शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

ग़ज़ल 030 : कभी तुझ पे तेरी निगाह

ग़ज़ल  030: कभी तुझ पे तेरी निगाह है ......

कभी तुझ पे मेरी निगाह है कभी खु़द से मुझको ख़िताब है
कोई ये बताये है राज़ क्या यहाँ कौन ज़ेर-ए-निक़ाब है

मुझे तू ही काश ! बता सके यह करम है या कि इताब है
कभी रंग-ए-इश्वा-ओ-नाज़ है ,कभी बे-नियाज़ी का बाब है

ज़रा सोच तो सही नासिहा ! भला तुझ में मुझ में है फ़र्क़ क्या !
मुझे फ़िक्र-ए-शाम-ए-फ़िराक़ है ,तुझे ख़ौफ़-ए-रोज़-ए-हिसाब है

कभी इस तरह ,कभी उस तरह मिरा इम्तिहान हुआ किया
इसी फ़िक्र में कटी ज़िन्दगी कि ये कैसा मेरा निसाब है ?

ये जहां हो या वो जहान हो कोई इन को ले के करेगा क्या
यह है रेग्ज़ार-ए-गुरेज़पा ,तो वो कारवान-ए-सराब है

तब-ओ-ताब-ए-शेवा-ए-दिलबरी! तब-ओ-ताब-ए-शेवा-ए-दिलबरी!
"न पयाम है ,न सलाम है ,न सवाल है,न जवाब है"

कभी इस तरफ़ भी उठा नज़र ,तुझे अपनी भी है कोई ख़बर?
नहीं चश्म-ए-तार ,है यह आईना !मिरा दिल नहीं यह किताब है!

कोई लाख तुझ को कहे बुरा न ग़मीं हो "सरवर"-ए-बे-नवा
यह फ़राज़-ए-दार-ए-अना ही तो तिरे हक़ में कार-ए-सवाब है !

-सरवर

ख़िताब =सम्मान/इज्ज़त
करम =मेहरबानी
इताब =गुस्सा
बाब =अध्याय
इश्वा =मोहिनी की हाव-भाव
नासिहा =उपदेशक
निसाब =धन-दौलत/जमा-पूँजी
रेग्ज़ार-ए-गुरेजपा =भाग-दौड़/पलायन
कारवान-ए-सराब =मीरीचिका का सफ़र
बे-नवा =दरिद्र/कंगाल/दीन-हीन
तब-ओ-ताब-ए-शेवा-ए-दिलबरी= दिलबरी के तरीके की (प्रेम की)गर्मी
कार-ए-सवाब = दान-पुण्य का काम
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शनिवार, 11 सितंबर 2010

ग़ज़ल 029 : आशना थे ख़ुद से--

ग़ज़ल 029 : आश्ना थे ख़ुद से ......



आश्ना थे ख़ुद से ,फिर ना-आश्ना होते गये
हो भला इस इश्क़ का,हम क्या से क्या होते गये!

अश्क़-ए-ग़म बहते रहे और नक़्श-ए-पा होते गये
ज़िन्दगी के कर्ज़ सारे यूँ अदा होते गये

ना-रसाई का फ़साना क्या कहें,किससे कहें ?
मंज़िलें आयीं तो हम बे-दस्त-ओ-पा होते गये

इत्तिफ़ाकन अपनी हालत पर नज़र जब जब पड़ी
हम निगाहों में ख़ुद अपनी बे-रिदा होते गये

रेग्ज़ार-ए-आरज़ू में वक़्त वो हम पर पड़ा
राहज़न चेहरे बदल कर रहनुमा होते गये

अहल-ए-दुनिया की ज़रा देखो करम-फ़र्माइयां
आड़ में ईमां की बन्दे भी खु़दा होते गये

इश्क़ में बेताबियों की लज़्ज़तें मत पूछिए
नाला-हाये आरज़ू हर्फ़-ए-दुआ होते गये

ये कहो "सरवर" तुम्हारी इन्किसारी क्या हुई?
तुम भी दुनिया की तरह क्यों ख़ुद-नुमा होते गये?

-सरवर
बे-रिदा = बिना चादर के
ना-रसायी का =असफलता का
बे-दस्त-ओ-पा =असमर्थ/लाचार
रेग्ज़ार-ए-आरज़ू = इच्छाओं के रेगिस्तान में
इन्किसारी =ख़ाकसारी/विनम्रता
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शनिवार, 21 अगस्त 2010

ग़ज़ल 028 : रोज़-ओ- शब इस में --

ग़ज़ल 028 : रोज़-ओ-शब इस में .....


रोज़-ओ-शब इस में बपा शोर-ए-कि़यामत क्या है ?
ये मिरा दिल है कि आईना-ए-हैरत ? क्या है ?

बात करने में बताओ तुम्हें ज़हमत क्या है?
इक नज़र भी न उठे ,ऐसी भी आफ़त क्या है.?

जान कर तोड़ दिया रिश्ता-ए-दाम-ए-उम्मीद
"आज मुझ पर यह खुला राज़ कि जन्नत क्या है"

नाला-ए-नीम-शबी , आह-ओ-फ़ुग़ां-ए-सेहरी
गर नहीं है यह इबादत, तो इबादत क्या है?

मुझ को आग़ाज़-ए-मुहब्बत से ही फ़ुर्सत कब है?
क्या बताऊँ तुझे अंजाम-ए-मुहब्बत क्या है?

"मीर"-ओ-’इक़्बाल’से,"ग़ालिब"से ये पूछें साहेब!
शायरी चीज़ है क्या ,शे’र की अज़मत क्या है

जब से मैं दीन-ए-मुहब्बत में गिरिफ़्तार हुआ
कुफ़्र-ओ-ईमान की ,वल्लाह ! हक़ीक़त क्या है?

हम ग़रीबों पे जो दस्तूर-ए-ज़बां-बन्दी है
कोई मजबूरी है तेरी कि है आदत ? क्या है?

हर्फ़-ओ-मानी हुए बे-रब्त ,क़लम टूट गया
मंज़िल-ए-शौक़ में ये आलम-ए-वहशत क्या है?

डूब कर ख़ुद में पता ये चला ,हर सू तू है !
हम-नशीं ! तफ़्रक़ा-ए-जल्वत-ओ-ख़ल्वत क्या है?

काम से रखता हूँ काम अपना सदा ही यारो !
मुझको दुनिया से भला फिर ये शिकायत क्या है?

एक पल चैन नहीं "सरवर’-ए-बदनाम तुझे !
कुछ तो मालूम हो आख़िर तिरी नियत क्या है?

-सरवर-
अज़्मत =महत्व
दीन-ए-मुहब्बत =मुहब्बत का धर्म
हर्फ़-ओ-मानी =शब्द और अर्थ ,कथन और भाव
बे-रब्त =बिना संबंध के,आपस में बिना ताल-मेल के
हर-सू =हर तरफ़
तफ़र्क़ा = फ़र्क़
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शनिवार, 17 जुलाई 2010

ग़ज़ल 027 : मुझे ज़िन्दगी पे अपनी ....

ग़ज़ल  027 : मुझे ज़िन्दगी पे अपनी अगर ....

मुझे ज़िन्दगी पे अपनी अगर इख़्तियार होता
तो मैं राह-ए-आरज़ू में यूँ खराब-ख़्वार होता ?

तुझे मेरा ,मुझ को तेरा अगर ऐतिबार होता
न तू शर्मसार करता ,न मैं शर्मसार होता !

किया तूने ये गज़ब क्या, दिया खोल राज़-ए-हस्ती?
न मैं आशकार होता ,न तू आशकार होता !

ग़म-ए-आरज़ू में जां पर मिरी यूँ अगर न बनती
कोई और तेरा साथी ,दिल-ए-बेक़रार ! होता ?

सर-ए-बज़्म मेरी जानिब जो तू उठती गाह गाहे
मुझे तुझ से शिकवा फिर क्यूँ ऐ निगाह-ए-यार!होता?

न मैं तुझसे आश्ना हूँ, न ही ख़ुद से बा-ख़बर हूँ
ये मज़े कहाँ से मिलते अगर होशियार होता ?

मिरी फ़िक्र दिल-कुशा है मिरी बात बे-रिया है
तुझे फिर भी ये गिला है मैं वफ़ा शि’आर होता

है ख़ता यह इश्क़ लेकिन ,ये गुनाह तो नहीं है!
मैं ख़ता से तौबा करता तो गुनहगार होता !

ग़म-ए-आशिक़ी हुआ है ग़म-ए-ज़िन्दगी में शामिल
: मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता :!

तिरी इक ग़ज़ल भी ’सरवर’ किसी काम की जो होती
तो ज़रूर शायरों में तिरा भी शुमार होता !

