ये क्या कम है कि अपनी ज़ात को गर्द-ए-सफ़र जाना?

तू ख़ुद को लाख समझे बा-कमाल-ओ-बाहुनर "सरवर"
तुझे लेकिन ज़माने ने हमेशा बे-हुनर जाना !

-सरवर

ग़ज़ल 052 : दामन-ए-तार-तार ये.......

 ग़ज़ल 052 : दामन-ए-तार-तार ये.......


दामन-ए-तार-तार ये,सदक़ा है नोक-ए-ख़ार का
शुक्र-ए-ख़ुदा कि मुझसे कुछ रब्त तो है बहार का!

तेरे मक़ाम-ए-जब्र से मेरे मक़ाम-ए-सब्र तक
सिलसिला-ए-आरज़ू रहा दीदा-ए-अश्कबार का

क़िस्सा-ए-दर्द कह गया लह्ज़ा-ब-लह्ज़ा नौ-ब-नौ
"पर भी क़फ़स से जो गिरा बुल्बुल-ए-बेक़रार का"

मंज़िल-ए-शौक़ मिल गई कार-ए-जुनूं हुआ तमाम
इश्क़ को रास आ गया आज फ़राज़ दार का !

ज़ीस्त की सारी करवटें पल में सिमट के रह गईं
सदियों का तर्जुमां था लम्हा वो इन्तिज़ार का

ज़िक्र-ए-हबीब हो चुका फ़िक्र-ए-ख़ुदा की ख़ैर हो !
चाक रहा वो ही मगर दामन-ए-तार-तार का !

सोज़-ओ-गुदाज़-ए-ज़िन्दगी अपना ख़िराज ले गया
नौहा-कुनां में रह गया हस्ती-ए-कम-अयार का

हुस्न की सर-बुलंदियाँ इश्क़ की पस्तियों से हैं
सोज़-ए-खिज़ां से मोतबर साज़ हुआ बहार का

नाम-ए-ख़ुदा कोई तो है वज़ह-ए-शिकस्त-ए-आरज़ू
यूँ ही तो बेसबब नहीं शिकवा ये रोज़गार का ?

नाम-ओ-नुमूद एक वहम और वुजूद इक ख़याल !
अपने ही आईने में हूँ अक्स मैं हुस्न-ए-यार का !

हर्फ़-ए-ग़लत था मिट गया अपने ही हाथ मर गया
अब क्या ख़बर कि क्या बने "सरवर’-ए-सोगवार का !


-सरवर-

रब्त =संबंध 
नौ-ब-नौ =नया-नया
अश्कबार =रोनेवाला 
क़फ़स =पिजड़ा
फ़राज़ दार =ऊँची फाँसी का तख़्ता 
सोज़-ओ-गुदाज़=सुख-दुख,रस
ख़िराज =महसूल’
हस्ती-ए-कम-अयार=बेकार की ज़िन्दगी 
पस्तियां =लघुता,विनम्रता
मोतबर =ऐतबार के क़ाबिल 
नुमूद =प्रगट,अवतार
सोगवार =शोकग्रस्त

ग़ज़ल 051 : हो गई मेराज-ए-इश्क़........

 ग़ज़ल 051 : हो गई मेराज-ए-इश्क़........ 


हो गई मेराज-ए-इश्क़-ओ-आशक़ी हासिल हमें
पहले दर्द-ए-दिल मिला ,बाद उसके दाग़े-दिल हमें !

बन्दगान-ए-आरज़ू में कर लिया शामिल हमें
आप ने ,शुक्र-ए-ख़ुदा ! समझा किसी क़ाबिल हमें !

कम-निगाही ,तंग दामानी ,वुफ़ूर-ए-आरज़ू
ज़िन्दगी! तेरी तलब में यह हुआ हासिल हमें !

इस क़दर आसूदा-ए-राहे-मुहब्बत हो गये
ढूंढती फिरती है हर सू शोरिश-ए-मंज़िल हमें !

लम्हा-लम्हा लह्ज़ा-लह्ज़ा वो क़रीब आते गये
रफ़्ता-रफ़्ता कर गए ख़ुद आप से ग़ाफ़िल हमें !

बन गया ख़ुद अपना हासिल आलम-ए-ख़ुद रफ़्तगी
देखती ही रह गई दुनिया-ए-आब-ओ-गिल हमें

दीदा-ए-बीना दिल-ए-ख़ुश्काम फ़िक्र-ए-बेनियाज़
अब कोई मुश्किल नज़र आती नहीं मुश्किल हमें !

खु़द को ही तारीख़ दुहराती है जब "सरवर’ तो फिर
क्यों नज़र आया नहीं माज़ी में मुस्तक़्बिल हमें ?

-सरवर

शोरिश =हंगामा.झगड़ा.फ़साद
हर सू =हर तरफ़
मेराज-ए-इश्क़ =प्रेम की उच्चता
वुफ़ूर-ए-आरज़ू = तीव्र-इच्छा
कम निगाही =उपेक्षा
तंग-दामानी = ग़रीबी
आसूदा = तृप्त होना/सन्तुष्ट होना
शोरिल =उन्माद
आब-ओ-गिल =पानी-मिट्टी
मुस्तक़्बिल =भविष्य

ग़ज़ल 050 : ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला

 ग़ज़ल 050 : ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला........


ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला
एक पर्दा जो उठा दूसरा पर्दा निकला !

मंज़र-ए-ज़ीस्त सरासर तह-ओ-बाला निकला
गौ़र से देखा तो हर शख़्स तमाशा निकला !

एक ही रंग का ग़म खाना-ए-दुनिया निकला
ग़मे-जानाँ भी ग़मे-ज़ीस्त का साया निकला !

इस राहे-इश्क़ को हम अजनबी समझे थे मगर
जो भी पत्थर मिला बरसों का शनासा निकला !

आरज़ू ,हसरत-ओ-उम्मीद, शिकायत ,आँसू
इक तेरा ज़िक्र था और बीच में क्या क्या निकला !

जो भी गुज़रा तिरी फ़ुरक़त में वो अच्छा गुज़रा
जो भी निकला मिरी तक़्दीर में अच्छा निकला !

घर से निकले थे कि आईना दिखायें सब को
हैफ़ ! हर अक्स में अपना ही सरापा निकला !

क्यों न हम भी करें उस नक़्श-ए-कफ़-ए-पा की तलाश
शोला-ए-तूर भी तो एक बहाना निकला !

जी में था बैठ के कुछ अपनी कहेंगे ’सरवर’
तू भी कमबख़्त ! ज़माने का सताया निकला !

-सरवर-

शनासा = परिचित ,जाना-पहचाना
नक़्स-ए-कफ़-ए-पा = पाँवों के निशान
हैफ़ ! = हाय !

ग़ज़ल 049 : छोड़िए छोड़िए यह ढंग पुराना--

 ग़ज़ल  049 : छोड़िए छोड़िए यह ढंग पुराना साहिब !



छोड़िए छोड़िए यह ढंग पुराना साहिब !
ढूँढिए आप कोई और बहाना साहिब !

खत्म आख़िर हुआ हस्ती का फ़साना साहिब
आप से सीखे कोई साथ निभाना साहिब !

भूल कर ही सही ख़्वाबों में चले आयें आप
हो गया देखे हुए एक ज़माना साहिब !

हमने हाथों की लकीरों में तुम्हें ढूँढा था
वो भी था इश्क़ का क्या एक ज़माना साहिब !

क्यों गए ,कैसे गए ,ये तो हमें याद नहीं
हाँ मगर याद है वो आप का आना साहिब !

कू-ए-नाकामी-ओ-नाउम्मीदी-ओ-हसरतसंजी
हो गया अब तो यही अपना ठिकाना साहिब !

क़स्रे-उम्मीद ,वो हसरत के हसीन ताज महल
हाय! क्या हो गया वो ख़्वाब सुहाना साहिब ?

रहम आ जाए है दुश्मन को भी इक दिन लेकिन
तुमने सीखा है कहाँ दिल का दुखाना साहिब ?

आते आते ही तो आयेगा हमें सब्र हुज़ूर 
खेल ऐसा तो नही दिल का लगाना साहिब !

इसकी बातों में किसी तौर न आना ’सरवर’
दिल तो दीवाना है ,क्या इसका ठिकाना साहिब !

