शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

ग़ज़ल 030 : कभी तुझ पे तेरी निगाह

ग़ज़ल  030: कभी तुझ पे तेरी निगाह है ......

कभी तुझ पे मेरी निगाह है कभी खु़द से मुझको ख़िताब है
कोई ये बताये है राज़ क्या यहाँ कौन ज़ेर-ए-निक़ाब है

मुझे तू ही काश ! बता सके यह करम है या कि इताब है
कभी रंग-ए-इश्वा-ओ-नाज़ है ,कभी बे-नियाज़ी का बाब है

ज़रा सोच तो सही नासिहा ! भला तुझ में मुझ में है फ़र्क़ क्या !
मुझे फ़िक्र-ए-शाम-ए-फ़िराक़ है ,तुझे ख़ौफ़-ए-रोज़-ए-हिसाब है

कभी इस तरह ,कभी उस तरह मिरा इम्तिहान हुआ किया
इसी फ़िक्र में कटी ज़िन्दगी कि ये कैसा मेरा निसाब है ?

ये जहां हो या वो जहान हो कोई इन को ले के करेगा क्या
यह है रेग्ज़ार-ए-गुरेज़पा ,तो वो कारवान-ए-सराब है

तब-ओ-ताब-ए-शेवा-ए-दिलबरी! तब-ओ-ताब-ए-शेवा-ए-दिलबरी!
"न पयाम है ,न सलाम है ,न सवाल है,न जवाब है"

कभी इस तरफ़ भी उठा नज़र ,तुझे अपनी भी है कोई ख़बर?
नहीं चश्म-ए-तार ,है यह आईना !मिरा दिल नहीं यह किताब है!

कोई लाख तुझ को कहे बुरा न ग़मीं हो "सरवर"-ए-बे-नवा
यह फ़राज़-ए-दार-ए-अना ही तो तिरे हक़ में कार-ए-सवाब है !

-सरवर

ख़िताब =सम्मान/इज्ज़त
करम =मेहरबानी
इताब =गुस्सा
बाब =अध्याय
इश्वा =मोहिनी की हाव-भाव
नासिहा =उपदेशक
निसाब =धन-दौलत/जमा-पूँजी
रेग्ज़ार-ए-गुरेजपा =भाग-दौड़/पलायन
कारवान-ए-सराब =मीरीचिका का सफ़र
बे-नवा =दरिद्र/कंगाल/दीन-हीन
तब-ओ-ताब-ए-शेवा-ए-दिलबरी= दिलबरी के तरीके की (प्रेम की)गर्मी
कार-ए-सवाब = दान-पुण्य का काम
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