-सरवर-
ख़्वार =दीन-हीन
आश्कार =सरे आम ,जाहिर
गाहे-गाहे =कभी-कभी
दिल-कुशा =मनोहर
बे-रिया =मुख़्लिस.दिल का साफ
वफ़ा-शि’आर=वफ़ा करने वाला

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शनिवार, 10 जुलाई 2010

गज़ल 026 : इलाही हो गया आखिर

ग़ज़ल  026: इलाही!हो गया क्या आख़िर इस ज़माने को ?


इलाही!हो गया क्या आख़िर इस ज़माने को ?
समझ रहा है कहानी मिरे अफ़साने को !

ख़याल-ओ-ख़्वाब की बस्ती अजीब बस्ती है
हज़ार बार बसायी ,मगर मिटाने को !

दिलाओ याद पुरानी ,दुखाओ मेरा दिल
कोई तो अपना हो दिल-बस्तगी जताने को !

तिरी तलाश में अपनी ही राह भूल गया
ख़ुदा ही समझे दिल-ए-ज़ार से दिवाने को

न आरज़ू ,न तमन्ना,न हसरत-ओ-उम्मीद
मुझे जगह न मिली फिर भी सर छुपाने को

गुमां से आगे जो बढ़ कर यकीन तक पहुँचा
पता चला कि तमाशा है सब दिखाने को

मैं और ग़ैर का रहम-ओ-करम? मआज़ अल्लाह!
उठूँ और ख़ुद ही जला डालूँ आशियाने को

बना बना के तमन्ना मिटाई जाती है
कहाँ से लाऊँ जी,"सरवर" मैं मुस्कराने को ?

-सरवर
दिल-बस्तगी =दिल बहलाना
दिल-ए-ज़ार =रोता हुआ दिल
म’आज़-अल्लाह =ख़ुदा ख़ैर !

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ग़ज़ल 027 : सब मिट गये, माँगे है मगर तेरी नज़र और



सब मिट गये, माँगे है मगर तेरी नज़र और
अब लायें कहाँ से बता दिल और ,जिगर और?

कम ख़ाक-ऐ-ग़रीबां-ए-मुहब्बत को न जानो
उठ्ठेंगे इसी ख़ाक से कल ख़ाक-ब-सर और

हर ज़र्रे में बस एक ही ज़र्रा नज़र आये
गर चश्म-ए-तमाश को मिले हुस्न-ए-नज़र और

कब बैठ सके मंज़िल-ए-हस्ती को पहुँच कर
आगे जो बड़ा इस से है वो एक सफ़र और

दुनिया में मुहब्बत की कमी है तो बला से
आबाद-ए-मुहब्बत करें आ ! शाम-ओ-सहर और

क्या तुमको तकल्लुफ़ है मिरी चारागरी में ?
इक तीर-ए-नज़र,तीर-ए-नज़र,तीर-ए-नज़र और

ये क्या कि फ़कत ख़ार ही क़िस्मत में लिखे हैं
ऐ खाना-बरन्दाज़-ए-चमन !कुछ तो इधर और

"सरवर" की कटी किस तरह आख़िर शब-ए-हि्ज्रां ?
कुछ तू ही बता क़िस्स-ए-ग़म दीदा-ए-तर! और !

-सरवर
गरीबां-ए-मुहब्बत =मुहब्बत के मारे लोग
ख़ाक-ब-सर = सर में मिट्टी डाले हुए,दीवाने
ख़ाना-बरअंदाज़-ए-चमन ! = चमन को उजाड़ने वाला

शनिवार, 19 जून 2010

ग़ज़ल 025 : कहने को यूँ तो ज़िन्दगी

ग़ज़ल  025 : कहने को यूँ तो ज़िन्दगी ...........

कहने को यूँ तो ज़िन्दगी अपनी ख़राब की
लेकिन है बात और ही अह्द-ए-शबाब की !

इज़हार-ए-शौक़ पर ये निगाहें इताब की ?
"जो बात की ख़ुदा की क़सम ! ला-जवाब की"!

याँ जान पर बनी है मुहब्बत के फेर में
और आप को पड़ी है हिसाब-ओ-किताब की

क्या पूछते हो उम्र-ए-गुरेज़ां की कायनात
"दो करवटें थीं आलम-ए-ग़फ़लत में ख़्वाब की"

हम रोज़-ए-हश् र होंगे जो मस्रूफ़-ए-दीद-ए-यार
फ़ुर्सत किसे मिलेगी सवाल-ओ-जवाब की ?

देखा क़रीब से तो वहाँ और रंग था
तारीफ़ सुनते आये थे हम आँ-जनाब की !

उक़्बा की कौन फ़िक्र करे ,मेरे इश्क़ ने
दुनिया ख़राब की ,मेरी दुनिया ख़राब की !

ग़ैरों में ख़्वार है तो वो अपनों में ना-मुराद
क्या पूछते हो "सरवर"-ए-इज़्ज़त-मआब की !

-सरवर
निगाह-ए-इताब =गुस्से से भरी आँख
उम्र-ए-गुरेजा =भागती हुई ज़िन्दगी
उक़्बा =परलोक
इज़्ज़त-ए-म’आब =इज़्ज़तदार

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शनिवार, 5 जून 2010

ग़ज़ल 024 :क्या तमाशा देखिये .....

ग़ज़ल 024: क्या तमाशा देखिये .....

क्या तमाशा देखिए तहसील-ए-लाहासिल में है
एक दुनिया का मज़ा दुनिया-ए-आब--ओ-गिल में है

देख ये जज़्ब-ए-मुहब्बत का करिश्मा तो नहीं
कल जो तेरे दिल में था वो आज मेरे दिल में है

मैं भला किस से कहूँ ,क्या क्या कहूँ ,कैसे कहूँ ?
मौत से पहले ही मर जाने की ख़्वाहिश दिल में है

मौज-ओ-शोरिश,इन्क़िलाब-ओ-इज़्तिराब-ओ-रुस्त-ओ-ख़ेज़
है मज़ा साहिल में कब जो दूरी-ए-साहिल में है

झाँक कर दिल में ज़रा यह तो बता दीजिए ,हुज़ूर !
मेरी कि़स्मत का सितारा कौन सी मंज़िल में है?

मुझको भाता ही नहीं इक आँख हुस्न-ए-कायनात
हाँ ! मगर वो जो तिरे रुख़्सार के इक तिल में है !

कर दिया बेगाना-ए-ग़म्हा-ए-दुनिया इश्क़ ने
मुझको आसानी यही तो अपनी इस मुश्किल में है

तेरा माज़ी हाल से दस्त-ओ-गरेबां गर रहा
मैं बताता हूँ जो "सरवर" तेरे मुस्तक़्बिल में है

-सरवर

दुनिया-ए-आब-ओ-गिल = पानी और मिट्टी की यह दुनिया
तहसील-ए-ला-हासिल में =ऐसा काम जिसका नतीजा कुछ न हो
शोरिश = विफरना
रुस्त-ओ-खेज़ = उखाड़-पछाड़
दस्त-ओ-गरेबां रहना =झगड़ा करना/खींच-तान करना
इज़्तिराब =बेचैनी
कायनात = आकाश/ विस्तार
मुस्तक़्बिल = भविष्य

शनिवार, 22 मई 2010

ग़ज़ल 023 : इक ज़रा सी देर को --

ग़ज़ल 023 : इक ज़रा सी देर को ......


इक ज़रा सी देर को नज़रों में आने के लिए
तुम ने ’सरवर’ किस क़दर एहसान ज़माने के लिए !

इक तमन्ना, एक हसरत ,इक उम्मीद ,इक आरज़ू
है अगर कुछ तो यही है सर छुपाने के लिए

काम क्या आया दिल-ए-मुज़्तर मक़ाम-ए-ज़ीस्त में
एक दुनिया आ गई बातें बनाने के लिए

मेरी तन्हाई मिरे ग़म का मदावा बन गई
रात मैं खुद से मिला ,सुनने सुनाने के लिए

वक़्त जैसा भी गुज़र जाए ग़नीमत जानिए
क्या ख़बर कल आये कैसा आज़माने के लिए

बारगाह-ए-इश्क़ में है आजिज़ी मेराज-ए-शौक़
सर झुकाना है ज़रूरी सर उठाने के लिए

वो निगाह-ए-शर्मगीं और वो तबस्सुम ज़ेर--ए-लब !
इक सताने के लिए ,इक आज़माने के लिए

अहल-ए-दुनिया को कोई मिलता नहीं क्या दूसरा ?
रह गया हूँ मैं ही "सरवर" यूँ सताने के लिए ?

-सरवर
दिल-ए-मुज़्तर =बेचैन दिल
आजिज़ी =विनम्रता


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शनिवार, 15 मई 2010

ग़ज़ल 022 : हम हुए गर्दिश-ए-दौरां.....