-सरवर-

कू-ए-नाकामी-ओ-नाउम्मीदी-ओ-हसरतसंजी= असफलता,निराशा और अपना दुख 
बयान करने की जगह
क़स्रे-उम्मीद = उमीदों का महल

रविवार, 18 अक्तूबर 2020

विविध 010 : दर्द-ए-बेकसी कब तक --[पी0 के0 स्वामी ]

 ग़ज़ल ०३


दर्द-ए-बेकसी कब तक रंज-ए-आशिक़ी कब तक
रास मुझ को आयेगी ऐसी ज़िन्दगी कब तक ! 

सोज़-ए-दिल छिपाएगा अश्क की कमी कब तक 
खुश्क लब दिखाएंगे आरज़ी खुशी कब तक ! 

तिश्नगी मुक़द्दर में साथ तो नहीं आयी 
चश्म-ए-मस्त बतला तू ऐसी बेरुखी कब तक ! 

ज़ब्त छूटा जाता है सब्र क्यों नहीं आता 
देखिये दिखाती है रंग बेकसी कब तक ! 

दिल में हैं मकीं लेकिन सामने नहीं आते 
रखेगा भला आखिर सब्र आदमी कब तक ! 

दर पे आँख अटकी है उखड़ी उखड़ी सांसे हैं 
नातवां सहे आखिर तेरी ये कमी कब तक ! 

मेहरबान वो हों तो लुत्फ़-ए-इश्क सादिक है 
बंदगी में कटेगा ’स्वामी’ ज़िन्दगी कब तक !! 

- पी0 के0 स्वामी-

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2020

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 75 [ उर्दू शायरी में मात्रा गणना ]

 सवाल :  ग़ज़ल .शे’र या माहिया  के मिसरों में मात्रा गिनने में  भ्रम की स्थिति क्यों बनी रहती है ?


उत्तर : । बहुत से मित्रों ने यह सवाल किया है । उत्तर यहाँ लगा रहा हूँ जिससे इस ब्लाग के अन्य मित्र भी मुस्तफ़ीद

लाभान्वित हो सकें ।

 हिंदी मे मात्रा ’लघु [ 1 ] और दीर्घ [ 2 ] के हिसाब से गिनी जाती है । हिंदी में  "मात्रा गिराने " का 

कोई विचार नहीं होता ।हिंदी में जैसा लिखते हैं वैसा ही बोलते है ।अगर हम -भी--थी--है

--की --सी--्सू--कू--कु --जैसे वर्ण लिखेंगे तो हमेशा [2] ही गिना जायेगा क्योंकि सभी वर्ण 

अपनी पूरी आवाज़ देते हैं  और खुल कर आवाज़ देते हैं  ।

मगर उर्दू में शायरी ’तलफ़्फ़ुज़ " के आधार पर चलती है । जैसा लिखते हैं कभी कभी वैसा बोलते नहीं । 

वहाँ पर वज़न /भार का ’कन्सेप्ट’ है --मुतहर्रिक हर्फ़ [1] और साकिन हर्फ़ का ’कन्सेप्ट’ है 

उर्दू में -भी--थी--है---की --सी---्सू--कू--को जैसे  सभी हर्फ़ एक साथ ही  -2-[दीर्घ ] की भी हैसियत रखते है और 

मुतहर्रिक [1] की भी हैसियत रखते है । यह निर्भर करती है कि यह हर्फ़ मिसरा के रुक्न के किस मुक़ाम पर 

इस्तेमाल किया गया है । बह्र में उस मक़ाम पर वज़न की क्या माँग है । अगर रुक्न [1] का वज़न माँगता है यानी मुतहर्रिक हर्फ़ 

माँगता है तो इन हरूफ़ को [1] मानेंगे और अगर रुक्न [2] का वज़न माँगता है तो [2] गिनेंगे ।

इसीलिए शायरी करने से पहले ’अरूज़’ की जानकारी यानी रुक्न और बह्र की जानकारी हो तो बेहतर।

चलते चलते एक बात और--

उर्दू का हर लफ़्ज़--मुतहर्रिक से शुरु होता है और साकिन पर खत्म होता है । 

 इसी बात को और साफ़ करते हुए --कुछ अश’आर की तक़्तीअ कर के देखते है --

*बह्र-ए-कामिल* एक बड़ी ही मक़्बूल बह्र है जिसका बुनियादी सालिम रुक्न है --*मु* *त*फ़ा*इ*लुन --[ 1 1 2 1 2 ]

 जिसमें -*मु*- [मीम]--*त*--[ते] - और -*इ* [ ऐन]  मुतहर्रिक है जिसे हमने -1- से दिखा्या  हैं यहाँ ।

इसकी एक मशहूर आहंग है --*बह्र-ए-कामिल मुसम्मन सालिम* 

मु त फ़ा इ लुन --मु त फ़ा इ लुन --मु त फ़ा इ लुन --मु त फ़ा इ लुन  यानी 

1 1 2 1 2 ------1 1 2 1 2----1 1 2 1 2-----------1 1 2 1 2

इस बह्र में अमूमन हर नामचीन शायर ने ग़ज़ल कही है ।यहाँ हम बशीर बद्र साहब  के 2-3 अश’आर और 

अल्लामा इक़बाल के 1-शे’र  इसी बह्र में कहे हुए ,देखते हैं कि ऊपर कही हुई बात साफ़ हो जाए ।

पूरी ग़ज़ल इन्टर्नेट पर मिल जाएगी।

[1]  कभी यूँ भी आ मेरी आँख में कि मेरी नज़र को ख़बर न हो

मुझे एक रात नवाज़ दे  मगर इसके बाद   सहर न हो 

बशीर बद्र-

[2] अभी इस तरफ़ न निगाह कर मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ

मेरा लफ़्ज़ लफ़्ज़ हो आईना  तुझे आईने में  उतार  लूँ 

बशीर बद्र

[3] यूँ ही बेसबब न फिरा करो कोई शाम घर भी रहा करो

वह ग़ज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो

बशीर बद्र 

[4]  कभी ऎ हक़ीकत-ए-मुन्तज़र ,नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में 

कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मेरी जबीन-ए-नियाज़  में 

-इक़बाल-

यहाँ हम मात्र 2-शे’र की तक़्तीअ करेंगे जिससे बात साफ़ हो जाये । बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर लें और मुतमुईन [ निश्चिन्त]

हो लें  --अगर आप को ज़ौक़-ओ-शौक़ फ़रमाते हो तो ।

  1  1  2  1  2         /  1 1  2 1 2        / 1  1   2  1 2     / 1  1  2  1 2

 क*भी* यूँ *भी* आ / *मे**री* आँख में /कि *मे* री न ज़र /*को* ख़ बर न हो

1  1      2 1 2    / 1  1 2  1 2  /  1 1  2   1   2  / 1  1   2 1 2

मु *झे* एक रा     /त न वा ज़ दे /  म ग *रिस* के बा /द   स हर न हो 

ध्यान दें 

मिसरा उला में ---पहला -भी- [1] लिया जब कि दूसरा- भी- [2] लिया है ।क्यों ? क्योंकि उस मक़ाम पर जैसी बह्र की माँग थी वैसा लिया।

यही -भी-एक साथ [1] की भी हैसियत रखता है और [2] [ यानी सबब-ए-ख़फ़ीफ़] की भी हैसियत रखता है । अगर यह भेद आप नहीं जान पाएँगे

तो आप हिंदी मात्रा गणना के अनुसार हर जगह इसे ’दीर्घ वर्ण ’ मान कर -2- जोड़ते जाएंगे---जो ग़लत होगा और कह देंगे कि बशीर बद्र साहब की

यह ग़ज़ल बह्र से ख़ारिज़ है । मुझे उम्मीद है कि आप ऐसा कहेंगे नहीं ।

और हर्फ़ भी देख लेते है  नीचे लिखे अक्षर देखने में तो -2- [दीर्घ] लगते है मगर यहाँ हम ले रहे हैं -1- मुतहर्रिक मान कर । क्योंकि मैने पहले ही कह दिया

है कि ऐसे अक्षर दोनो  हैसियत रखते है--आप जैसा चाहें इस्तेमाल करें।

इसी को हम हिंदी में ’मात्रा’ गिराना समझते हैं।जब कि अरूज़ में मात्रा गिराने का कोई  ’Concept ’ नहीं है । साकित करने का  concept है।

 ==वह ’तलफ़्फ़ुज़’ से ’कन्ट्रोल’ करेंगे --हल्का सा उच्चारण में दबा कर ।

मे = 1= क्योंकि मुतहर्रिक है 

री = 1=  -do-

को=1=   -d0-चो

झे= 1= -do-

लगे हाथ दूसरे मिसरे में  --*मगर इस*  --पर बात कर लेते हैं।

 इसे हमने -म ग *रिस*- [ 1 2 2--] पर लिया है । सही है । -रे- का वस्ल हो गया है।सामने वाले -अलिफ़- से 

 क्योंकि बह्र की माँग वहाँ यानी उस मुक़ाम पर वही थी --सो वस्ल करा दिया।

अब एक सवाल यह उठता है कि ’अलिफ़ - का वस्ल  [ या ऐसा ही कोई और वस्ल ] *Mandatory*  है या *Obligatory* है ?

