रविवार, 31 जनवरी 2010

शायरी में ’ज़म(खोट) का पहलू’-----------कड़ी ३(अंतिम )

[नोट : कड़ी १ और कड़ी २ नीचे इसी ब्लॉग पर दर्ज-ए-जेल है ]

अब दो मिसाल और देखिये जिनमें यह पहलू नुमाया नहीं है.
(२) मिसाल -२
वालिद मरहूम राज़ चांदपुरी साहब ने अपनी एक किताब ’दास्तान-ए-चांद’ कानपुर (हिन्दुस्तान) में मन्क्कुरा (सन) १९२३ के एक मुशायरे का तज़करा (चर्चा) लिखा है.इसकी ज़मीन थी -" नाज़ रहने दे ,नियाज़ रहने दे".मुशायरे में बहुत से मशहूर शायरों ने शिरकत की थी जिनमें उस ज़माने के मुस्तनद और माने हुए उस्ताद हकीम’नातिक़ लखनवी’ भी शामिल थे.जब ह्कीम साहब ने अपनी तरही ग़ज़ल (मुशायरे की थीम ग़ज़ल) मुशायरे में इनायत की तो इस पर बहुत दाद मिली.एक शे’र पर कुछ शो’अरा (शायरों) ने इसके मज़्मून,रंग और हुस्न की दाद दी लेकिन कुछ लोगों ने जिनकी हकीम साहब से शायराना मुख़ासिमत ( विरोध) थी और दोनो की आपस में चश्मकशीं (नोक-झोंक) आम थी इसमे ’ज़म का पहलू" सरे मुशायरा ही निकाल लिया और ऐसे तंज़िया (व्यंगात्मक) और मज़ाहिक (हास्य) अन्दाज़ में दाद और सताइश (तारीफ़) डोंगरे बरसाए कि लोगों के कान खड़े हो गये.बेचारे हकीम साहब अपनी मासूमियत और फ़ित्री शराफ़त (स्वभावगत शराफ़त) में उनका इशारा न समझ सके और उन्होने अपना शे’र कई बार दुहराया.आख़िकार उनके एक क़रीबी दोस्त ने दबे अल्फ़ाज़ में उन्हे सूरत-ए-हाल से आगाह किया और ’नातिक़ लखनवी’ साहब आगे बढ़ गए.हकीम साहब की इस ज़मीन में पूरी ग़ज़ल नहीं मिल सकी .इस लिए इस ज़मीन दूसरे शायरों के चन्द अश’आर (शे’रों) में ’हकीम ’नातिक़ लखनवी’ साहब के शे’र भी शामिल कर दिये हैं.उन्हे नीचे लिख रहा हूं.देखिए कि कहीं आप को किसी शे’र में शे’रों में ’ज़म का पहलू’ निकलता है ?
यह शौक़े सज्दा, यह ज़ौक़े नियाज़ रहने दे
क़बूल हो चुकी , फ़िक्रे- नमाज़ रहने दे

नियाज़-ओ-नाज़ में कुछ इम्तियाज़ रहने दे
रुख़-ए-जमील पर रंगे-ए-मजाज़ रहने दो

नया है ज़ख़्म अभी तीर-ए-नाज़ रहने दे
ख़ुदा के वास्ते ऐ जल्दबाज़ रहने दे

तसर्रूफ़ात की दुनिया तो है बहुत महदूद
तख़्लुयात को अफ़सानासाज़ रहने दे

जो कुछ हुआ वो हुआ अब तो फ़र्ज़ है सजदा
हिकायत-ए-रह-ए- दुर्र-ओ-दराज़ रहने दे



रुख़-ए-जमील पर =सुन्दर हसीन चेहरे पर
तसर्रूफ़ात की दुनिया = मतलब की दुनिया
तख़्लुयात =ख़यालात
महदूद = सीमित
हिकायत =कथा-कहानी/हाल-चाल

मिसाल -३ मिर्ज़ा अस्दुल्लाह खां ’गा़लिब’ की एक मशहूर ग़ज़ल दर्ज-ए-ज़ेल (नीचे दर्ज है).इस ग़ज़ल से उर्दू का हर आशिक़ खूब ही तो वाकि़फ़ है.हम हज़ारों मर्तबा इसको पढ़ चुके हैं और बेतबाज़ी और ख़तूत वगै़रह में इसके अश’आर भी लिखते रहते हैं लेकिन कभी आप का ख़याल इस जानिब नहीं गया होगा कि मिर्ज़ा गा़लिब के इस ग़ज़ल में भी यार लोगों ने ’ज़म का पहलू" ढूँढ निकाला है.कज फ़हमी और कम सवादी की ऐसी मिसालें कम ही देखने में आती हैं .ब-हर-कैफ़(बहर हाल ,जो भी हो) ग़ज़ल पेश-ए-ख़िदमत है .पढ़िए औए लुत्फ़ अन्दोज़ होइए.अगर कोशिश से हो सके तो इसमें ’ज़म के पहलू’ की निशानदेही कीजिए

बाज़ीचा-ए-अफ़्ताल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे

होता है निहाँ गर्द में सहरा मिरे आगे
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मिरे आगे

मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तिरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मिरे आगे

फिर देखिए अन्दाज़े-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना-ओ-सहबा मिरे आगे

इमां मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे

गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी सागरो मीना मिरे आगे

हमपेशा-ओ-हममशरब-ओ-हमराज़ है मेरा
’ग़ालिब’ को बुरा क्यों कहो अच्छा मिरे आगे

अब यह बात ख़त्म होती है.आप के सवालात का इन्तेज़ार रहेगा.एक मर्तबा फिर आप से दस्त-बस्ता (हाथ जोड़ कर ) इस्तदा है कि ’ज़म के पहलू’ की निशानदेही सिर्फ शे’र या अश’आर का नं० दे कर फ़र्माए किसी तफ़्सील या तशरीह में न जाएं.अगर आप किसी क़िस्म की वज़ाहत या तशरीह ऐसी ही ज़रूरी समझते हैं तो मुझको ’इ-मेल’ कर दीजिए.मेरा ’इ-मेल’ का पता मेरे नाम के बाद दर्ज है.
इस में दो-चार बड़े सख़्त मक़ाम आते हैं