ग़ज़ल 022

हम हुए गर्दिश-ए-दौरां से परेशां क्या क्या !
क्या था अफ़्साना-ए-जां और थे उन्वां क्या क्या !

हर नफ़स इक नया अफ़्साना सुना कर गुज़रा
दिल पे फिर बीत गयी शाम-ए-ग़रीबां क्या क्या !

तेरे आवारा कहाँ जायें किसे अपना कहें ?
तुझ से उम्मीद थी ऐ शहर-ए-निगारां क्या क्या !

बन्दगी हुस्न की जब से हुई मेराज-ए-इश्क़
सज्दा-ए-कुफ़्र बना हासिल-ए-ईमां क्या क्या !

फ़ासिले और बढ़े मंज़िल-ए- गुमकर्दा के
और हम करते रहें ज़ीस्त के सामां क्या क्या !

धूप और छाँव का वो खेल ! अयाज़न बिल्लाह
रंग देखे तिरे ऐ उम्र-ए-गुरेजां क्या क्या !

हाय ये लज़्ज़त-ए-आज़ार-ए-शिकस्तापायी
हमने ख़ुद ढूँढ लिए अपने बयाबां क्या क्या !

हैफ़ "सरवर"! तुझे ऐय्याम-ए-ख़िज़ां याद नहीं
इश्क़ में है तुझे उम्मीद-ए-बहारां क्या क्या !

-सरवर
शहर-ए-निगारां =हसीनों का शहर
हासिल-ए-ईमां =ईमान(विश्वास)का नतीजा
गर्दिश-ए-दौरां =ज़माने का चक्कर
मंज़िल-ए-गुमकर्दा =खोई हुई मंज़िल
इयाज़न बिल्लाह =ख़ुदा खै़र करे !
लज़्ज़त-ए-आज़ार-ए-शिकस्तापायी=पाँवों के टूटने की तकलीफ़ का मज़ा

गुरुवार, 6 मई 2010

ग़ज़ल 021 : वो तसव्वुर में ...

ग़ज़ल 021

वो तसव्वुर में भी मुझ पर मेहरबां होता नहीं
रब्त आख़िर क्यों हमारे दरमियां होता नहीं ?

दिल पे जो गुज़रे है नज़रों से अयां होता नहीं
हाये क्या कीजिए कि क़िस्सा ये बयां होता नहीं

आशिक़ी में मातम-ए-आशुफ़्तगां होता नहीं ?
आप ही कह दें कि ऐसा कब कहाँ होता नहीं?

दिल बदलते देर क्या लगती है अहल-ए-देह्र को
क्या बतायें हम तुम्हें क्या क्या यहाँ होता नहीं

हम समझते थे कि फ़िक्र-ए-ज़िन्दगी मिट जायेगी
चारासाज़-ए-ज़ीस्त क्यों सोज़-ए-निहाँ होता नहीं

एक दुनिया देखिये नग़्मा-सरा-ए-ऐश है
क्यों ग़म-ए-इंसां में कोई नौहा-ख़्वां होता नहीं?

एक हर्फ़-ए-दिलदिही या इक निगाह-ए-इल्तिफ़ात
तुझ से इतना भी तो ऐ जान-ए-जहां होता नहीं

बे-तलब ही जान दे देते हैं अहल-ए-आरज़ू
सज्दा-ए-उल्फ़त रहीन-ए-सद-अज़ाँ होता नहीं

जान ही देनी है तो क्या हिज़्र और कैसा विसाल
आशिक़ी में तो ख़याल-ए-ईं-ओ-आं होता नहीं

इस क़दर मानूस दुनिया की सुख़न साज़ी से हूँ
बात सुन लेता हूँ लेकिन सर-गिरां होता नहीं

वहशत-ओ-आशुफ़्तगी में हद्द-ए-इम्कां से गुज़र
फ़ाश वरना हुस्न का सिर्र-ए-निहां होता नहीं

वक़्त वो आया है जब कोई नहीं पुरसान-ए-हाल
तेरी सूरत पर भी अब तेरा गुमां होता नहीं

क्या गया मेरा दिल -ए-बेताब हाथों से निकल ?
कल जहाँ था दर्द प्यारे ! अब वहाँ होता नहीं

आ ही जाता है लबों पर शिकवा-ए-आज़ूर्दगी
दिल दु्खे "सरवर" तो फिर ज़ब्त-ए-फ़ुगां होता नहीं

-सरवर
तसव्वुर = ध्यान में
रब्त =सम्बन्ध
अयाँ =जाहिर
आशुफ़्तगां =दुखी लोग
नग़्मा-सरा-ए-ऐश =ख़ुशी के गीत गाने वाले
अहल-ए-देह्र =दुनिया वाले
नौहा-ख़्वां =मातम करने वाला
ज़ब्त-ए-फ़ुगां =रोने पर क़ाबू
रहीन-ए-सद-अज़ां =सौ (१००) अज़ानों की वज़ह से
सर्र-ए-निहाँ =छुपी हुई बात.राज़,भेद
हर्फ़-ए-दिलदिही =सान्त्वना के दो बोल
निगाह-ए-इल्तिफ़ात =प्यार में कनखियों से देखना
ईं-ओ-आँ = ये और वो
मानूस =माना हुआ ,जानकार
सर-गिरां = नाख़ुश/ख़फ़ा
वहशत-ए-आशुफ़्तगी = (इश्क़ में) पागलपन और परेशानी
हद्द-ए-इम्कां =संभावनाओं की हद तक
पुरसान-ए-हाल =हाल-चाल पूछने वाला
शिकवा-ए-आज़ूर्दगी = उदासी की शिकायत

शनिवार, 1 मई 2010

गज़ल 020 : बयान-ए-हुस्न-ओ-शबाब

ग़ज़ल  020 :बयान-ए-हुस्न.....

बयान-ए-हुस्न-ओ-शबाब होगा
तो फिर न क्यों इज़्तिराब होगा ?

ख़बर न थी अपनी जुस्तजू में
हिजाब-अन्दर-हिजाब होगा !

कहा करे मुझको लाख दुनिया
सुकूत मेरा जवाब होगा

किसे ख़बर थी दम-ए-शिकायत
वो इस तरह आब-आब होगा ?

मैं ख़ुद में रह रह कर झाँकता हूँ
‘ कभी तो वो बे-नका़ब होगा !

किताब-ए-हस्ती पलट के देखो
कहीं ख़ुद का भी बाब होगा

न मुँह से बोलो, न सर से खेलो
अब और क्या इन्क़लाब होगा ?

करम तिरा बे-करां अगर है
मिरा गुनह बे-हिसाब होगा

वफ़ा की उम्मीद और उन से ?
सराब आख़िर सराब होगा !

खड़ा हूँ दर पे तिरे सवाली
ये ज़र्रा कब आफ़्ताब होगा ?

रह-ए-मुहब्बत में जाने कब तक
अदा-ख़िराज-ए-शबाब होगा

हयात-ए-पेचां की उलझनों में
छुपा कहीं मेरा ख़्वाब होगा

रहा अगर हाल यूँ ही ’सरवर’
तो हस्र मेरा ख़राब होगा !

-सरवर-
दम-ए-शिकायत =शिकायत के वक़्त
इज़्तिराब =घबड़ाहट/बेचैनी
हिजाब-अन्दर-हिजाब =एक पर्दे के अन्दर दूसरा पर्दा
सुकूत =ख़ामोशी
आब-आब =शर्म के मारे पानी-पानी
बेकरां =असीम/अपार
हयात-ए-पेचां =पेचदार ज़िन्दगी
सराब =मृग-तृष्णा/मरीचिका
ख़िराज-ए-शबाब =जवानी का कर्ज़
हस्र =नतीजा

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

ग़ज़ल 019 : बेख़ुदी आ गई लेकर

ग़ज़ल  019: बेखु़दी आ गई लेकर कहाँ.......

बेखु़दी आ गई लेकर कहाँ ऐ यार मुझे ?
कर गई अपनी हक़ीक़त से ख़बरदार मुझे

ख़ूब कटती है जो मिल बैठे हैं दीवाने दो
उसको शमशीर मिली ,जुर्रत-ए-इज़हार मुझे

तेरी महफ़िल की फ़ुसूँ-साज़ियाँ अल्लाह!अल्लाह !
खेंच कर ले गई फिर लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे

सुब्ह-ए-उम्मीद है आइना-ए-शाम-ए-हसरत
आह अच्छे नज़र आते नहीं आसार मुझे !