 इस पर कभी बाद में अलग से चर्चा करेंगे।

अब अल्लमा इक़बाल के शे’र पर आते हैं 

 1   1 2 1 2 / 1 1    2    1  2  / 1 1  2    1  2   / 1   1  2 1 2 

            कभी ऎ हक़ी/कत-ए-मुन् त ज़र/ ,न ज़ र आ लिबा/स-ए-मजाज़ में 

1     1 2  1 2   / 1 1 2  1  2   / 1  1 2  1 2  / 1  1   2 1 2 

कि हज़ारों सज / दे त  ड़प रहे  / हैं मे री जबी /न-ए-नियाज़  में 

नोट -- हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र

लिबास-ए-मजाज़

जबीन-ए-नियाज़ 

जैसे लफ़्ज़ को ’कसरा-ए-इज़ाफ़त" की  तरक़ीब कहते है ।इस पर पहले भी बातचीत कर चुका हूँ।

वैसे तो हक़ीक़त का -*त*- 

लिबास का-*स*- 

जबीन  का-*ज* -

तो दर अस्ल --साकिन हर्फ़ है [ उर्दू का हर लफ़ज़ ’साकिन’ पर ख़त्म  होता है । मगर ’कसरा-ए-इज़ाफ़त ’ [-ए-] की बदौलत  -त--स--ज-- मुतहर्रिक हो जाते है यानी -1- का वज़न

देने लगते  हैं। ऊपर तक़्तीअ’ भी उसी हिसाब से की है । 

एक बात और -- --नज़र आ लिबास-- न ज़ रा [ 1 1 2---] वही बात -र- के साथ अलिफ़ का वस्ल हो गया -सो -2- ले लिया ।

चलते चलते मेरे कुछ मित्र पूछते रहते है --कि हम 1-1  को 2 मान सकते है  ?

यानी  दो लघु वर्ण  को एक दीर्घ ? हिंदी छन्द शास्त्र के हिसाब से मान लीजिए मगर अरूज़ के लिहाज़ से नहीं मान सकते [ कुछ विशेष अवस्था में छोड़ कर]

क्यों ?

अगर इसी केस में देख लें--कि अगर हम 1 1 को =2 मान लें तो क्या होगा ? 11212-----11212----11212----11212 का क्या होगा ?

बह्र फिर  2212---2212----2212----2212   यानी [ मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन ] यानी *बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम*

हो जायेगी । फिर ?


जाना था जापान ,पहुँच गए चीन ,समझ गए ना ।

नोट ; इस मंच पर मौजूद असातिज़ा [ गुरुजनों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश [करबद्ध प्रार्थना ] है अगर कुछ ग़्लर
बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी निशानदिहि [ रेखांकित ] कर दे कि जिससे मै आइन्दा [ आगे से] खुद
को दुरुस्त कर सकूँ ।

सादर

-आनन्द.पाठक-


उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 74 [ आहंग एक-नाम दो ]

 उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 74 [ आहंग एक-नाम दो ]


    आज शकील बदायूँनी की ग़ज़ल केचन्द अश’आर मुलाहिज़ा फ़रमाएँ
 शकील बदायूँनी साहब का परिचय देने की कोई ज़रूरत नहीं है--आप सब लोग
परिचित होंगे।
अभी इन अश’आर का लुत्फ़ [आनन्द] उठाएँ ---इसके "बह्र" की बात बाद में करेंगे

लतीफ़ पर्दों से थे नुमायाँ मकीं के जल्वे मकाँ से पहले
मुहब्बत आइना हो चुकी थी  वुजूद-ए-बज़्म-ए-जहाँ  से  पहले

न वो मेरे दिल से बाख़बर थे ,न उनको एहसास-ए-आरज़ू था
मगर निज़ाम-ए-वफ़ा था क़ायम कुशूद-ए-राज़-ए-निहाँ से पहले

---
---
अज़ल से शायद लिखे हुए थे ’शकील’ क़िस्मत में जौर-ए-पैहम 
खुली जो आँखे इस अंजुमन में ,नज़र मिली आस्माँ  से पहले

 एक दूसरी ग़ज़ल --के चन्द अश’आर--

न अब वो आँखों में बरहमी है ,न अब वो माथे पे बल रहा है
वो हम से ख़ुश हैं ,हम उन से ख़ुश हैं ज़माना करवट बदल रहा है

खुशी न ग़म की ,न ग़म खुशी का अजीब आलम है ज़िन्दगी का
चिराग़-ए-अफ़सुर्दा-ए-मुहब्बत न बुझ रहा है न जल  रहा है

ये काली काली घटा ये सावन फ़रेब-ए-ज़ाहिद इलाही तौबा
वुज़ू में मसरूफ़ है बज़ाहिर ,हक़ीक़तन हाथ मल रहा है 

 एक और ग़ज़ल --के चन्द अश’आर

स इक निगाहे करम है काफी अगर उन्हे पेश-ओ-पस नहीं है
ज़ह-ए-तमन्ना कि मेरी फ़ितरत असीर-ए-हिर्स-ए-हवस नहीं है

कहाँ के नाले ,कहाँ की आहें जमी हैं उनकी तरफ़ निगाहें
कुछ इस तरह मह्व-ए-याद हूँ मैं कि फ़ुरसत-ए-यक नफ़स नहीं है
------------------------
ऐसे ही चन्द अश’आर अल्लामा इक़बाल साहब की एक ग़ज़ल के ---

ज़माना आया है बेहिज़ाबी का आम दीदार-ए-यार होगा
सुकूत था परदावार जिसका वो राज़ अब आशकार होगा

खुदा के आशिक़ तो है हज़ारों बनों में फिरते है मारे मारे
मै उसका बन्दा बनूँगा जिसको ख़ुदा के बन्दों से प्यार होगा

न पूछ इक़बाल का ठिकाना अभी वही क़ैफ़ियत है उसकी
कहीं सर-ए-रहगुज़ार बैठा सितम-कशे इन्तिज़ार  होगा

 आप इन अश’आर को पढ़िए नहीं ।गुनगुनाइए --धीरे  गुनगुनाइए --गाइए तब इस आहंग का
 आनन्द आयेगा । ये सभी ग़ज़लें गूगल पर मिल जायेगी ।
अगर ’पढ़ना" ही है तो इनको  पढ़िए नहीं --समझिए--भाव समझिए -- तासीर [ प्रभाव ] समझिए --शे’रियत समझिए
तग़ज़्ज़ुल  समझिए--मयार देखिए--बुलन्दी समझिए--फिर देखिए कि हम लोग कहाँ खड़े हैं ।

 कितना दिलकश  आहंग है । इस बह्र में और भी शोअ’रा [ शायरों ] ने
अपनी अपनी ग़ज़ले कहीं है --मुनासिब मुक़ाम [ उचित स्थान] पर उनकी भी चर्चा करूँगा।
। आहंग [लय ] से पता चल गया होगा ।ये तमाम ग़ज़लें एक ही बहर में हैं ।
और वो आहंग है --
A 121--22  / 121--22 // 121--22 / 121--22 
  बह्र-ए-मुक़्तज़िब मुसम्मन मख़्बून मरफ़ूअ’ , मख़्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन मुज़ाइफ़
बड़ा लम्बा नाम है -मख्बून --मक्फ़ूफ़ -सब ज़िहाफ़ का नाम है ।

