मंगलवार, 12 जनवरी 2010

ग़ज़ल 005 : दिल को यूँ बहला रख्खा है ---

ग़ज़ल :005

दिल को यूँ बहला रखा है
दर्द का नाम दवा रखा है !

आओ प्यार की बातें कर लें
इन बातों में क्या रखा है !

झिलमिल-झिलमिल करती आँखें
जैसे एक दिया रखा है !

अक़्ल ने अपनी मजबूरी का
थक कर नाम ख़ुदा रखा है !

मेरी सूरत देखते क्या हो ?
सामने आईना रखा है !

राहे-वफ़ा के हर काँटे पर
दर्द का इक क़तरा रखा है

अब आए तो क्या आए हो ?
आह ! यहाँ अब क्या रखा है !

अपने दिल में ढूँढो पहले
तुमने खु़द को छुपा रखा है

अब भी कुछ है बाक़ी प्यारे?
कौन सा ज़ुल्म उठा रखा है !

’सरवर’ कुछ तो मुँह से बोलो
यह क्या रोग लगा रखा है ?

-सरवर-

2 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात है..इतनी बेहतरीन ग़ज़ल बाँटने के लिये शुक्रिया..पहले क्यों नही पढ़ा इसे मैने..
    खासतौर पर यह शेर

    अक़्ल ने अपनी मजबूरी का
    थक कर नाम ख़ुदा रखा है !

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  2. bahut khoob! sarwar ji ke andaz mirza Daagh saab jaisa hai. bahut khoob!!
    kya saadgii hai...
    अब आए तो क्या आए हो ?
    आह ! यहाँ अब क्या रखा है !
    wahwa!! ..shukria

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