मैं दिल-ओ-जान से इस हुस्न-ए-अता के क़ुर्बान
जल्वा-ए-हुस्न उसे ,हसरत-ए-दीदार मुझे

अल-अमान अल-हफ़ीज़ अपनों की करम-फ़र्मायी
बन गई राहत-ए-जां तोहमत-ए-अग़्यार मुझे

एक तस्वीर के दो रुख़ हैं ब-फ़ैज़-ए-ईमान
तवाफ़-ए-क़ाबा हो कि वो हल्क़-ए-ज़ुन्नार मुझे

मैं ज़माने से ख़फ़ा ,दुनिया है मुझ से नालां
इम्तिहां हो गई ये फ़ितरत-ए-ख़ुद्दार मुझे

साग़र-ए-मय ना सही दुर्द-ए-तहे-जाम सही
तिश्ना लब यूँ तो न रख साक़ी-ए-ख़ुश्कार मुझे!

मंज़िल-ए-दर्द में वो गुज़री है मुझ पर ’सरवर’
अब कोई मरहला लगता नहीं दुश्वार मुझे

-सरवर
फ़ुसूँ साजियाँ =जादू/मायाजाल
तोहमत-ए-अग़्यार =दुश्मनों के आरोप
लज़्ज़त-ए-आज़ार = तकलीफ़ के मज़े
तवाफ़-ए-काबा =काबा की परिक्रमा
दुर्द-ए-तहे-जाम = तलछट में बची शराब
मरहला =मंज़िल

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बुधवार, 21 अप्रैल 2010

ग़ज़ल 018 : न सोज़ आह में मेरी--

गज़ल 018 : न सोज़ आह में मिरी..............


न सोज़ आह में मिरी, न साज़ है दिल में
मैं लाऊँ कौन सी सौग़ात तेरी महफ़िल में ?

मैं आईना हूँ कि आईना-रू नहीं मालूम
ये वक़्त आया है इस आशिक़ी की मंज़िल में

ख़ुदी कहूँ कि इसे बेख़ुदी बताओ तुम
मैं अपने आप चला आया कू-ए-क़ातिल में

हमारे ज़ब्त ने रख्खा भरम ख़ुदाई का
ज़बां पे आ ही गई थी जो बात थी दिल में

न अपने दिल की कहो तुम ,न दूसरों की सुनो
अजीब रंग यह देखा तुम्हारी महफ़िल में

हरम के हैं ये शनासा ,न दैर से वाकि़फ़
रखा है क्या भला इन मुफ़्तियान-ए-कामिल में?

यक़ीं गुमान में बदला ,गुमां अक़ीदे में
हमें तो बस ये मिला तेरे ख़ाना-ए-गिल में

फ़राज़-ए-इश्क़ ने इस मर्तबे को पहुँचाया
रहा न फ़र्क़ कोई राह और मंज़िल में

ख़रोश-ए-मौजा-ए-तूफ़ां ने लाख दावत दी
उलझ के रह गये लेकिन फ़रेब-ए-साहिल में

अभी मिला भी न था हसरतों से छुटकारा
उम्मीद डाल गई आ के और मुश्किल में

कोई मुझे ’सरवर’ ! कहे न दीवाना
शुमार मुझको करो आशिक़ान-ए-कामिल में !

-सरवर-
सौग़ात = उपहार
ख़ाना-ए-गिल =(मिट्टी का घर),ये दुनिया
आइना-रू =आइना जैसा
शनासा =जाना-पहचाना
मुफ़्तीयाने-कामिल = पूरा मुफ़्ती
अक़ीदा =श्रद्धा/विश्वास
आशिक़ान-ए-कामिल = पूरा आशिक़
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रविवार, 18 अप्रैल 2010

गज़ल 017 : उम्मीद-ओ-आरज़ू मिरी.......

ग़ज़ल 017

उम्मीद-ओ-आरज़ू मिरी दमसाज़ बन गई
इक सोज़-ए-आशिक़ी बनी,इक साज़ बन गई !

सौदा न कम हुआ सर-ए-मक़्सूद-ए-आशिक़ी
क्या इन्तिहाये-आरज़ू आग़ाज़ बन गई ?

यारों !ये क्या हुआ कि सर-ए-बज़्म-ए-ज़िन्दगी?
जो भी ग़ज़ल कही ,शरार-अन्दाज़ बन गई !

कैसी तलाश ,किस की तमन्ना,कहाँ की दीद
ख़ुद मेरी ज़ात मेरे लिये राज़ बन गई !

वा-मांदगी-ए-बाल-ओ-पर-ए-फ़िक्र ?अल-अमां !
हद से बढ़ी तो हिम्मत-ए-परवाज़ बन गई

यूँ आश्ना-ए-कूचा-ए-आवारगी रहे
हर ना-मुरादी शौक़-ए-तग-ओ-ताज़ बन गई

जब मैनें बढ़ के उसकी नज़र को किया सलाम
झुक कर वो फ़ित्ना-ज़ा ग़लत अन्दाज़ बन गई !

"सरवर" ये फ़ैज़-ए-’राज़’ है कि तेरी शायरी
हुस्न-ए-सुख़न से गुलशन-ए-शिराज़ बन गई !

-सरवर-
दमसाज़ =दोस्त
सोज़-ए-आशिक़ी =प्रेमाग्नि
शरार-अन्दाज़ = चिंगारी जैसी अन्दाज़
गुलशने-शिराज़ = शिराज़ के बाग(इरान का एक शहर जो
अपने बागों के लिए मशहूर है

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

वाकियाती शायरी क्या है........किस्त ३(अंतिम किस्त)

[इस आलेख के २-भाग आप इसी ब्लोग पर पढ़ चुकें हैं ,प्रस्तुत है इस लेख की अन्तिम कड़ी)

(ब) इबारत क्या ! इशारत क्या ! अदा क्या !
मिर्ज़ा ग़ालिब का शे’र है
बला-ए-जां है उसकी हर बात
इबारत क्या ! इशारत क्या ! अदा क्या !

अब ज़रा ये अश’आर देखिये.इन पर तब्सिरा तहसील-ए-लाहासिल(कुछ कहना कुछ भी हासिल न होने ) की हैसियत रखता है.हर शे’र अपनी जगह एक बे-बहा नगीना है और ऐसी खूबसूरती का हामिल है कि उसको "ज़मीनी" शे’र कहने को बेसाख़्ता( बेहिचक) जी चाहता है.आप भी पढ़िए और सर धुनिये

इक कमीने की रोटियाँ खा कर
सख़्त बीमार हो गया हूँ मैं (प्रवीण कुमार ’अश्क)

रोग मत पाल ग़ज़ल का ऐ "अश्क’
तुझको यह लड़की न पागल कर दे (प्रवीण कुमार ’अश्क)

मिरे ही पास थे तख़्लीक़ के मन्सब सभी कल भी
मैं माँ हूँ किस तरह से मैं दर्द-ए-ज़ेह नहीं सकती (मसर्रत ज़ेबा)
ज़मीनी मसाइल और उनकी शिकायत से इन्कार नहीं है :दर्द-ए-ज़ेह: और वो भी ग़ज़ल में ? ला-हौल-वा-लाकुव्वत!(राम राम! राम !) मह्व-ए-हैरत हूँ( मैं तो हैरान हूँ)कि दुनिया क्या से क्या हो जायेगी !

यूँ तो सेहत मिरी रहती है बहुत ठीक मगर
एक तकलीफ़ है जल्दी मुझे होने वाली

अब्र उमड़ता हुआ आता है गुज़र जाता है (अब्र=बादल)
एक बारिश तो मुझे चाहिए होने वाली

फ़ँसना तो मछलियों का मुक़द्दर की बात है
दर्या में अपना जाल तो डाला ही करते हम

इस शहर से जो कूच ना करते अभी कुछ और (कूच=प्रस्थान)
लोगों की पगड़ियाँ तो उछाला ही करते हम

बे-ज़ायक़ा ही रह गया ख़्वान-ए-सुख़न ’ज़फ़र’
थोड़ा सा और तेज़ मसाला ही करते हम !