आप की तवज्जो का मम्नून-ओ-मुतशक्किर (आभारी व शुक्र गुजार ) हूँ.
यार ज़िन्दा ,सोहबत बाक़ी
(समाप्त)
----सरवर आलम ’राज़’ सरवर’
Email sarwar­_raz@hotmail.com

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

मज़मून : शायरी में ’ज़म(खोट) का पहलू’-----------कड़ी २

शायरी में ’ज़म(खोट) का पहलू’-----------कड़ी २
---सरवर आलम राज़ ’सरवर’(नोट : स्रोत -यह लेख इन्टरनेट साईट "उर्दू अन्ज़ुमन.काम से लिया गया है।जो उर्दू स्क्रिप्ट में लिखा हुआ है इसके मूल लेखक जनाब ’सरवर आलम राज़ ’सरवर’ साहिब है । यहाँ पर मैने हिंदीदाँ दोस्तों की सहूलियत के लिए सिर्फ़ हिंदी में नक़्ल-ए-तहरीर (ट्रान्सलिट्रेशन) किया है।) -आनन्द.पाठक
[इस मज़्मून की कड़ी -१ इसी ब्लाग पर दर्ज-ए-ज़ैल है.(नीचे दर्ज है)...............]

लुग़त (शब्दकोश) में ’ज़म’ के मानी ’मलामत’मज़्ज़मत.निंदामत,बुराई करने में है.शायरी में ’ज़म’ का पहलू ऐसी सूरत या नशिस्त या अल्फ़ाज़ की बन्दिश की वजह से पैदा होता है जो किसी वजह से क़ाबिले ऐतिराज़ (आपत्ति करने योग्य) समझी जा सके.कभी-कभी कोई शायर दानिस्ता (जान बूझ कर) भी ऐसी सूरत अख़्तियार करता है लेकिन फिर इसकी उस इरादी ग़लतनोशी का कोई जवाज़ (औचित्य) नहीं रह जाता है.और शे’र के साथ शायर को भी मा’तूब (कोप भाजन) क़रार देना ऐन इक़्तजाए इन्साफ़ (मौक़े पर इन्साफ़ वक़्त की ज़रूरत ) होता है.
ऐसे शे’र जिसमें ’ज़म का पहलू’ दर (बीच) में आता है आम तौर पर साफ़ सुथरे बेदाग़ नज़र आते हैं और फ़िल हक़ीक़त शायर का मुद्दआ यह होता भी नहीं है कि उनमें इरादतन ’ज़म का पहलू’ रखा जाए.यह ऐब तक़रीबन हमेशा ही बिल्कुल गै़र इरादी तौर पर सादिर(चलन में ) होता है और शायर इस जिम्न में मुत्तलिक़ मासूम और बेगुनाह हुआ करता है.चूँकि ’शे’र में ’ज़म का पहलू" ऐसी जगह ढूढ निकालने के लिए जहाँ एक आम ज़ेहन की रसाई (पहुँच) न हो एक ख़ास क़िस्म के दिमाग़ और ज़ेहन की ज़रूरत होती है.(आप इसको कज फ़हमी या कज दिमाग़ी कह सकते हैं) जो हर एक को फ़ितरत फ़ैयाज़ की तरफ़ से बदी’अत नहीं होता है.इस लिए शायर को खु़द भी इल्म नहीं होता कि इसके किसी शे’र में "ज़म का पहलू" मौजूद है.ज़ाहिर है कि अगर उसको ऐसे ऐब का एहसास हो जाए तो वह इसका इर्तिकाब(बुरे काम) की शुरुआत हर्गिज़ कहीं करेगा.
जैसे कि मैनें ऊपर अर्ज़ किया बाज़ औक़ात शायर अपने किसी मुख़ालिफ़ (विरोधी) शायर की तौहीन करने की गरज़ से इरादतन ’ज़म का पहलू’ अख़्तियार करता है और चूँकि यह फ़ेल अख़्तियारी (बुरे कर्म को अपनाना) होता है इस लिए बहुत ज़ाहिर भी होता है और लायक़-ए-निदामत (निन्दनीय) भी.ऐसा शे’र ’जम के पहलू’ के बजाय ’फक्कड़’ या लाग़्वा-गोयी (बकवास) के तहत किया जाना चाहिए.मैं ऐसी इरादी हरकत को एक मिसाल से वाजे़ह (स्पष्ट) करता हूँ

(१) मिसाल -१
आप लोगों में से कुछ लोग जरूर वाक़िफ़ होंगे कि दिल्ली के मशहूर उस्ताद शायर शाह मुबारक "आबरू" की एक आँख बेकार थी और इसमें ’फ़ुल्ला’ (आँख का एक दोष) पड़ा हुआ था.शाह साहब की मिर्ज़ा जान जानाँ ’मज़हर’ से मुख़ासमत (आपस में द्वेष भाव) थी और दोनो की शायराना चश्म्कीं (नोंक-झोंक)ज़माने भर में मशहूर थी."आबरू’ की कानी आँख का निशाना बना कर मिर्ज़ा जान जानाँ ने एक शे’र कहा जिसका पहला मिस्रा लिखता हूँ दूसरे मिस्रे से आप वाक़िफ़ ही होंगे
’आबरू की आँख में इक गाँठ है’
यह शे’र यकी़नन मिर्ज़ा साहिब जैसे कामिल फ़न शायर और दिल्ली तह्ज़ीब के एक नामलेवा को हरगिज़ ज़ेब (शोभा) नही देता था लेकिन वह अपने किसी बहुत ही कमज़ोर लमहे में ब-हर-कैफ़ यह शे’र कह गये होंगे.ज़ाहिर है कि इससे शाह ’आबरू’ साहब की काफी जग-हँसाई हुई क्योंकि ऐसी बातों से लुत्फ़ लेने वाले तो हर ज़माने में रहे हैं लेकिन शाह आलम कब चूकने वाले थे !उन्होने भी पलट कर मिर्ज़ा जान जाना ’मज़हर’ की तारीफ़ में इसी का़बिल का एक शे’र कह दिया जो यक़ीनन आप ने सुना होगा
क्या करूँ रब के किए को ,कोर मिरी चश्म है (कोर=अन्धा)
’आबरू जग में रहे तो जान जाना पश्म है
इन दोनो बुज़र्गों के अश’आर में ’ज़म का पहलू’ है और वह ढँका-छुपा नही है बल्कि बहुत ही वाज़ेह (साफ़) है क्यों कि यह अश’आर दोनों शायरों ने इरादतन एक दूसरे को ज़क ( अपमान) पहुँचाने की ग़रज़ से और तौहीन -ओ-तज़हीक (अपमान और हँसी उड़ाने) की नियत से कहे हैं .इस वाक़या का ज़िक्र मौलाना मुहम्मद हुसेन आज़ाद ने अपने किताब’ ’आबे-हयात’में तफ़्सील (विस्तार ) से किया है,यक़ीनन ऐसे बड़े शायरों को इतने गिरे हुए शे’र कहना (और वह भी अपने दिल की भड़ास निकालने केलिए) उन्हें किसी सूरत में ज़ेब (शोभा) नहीं देता. यह सोच कर ही इस दिल को समझाना पड़ता है कि ये बुज़ुर्ग भी आख़िर इन्सान ही थे और इन्सान ख़ता का पुतला है.अपने किसी कमज़ोर लम्हे में इनसे ऐसे शे’र सर-ज़द (सबके सामने) हो गये होंगे.यूँ भी हमारे यहाँ कहते हैं कि ’खता-ए-बुज़ुर्गां गिरिफ़्तां ख़ता अस्त’-( बुज़ुर्गो की ख़ता पर अंगुश्तनुमाई ( उँगली उठाना) ख़ुद एक ख़ता है)
-----------(अभी जारी है).......----