B 121-22 /121--22 / 121--22 / 121-22 
इसी आहंग का दूसरा नाम भी है 
बह्र-ए-मुतक़ारिब मक़्बूज़ असलम मुसम्मन मुज़ाहिफ़ 
 
यानी बह्र एक --नाम दो ? दोनो ही मुज़ाइफ़--।दोनो ही 16-रुक्नी॥ दोनो ही दो-दो- रुक्न का इज़्तिमा [ मिला हुआ ] है
शकल भी बिलकुल एक जैसी ।

बस ,यहीं पर controversy है ।
 कुछ अरूज़ की किताबों में --A- की सही मानते हैं  और  इसे  बह्र-ए-मुक़्तज़िब के अन्दर रखते है
कुछ अरूज़ की किताबों में --B -को सही मानते है । बह्र-ए-मुतक़ारिब के अन्दर रखते है
दोनों की अपनी अपनी दलाइल [ दलीलें ] हैं । अपने अपने ’जस्टीफ़िकेशन ’ हैं ।

-A-सही माना भी जाए कि -B- सही माना जाए।

आप इस चक्कर में क्यों पड़ें ?----बस ग़ज़ल  गुनगुनाए और रसास्वादन करें

चलिए पहले - B -पर चर्चा कर लेते है ।

B 121-22 /121--22 / 121--22 / 121-22
इसी आहंग का नाम  है
बह्र-ए-मुतक़ारिब मक़्बूज़ असलम मुसम्मन मुज़ाहिफ़

मुतक़ारिब का बुनियादी रुक्न है --"फ़ऊलुन--[ 1 2 2 ]

फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] + क़ब्ज़ =  मक़्बूज़ =फ़ऊलु =1 2 1
फ़ऊलुन [ 1 2 2 ]  + सलम = असलम =फ़अ’ लुन = 2 2
[ कब्ज़ और सलम --ये सब ज़िहाफ़ है । और इनके  अमल के  के निज़ाम [ व्यवहार की नियम  ] है । यह खुद में
एक अलग विषय है --इसमे विस्तार में जाने से बेहतर है कि हम बस इसे यहाँ मान लें ।

अर्थात [ 121--22 ]    एक आहंग बरामद हुआ । अब इसी की तकरार [ repetition ] करें

मिसरा में 4-बार या शे’र में 8-बार तो उक्त आहंग मिलेगा
चूँकि  शे’र 16- अर्कान हो जायेंगे अत: इसे 16-रुक्नी बह्र भी कहते है    ।

अब इक़बाल के अश’आर की तक्तीअ’ इसी बह्र  से करते हैं---

1  2  1---2 2  /  1 2 1--2 2  / 1  2 1 - 2 2 / 1  2 1-2 2
ज़मान: -आया / है बे हि-ज़ाबी /का आम -दीदा /र यार -होगा

  1  2  1 - 2 2  / 1 2 1- 2  2    /  1 2 1 --2  2   / 1 2 1-2 2
सुकूत -था पर /द: वार -जिसका / वो राज़ -अबआ /शकार -होगा

{ ध्यान दीजिये --अब-आशकार - में =अलिफ़ की वस्ल नहीं हुई है ?
क्यों नहीं हुई ?  ज़रूरत ही नहीं पड़ी । बह्र या रुक्न ने मांगा ही नहीं ।
माँगता तो ज़रूर करते ।

बाक़ी 2-अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर के देख लें ।कही शे’र
बह्र से ख़ारिज़ तो नहीं हो रही है ? अभ्यास का अभ्यास हो जायेगा -
आत्म विश्वास का आत्म विश्वास बढ़ जायेगा ।

अब -A-  वाले आहंग पर आते हैं --
A 121--22  / 121--22 // 121--22 / 121--22 
  बह्र-ए-मुक़्तज़िब मुसम्मन मख़्बून मरफ़ूअ’ , मख़्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन मुज़ाइफ़
मुक़तज़िब का बुनियादी अर्कान है --- मफ़ऊलातु--मुस तफ़ इलुन ---मफ़ऊलातु---मुस तफ़ इलुन
यानी   2221---2212------2221-----2212

मफ़ऊलातु [ 2221 ] + ख़ब्न + रफ़अ’  =  मुज़ाहिफ़ मख़्बून मरफ़ूअ’  1 2 1 = फ़ऊलु [ 1 2 1 ] बरामद होगा
मुस तफ़ इलुन [ 2 2 1 2 } + ख़ब्न + रफ़अ’+ तस्कीन =  मुज़ाहिफ़ मख़्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन = 2 2 = फ़अ’ लुन  बरामद होगा

[ ख़ब्न  और रफ़अ’ --ये सब ज़िहाफ़ है । और इनके  अमल के  के निज़ाम [ व्यवहार की नियम ] है । यह खुद में
एक अलग विषय है --इसमे विस्तार में जाने से बेहतर है कि बस आप इसे यहाँ मान लें ।

अब इस औज़ान से शकील के किसी शे’र का तक़्तीअ’ करते है और देखते हैं --
 1   2   1 - 2   2 /  1 2  1  - 2 2  /  1 2  1  - 2 2 / 1 2   1 - 2 2
न अब वो -आँखों /में बर ह  -मी है ,/न अब वो -माथे /पे बल र-हा है

  1   2   1 - 2   2   / 1  2   1  - 2  2   /  1 2 1 - 2  2    / 1 2 1 - 2 2
वो हम से -ख़ुश हैं ,/ ह मुन से  -ख़ुश हैं / ज़मान: -कर वट /ब दल र -हा है[

[ध्यान दीजिए-- हम-उन से - में -मीम- के साथ अलिफ़ का वस्ल हो गया और
ह मुन से [ 1 2 1 ]  रख दिया ।
क्यों भाई ? इसलिए कि  कि ज़रूरत पड़ गई । बह्र या रुक्न मांग रहा है  यहाँ ।

बाक़ी 2-अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर के देख लें ।कही शे’र
बह्र से ख़ारिज़ तो नहीं हो रही है ? अभ्यास का अभ्यास हो जायेगा
आत्म विश्वास का आत्म विश्वास बढ़ेगा ।

अब सवाल यह है कि --जब दोनो आहंग एक हैं --तो नाम क्यों मुखतलिफ़ है ।
सही नाम क्या होगा ?
सही नाम मुझे भी नहीं मालूम } दोनो किस्म के अरूज़ियों की अपनी अपनी दलीले हैं
-A--वालों का कहना है [ जिसमे मैं भी हूँ --जब कि मैं अरूज़ी नहीं हूँ -एक अनुयायी हूँ ]
कि -B - वाले सही नही हैं । कारण कि ज़िहाफ़ ’सलम’ [ मुज़ाहिफ़ "असलम ’-एक खास
ज़िहाफ़ है जो शे’र के सदर/इब्तिदा के लिए मख़्सूस [ ख़ास] है --वो हस्व में लाया ही नही जा सकता
तो  zihaaf ka निज़ाम कैसे सही होगा ?