बहुत ज़ियादा ज़रूरी है मछलियों की तरह
ये रात-दिन मिरी आँखों का का आब में होना

ये अश’आर भी अपना जवाब आप ही हैं.अगर शायरी इसी का नाम है तो इसको दूर से ही सलाम करना बेहतर है

रौशनी का बदन हुआ रेज़ा
रूह पर गर्द रात का रेज़ा

आज ये किस ने दिल पे दस्तक दी
मेह्वर-ए-ज़ीस्त में अटा रेज़ा (मुहम्मद वसीम)

टूटे अगर हवा तो अन्धेरे का गुल झड़े
मक्तूब ले गई है सवेरे के नाम का (जावेद नासिर)

एक लट्टू की तरह घूम रहा हूँ अब तक
जैसे ख़ुद को किसी चक्कर से निकाला है कहीं

इन अश’आर को पढ़ कर हमारा सर भी लट्टू की तरह घूम रहा है.चूँकि इस सूरत-ए-हाल में बेहतरी की उम्मीद नहीं है इसलिए आइए अब आगे चलें !
(स) नातिक़ा सर-बा-गरेबाँ है
इस उन्वान के तहत जो अश’आर दिए गए हैं वो हर क़िस्म की तशरीफ़-ओ-तौज़ीह से बाला-तर हैं.इनकी अन्दरुनी नाज़ुक-ख़याली ,नुद्रत-ए-फ़िक्र-ओ-बयान,रदीफ़-ओ-क़वाफ़ी का ताल-मेल अपनी तफ़्सीर ख़ुद ही फ़राहम करते हैं.आप भी मुलाहिज़ा फ़र्माइए कि ये मस्वाक़ी बार बार कहाँ मयस्सर आते हैं

उलझे दाढ़ी चोटी में
खेलो फाग लंगोटी में

बिकते देखा है इन्सान
दो बोटी, दो रोटी में

आज ’मुज़फ़्फ़र’ चाँद हुए
कल तक थे कजलौटी में (मुज़फ़्फ़र हन्फ़ी)

ज़मीन कम है तो जा कर आसमां पर चूमना है
जहाँ वो हो नही सकता वहाँ पर चूमना है

जो ना-मुम्किन है वो मुम्किन भी हो सकता है इक दिन
कभी उस बे-निशां के हर निशां पर चूमना है

झलक हमको नज़र आती है इसमें साफ़ उनकी
हमें अपने ही रंग-ए-रायगां पर चूमना है.

हबाब-आसा अगर यह ज़िन्दगानी है तो हर वक़्त
किसी के मेहराम-ए-आब-ए-रवां पर चूमना है

मैं उसमें आप भी गायब सा होने लगता हूँ
गु़बार जो मिरे मेहताब से निकलता है

गु़रूब होता हूँ जब मैं खुले समन्दर में
वो बन्द होते हुए बाब से निकलता है

चिराग़ सा जो किसी बुतकदे में बुझता हूँ
दुआ दरीचा-ए-मेहराब से निकलता है

देखे जो मैने ख़्वाब वो चिल्ली के ख़्वाब थे
आँखों में फिर रही है वो यादों की कहकशाँ (समर टुकरवि)

ये भूख बीच में आख़िर कहाँ से आई है ?
ये रोटियाँ भी तिरे हैं ,शिकम भी तेरे हैं (अक़ील शादाब)

तुम्हारे बिन मिरा परदेश में अब दिल नहीं लगता
मैं दिन जाने की गिनती हूँ कैलेन्डर सामने रख कर (मसर्रत ज़ेबा)

(द) आते हैं गै़ब से ये मज़ामीन ख़याल में !
जैसे कि उन्वान से ज़ाहिर है ये अश’आर हमारे सर पर से गुज़र गये.!चूँकि इनकी इफ़्हाम-ओ-तफ़्हीम( समझने और समझाने) का ताल्लुक़ किसी और ही दुनिया से मालूम होता है हम इन पर तफ़्सीली राय देने से बिल्कुल क़ासिर हैं.अगर आप को भी यही परेशानी लाहक़ हो तो हम किसी वाक़ियाती शायर से इनकी तफ़्सीर और रुमूज़ हासिल करने की कोशिश करेंगे

बड़ी लतीफ़ थी वो बात जिस को सुनने से
लहू बदन में हुआ है उबाल-आमादा (ख़ालिद बसीर)

कब तक मैं किवाड़ों को लगाए हुए रखता ?
दिन उगते ही अहवाल-बयानी निकल आई (अहमद कमाल परवाज़ी)

मैं वाक़िफ़ हूँ तिरी चुप-गोईयों से
समझ लेता हूँ तेरी अनकही भी (सुलेमान ख़ुमार)
आजकल फ़ारसी का इल्म उमूमी तौर से ज़वाल-पज़ीर है.नए लिखने वाले ख़ास तौर से इसमें कमज़ोर हैं.ये बात ज़ाहिर है कि अच्छी शायरी के लिए थोड़ी बहुत फ़ारसी आनी चाहिए.इसका सुबूत हर अच्छे शायर के कलाम में मिल जायेगा.!लेकिन ऊपर के अश’आर में जो फ़ारसी के तराकीब इस्तेमाल की गई है वो ला-जवाब हैं.इनकी तख्लीक़ के लिए जो ज़ेहन चाहिए वो हर एक को वदीयत (प्राप्त)नहीं हुआ है.यही हाल ज़फ़र इक़्बाल के अश’आर का है.

मौजूदगी सी जैसे किसी और की भी है
मंज़र जो बन रहा है तिकोना किसी के साथ

एक ही बार होने में ताम्मुल था मगर
अब पड़ा है उसी हालात में दोबारा होना

कुछ समझ में ही न आना मिरी और फिर हर बार
और का और उन आँख़ों का इशारा होना

जहाँ क़ियाम है उसका वहाँ से हट कर है
कि है ज़मीन पे ही लेकिन ज़मीन से हट कर है

गु़बार-ए-हवाब है दोनों में एक सा लेकिन
वो बाग़-ए-बोसा बाहिश्त-ए-बरीं से हट कर है

ज़फ़र महाज़-ए-मुहब्बत से अपनी पासपायी
किसी भी क़ाफ़िला-ए-वापसीं से हट कर है
चन्द और :-
कुछ हासिले वैसे भी थे आपस में ज़ियादा
कुछ ख़्वाब तुम्हारे थे हमारों से बहुत दूर

यूँ उसने सभी जमा किए एक जगह पर
और फेंक दिया हौ मुझे सारों से बहुत दूर

ख़ल्वत-कदा-ए-दिल पे ज़ुबूँ -हाली-ए-बिसयार
है सूरत-ए-गंजीना-ए-अल्फ़ाज़-ओ-मानी (ऐन तबिश)

ख़ुश्क-ओ-तार ज़र्द हरी फ़स्ल का अस्फ़-अम-माकूल
अब किसी ख़्वाब से चस्पा नहीं ताबीर कोई

गै़र मर्बूत गुमान-वस्फ़ मुहर्रफ़ मुबहम
यानी हर शख़्स हुआ आयत-ए-इंजील कोई (सलीम शह्ज़ाद)

शायद था इक बगूले में तन्हाइयों का ग़म
’ज़ेबा’जो दिल के गमले में कैक्टस लगा मुझे (मसर्रत ज़ेबा)

बो दी थी मैं ने अपनी दसों उँगलियाँ जहाँ
पैरों में आ रहा है वही रास्ता सा फिर (राशिद इम्कान)

(य) ग़लती-हाये-मज़ामीन न पूछ !
इस उन्वान के तहत चन्द वाक़ियाती शायरों के कुछ अश’आर दिए जा रहे हैं.इनके पढ़ने के बाद ये शो’अरा "ज़मीनी’ शायरी की धुन में उर्दू सर्फ़-ओ-नाह्व ,उसूल-ए-ज़बान-ओ-बयान और फ़साहत-ओ-बलाग़त की इब्तदाई मालूमात से बेगाना हो गये हैं.ऐसा मालूम होता है कि इस इल्म को हासिल करने के लिये इनको किसी ’रसूमियाती: उस्ताद-ए-फ़न से रुजू करने की सख़्त ज़रूरत है.कोई साहेब-ए-ज़बान ऐसी फ़ाश ग़ल्तियाँ नहीं कर सकता.और अगर उस से इनका सुदूर हो भी जाए तो वह ऐसे कलाम को शाये कव्वाने की हिम्मत यक़ीनन नहीं कर सकता है .

हर ग़म को सहने की ताक़त देना मुझे
कोई भी ग़म इससे पहले मत देना मुझे

ऐसा मत करना जीते जी मर जाँऊ
मरने से पहले शोहरत देना मुझे (मुहम्मद अल्वी)

अब अपनी चीख़ ही क्या ,अपनी बे-ज़बानी क्या
महज़ अमीरों की ज़िन्दगानी क्या (अज़्रा परवीन)

वो दर्मियान-ए-रोज़-ओ-शब वक़्फ़ा है क्या ?
ज़ेर-ए-उफ़ुक मेरी तरह जलता है क्या ? (शफ़क़ सौपुरी)

ये कश्फ़ सबके लिए आम भी नहीं होता
अगर्चे शायरी इल्हाम भी नहीं होता
शायरी और "होता"? बेसोख़्त अक़्ल बा-हैरत कि ईंचे बुल-अजाबी अस्त ?