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

एक मज़मून : शायरी में ’ज़म(खोट) का पहलू’-----------कड़ी १

---सरवर आलम राज़ ’सरवर’

(नोट : स्रोत -यह लेख इन्टरनेट साईट "उर्दू अन्ज़ुमन.काम से लिया गया है।जो उर्दू स्क्रिप्ट में लिखा हुआ है इसके मूल लेखक जनाब ’सरवर आलम राज़ ’सरवर’ साहिब है । यहाँ पर मैने हिंदीदाँ दोस्तों की सहूलियत के लिए सिर्फ़ हिंदी में तहरीर-ए-नक़्ल (ट्रान्सलिट्रेशन) किया है।) -आनन्द.पाठक

जैसा कि हम सब जानते हैं ,इन्टरनेट की दुनिया में तमाम महफ़िलों में ग़ज़ल का इस कदर जोर है कि हर शख्स सिर्फ़ ग़ज़ल कहने और दूसरों की ग़ज़लों पर लिखने को ही इब्तिदा और इन्तिहा (आदि और अन्त) समझता है।अगर कभी किसी की कोई नज़्म नज़र आ जाती है तो मसर्रत ( खुशी) के साथ हैरत भी होती है कि यह बदी’अत (अज़ीबो गरीब स्थिति) कैसी?दरअस्ल (वास्तव में) यह भी उर्दू के ज़वाल (क्षरण) की निशानी है कि इसमें संजीदा (गंभीर) शायरी व अदबी काम नापैद (गायब) होता जा रहा है।तन्क़ीद-ओ-तहकी़क़ (समीक्षा व आलोचना) तो अब बराए नाम (नाम मात्र) ही रह गई।किसी रिसाले (पत्रिका) को उठा कर देख लीजिए। चन्द बहुत कम म’आर(स्तरीय) की आज़ाद नज़्में ,चन्द औसत और दूसरे दर्ज़े की ग़ज़लें, चार-छ्ह दूसरे या तीसरे दर्ज़े की अफ़्सानों के अलावा कुछ और हाथ नही आएगा।अगर क़िस्मत की खूबी से किसी माहिर-ए-फ़न की कोई अच्छी ग़ज़ल नज़र आ गई या म’आरी (स्तरीय)तन्क़ीद-ओ-तह्क़ीक़ पर कोई मज़्मून (लेख) दिखाई दे जाए तो इसे मक़ाम-ए-शुक्र (भला) समझिए। मीर तक़ी ’मीर’,मिर्ज़ा रफ़ी ’सौदा’,मिर्ज़ा ’गा़लिब’मौलाना ’हाली’,मोमिन खाँ ’मोमिन’,अमीर मिनाई वगै़रह क ज़िक्र छोड़े कि ये बुजु़र्ग तो दूसरे अहद(दुनिया) से ताल्लुक़ रखते हैं। अब तो वह ज़माना भी ख्वा़बो ख़याल होकर रह गया है जब नवाब मिर्ज़ा खाँ ’दाग़ देहलवी,अल्लामा इक़्बाल ,जिग़र मुरादाबादी, फ़िराक़ गोरखपुरी,हसरत मोहानी,फ़ानी बदायूनी,असगर गोंडवी,सीमाब अकबराबादी,आनन्द नारायण मुल्ला,जगन्नाथ आज़ाद,मुल्कराज़,रासिद हुसेन खां,खलीलुर्रहमान आज़मी ,नियाज़ फ़तेहपुरी,ताजवर नजीबा बादी,,मुंशी प्रेमचन्द,कॄशन चन्दर,फ़िराक़ गोरखपुरी अमीन हैदर,खदीजा मस्तूर (छिपा हुआ) हाजिरा(उपस्थित) फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ,शकील बदायूनी,एह्सान मारहरवी,,नशूर वाहिदी,नातिक़ लखनवी,,यास अज़ीमाबादी, अज़ीम बेग़ चुगताई,रासिद अहमद सिद्दीक़ी,कैप्टन सफ़ीकुर्रहमान,कर्नल मुहम्मद खाँ,ऐसे ही ,खु़दा जाने कितने शायर ,अदीब,अफ़सानानिगार(कहानीकार),नक्का़द(समालोचक),मिज़ाहनिगार(हास्य-व्यंग्य के लेखक)बज़्मे उर्दू को गरमाते रहते थे। अगर हम चिराग़-ए-रुखे ज़ेबा (चिराग-ए-रोशन)) लेकर ढूढने भी निकलें तो मुश्ताक़ यूसूफ़,कलीम अहमद अज़ीज़,शम्सुल रहमान फ़ारुक़ी,और २-३ मजीद (अतिरिक्त) नामोंके अलावा आप किसी बन्दपा(पूज्य) शायर,अदीब ,नक़्क़ाद या अफ़सानानिगार का नाम नहीं ले सकेंगे।’ " ब-बीं तफ़ावुत-ए-रेह-अज़ कुजा अस्त ता ब कुजा" (देखो तो सही कि रास्ता का फ़र्क़ कहाँ से कहाँ पहुँच गया है )"