खैर --आप तो ग़ज़ल के आहंग का मज़ा लीजिए--- गुनगुनाइए--गाइए --- अरूज़ की बात अरूज़ वाले जाने ।

[नोट ; इस मंच पर मौजूद असातिज़ा [ गुरुजनों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश [करबद्ध प्रार्थना ] है अगर कुछ ग़्लर
बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी निशानदिहि [ रेखांकित ] कर दे कि जिससे मै आइन्दा [ आगे से] खुद
को दुरुस्त कर सकूँ ।

सादर
-आनन्द.पाठक-

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त-73 [ सामान्य बातचीत ]

  उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त--73[ सामान्य बातचीत ]


[ नोट - वैसे तो यह बातचीत उर्दू बह्र के मुतल्लिक़ तो नहीं है --शे’र-ओ-सुखन पर एक सामान्य बातचीत ही है 
मगर अक़्सात के सिलसिले को क़ायम रखते हुए इसका क़िस्त नं0 दिया है कि मुस्तक़बिल में आप को इस क़िस्त
को ढूँढने में सहूलियत हो ]

उर्दू शायरी में या शे’र में आप ने --पे --या -पर-- के -या  कर  का प्रयोग होते हुए देखा होगा ।
 आज इसी पर बात करते हैं
मेरे एक मित्र ने अपने चन्द अश’आर भेंजे । कुछ टिप्पणी भी की । ये अश’आर बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ में थे ।
-------------------

2122-- 1212-- 22/112

हँस कर भी मिला करे कोई
मेरे ग़म की दवा करे कोई।

छोङ के वो चला गया मुझको ,
लौटने की दुआ करे कोई।

जिस पर मैने टिप्पणी की थी

--हँस  "कर"  भी--- [ -कर की जगह -के- कर लें ]
---छोड़  ’के’ वो चला --     [के- की जगह -कर- कर लें ]

मेरे एक मित्र ने पूछा ’क्यों ?
यह बातचीत उसी सन्दर्भ में हो रही है ।
-----------------
3-   इसी मंच पर [ शायद ]बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ के बारे में एक बातचीत की  थी और ग़ालिब के एक ग़ज़ल
’दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है -- जो इसी बह्र में है ,पर भी चर्चा की थी । हालांकि इस बह्र के मुतल्लिक़
और भी कुछ बातें थी जिस पर चर्चा नहीं कर सका था । इंशा अल्लाह ,कभी मुनासिब मुक़ाम पर फिर चर्चा कर लेंगे

अब इन अश’आर की तक़्तीअ’ पर आते है--

  2    2   2   / 1 2  1 2 /  2 2 
हँस कर भी /मिला करे/ कोई =          
2  1  2  2   /  1  2 1 2 / 2 2 
मेरे ग़म की /दवा करे /कोई।

 2 1  2   2  / 1 2 1 2  / 2 2
छोङ के वो/ चला गया /मुझको ,
2  1  2  2 / 1 2 1 2  / 2 2
लौटने की /दुआ करे /कोई।

पहले शे’र के सदर के मुक़ाम पर फ़ाइलातुन [ 2122] या फ़इ्लातुन [ 1 1 2 2 ] नहीं आ रहा है जब कि आना चाहिए था ।अत:
शे’र बह्र से ख़ारिज़ है ।


-पर- और -कर- यह दोनॊ लफ़्ज़ खुल कर अपनी आवाज़ देते है यानी तलफ़्फ़ुज़ एलानिया होता है और -2- के वज़न पर लेते है ।

यहाँ -के  [ यहां -के- संबंध कारक नहीं है -जैसे राम के पिता --आप के घर ]
 बल्कि  यह -कर - का  वैकल्पिक प्रयोग है । यहाँ -पे-कहना बेहतर कि -के- कहना बेहतर का सवाल नहीं
साधारण बातचीत और नस्र में प्राय: -कर- और -पर- ही बोलते हैं । दोनो के अर्थ भाव बिलकुल एक है ।
 मगर पर शायरी में वज़न के लिहाज़ से  यह दोनो ’मुख़तलिफ़’ हैं

 । -के - अपना  वज़न [-1-[ मुतहर्रिक ] और -2-[ सबब ]  बह्र की माँग पर दोनों ही धारण कर सकता  है
लेकिन - कर- /-पर- कभी -1- का वज़न धारण  नहीं कर सकता । अत: जहाँ -2- के वज़न की ज़रूरत है वहाँ पर आप के पास
दोनों विकल्प मौज़ूद है मगर - कर/-पर- -- का प्रयोग ही वरेण्य है ।
जहाँ -1- की ज़रूरत है वहाँ -के-/-पे- का ही प्रयोग उचित है । बाक़ी तो शायर की मरजी है ।

हँस कर भी ---/ में एक सबब [2] कम है अत: चलिए फिलहाल इसे -तो- से भर देते हैं । यह फ़ाइलातुन  [2 1 2 2  ] तो नहीं हुआ ।
/हँस कर भी तो / कर देते है । -तो - से वज़न [ 2 2 2 2 ] वज़न हो गया --जो ग़लत हो गया ।
 फिर? -
कर [2]- को -के [1 ]  कर देते हैं । विकल्प मौजूद है ।आप के पास
/हँस के भी तो /--- से  2  1  2  2   =फ़ाइलातुन = अब सही हो गया  } लेकिन -तो- को यहाँ  मैने भर्ती के तौर पर डाला था । जी बिल्कुल दुरुस्त । ऐसे लफ़्ज़ को

’भरती का लफ़्ज़ " ही कहते है । भरती के शे’र और भरती के लफ़्ज़ -पर किसी और मुक़ाम पर बात करेंगे ।
तो फिर ?
कुछ नहीं --

इसे यूँ कर देते है
/मुस्करा कर / = मुस-क-रा -कर /= 2 1 2 2 == फ़ाइलातुन= यह भी वज़न सही है । विकल्प आप के पास है --मरजी आप की।

इसी प्रकार

-/छोड़ के वो / = 2 1 2 2 = कोई कबाहत नहीं =दुरुस्त है ।
मगर आप के पास
 -के [2 ]- बजाय -कर  [2] का  दोनों विकल्प मौज़ूद है । कम से कम --कर - खुल कर साफ़ साफ़ आवाज़ तो देगा  । और विकल्प भी है आप के पास । अपनी अपनी पसन्द है । -इस मुकाम पर -कर-
 ही वरेण्य है -अच्छा लगता । बाक़ी शायर की मरजी ।
 यानी
/ छोड़ कर वो / 2 1  2 2  = फ़ाइलातुन =



यह सब मेरी ’राय’ है  कोई "बाध्यता " नहीं  और  नही  अरूज़  में ऐसा कूछ लिखा ही है ।
सादर
 [ असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कोई ग़लत बयानी हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान दिही फ़र्मा देंगे ताकि आइन्दा खुद को दुरुस्त कर सकूँ ।

-आनन्द.पाठक-

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 72 [ अपनी एक ग़ज़ल की बह्र और तक़्तीअ’ ]

 उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 72 [ अपनी एक  ग़ज़ल की बह्र और तक़्तीअ’ ]

----------------------------    
 कुछ दिन पहले किसी मंच पर मैने अपनी  एक ग़ज़ल पोस्ट की थी 

ग़ज़ल : एक समन्दर ,मेरे अन्दर...

एक  समन्दर ,  मेरे  अन्दर  
शोर-ए-तलातुम बाहर भीतर  1

एक तेरा ग़म  पहले   से ही 
और ज़माने का ग़म उस पर  2

तेरे होने का भी तसव्वुर  
तेरे होने से है बरतर    3

चाहे जितना दूर रहूँ  मैं  
यादें आती रहतीं अकसर   4

एक अगन सुलगी  रहती है 
वस्ल-ए-सनम की, दिल के अन्दर 5

प्यास अधूरी हर इन्सां  की   
प्यासा रहता है जीवन भर  6

मुझको ही अब जाना  होगा   
वो तो रहा आने  से ज़मीं पर  7

सोन चिरैया  उड़ जायेगी     
रह जायेगी खाक बदन पर    8

सबके अपने  अपने ग़म हैं 
सब से मिलना’आनन’ हँस कर 9
----------------

जिस  पर कुछ सदस्यों ने उत्साह वर्धन किया था ।
और कुछ मित्रों ने इसकी बह्र जाननी चाही ।
 उन सभी सदस्यों का बहुत बहुत धन्यवाद।
यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है 
-------------------------------
वैसे इस ग़ज़ल की 
मूल बह्र है --[ बह्र-ए-मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ मक़्बूज़ सालिम अल आख़िर ]
अर्कान हैं   ----फ़अ’ लु--- फ़ऊलु--फ़ऊलु---फ़ऊलुन 
अलामत है  21--       121--   121-     -122 
जिस पर आगे चर्चा करेंगे अभी

यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है 
---------------------------------------