अभी मुन्कशिफ़ होना है पहली बार हम पर
अभी हम ने नक़्श-ए-निहाँ पर चूमना है

ज़फ़र हम ने अभी ग़र्क़ाब हो जाने से पहले
कहीं अपने दरीदा बादबाँ पर चूमना है
अहल-ए-ज़बान "ने" माज़ी के लिए लिखते हैं न कि हाल और मुस्तक़्बिल के लिए !यहाँ हम "ने"की बजाय हम"को" होना चाहिए.देखिये गा़लिब क्या कहते हैं:-

हमने माना कि तगा़फ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएंगे हम तुम को ख़बर होने तक !

और यह भी दीदा-ए-इब्रत निगाह से देखिए
आँखों के आईने तो सुबुक्सार थे यहाँ
दिल के निवाह में ही गिरानी का रंग था

ऊपर से चल रही थी हवाएं भी तेज़-तेज़
ख़ाशाक-ए-ख़ूँ पे शोला बयानी का रंग था

मैं जिस जगह नहीं था वहाँ दूर-दूर तक
आब-ओ-हवा पे मेरी नैशानी का रंग था
ख़ुदा-रा (हे भगवान !) कोई बताये कि यह " आँखों के आइने की सुबुक्सारी", "ख़ाशाक-ए-खूँ पे शोला बयानी का रंग",और "आब-ओ-हवा पे नैशानी का रंग" किस चिड़िया का नाम है.?
इस हक़ीक़त से तो इन्कार मुम्किन नहीं है कि ज़माने के हालात बदलते रहते हैं जैसा कि किसी ने क्या ख़ूब कहा है :-

साबात एक तग़इय्युर को है ज़माने में
सुकूँ मुहाल है क़ुदरत के कारखाने में

इस लिए अदब-ओ-शे’र के लिए भी ज़माने के साथ चलना ज़रूरी है.अगर ऐसा नहीं होगा तो कल ज़माना कहीं का कहीं पहुँच चुका होगा और अदब-ओ-शे’र जुमूद का शिकार होकर आहिस्ता-आहिस्ता गायब हो जायेंगे..सोचना यह है कि क्या ग़ज़ल इन बदलती क़द्रों की साथ बदल कर अपना रंग और मिज़ाज क़ायम रख सकती है?यह भी तो मुम्किन है कि ग़ज़ल बहुत सी ज़मीनी मज़ामीन बयान करने से क़ासिर है और वह अपनी फ़ितरत मेम इन्सानी जज़्बात-ओ-एह्सासात को भी बेहतर बयान कर सकती है.वाक़ियाती मसाइल की दाद-रसी के लिए दूसरी अस्नाफ़(विधायें) मौजूद हैं जिनको इस्तेमाल करना और इनमें नए तजीर्बे करना मुस्तहसिन है. ग़ज़ल का हुलिया बिगाड़ कर यह मक़्सद हासिल नहीं हो सकता है.:

तय कर चुका हूँ राह-ए-मुहब्बत के मरहले
इस से ज़ियादा हाज़त-ए-शर्ह-ओ-बयां नहीं (राज़ चांदपुरी)

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(समाप्त)

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

ग़ज़ल 016 : मुहब्बत आशना हो कर.......

ग़ज़ल 016 

मुहब्बत आशना हो कर वफ़ा ना-आशना होना
इसी को तो नहीं कहते कहीं काफ़िर-अदा होना ?

ये तपती दोपहर में मुझसे साए का जुदा होना
ज़ियादा इस से क्या होगा भला बे-आसरा होना ?

यकीं आ ही गया हमको तुम्हारी बे-नियाज़ी से
बुज़र्गो से सुना था यूँ तो बन्दों का खु़दा होना !

न जाने कौन से मन्ज़िल है जो बेगाना-ए-ग़म हूँ
मुझे रास आ गया क्या इश्क़ में बे-दस्त-ओ-पा होना ?

ख़ुदी और बे-ख़ुदी में फ़र्क़ है तो सिर्फ़ इतना है
मुहब्बत आशना होना ,मुहब्बत में फ़ना होना !

कोई सीखे तो सीखे आप से तर्ज़े-खुदावन्दी
मिरी बे-चारगी पर आप का यूँ ख़ुद-नुमा होना !

ये सुबह-ओ-शाम की उलझन ये रोज़-ओ-शब के हंगामे
क़ियामत हो गया क़र्ज़े-मुहब्बत का अदा होना

ये सोज़ो-साज़े-उल्फ़त और ये जज़्बो-जुनूँ ’सरवर’
मुबारक हो तुझे शाइस्ता-ए-हर्फ़े-वफ़ा होना

-सरवर-
बे-दस्त-ओ-पा होना = बेबस/लाचार होना
शाइस्ता-ए-हर्फ़े-वफ़ा होना = वफ़ा के का़बिल होना

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

वाक़ियाती शायरी क्या है ..............क़िस्त २

[पिछली क़िस्त-१ में आप ने पढ़ा कि ग़ज़लों की चार तक़्सीम की जा सकती है जैसे हस्तीनी ,शंखिनी ,चतुरनी और पद्दमिनी .इनके बारें में एक मुख़्तसर ताअर्रुफ़ भी आप ने पढ़ा .अब आप आगे पढ़ें.रवायती शायर और रसूमियाती शायरी क्या है ]

इस अजीब-ओ-ग़रीब तहरीर से कम से कम ये मालूम हुआ कि "वाक़ियाती"शायरी की तलाश ज़फ़र इक़्बाल ,मुनीर नियाज़ी वग़ैरह की "हस्तीनी’ "शंखिनी" "चतुरनी" ग़ज़लियात में की जा सकती है."पद्मिनि’ रिवायती शायरी का ही "वाक़ियाती:’ नाम लगता है.!अलबत्ता ,ख़ुद वाक़ियाती ग़ज़ल के इन क़िस्मों की शिनाख़्त का कोई पैमाना हमारे पास नही है.! बह्र-कैफ़ (जो भी हो) ,इसी तिश्ना -ए-तशरीह तारीफ़ (अतृप्त व्याख्या) के बाद अब रस्मूयाती और वाक़ियाती (पारम्परिक और यथार्थवादी) ग़ज़ल पर थोड़ी सी गुफ़्तगू की जा सकती है.!
(१) रस्मूयाती शायरी(पारम्परिक शायरी) क्या है?
इन्टर्नेट पर आने वाले बेशीतर शायर रसूमियाती शायरीसे वाक़िफ़ हैं क्योंकि वह ख़ुद भी इसको तख़्लीक़ कर रहे हैं.अगर इस से मुराद सिर्फ़ वो शायरी ली जाए जिसकी मौज़ूआत (विषयों) में गुल-ओ-बुल्बुल,बहार-ओ-ख़िज़ां ,हिज्र-ओ-विसाल,वगै़रह के रवायती मज़ामीन नुमायां (दिखते) हैं तो ऐसी शायरी कल भी होती थी आज भी होती है.और कल भी होती रहेगी क्योंकि इस मज़ामीन का ताल्लुक़ सिर्फ़ ग़ज़ल की रिवायत से ही नहीं बल्कि इन्सानी ज़िन्दगी की हक़ीकतों से भी बहुत गहरा है.अगर इस तारीफ़ में वो कलाम भी शामिल कर लिया जाए जो शो’अरा (शायरों) ने अपनी ज़ाती तजिर्बात (व्यक्तिगत अनुभव) ,मुशाहदात,(अपने दर्शन,अनुभव)और ज़िन्दगी के दूसरे अवामिल की तहरीक (अमल करने वाले की प्रस्तावों)पर लिखा है तो यह कहना ज़रूरी हो गया कि हर रस्मूयाती शायर किसी न किसी वक़्त वाक़ियाती शायरों के साथ होता होगा और वो भी कभी न कभी रस्मूयाती शायरी कर लेते होंगे.!