आज बैठे बैठे मुझे ख्याल आया कि मैं चन्द सतूर (पंक्तियाँ) उर्दू ग़ज़ल के एक ऐसे ऐब के बारे में कारीं (पाठकों की) महफ़िल की खि़दमत में पेश करूँ।जिसके नाम से बेशीतर अह्बाब(दोस्त लोग) नाआशना होंगे।अब इस तरह की मालूमात आहिस्ता-आहिस्ता किस्स-ए-पारीन( पुरानी बातें) ही नहीं होती जा रही है बल्कि दुनिया से उठती जा रही है।और वह वक्त दूर नहीं कि अहले उर्दू (उर्दू वाले)इन बातों से नावाक़िफ़ और लाइल्म हो जायेंगे।अफ़्सोस कि अमेरिका में वह किताबें और वसाईल (साधन) द्स्त्याब(हस्तगत) नहीं हैं जो ऐसे मज़ामीन की तैयारी में कमा हक़्कू (जैसा कि इनका हक़ है) मदद दे सकें और न ही ऐसे लोग मौज़ूद हैं जिनसे इस्त्फ़ादा (फ़ायदा ले) कर कर के उन्हे ज्यादा मुक़म्मिल (पूरा) मुस्तनद और जामे (पूरा) बनाया जा सके।इसलिए आज का मौज़ूँ (विषय) नसिर्फ़ मुख्तसर (संक्षिप्त) होगा बल्कि बड़ी हद तक तश्ना (प्यास जगाने वाली) भी। शायद कहीं कोई ऐसा दोस्त मौजूद हो जो इस मज़ामीन में मुनासिब इज़ाफ़े (बढ़ोत्तरी) कर सके। अगर ऐसा हो सके तो मै बहुत ही मम्नून (आभारी) हूँगा। मुमकिन है कि मज़ामीन देख कर आप को भी कोई शे’र ऐसा याद आ जाए जो इस ऐब की तारीफ़ में आता है.आप से गुज़ारिश है वह शे’र मुझको इ-मेल से भेंज दे ताकि मुनासिब इह्तिसाब -ओ- इन्तिकाद (देख-भाल) के बाद आप ही के नाम से यहाँ पेश किया जा सके।यह दरख्वास्त इसलिए कर रहा हूँ कि मामला निहायत नाज़ुक है और इस मंज़िल में ऐहतियात निहायत ज़रूरी है।आप को मेरी इस बात की अहमियत का अन्दाज़ा पढ़ कर हो जाना चाहिए।
हमारे उस्तादों ने सदियों के तद्ब्बुर (सोच विचार) तदबीर(उपाय) सख़्त मेहनत के बाद शायरी के अ’ऊब(एबों) की फ़ेहरिस्तसाज़ी और हदबन्दी कर दी है।इस तरह उन्होने शायरी के मुहासिन( खूबियों)सनाए-ओ-बदा’अ(नई नई चामत्कारिक अलंकारों) को भी बहुत तफ़्सील व वज़ाहत से क़लमबन्द कर रखा है।आप इनमें से चन्द अऊ’ब(दोषों) और चन्द मुहासिन (खूबियो)से ज़रूर ही वा्क़िफ़ होंगे।मिसाल के तौर पर मुहासिन में फ़साहत-ओ-बलाग़त(सीधा सादा लेखन और चामत्कारिक लेखन) अश्र पज़ीरी(प्रभावकारी लेखन) मुख़्तलिफ़ सन’अती(विभिन्न प्रकार की शैल्पिक कारीगरी) वगै़रह ,और अ’ऊब (दोषों ) में शुतुर्गर्वा (ऊँट के गले में बिल्ली, बेमेल) हरूफ़ का गिरना या दबना,मुहावरों का ग़लत इस्तेमाल,हमारी आम मालूमात का हिस्सा है।अ’ऊब की फ़ेहरिस्त में एक नाम आता है ’ज़म का पहलू"(खोट का पहलू) । मसलन हम कहेंगे इस शायरी में "ज़म का पहलू"निकलता है।ऐसे बयान देखते ही ज़ेहन में एक सवाल फ़ितरी (स्वाभाविक ) तौर पर पैदा होता है कि यह ’ज़म का पहलू ’क्या होता है ? और यह किस चिड़िया का नाम है? आज की मुख़्तसिर गुफ़्तगू ’जम के पहलू’ पर ही होगी.....................................................(जारी)

सोमवार, 25 जनवरी 2010

ग़ज़ल 008 आ भी जा कि इस दिल की शाम

ग़ज़ल 008

आ भी जा कि इस दिल की शाम होने वाली है
दिन तो ढल गया ज्यों त्यों, रात अब सवाली है !

इक निगाह के बदले जान बेच डाली है
इश्क़ करने वालों की हर अदा निराली है !

हर्फ़-ए-आरज़ू लब पर आए भी तो क्या आए
नाबकार यह दुनिया किसकी सुनने वाली है ?

कोई क्या करे तकिया दूसरों की दुनिया पर
हमने ख़ुद ही इक दुनिया ख़्वाब में बसा ली है !

आब आब आईना ख़्वाब ख़्वाब उम्मीदें
रू-ए-ज़िन्दगानी का नक़्श भी ख़याली है !

फ़िक्र-ओ-फ़न की दुनिया पर वक़्त कैसा आया है
फ़न है बे-सुतून यारो ! फ़िक्र ला-उबाली है !

कोई क्या करे शिकवा वक़्त की खुदाई का
बज़्म-ए-मय हुई वीराँ और जाम खाली है

इश्क़ में बता ’सरवर’! क्या मिला तुझे आखिर
तूने ये मुसीबत क्यूँ अपने सर लगा ली है ?