इस ग़ज़ल की बह्र और तक़्तीअ’ पर आएँ ,उसके पहले कुछ अरूज़ पर कुछ
बुनियादी बातें कर लेते है ।
1-  बह्र-ए-मुतक़ारिब कहने से हम लोगों के ज़ेहन में -मुतक़ारिब की 2-4 ख़ास बहरें ही उभर आती है जिसमे            अमूमन 
हम आप शायरी करते है । जैसे - मुसम्मन सालिम ,मुसद्दस सालिम या फिर इसकी कुछ महज़ूफ़ या           मक्सूर  शकल की ग़ज़लें
या ज़्यादा से ज़्यादा मुरब्ब: की कुछ शकलें
2-  इन के अलावा भी और भी बहुत सी बहूर है मुतक़ारिब के जिसमें बहु्त कम शायरी की गई है  या की         जाती  है । ऊपर लिखी 
बह्र भी इसी में से एक बह्र है।
3-  अगर कोई बह्र अरूज़ के उसूल के ऐन मुताबिक़ हो और अरूज़ के किसी कानून, उसूल या क़ायदा की कोई खिलाफ़वर्जी 
न करती हो -तो वह बह्र इस बिना पर रद्द या ख़ारिज़ नहीं की जा सकती कि इसका उल्लेख अरूज़ की कई किताबों में नहीं किया गया है ।या शायरों नें
इस बह्र में तबाज़्माई नहीं की है ।
4- वैसे तो बहर-ए-वफ़ीर में भी बहुत कम या लगभग ’न’ के बराबर शायरी की कई है तो क्या अरूज़ की किताबों से बह्र-ए-वाफ़िर को रद्द या ख़ारिज़ 
कर देना चाहिए ?
5-       यह अरूज़ और बह्र की  नहीं ,यह हमारी सीमाएँ हैं हमारी कोताही है  कि हम ऐसे बह्र में शायरी नहीं करते ।बहूर तो बह्र-ए-बेकराँ है ।
6- कुछ मित्रों ने इसे बह्र-ए-मीर से भी जोड़ने की कोशिश की । मज़्कूरा बह्र " बह्र-ए-मीर" भी नहीं है । जो सदस्य बह्र-ए-मीर के बारे में मज़ीद मालूमात चाहते 
हैं वो मेरे ब्लाग पर " उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 59 [ बह्र-ए-मीर ] देख सकते हैं । वहाँ तफ़्सील से लिखा गया है ।
7- मैने इस  ग़ज़ल में कहीं  नही कहा कि इसकी बह्र" ---’ यह है । ध्यान से देखें तो मैने ’’मूल" बह्र है -----" लिखा है जिसका अर्थ होता है  कि इस "मूल’  बह्र से और भी 
मुतबादिल औज़ान बरामद हो सकते है जो मिसरा में एक दूसरे के बदले लाए जा सकते हैं । अरूज़ में और शायरी में इस की इजाज़त है ।
इन ’मुतबादिल औज़ान ’ और  बह्र की चर्चा  और ग़ज़ल की तक़्तीअ आगे करेंगे ।
8-  यह यह एक " ग़ैर मुरद्दफ़" ग़ज़ल [ यानी वह ग़ज़ल जिसमें रदीफ़ नहीं होता ] है 

अब ग़ज़ल की बह्र पर  आते हैं

 1- मैने मूल बह्र में ही इशारा कर दिया था कि इस बह्र का आख़िरी रुक्न सालिम [फ़ऊलुन 1 2 2 ] है । अत: यह मुतक़ारिब की ही कोई बह्र होगी।
2-  आप बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम से ज़रूर  परिचित होंगे --
फ़ऊलुन---फ़ऊलुन --फ़ऊलुन--फ़ऊलुन
 यानी     1  2   2---1   2  2----1 2 2 2---1 2 2 
--A---------B---------C_--------D
अब इन्हीं अर्कान [तफ़ाईल] पर मुनासिब ज़िहाफ़ लगा कर देखते हैं क्या होता है ।

अगर A=फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] पर ’सरम’ का ज़िहाफ़ लगाएँ तो जो मुज़ाहिफ़ रुक्न हासिल होगी उसका नाम ’असरम’ होगा और यह सदर और इब्तिदा
के मुक़ाम पर लाया जा सकता है

फ़ऊलुन [ 1 2 2 ]+ सरम =  असरम ’ फ़ अ’ लु ’  [ 2 1 ] बरामद होगा । -ऐन -साकिन   -लु- मुतहर्रिक [1] है यहाँ

अगर B= फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] पर  ’कब्ज़’ का ज़िहाफ़ लगाया जाय तो मुज़ाहिफ़ रुक्न हासिल होगा उसका नाम होगा ’मक़्बूज़’

और यह आम ज़िहाफ़ है और ’हस्व’ के मुक़ाम पर लाया जा सकता है ।

फ़ऊलुन [1 2 2 ]  + कब्ज़  = मक़्बूज़ "फ़ ऊ लु " [ 1 2  1 ]बरामद होगा /  -लाम - [1]  मुतहर्रिक है 

फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] तो ख़ैर फ़ऊलुन ही है । सालिम रुक्न  है ।
 तो अब मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम [ 122---122---122---122 ] की मुज़ाहिफ़ शकल
यूँ हो जायेगी

फ़ अ’ लु ’  ----फ़ ऊ लु -----फ़ ऊ लु ----फ़ऊलुन 
21-----------1 2  1 --------1 2 1 -------1  2  2
A                    B                   C                     D

इसी बह्र को मैने "मूल बह्र’ कहा है
 अब इस ’मूल बह्र ’ से हम आगे बढ़ते है --तख़्नीक- के अमल से
आप जानते हैं कि ’तख़्नीक’ का अमल सिर्फ़ ’मुज़ाहिफ़ रुक्न ’ पर ही लगता है । सालिम रुक्न पर कभी   नहीं  करता  ।
तो ऊपर जो ’मुज़ाहिफ़ ’ रुक्न  हासिल हुआ है उस पर अमल हो सकता है [ मात्र आखिरी रुक्न को छोड़ कर जो एक सालिम रुक्न है ]

 यहाँ ’तख़नीक़’ के अमल की  थोड़ी -सी चर्चा कर लेते है।
अगर किसी दो-पास पास वाले मुज़ाहिफ़  रुक्न [ adjacent rukn ] में ’तीन’ मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ ’ आ जायें तो "बीच वाला ’ हर्फ़ साकिन हो जायेगा

हमारे केस में ’तीन मुतहर्रिक हर्फ़ " -दो-पास पास वाले मुज़ाहिफ़  रुक्न [ adjacent rukn ] में आ गए हैं तो तख़नीक़ का अमल होगा ।
-फ़े-  लाम -और -ऐन-

  अगर  यह अमल आप  A--B---C---D  पर  ONE-by-ONE लगाएँगे तो आप को कई मुतबादिल औज़ान बरामद होंगे। आप ख़ुद कर के देख लें ।
मश्क़ की मश्क़ हो जायेगी और आत्मविश्वास भी बढ़ जायेगा ।
कुछ मुतबादिल औज़ान नीचे लिख दे रहा हूँ ---
E 21---122---22--22  
22---22----21-122
G 21---122----22--22
H 21--122---21---122
J 22---22--22---22-

इस अमल से एक वज़न यह भी बरामद होगा --जो मैने मतला के दोनो मिसरा में इस्तेमाल किया है ।और यह वज़न अरूज़ के  ऎन क़वानीन के मुताबिक़ है
और अरूज़ के किसी क़ाईद की ख़िलाफ़वर्ज़ी भी नहीं किया मैने ।

अच्छा । आप इस अरूज़ी तवालत से बचना चाह्ते हैं तो   A--B--C--D वाले रुक्न में एक आसान रास्ता भी है ।
 आप 1+1 =2 कर दीजिए तो भी काम चल जायेगा  । बहुत से मित्र प्राय: यह पूछते रह्तें हैं कि क्या हम 1+1= 2 मान सकते है ।
हाँ बस इस विशेष मुक़ाम पर मान सकते हैं । और किसी जगह नहीं । । यह रास्ता बहुत दूर तक नहीं जाता।बस यहीं तक जाता है ।
क्यों?
क्योंकि जब आप 1+1 को दो मानना शुरु कर देंगे तो
कामिल की बह्र का बुनियादी रुक्न है  ’मु त फ़ाइलुन  1 1 2 1 2 ] तो 2 2 1 2 हो जायेगा यानी  ’मुस तफ़ इलुन [2 2 1 2 ] हो जायेगा जो बह्र-ए-रजज़ का बुनियादी रुक्न है
यह तो फिर ग़लत हो जायेगा।
वैसे ही
वाफिर  की बह्र का बुनियादी रुक्न है  ’मुफ़ा इ ल तुन [ 1 2 1 1 2 ] तो  12 2 2  हो जायेगा यानी ’मफ़ाईलुन  [ 1 2 2 2  ]’ जो बह्र-ए-हज़ज ’ का बुनियादी रुक्न है ।
यह तो फिर ग़लत हो जायेगा।