(२) वाक़ियाती शायरी क्या है ?
कहा जाता है कि वाक़ियाती शायरी में शायर की ज़िन्दगी का अक्स ग़ालिब होता है.मगर यह तारीफ़ तो अक्सर रसूमियत शायरी पर भी सादिक़ आती है!आख़िर दर्ज-ए-ज़ैल अश्’आर को वाक़ियाती न कहा जाए तो क्या कहा जाए

क़ैद-ए-हयात-ओ-बन्द-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यों ? (ग़ालिब)

कहा मैनें कितना है ’गुल का सबात’ ?
कली ने यह सुन कर तबस्सुम किया (मीर)

तुम मिरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता (मोमिन)

था कहाँ वक़्त की हस्ती के फ़साने पढ़ते
सिर्फ़ उन्वान ही उन्वान नज़र से गुज़री (सीमाब अकबराबादी)

हाय वो मेरी आख़िरी हसरत
दिल से निकली थी दुआ होकर (राज़ चांदपुरी)

वाक़ियाती शायरी को समझने के लिये हम जदीद (आधुनिक) वाक़ियाती शायरों के कलाम का जायज़ा लेंगे. चूँकि ज़फ़र इक़्बाल को इस क़िस्म की शायरी का इमाम(मुखिया) माना जाता है इसलिए इस्तिद्लाल और तौजीहात (व्याख्या और स्पष्टीकरण )के लिए उनका कलाम ज़ियादा इस्तेमाल किया जायेगा. अलावा अज़-ईन (लगे हाथ)हम दूसरे वाक़ियाती शायरों के कलाम से भी इस्तिफ़ादा करेंगे (लाभ उठायेंगे).कसीर तादाद( ज़ियादे संख्या) में मिसालें (उदाहरण) पेश करेंगे.जिन अश’आर पर कोई नाम दर्ज नहीं हैवो ज़फ़र इक़्बाल के हैं.सहूलात की ख़ातिर उनका नाम नहीं लिखा गया है.
हमें वाक़ियाती शायरी को समझने में दिक़्कत पेश आयी है.मुमकिन है कि इस कोताही की वज़ह हमारी रिवायती अदाबी तर्बियत हो.या ये फिर शायरी है ही ऐसी कि इसकी इफ़्हाम-ओ-तफ़्हीम (समझना-समझाना) आसान नहीं है.ब-हर-कैफ़ (जो भी हो)हमने अपनी समझ के मुताबिक़ वाक़ियाती शायरी को मुख़्तलिफ़ इक़्साम (विभिन्न भागो में) में बाँटने की कोशिश की है.ताकि इस के समझने में आसानी हो.वाक़ियाती शायरी के चन्द क़ाबिल-ए-ज़िक्र ख़ुसूसियत दर्ज-ए-ज़ैल है (चर्चा करने योग्य ख़ास-ख़ास बातें नीचे दर्ज है)
(अ) सादगी-ओ-पुरकारी !:-
वाक़ियाती शायरी की सबसे नुमायां ख़ुसूसियत उसकी सादगी मालूम होती है.न सिर्फ़ ज़बान बल्कि अपनी फ़िक्र-ओ-बयान में भी ये सिर्फ़ इस क़दर सीधी और सादा होती है कि इसको पढ़ने में किसी मेहनत की हाजत (मुश्किल)नहीं है.अलबत्ता यह और बात है कि अपनी आसानी के बावुजूद अक्सर अश’आर का मतलब आम अक़्ल की गिरिफ़्त (पकड़) से बाहर मालूम होता है.अफ़्सोस की क़ारी(पाठक) के पास वो मख़्सूस ज़ेहन (विशेष समझ) नहीं होता है जिसकी ये शायरी मुत्क़ाज़ी है (चाहती है) और न ही उस को वाक़ियाती शायरी से ज़ाती (व्यक्तिगत) इस्तिफ़ादे की सहूलात हासिल है.ब-हर-हाल (जो भी हो ) ’सादगी’की चन्द मिसालें (उदाहरण) हाज़िर हैं
आग लगी है जंगल में
काँप रहा हूँ सर्दी में (आशुफ़्ता चंगेज़ी)

साहिल,रेत,समन्दर,शाम
साथ है मेरे पल भर शाम

दूर उभरती लहरों मे
डूब रही है हँस कर शाम (शाइदा रूमानी)
इस से ज़ियादा ’सादा-बयानी’ का तसव्वुर अगर ना-मुमकिन नहीं तो मुश्किल ज़रूर है.यक़ीन न हो तो आप कोशिश कर के देख लें

रंग बाहर से ना अन्दर से निकाला है कहीं
सर-बसर अपने बराबर से निकाला है कहीं

मिसाल ढूंढ रहा हूँ मैं आज तक उसकी
वो एक रंग जो सुर्ख़ाब से निकलता है

मिले अगर न कहीं भी वो बे-लिबास बदन
तो मेरे दीदा-ए-नामनाक से निकलता है
”रंग का अपने बराबर से निकलना’, ’रंग का सुरख़ाब से निकलना”,"बे-लिबास बदन का दीदा-ए-नामनाक से निकलना’ ऐसे मानी-ख़ेज़ और मुन्फ़्रीद (अर्थपूर्ण और विविध) मुहावरे हैं जिस के सामने अक़्ल-ए-सलीम (दिमाग) घुटने टेकने पर मजबूर है.कोई समझाओ कि हम समझायें क्या ? कुछ और मिसालें देखिये

कहाँ ऐसा तकल्लुफ़ है घरों में
बड़े आराम से हैं दफ़्तरों में (अताउर रहमान तारिक़)

देख शहादत खेल नहीं
बाज़ आ नक़्शेबाज़ी से (आशुफ़्ता चंगेज़ी)

आठ बरस का बच्चा मेरा दोस्त क़रीबी लगता है
काम बहुत होगा पापा को प्यार से जब समझाता है (आसिफ़ अली मज़हर)

वाक़ियाती शायरी के इन लाजवाब नमूनों पर कुछ कहना सूरज को चिराग़ दिखाने के बराबर है !

है कामयाब तो होना बहुत ही दूर की बात
कि मैं तो इश्क़ में नाकाम भी नहीं होता
अगर शायर इश्क़ में कामयाब नहीं हो सका और नाकाम भी नहीं हुआ तो खु़दारा बताइये कि उस बेचारे पर कौन सी हालत मुसालत हुई है ?"या इलाही ! ये माजरा क्या है?"

हम-बिस्तरी है अपनी हमारे लिये बहुत
मुद्दत से जागना है ,ना सोना किसी के साथ

दीवार-ए-तकिया बीच में कर ली गई बलंद
हमने बिछा दिया जो बिछौना किसी के साथ

इन अश’आर की मानी-आफ़्रीनी और उलू-ए-ख़याल(अर्थ और भाव) को क्या कहा जाये ! बेहतर यही है कि ज़ियादा हद-ए-अदब की कर ख़ामोश हो लिया जाय.!

[......जारी है ]

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

एक मजमून :"वाक़ियाती शायरी क्या है ?

"वाक़ियाती शायरी क्या है ?
(यथार्थवादी शायरी क्या है?)
----सरवर आलम राज़ ’सरवर’
[ यह लेख रोमन उर्दू में है जिस का हिन्दी रुपान्तरण यहाँ दिया जा रहा है जिस से हिन्दी के पाठकगण भी आनन्द उठा सकें]

तम्हीद (भूमिका)
कुछ अर्सा कब्ल (पहले) इन्टर्नेट पर :वाक़ियाती शायरी"(यानी ऐसी शायरी जो मौजूदा दौर के के बदलते हुए इन्सानी मसाइल (समस्यायें) और बदलते हुई दुनिया की तर्जुमानी करे) और "रसूमियाती शायरी"( यानी रिवायती शायरी) पर बहस की एक दिलचस्प सिलसिला चला था और फिर ( जैसा कि तक़रीबन हर ऐसी बहस के साथ होता है!)किसी नतीजे पर पहुँचे बगै़र ख़त्म भी हो गया था. इस बहस में उर्दू ग़ज़ल पर ही ज़ियादा गुफ़्तगू की गई थी और बाक़ी दूसरे अस्नाफ़ के जानिब (विधाओं की तरफ़) तवज्जुह (ध्यान) नहीं की गई थी.कम से कम इस बहस से यह तो ज़रूर हुआ कि सब पर नई सोच के कुछ दरवाज़े खुल गये थे. यह मज़्मून इसी बहस का हिस्सा है.
यहाँ इस बहस का आग़ाज़ (शुरुवात) कि "वाक़ियाती शायरी क्या है?" ख़ुद शायरी की तारीफ़ से करना मुनासिब मालूम होता है ताकि बात साफ हो जाए.इस के बाद "वाक़ियाती शायरी"और ’रसूमियाती शायरी" के फ़र्क और ख़ुसूसियत (विष्टितता) को समझना आसान होगा.
(१) "रसूमियाती शायरी" की तारीफ़ मुंशी बृज नारायन"चकबस्त" के इस शे’र से बेहतर नहीं हो सकती है.:-

"शायरी क्या है? दिली जज़्बात का इज़हार है
दिल अगर बेकार है तो शायरी बेकार है "