-सरवर-
रू-ए-ज़िन्दगानी =ज़िन्दगी का चेहरा
नाबकार =नालाईक़
बेसुतून =बिना स्तम्भ के/बिना खम्बा के
ला-उबाली =मस्त

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

विविध 003 : एक ग़ज़ल :गुरूर-ए-हुस्न के मंज़र ... [ पी0 के0 स्वामी ]

[पिछली बार इस साईट पर एक ग़ज़ल " शौक़ है उनको मुस्कराने का......" चस्पा की थी .इस पर कुछ अहलेकारीं (पाठक गण) ने गुज़ारिश की कि राक़िम-उल-हरूफ़ (लेखक) का एक मुख़्तसर तार्रुफ़ (संक्षिप्त परिचय) भी पेश किया जाय तो रवा (उचित) होगा.इसी के मद्द-ए-नज़र उनकी एक और ग़ज़ल मुख़्तसर तार्रुफ़ के साथ पेश की जा रही है

पी०के०स्वामी (प्रभात कुमार स्वामी) की पैदाईश 1947 ,कलकत्ता (कोलकोता) में हुई. आपकी graduation और law की तालीम वहीं से हुई जहां आप ३१ साल तक मुकीम रहे. मौसूफ़ पिछले बत्तीस सालों से देलही में कयाम रखते हैं और दीगर मुलाज़मत के बाद एक MNC से बतौर मुन्ताजिम.ए आला रिटायर हुए.उर्दू से बेहद मुहब्बत है. इन्हों ने उर्दू ज़बान और ग़ज़ल की रहनुमाई अमेरिका में बसे मोहतरिम उस्ताद सरवर आलम राज़ "सरवर" से हासिल की और सीखने का ये सिलसिला जारी है.
(email ; pkswami1@gmail.com)
चलते-चलते अहले-कारीं को आग़ाह कर दें
"स्वामी" के नाम से यह भरम न हो कि जनाब दक्षिण भारत से या किसी भगवाधारी से रब्त रखते है.लोग मोहब्बत से इन्हें ’स्वामी’से याद करते हैं.आप बड़ी शिद्दत से शे’र-ओ-शायरी का शौक़ फ़र्माते है. जब आप से तार्रुफ़ पूछा गया तो फरमाया के :

यह और बात है कि तार्रुफ़ न हो सका
हम ज़िन्दगी के साथ बहुत दूर तक गये !

इनकी एक और ग़ज़ल दर्ज-ए-ज़ैल (नीचे दर्ज) है आप भी लुत्फ़-अन्दोज़ होइए.

ग़ज़ल ०२
गुरुर-ए- हुस्न के मंज़र जहां मालूम होते हैं
हसीं कुछ वार खंज़र के वहां मालूम होते हैं

निगाह-ए- शौक़ के जलवे जहां मालूम होते हैं
ये जितने हों निहां उतने अयाँ मालूम होते हैं

तबस्सुम ज़ेर-ए-लब है और पेशानी पे बल तौबा
मेहरबाँ हैं मगर ना-मेहरबाँ मालूम होते हैं

अजब नाज़ -ओ -अदा -ए -दिलनवाज़ी हुस्न वालों की
के ज़ालिम रूठ कर भी जान-ए- जां मालूम होते हैं

न जाने वक़्त-ए-आख़िर किस लिए अहसास होता है
लुटे हम जिन के हाथों पासबां मालूम होते हैं

मेरा फैज़ -ए-तख़य्युल है कि मेराज -ए-मुहब्बत है
नज़र से दूर हैं वो पर यहाँ मालूम होते हैं

बहार आयी है जिन पर और रानाई चमकती है
दिल -ए-पामाल गुलशन के निशाँ मालूम होते हैं

हमारे मैकदे के रिंद गिरते और संभलते हैं
ये क़ैफ़ -ए-बेख़ुदी के राजदां मालूम होते हैं

वो भूले से जो आ जाए कभी दाम-ए-तसव्वर में
निशात -ए-दीद के दरया रवां मालूम होते हैं

हसीनों कि परस्तिश में गवां दी जां ’स्वामी’ ने
फरिश्तों ने कहा ये तो जवां मालूम होते हैं !!!

-- PK Swami

निहाँ =छुपे हुए
अयाँ =जाहिर तौर पर, स्पष्ट
फ़ैज़-ए-तख़य्युल= सोच के फ़ायदे
मेराज-ए-मुहब्बत= मुहब्बत की सीढ़ी
दिल-ए-पामाल =पैरों से कुचला हुआ दिल
दाम-ए-तसव्वुर = कल्पना की जाल में

शनिवार, 16 जनवरी 2010

ग़ज़ल 007 : यूँ अहल-ए-दिल में मेरा --

ग़ज़ल 007

यूँ अहले-दिल में मेरा इलाही ! शुमार हो
मेरी जबीं पे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा-ए यार हो

इतना असर तो तुझ में ग़मे-यादे-यार हो
मैं बे-सुकूँ इधर वो उधर बे-क़रार हो !

शाम-ए-ख़िज़ाँ बा-रंगे-जमाल-ए-बहार हो
गर ज़िन्दगी पे अपनी कोई इख़्तियार हो

दामन है चाक मेरा,गिरेबाँ भी तार-तार
कोई तो हो जो इश्क़ का आईनादार हो !

मैं हूँ ,ख़्याल-ए-यार हो,शाम-ए-उमीद हो
यूँ ख़ातिमा हयात का पायानेकार हो !

अफ़्सोस अब सज़ा के भी का़बिल नही रहा
मेरी तरह ख़ुदा न करे कोई ख़्वार हो !

गुम हूँ मैं इस तरह खु़द अपनी ही जात में
जैसे वह मौज ,बेह्र की जो राज़दार हो !

हुस्ने-ख़ुदी में रंग हो ऐसा कि हमनशीं
आईना जिसको देख के ख़ुद शर्मसार हो !

जैसा कि मेरे साथ राह-ए-दर्द में हुआ
वैसा ही तेरे साथ हो और बार-बार हो !

’सरवर’ दुआ हमारी तिरे हक़ में है यही
ये बज़्म-ए-शे’र तेरे लिए साज़गार हो !

-सरवर-

जबीं पे =माथे पर
कफ़े-पाए =पाँव के तलुवे
बेह्र =समुन्द्र
पायानेकार = आख़िरकार

ग़ज़ल 006 : मेरे जब भी करीब आई बहुत

ग़ज़ल 006

मेरे जब भी क़रीब आई बहुत है
ये दुनिया मैने ठुकराई बहुत है !

मै समझौता तो कर लूँ ज़िन्दगी से
मगर ज़ालिम यह हरजाई बहुत है !