इसीलिए कहता हूँ कि 1+1 = 2 हर मुक़ाम पर नहीं होता ।

अब अपनी ग़ज़ल की तक़्तीअ’ कर के देखते है कि यह बह्र में है या बह्र से ख़ारिज़ है "
21--     -/-122--     /     2  2 /  2 2  = E
एक       / स मन दर /   मेरे  /अन दर
21-----/1 2 2 /  2 2 /   2 2  = =E
शोर-ए-तलातुम बाहर / भीतर  1       = शोर-ए-तलातुम में कसरा-ए-इज़ाफ़त से शोर का -र- मुतहर्रिक हो जायेगा। और -र- खींच कर [इस्बाअ’] नहीं पढ़ना है

21---/ 1 2 2  /  2 2    / 2 2  =E
एक/ तिरा ग़म /  पहले  / से ही   
2  1   / 1 2 2 / 2 2     / 2 2 =E
और /ज़माने /का ग़म /उस पर  2

22   /  22  / 2  1  /  1 2 2   =F
तेरे / होने  /का भी /तसव्वुर
2  2   / 2  2 /  2 2 / 2 2  =J
तेरे   /होने   / से है / बरतर    3

2  2 /  2 2    / 21 / 1 2 2 =F
चाहे /जितना /दूर /रहूँ  मैं
22    / 22   / 2 2  /  2 2  =J
यादें /आती /रहतीं /अकसर   4

2 1  / 1 2   2    / 2 2 / 2 2  =E
एक /अगन सुल/गी  रह/ती है
2   1  /   1 2  2  / 2 2     / 2 2  =E
वस्ल-ए-सनम की, दिल के / अन्दर 5

21     / 1 2  2 / 2  2  /  2 2  = E
प्यास /अधूरी /हर इन्/साँ  की  
2   2    / 2 2   / 2  2/   2  2 =J
प्यासा /रहता /है जी   /वन भर  6

2      2   / 2  2  / 2 2   / 2 2   =J
मुझको /ही अब /जाना  /होगा  
2     1  / 1 2 2  / 2  1 / 1 2 2 =H
वो तो /  रहा आ / ने  से ज़मीं पर  7

2   1   /  122  / 2  2  /  2 2 =G
सोन /चिरैया  /उड़ जा/ येगी    
2  2     / 2  2 / 2 1  / 1 2 2 =F
रह जा/येगी /खाक /बदन पर    8

2     2   /   2  2/   2 2 / 2 2  =J
सब के /अप ने  /अप ने /ग़म हैं
2     2   / 2 2  / 2  2    / 2   2  =J
सब से/ मिलना’/आनन’/ हँस कर 9

उमीद करता हूँ कि मैं अपनी बात कुछ हद तक साफ़ कर सका हूँ ।

नोट - इस मंच के तमाम असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है  अगर कहीं कोई ग़लत बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी 
निशानदिही फ़र्मा दें जिस से यह हक़ीर आइन्दा खुद को दुरुस्त कर सके ।

सादर
-आनन्द.पाठक -

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 71 [ ग़ालिब की एक ग़ज़ल और उसकी बह्र ]

 उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त -71- [ग़ालिब की एक ग़ज़ल और उसकी बह्र]


मिर्ज़ा ग़ालिब की एक ग़ज़ल है --


दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है 

आख़िर इस दर्द की दवा क्या है 


हम है मुश्ताक़ और वो बेज़ार

या इलाही ! ये माजरा क्या  है 


मैं भी मुँह में  ज़ुबान रखता हूँ

काश ! पूछो कि "मुद्दआ क्या है "


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-----

मैने माना कि कुछ नहीं ”ग़ालिब’

मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है 

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यह ग़ज़ल आप ने ज़रूर सुनी होगी । कई बार सुनी होगी ।कई  गायकों ने कई

मुख़्तलिफ़ अन्दाज़ में गाया है । बड़ी दिलकश ग़ज़ल है ।इतनी दिलकश

और मधुर कि हम इसको सुनने में  ही तल्लीन रहते हैं।

मगर

 हमने कभी इसकी ’बह्र’ पर ध्यान नहीं दिया कि इसकी बह्र क्या है ? ग़ज़ल ही इतनी मानूस

और मक़्बूल है  कि बह्र की कौन सोचे ? वैसे हमारे जैसे   श्रोता ,लोगों को ग़ज़ल के दिलकशी

अन्दाज़ से लुत्फ़ अन्दोज़ होते हैं।इसकी तअ’स्सुर में मुब्तिला हो जाते है ।


मगर नहीं ।

आप जैसे प्रबुद्ध पाठकों को फ़र्क पड़ता है जो आप जैसे अदब-आशना हैं

जो ग़ज़ल से ज़ौक़-ओ-शौक़ फ़र्माते है जो उर्दू शायरी के अरूज़-ओ-बह्र से शौक़ फ़र्माते हैं ।


जी ,यह ग़ज़ल --बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ - की एक मुज़ाहिफ़ शकल है । जिस पर आगे चर्चा करेंगे।

पहले "बहर-ए-ख़फ़ीफ़" की चर्चा कर लेते हैं । ग़ज़ल की बह्र की चर्चा बाद में करेंगे।


बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ --उर्दू शायरी की एक मुरक़्क़ब [ मिश्रित ] बह्र है जिसके अर्कान है 


फ़ाइलातुन--- मुस तफ़अ’ लुन--फ़ाइलातुन     - जिसे हम आप  1-2 की अलामत में 

2 1 2 2 ------2     2 1   2--    -2 1 2 2 

मुरक़्कब बह्र -वह बह्र होती है जिसमें ’दो या दो से अधिक ’ अर्कान का इस्तेमाल होता है

यहाँ 3-रुक्न का इस्तेमाल किया गया है ।


[नोट - यह 1-2 क़िस्म की अलामत अर्कान की बहुत सही नुमाइन्दगी नहीं करते । यह  ready-reckoner जैसा कूछ

है । इस निज़ाम से आप समन्दर के किनारे चन्द ’सीपियाँ ’ तो  फ़राहम [ एकत्र ] तो कर लेंगे मगर गहराई से ’गुहर’ नही ला पाएंगे

अगर आप को अरूज़ और अर्कान अगर सही ढंग से और गहराई से समझना है तो फिर फ़ाइलुन--फ़ाइलातुन जैसे अलामत पर आज नही तो कल

 आना ही होगा । कारण कि अरूज़ या अर्कान  ’आप के लघु-दीर्घ--गुरु -वर्ण पर ’ नहीं

बल्कि -हर्फ़ के हरकात और साकिनात [हर्फ़-ए मुतहर्रिक और हर्फ़-ए-साकिन ] -सबब--वतद -फ़ासिला जैसे अलामात  पर चलता है ।

लघु-दीर्घ--गुरु -वर्ण  का concept हिन्दी काव्य और संस्कृत के छन्द शास्त्र के लिए ही उचित है । ख़ैर ।


अगर आप ध्यान से देखें तो  दूसरा रुक्न ’मुस तफ़अ’-लुन लिखा है । यानी -ऎन-मुतहर्रिक है । यानी -ऎन- पर ज़बर है ।

इसका क्या मतलब ? मतलब है ।

मुसतफ़इलुन - [ 2 2 1 2 ]   -रुक्न 2-प्रकार से लिखा जा सकता है


[क] एक मुतस्सिल शकल में [     مستفعلن ]    जिसमे तमाम हर्फ़ एक दूसरे के ’सिलसिले ’ से  [ मिला कर ] लिखे जा सकते है ।जिसमें  मुस -तफ़-इलुन  में  ’-इलुन’- علن वतद-ए-मज़्मुआ होता है