तुम्हें सरशारी-ए-मंज़िल मुबारक
हमें ये आबला-पाई बहुत है !

कहाँ मैं और कहाँ मेरी तमन्ना
मगर यह दिल ! कि सौदाई बहुत है

बला से गर नहीं सुनता है कोई
मजाल-ओ-ताब-ए-गोआई बहुत है

मैं हसरत-आशना-ए-आरज़ू हूँ
मिरी ग़म से शनासाई बहुत है !

मैं ख़ुद को ढूँढता हूँ अन्जुमन में
मुझे एहसास-ए-तन्हाई बहुत है

ना आई याद तो बरसों न आई
मगर जब आई तो आई बहुत है

मिरी रिंदी बा-रंग-ए-पार्साई
हरीफ़े-खौफ़-ए-रुस्वाई बहुत है

ज़माने को शिकायत है यह ’सरवर’
कि तुझ मे बू-ए-खुदराई बहुत है

-सरवर-

आबला-ए-पायी =पाँवों के छाले
सरशारी-ए-मंज़िल = मंज़िल की पहुँच
मजाल-ओ-ताब-ए-गोआई = मेरी बोलने की ताकत और क्षमता
शनासाई =जान-पहचान
रिंदी बा-रंग-ए-पार्साई = मेरा शराबीपन और संयम
हरीफ़े-खौफ़-ए-रुस्वाई =रक़ीब की बदनामी का डर
रक़ीब = एक प्रेमिका के दो परस्पर प्रेमी
बू-ए-खुदराई = स्वेच्छाचारिता की गंध

विविध 002 :एक ग़ज़ल :शौक़ है उन को मुस्कराने का..[ पी0 के0 स्वामी ]

एक ग़ज़ल : शौक़ है उनको मुस्कराने का--

शौक़ है उन को मुस्कराने का
नीम-जानों को आजमाने का

तेरी आँखों से बर्क़ कहती है
दर्स दे बिजलियाँ गिराने का 

हर जगह अब है जुस्तजू मेरी
सिलसिला है मुझे मिटाने का

इससे बेहतर है क़त्ल ही कर दे
फ़ायदा क्या मुझे सताने का

जब क़दम कू-ए-यार में बहके
लुत्फ़ आया फ़रेब खाने का

फ़स्ल-ए-गुल हुस्न की नुमायश है
है यह मौसम बहार आने का

हुस्न फितरत से है जफ़ा परवर
इश्क़ तो नाम है निभाने का

हर सदा पर गुमां ये होता है
जैसे मुज़्दा हो तेरे आने का

ज़ेब जो तुमको है किए जाओ
हश्र देखेंगे दिल लगाने का

हाय! क्या क्या वो दिल में रखता है
जिसके दिल में है ग़म ज़माने का

--- पी०के० स्वामी


नीमजान =- कच्चे ह्रदय वाला
दर्स =- सबक
कू-ए-यार =- माशूक की गली
फ़स्ल-ए-गुल =-बहार का मौसम
मुज़्दा =- खुश खबरी

हश्र =- परिणाम

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

ग़ज़ल 005 : दिल को यूँ बहला रख्खा है ---

ग़ज़ल :005

दिल को यूँ बहला रखा है
दर्द का नाम दवा रखा है !

आओ प्यार की बातें कर लें
इन बातों में क्या रखा है !

झिलमिल-झिलमिल करती आँखें
जैसे एक दिया रखा है !

अक़्ल ने अपनी मजबूरी का
थक कर नाम ख़ुदा रखा है !

मेरी सूरत देखते क्या हो ?
सामने आईना रखा है !

राहे-वफ़ा के हर काँटे पर
दर्द का इक क़तरा रखा है

अब आए तो क्या आए हो ?
आह ! यहाँ अब क्या रखा है !

अपने दिल में ढूँढो पहले
तुमने खु़द को छुपा रखा है

अब भी कुछ है बाक़ी प्यारे?
कौन सा ज़ुल्म उठा रखा है !

’सरवर’ कुछ तो मुँह से बोलो
यह क्या रोग लगा रखा है ?

-सरवर-

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

ग़ज़ल 004 : दिल दुखाए कभी, जाँ जलाए कभी--

ग़ज़ल ०४

दिल दुखाए कभी ,जाँ जलाए कभी, हर तरह आज़माए तो मैं क्या करूँ ?
मैं उसे याद करता रहूँ हर घड़ी , वो मुझे भूल जाए तो मैं क्या करूँ ?

हाले-दिल गर कहूँ मैं तो किस से कहूँ,और ज़बाँ बन्द रखूँ तो क्यों कर जियूँ ?
यह शबे-इम्तिहां और यह सोज़े-दुरूं ,खिरमने-दिल जलाए तो मैं क्या करूँ ?

मैने माना कि कोई ख़राबी नहीं , पर करूँ क्या तबियत ’गुलाबी’ नहीं
मैं शराबी नहीं ! मैं शराबी नहीं ! वो नज़र से पिलाए तो मैं क्या करूँ ?

सोज़े-हर दर्द है , साज़े-हर आह है , गाह बे-कैफ़ हूँ सरखुशी गाह है
मेरी हर आह में इक निहाँ वाह है ,इश्क़ जादू जगाए तो मैं क्या करूँ ?

कुछ ये खुद-साख़्ता अपनी मजबूरियाँ ,कुछ ज़माने की सौगा़त मेह्जूरियाँ
और उस पर कि़यामत कि ये दूरियाँ,चैन एक पल न आए तो मैं क्या करूँ ?

मुझको दुनिया से कोई शिकायत नहीं , झूठ बोलूँ मिरी ऐसी आदत नहीं
ये हक़ीक़त है यारो ! हिकायत नहीं ,बे-सबब वो सताए तो मैं क्या करूँ ?

ज़हमते - ज़ीस्त है ,दौर-ए-अय्याम है , ना-मुरादी मिरा दूसरा नाम है
क्यों ग़मे-मुस्तक़िल मेरा अन्जाम है,जब क़ियामत ये ढाए तो मैं क्या करूँ ?

ख़ुद ही मैं अक़्स हूँ ,ख़ुद ही आईना हूँ ,मैं बला से ज़माने पे ज़ाहिर न हूँ
हाँ ! छुपूँ गर मैं ख़ुद से तो कैसे छुपूँ यह ख़लिश जो सताए तो मैं क्या करूँ ?

शायरी मेरी ’सरवर’ ये तर्ज़े-बयाँ ,यह तग़ज़्ज़ल , तरन्नुम ,यह हुस्ने-ज़बाँ
सब अता है ज़हे मालिक-ए-दो जहाँ! गर किसी को न भाए तो मैं क्या करूँ ?
-सरवर-

ज़हमते-ज़ीस्त =ज़िन्दगी के झमेले सोज़े-दुरूँ =दूरियों की तपिश/जलन
नामुरादी =असफलताएँ ख़िरमन-ए-दिल = दिल का पैदावार
बेसबब =बिना मतलब बे-कैफ़ = चिन्ता ग्रस्त
ग़मे-मुस्तक़िल = स्थाई ग़म सरखुशी =हलका नशा
निहाँ =छिपा हुआ ख़ुद-साख़्ता= अपनी बनाई हुई
महजूरियाँ =वियोग/विरह हिकायत = कथा-कहानी
दौर-अय्याम = समय का फ़ेर तग़ज़्ज़ल =ग़ज़लीयत

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

एक ज़मीन तीन शायर : ’ग़ालिब’ ’दाग़’ और ’अमीर’ मिनाई

एक ज़मीन तीन शायर : ’ग़ालिब’ ’दाग़’ और ’अमीर’ मिनाई
-सरवर आलम राज़ ’सरवर’


हम सब मिर्ज़ा ’ग़ालिब’ की मशहूर ग़ज़ल " ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता’ से बाख़ूबी वाक़िफ़ हैं.न सिर्फ़ इस को सैकड़ो बार पढ़ चुके है बल्कि कितने ही गुलू-कारों ने अपनी आवाज़ के जादू से इस को जाविदां बना दिया है.ये ग़ज़ल अपने ज़माने में भी काफी मक़्बूल हुई थी."अमीर" मिनाई के शागिर्द मुमताज़ अली ’आह’ने अपनी किताब
"सीरत-ए-अमीर अहम्द ’अमीर’ मिनाई " में लिखा है कि गो मिर्ज़ा का कलाम जिन अनमोल जवाहरों से मलामाल है उन के सामने ये ग़ज़ल कुछ ज़ियादा आब-ओ-ताब नहीं रखती मगर इस का बहुत चर्चा और शोहरत थी.अमीर’ मिनाई उस ज़माने में(लगभग १८६० में) नवाब युसुफ़ अली ख़ान’नाज़िम’ वाली-ए-रामपुर के दरबार से मुन्सलिक थे.नवाब साहेब की फ़रमाईश पर उस ज़माने एमं उन्होने भी एक ग़ज़ल कही थी.जो ग़ज़ल-१ के तहत नीचे दी गई है."अमीर’मिनाई बहुत बिसयार-गो थे(यानी लम्बी लम्बी ग़ज़लें लिखा करते थे).उन्होने इसी ज़मीन में एक और ग़ज़ल भी कही थी.जो यहाँ "ग़ज़ल-२" के नाम से दी जा रही है.मिर्ज़ा ’दाग़’ ने भी नवाब रामपुर की फ़रमाईश पर इसी ज़मीन में ग़ज़ल कही थी.वो भी पेश-ए-ख़िदमत है. !उम्मीद है कि यह पेश-कश आप को पसन्द आयेगी.

मिर्ज़ा अस्दुल्लाह खान ’ग़ालिब’
यह न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तिज़ार होता !

तिरे वादे पे जिए हम तो यह जान झूट जाना
कि खु़शी से मर न जाते अगर ऐतिबार होता

तिरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था अह्द बूदा
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तवार होता

कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीमकश को
यह ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता ?

यह कहाँ कि दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारा साज़ होता, कोई ग़म गुसार होता !

रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो वो अगर शरार होता

ग़मअगर्चे जां गुसल है पे कहाँ बचें कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ,ग़म-ए-रोज़गार होता !

कहूँ किस से मैं कि क्या है,शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता !

हुए मर के हम जो रुस्वा,हुए क्यों न ग़र्क़-ए-दर्या
न कभी जनाज़ा उठता ,न कहीं मज़ार होता

उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकता
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़ ,ये तिरा बयान ’ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता

विसाले-ए-यार = प्रेमिका से मिलन तीरे-ए-नीमकश = आधा खिंचा हुआ तीर
अह्द = प्रतिग्या ख़लिश = दर्द
उस्तुवार = पक्का चारासाज़ =उपचार करने वाला
ग़मगुसार =ग़म में सहानुभूति दिखाने वाला रग-ए-संग =पत्थर की नस
जां गुसिल = जान लेने वाला यगाना/यकता = एक ही ,अद्वितीय
मसाइल-ए-तसव्वुफ़= अध्यात्मिकता की समस्यायें
बादाख़्वार =शराबी नासेह =प्रेम त्याग का उपदेश देने वाला
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नवाब मिर्ज़ा ख़ान "दाग़’ देहलवी
अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता

कोई फ़ित्ना ता-क़ियामत ना फिर आशकार होता
तिरे दिल पे काश ज़ालिम मुझे इख़्तियार होता

जो तुम्हारी तरह हमसे कोई झूटे वादे करता
तुम्हीं मुन्सिफ़ी से कह दो ,तुम्हें ऐतिबार होता

ग़म-ए-इश्क़ में मज़ा था जो उसे समझ के खाते
ये वो ज़हर है कि आख़िर मय-ए-ख़ुशगवार होता

न मज़ा है दुश्मनी में ,न ही लुत्फ़ दोस्ती में
कोई गै़र गै़र होता ,कोई यार यार होता !

ये मज़ा था दिल लगी का,कि बराबर आग लगती
न तुझे क़रार होता ,न मुझे क़रार होता

तिरे वादे पर सितमगर ! अभी और सब्र करते
अगर अपनी ज़िन्दगी का हमें ऐतिबार होता

ये वो दर्द-ए-दिल नहीं है कि हो चारासाज़ कोई
अगर एक बार मिटता तो हज़ार बार होता

गये होश तेरे ज़ाहिद !जो वो चश्म-ए-मस्त देखी
मुझे क्या उलट न देता जो न बादा-ख़्वार होता ?