यानी इलुन   [ मुतहर्रिक +मुतहर्रिक + साकिन ] हरूफ़।

तो क्या ? कुछ नही । बस जब आप ज़िहाफ़ का अमल करेंगे इस शकल पर तो वो ज़िहाफ़ लगायेंगे जो ’वतद -ए- मज़्मुआ ’ पर लगता है॥ बस यही बताना था ।


[ख] दूसरी मुन्फ़सिल शक्ल मे [    مس تفع لن ]    \जिसमें कुछ हर्फ़ ’फ़ासिला ’ देकर [ फ़र्क़ कर के ]  लिखा जा सकता है । इसमें मुस - तफ़अ’ -लुन  में "तफ़ अ’    تفع -वतद -ए-मफ़रूक़ है

यानी -एइन- मुतहर्रिक होने के कारण । यानी - तफ़अ’   [ मुतहर्रिक+साकिन+मुतहर्रिक ]


जबकि दोनो  की तलफ़्फ़ुज़ और दोनों का वज़न एक ही होता है -बस इमला [लिखने ]   का फ़र्क है ।


तो क्या ? कुछ नही । बस जब आप ज़िहाफ़ का अमल करेंगे इस शकल पर तो वो ज़िहाफ़ लगायेंगे जो ’वतद -ए- मफ़रुक़ ’ पर लगता है ।बस यही बताना था ।

अर्थात दोनों  शकलों  पर लगने वाले ज़िहाफ़ अलग अलग होते हैं ।


बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ एक मुरक़्क़ब [मिश्रित ] बह्र है । क्योंकि इसमें 3- रुक्न [ फ़ाइलातुन--- मुस तफ़ इलुन--फ़ाइलातुन    ] का

इस्तेमाल होता है

मुरक़्कब बह्र---वो बह्र जो ’दो या दो से अधिक ’ सालिम रुक्न से मिल कर बनता है ।

उर्दू शायरी में यह बह्र ’मुसद्दस शकल ’ [ यानी एक मिसरा में 3-रुक्न ] में ही इस्तेमाल हुई है ।और वह भी  " मुज़ाहिफ़ शकल’ में ।

 यानी हर किसी न किसी रुक्न पर कोई न कोई ज़िहाफ़ लगा हुआ है ।


वैसे तो शायरों ने इसके मूल अर्कान [ फ़ाइलातुन--- मुस तफ़ इलुन--फ़ाइलातुन   ] में शायरी तो नही जब कि की जा सकती थी

लेकिन रवायतन ’मुसद्दस’ में ही शायरी की । गो कि  कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब ने अपनी किताब -"आहंग और अरूज़ " में  इसकी ’मुसम्मन शकल ’

भी तज़वीज की है --मगर बात कुछ आगे न बढ़ सकी । ख़ैर ।


ज़िहाफ़ लगे हुए रुक्न को -मुज़ाहिफ़ रुक्न’ कहते है  । जैसे


अगर  सालिम रुक्न फ़ाइलातुन [ 2 1 2 2 ]  पर ’ख़ब्न’ का ज़िहाफ़ लगा हो तो बरामद रुक्न को  मुज़ाहिफ़ रुक्न ’मख़्बून ’ फ़ इ ला तुन ’ [ 1 1 2 2 ] कहेंगे

।यह एक ’आम ज़िहाफ़’ है जो शे’र के किसी मुक़ाम पर आ सकता है ।


अगर  सालिम रुक्न पर ’ख़ब्न और हज़्फ़ " का ज़िहाफ़ एक साथ लगाया जाए तो मज़ाहिफ़ रुक्न ’मख़्बून महज़ूफ़ ’ ’फ़े अ’लुन  [ 1 1 2 ] [فعلن ]  बरामद होगा।


अगर सालिम रुक्न मुस तफ़अ’ लुन [ 2 212 ] पर ’ख़ब्न’ का ज़िहाफ़ लगाया जाए तो ’मफ़ा  इ’लुन  [ 12 1 2 ] बरामद होगा


 इस प्रकार बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मूल अर्कान पर अगर ये ज़िहाफ़ लगाए जाए तो  निम्न दो औज़ान बरामद हो सकते हैं

[1]   फ़ाइलातुन----मफ़ाइलुन-- फ़े अ’लुन 

         2 1 22   ----1  2 1 2 ---1 1 2 


[2]    फ़इलातुन ----मफ़ाइलुन---फ़े अ’लुन 

            1122 ------1 2 1 2 ----1 1 2 


यानी सदर/ इब्तिदा के मुक़ाम पर -फ़ाइलातुन [ 2 1 2 2 ]  की जगह   1 1 2 2 [ फ़इलातुन ] लाया जा सकता है ।


1 1 2 [ फ़े अ’लुन] पर अगर तस्कीन-ए-औसत के अमल से  [ फ़अ’ लुन ]  2 2 लाया जा सकता है

उसी प्रकार 1 1 2 [ फ़े अ’लुन ] की जगह 1 1 2 1 [ फ़’इलान ] भी लाया जा सकता है

और उसी प्रकार 22 [ फ़अ’ लुन ] की जगह  फ़अ’ लान [ 2  2 1 ] भी लाया जा सकता है


कहने का मतलब यह है कि अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर  112/ 1121/ 2 2/ 2 21 /  में से कोई एक लाया जा सकता है । इजाज़त है ।


इस एक बहर के 8- मुज़ाहिफ़ शकल  8-variants बरामद हो सकते हैं । यानी शायर के पास 8-आप्शन दस्तयाब है अपनी बात

कहने के लिए।

यही कारण है  कि "बहर-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ " बहुत ही मानूस और मक़्बूल [ लोकप्रिय ] बह्र है

और अमूमन हर शायर ने इस बहर में अपनी शायरी की है ।

------------------

अब ग़ालिब की दर्ज-ए-बाला [ ऊपर लिखित ] ग़ज़ल पर आते है


"दिल--ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है "  की बहर का नाम है 


बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून मुज़ाहिफ़ यानी

फ़ाइलातुन---मफ़ाइलुन---फ़ेअ’ लुन

2122----1212-----22-


 और इस पर  ऊपर लिखे हुए  ’विकल्प’ का अमल भी हो सकता है ।


किसी ग़ज़ल या शे’र का बह्र जाँचने का सबसे सही तरीक़ा ’तक़्तीअ’ करना होता है


 ग़ालिब के इस ग़ज़ल के मतला की तक़्तीअ’ मैं कर देता हूँ बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ’  आप कर के  मुतमुईन हो लें कि क्या सही

है और क्या ग़लत ?


1  1      2  2  / 1 2 1 2 / 2 2 

दिल-ए-नादाँ/ तुझे हुआ/ क्या है 


[ नोट -दिल-ए-नादाँ  -में  कसरा-ए-इज़ाफ़त के कारण -दिल का लाम ’मुतहर्रिक’  सा आवाज़ देगा । जिसकी चर्चा

मैं ’कसरा-ए-इज़ाफ़त वाले मज़्मून में पहले ही कर चुका हूँ ।  अत: ’लाम’ का मुक़ाम बह्र के ऐन मुतहर्रिक मुक़ाम पर है जो सही भी है ।

मतलब दिले-नादाँ में ’लाम - खींच कर नहीं पढ़ना है }ध्यान रहे ।


 2   1    2     2   /  1  2  1 2  /  2 2 

आ ख़ि रिस दर / द  की दवा /क्या है 


[नोट-  जुमला ’ आखिर इस ’ में अलिफ़ का वस्ल -र-के साथ हो गया है अत: आप को आ खि रिस [ 2 1 2 --] की आवाज़ सुनाई देगी

तक़्तीअ’ भी इसी हिसाब से की जायेगी ।


देखा आप ने ? मतला  के मिसरा उला में 1122 और सानी में 2122 लाया गया है और जो अरूज़ के ऐन मुताबिक़ भी है ।


आप और अश’आर की तक़्तीअ’ खुद करें तो इस मज़्मून की सारी बातें साफ़ हो जायेंगी और आप का आत्म-विश्वास भी बढ़ेगा ।


[ बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ के बारे में मज़ीद जानकारी के लिये इसी ब्लाग पर कॄपया क़िस्त -57 देखें ]


असातिज़ा [ गुरुजनों ] से  दस्तबस्ता [हाथ जोड़ कर ] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी

निशानदिही फ़र्माये जिस से मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ

सादर

-आनन्द.पाठक-