मुझे मानते सब ऐसा कि उदू भी सजदा करते
दर-ए-यार काबा बनता जो मिरा मज़ार होता

तुझे नाज़ हो ना क्योंकर कि लिया है ’दाग’ का दिल
ये रक़म ना हाथ लगती,ना ये इफ़्तिख़ार होता !
फ़ित्ना = फ़साद उदू =बड़े लोग भी
आशकार = जाहिर होना रक़म =धन-दौलत
इफ़्तिख़ार = मान-सम्मान
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अमीर अहमद ’अमीर’ मिनाई


ग़ज़ल - १
मिरे बस में या तो यारब ! वो सितम-शि’आर होता
ये न था तो काश दिल पर मुझे इख़्तियार होता !

पस-ए-मर्ग काश यूँ ही मुझे वस्ल-ए-यार होता
वो सर-ए- मज़ार होता ,मैं तह-ए-मज़ार होता !

तिरा मयक़दा सलामत ,तिरे खु़म की ख़ैर साक़ी !
मिरा नश्शा क्यूँ उतरता मुझे क्यूँ ख़ुमार होता ?

मिरे इत्तिक़ा का बाइस तो है मेरी ना-तवानी
जो मैं तौबा तोड़ सकता तो शराब-ख़्वार होता !

मैं हूँ ना-मुराद ऐसा कि बिलक के यास रोती
कहीं पा के आसरा कुछ जो उम्मीदवार होता

नहीं पूछता है मुझको कोई फूल इस चमन में
दिल-ए-दाग़दार होता तो गले का हार होता

वो मज़ा दिया तड़प ने कि यह आरज़ू है यारब !
मिरे दोनो पहलुओं में दिल-ए-बेक़रार होता

दम-ए-नाज़ भी जो वो बुत मुझे आ के मुँह दिखा दे
तो ख़ुदा के मुँह से इतना न मैं शर्मसार होता

जो निगाह की थी ज़ालिम तो फिर आँख क्यों चुरायी?
वो ही तीर क्यों न मारा जो जिगर के पार होता

मैं ज़बां से तुमको सच्चा कहो लाख बार कह दूँ
उसे क्या करूँ कि दिल को नहीं ऐतिबार होता

मिरी ख़ाक भी लहद में न रही ’अमीर’ बाक़ी
उन्हें मरने ही का अब तक नहीं ऐतिबार होता !

सितम-शि’आर =जुल्म करने की फ़ितरत पस-ए-मर्ग = मरने के बाद
इत्तिक़ा =संयम बाइस =वज़ह ,कारण
मलक =फ़रिश्ते लह्द-फ़िशार= मुसलमानों के धर्म के अनुसार पापी
मनुष्यों को क़ब्र बड़े ज़ोर से खींचती है


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ग़ज़ल - २

नयी चोटें चलतीं क़ातिल जो कभी दो-चार होता
जो उधर से वार होता तो इधर से वार होता

तिरे अक्स का जो क़ातिल! कभी तुझ पे वार होता
तो निसार होने वाला येही जाँ निसार होता

रही आरज़ू कि दो-दो तिरे तीर साथ चलते
कोई दिल को प्यार करता,कोई दिल के पार होता

तिरे नावक-ए-अदा से कभी हारता न हिम्मत
जिगर उसके आगे होता जो जिगर के पार होता

मिरे दिल को क्यूँ मिटाया कि निशान तक न रख़्खा
मैं लिपट के रो तो लेता जो कहीं मज़ार होता !

तिरे तीर की ख़ता क्या ,मिरी हसरतों ने रोका
ना लिपटतीं ये बलायें तो वो दिल के पार होता

मैं जियूँ तो किसका होकर नहीं कोई दोस्त मेरा
ये जो दिल है दुश्मन-ए-जां यही दोस्तदार होता

मिरे फूलों मे जो आते तो नये वो गुल खिलाते
तो कलाईयों में गजरे तो गले में हार होता

तिरे नन्हें दिल को क्यों कर मिरी जान मैं दुखाता
वो धड़कने क्या न लगता जो मैं बेक़रार होता ?

मिरा दिल जिगर जो देखा तो अदा से नाज़ बोला
यह तिरा शिकार होता ,वो मिरा शिकार होता

सर-ए-क़ब्र आते हो तुम जो बढ़ा के अपना गहना
कोई फूल छीन लेता जो गले का हार होता

दम-ए-रुख़्सत उनका कहना कि ये काहे का है रोना ?
तुम्हें मिरी क़समों का भी नहीं ऐतिबार होता ?

मैं निसार तुझ पे होता तो रक़ीब जान खोता
मैं तिरा शिकार होता ,वो मिरा शिकार होता

शब-ए-वस्ल तू जो बेख़ुद नो हुआ ’अमीर’ चूका
तिरे आने का कभी तो उसे इन्तिज़ार होता !

नावक-ए-अदा =तीर चलाने का अंदाज़

==================
समाप्त
प्रस्तुतकर्ता : आनन्द.पाठक

रविवार, 3 जनवरी 2010

ग़ज़ल 003 : दिल ही दिल में डरता हूँ

ग़ज़ल ०३


दिल ही दिल में डरता हूँ कुछ तुझे ना हो जाए
वरना राह-ए-उल्फ़त में जाए जान तो जाए

मेरी कम नसीबी का हाल पूछते क्या हो
जैसे अपने ही घर में राह कोई खो जाए

गर तुम्हे तकल्लुफ़ है मेरे पास आने में
ख़्वाब में चले आओ यूँ ही बात हो जाए

झूठ मुस्कराए क्या आओ मिल के अब रो लें
शायरी हुई अब कुछ गुफ़्तगू भी हो जाए

ये भी कोई जीना है?खाक ऐसे जीने पर
कोई मुझ पे हँसता है ,कोई मुझको रो जाए

मेरे दिल के आँगन में किस क़दर अँधेरा है
काश ! चाँदनी बन कर कोई इसको धो जाए

याद एक धोखा है ,याद का भरोसा क्या
तुम्ही खु़द यहाँ आकर ,याद से कहो जाए

देख कर चलो ’सरवर’! जाने कौन उल्फ़त में
फूल तुमको दिखला कर ,ख़ार ही चुभो जाए

-सरवर-
तकल्लुफ़ =तकलीफ़
खार = काँटा