गोया इन्सानी जज़्बात, ख़यालात और एह्सासात के दिलपिज़ीर (जो दिल को पसंद हो) इज़हार का नाम ही शायरी है.इस इज़हार के सांचे .अस्नाफ़-ए-सुख़न (साहित्य की विधायें) उस्लूब और उसूल (शैली और सिद्धान्त) हमारे बुज़ुर्गों ने बड़ी मेहनत और दिलसोज़ी से मुरत्तब (क्रमबद्ध) किया है और आज भी रिवायती शो’अरा (शायर लोग) इनकी ही रोशनी में दाद-ए-सुख़न दे (साहित्य की सेवा कर)रहें हैं.
(२) "वाक़ियाती शायरी की तारीफ़ का मसला ज़रा मुश्किल और तफ़्सील तलब (विस्तार चाहता) है.बहुत तलाश के बावजूद इस मौज़ू(विषय) पर ऐसा कोई शे’र नहीं मिल सका है जिससे इसकी मुकम्मल और सही तारीफ़ हो सके.ख़्याल है कि कि इन्सानी ज़िन्दगी के वाक़ियात-ओ-मसाइल (यथार्थ और समस्यायें) "रोटी ,कपड़ा और मकान ,मज़दूर और सरमायादार (पूजीपति) की कश्मकश (खींच-तान) ,इन्सान के ज़मीनी मसाइल (जंग ,ज़ालिमों के हाथों कमज़ोरों पर ज़्यादती.मईशत के मसाइल पर क़ौमों की आवेज़िश (जीवन यापन के नाम पर कौ़मों के लड़ाई-झगड़ा)वगै़रह का इज़हार " वाक़ियाती शायरी" कहलायेगा.मशहूर वाक़ियाती शायर ’ज़फ़र इक़्बाल’ का एक शे’र इस सिलसिले में इस्तेमाल किया जा सकता है क्यों कि इसमें हमारी तलाश का हवाला नज़र आता है.
ये कश्फ़ सब के लिए आम भी नहीं होता
अगर्चे शायरी इल्हाम भी नहीं होता
(कश्फ़= दिल की बात इल्हाम =ख़ुदा की वाणी , अगर्चे = यद्यपि)
हम यहाँ ’होता’/होती’ के बहस में नहीं पड़ेंगे! कम से कम से शे’र से यह तो मालूम हो जाता है कि शायरी (और चूँकि ’ज़फ़र इक़्बाल’ वाक़ियाती शायरी के इमाम है इस लिए शायरी से "वाक़ियाती शायरी" मुराद लेना मुनासिब मालूम होता है.) कश्फ़ की तरह की कोई चीज़ है अलबत्ता यह इल्हाम हर्गिज़ नहीं है और ये कश्फ़ अल्लाह के ख़ास ख़ास बन्दों पर ही नाज़िल होता है लेकिन यह तो इल्हाम के साथ भी है. तो फिर इस शे’र की तावील (विस्तार) क्या होगी? वल्लाह-ओ-आलम !
ऊपर बयान हो चुका है कि इस मज़ामीन में हमारा मौज़ू ग़ज़ल है.इस हवाले से हिन्दुस्तान के मशहूर रिसाले "इस्तिआ’रा" (न्यू दिल्ली ,इंडिया ,जून/जुलाई २०००)के चन्द इक़्तिबासात(उद्धरण) पेश किए जा सकते हैं.इस के दो वजूहात(कारण) हैं.एक तो यह कि यह रिसाला वाक़ियाती शायरी का आलम-बरदार(प्रतिनिधि) है दूसरे यह कि इस में एक गोशा (अध्याय) वाक़ियाती शायरी ’ज़फ़र इक़्बाल’ के लिए मुख़्तस (निर्धारित) कर दिया गया है.हम इस गोशे से ख़ास तौर से इस्तिफ़ादा करेंगे (फ़ायदा लेंगे)
यह इक़्तिबासात (उद्धरण)काफी तवील (लम्बा )है.और उतनी ही दिलचस्प भी! इन को मै यहाँ बा-सद-इक्रा(जस का तस) पेश कर रहा हूँ.इन के मश्मूलात मेरी और आप की ज़ुबान का हिस्सा नहीं हैं और हर मुहज़्ज़ब महफ़िल (प्रतिष्ठित गोष्ठियों) में इन को क़ाबिल-ए-मज़ामत (निन्दनीय)कहा जायेगा.लेकिन बात साफ करने के लिये इनको यहाँ देना लाज़िमी है.मज़्कूरा इक़्तिबासात ( ऊपर वर्णित उद्धरण) दर्ज-ए-ज़ेल (नीचे दर्ज) है
" ग़ज़ल ४ क़िस्म की होती है :-
(१) हस्तीनी :यह शराब,कबाब की रसिया, बदजुबान.बदकिरदार ,बदख़ू (बुरे और कड़ुवे स्वभाव की) होती हैं.इसे न तो अपनी इज़्ज़त का पास (लिहाज़) होता है न दूसरों की तक्रीम(आदर-सत्कार) का ख़्याल.इसका क़द या तो बहुत लम्बा होता है या तो बहुत छोटा.इसका जिस्म भी बहुत भारी या दुबला होता है.होंठ बहुत मोटे होते हैं .जिंसी आवारगी की हर वक़्त शिकार रहती है.जिंसी अज़ा (व्यभिचार)का ज़िक्र अक्सर करती रहती है.इसके पसीने में बदबू होती है और जिस्म से शराब की गन्ध आती है.अक्सर कड़वी,खट्टी ,नमकीन नीज़ ज़ायक़ा वाली चीज़ें शौक़ से खाती है.ये बहुत ऐय्यार और मक्कार होती है.इस से किसी को भी वफ़ा की उम्मीद नहीं.ऐसी ’हस्तीनी ग़ज़लें" हमारे अह्द-ए-जदीद (आधुनिक काल) में सब से ज़ियादा रचाई जाती है.
(२) शंखिनी :मर्दों से हँस-हँस कर बात करने में इसे कोई हिजाब नहीं.बे-वफ़ाई इसकी सरिश्त (स्वभाव )में है .आशिक़ों का हलक़ा(इलाक़ा) बढ़ाने के लिए हर तरह के नाज़-ओ-ग़मज़ा-ओ-इश्व:(नाज़-नखरे-कामुक हाव-भाव) का इस्तेमाल करती है.जिंसी मिलाप और अपनी तारीफ़ सुनने के लिए बे-क़रार रहती है.यह अक्सर गंदी रहती है.झूट बोलती है.बड़ी मक्कार और फ़रेबी होती है.जल्दी हँसने लगती है.इसके चलने के अन्दाज़ में बे-हया मस्ती होती है.क्योंकि यह शराब बहुत ज़ियादा पीती है.ऐसी "शंखिनी ग़ज़ल" के बारे में अहम्द फ़राज़ ज़ियादा बेहतर तौर पर बता सकते हैं
(३) चतुरनी :यह क़द्र-ए-इश्क़ पसन्द (प्रेम को इज़्ज़त और सम्मान देने वाली)और वफ़ादार होती हैं. इसकी गुफ़त्गू में बहुत मिठास होती है.अन्दाज़ बहुत प्यारा और मोह लेने वाला होता है.मोसक़ी (संगीत) से ख़ास लगाव रखती हैं.जिंसी जुनून का शिकार नहीं मगर तबीयत में इज़्तिराब (आतुरता) की सी कैफ़ियत रहती है.यकसां हालात में कभी नही रहती.कहीं भी इसे एक जगह क़रार नहीं.इसकी जिस्म में लचक और चाल में ख़ुमारी होती है.ये रंगीन कपड़े पहन कर,बाल बना कर बहुत ख़ुश होती है.ये "चतुरनी ग़ज़ल"नासिर काज़मी ,मुनीर नियाज़ी ज़फ़र इक़्बाल और साक़ी फ़ारुक़ी के यहाँ अक्सर मिल जाती है.
(४) पद्मिनि :यह सब से आला(उत्तम) ,ख़ुश गुफ़्तार,ख़ुश किरदार होती है.इसके चेहरे का रंग गुल-ए-नीलोफ़र जैसा और जिस्म खूबसूरत अनार की तरह होता है.आहू-चश्म (मृग नयनी) याक़ूती होंट (रसीले ख़ूबसूरत) ,रोशन चेहरा ,आँखों में नश्तर रखने वाली यह "पद्मिनि’ ख़ुशबुओं की दिल-दाद होती है.इस की जिस्म से ख़ुशबू आते हैं फूलों से इसे बहुत प्यार होता है.पसीने में इत्र-ए-गुलाब होता है.यह पेशाब भी करती हैं तो उस पर भिड़ों का हुजूम हो जाता है."पद्मिनि’ आख़िरी बार "ग़ालिब" के साथ देखी गई थी.उसके बाद कहाँ रूप-पोश (मुँह छुपा ली ,गायब) हो गई कुछ पता नहीं.किसी को कुछ ख़बर नहीं.हाँ इतना ख़बर ज़रूर है कि "पद्मिनि’कहीं न कहीं ज़रूर ज़िन्दा होगी.किसी कुंज में ,किसी सेहरा(उपवन) में,किसी जंगल में भटक रही होगी."पद्मिनि’ की तलाश जारी है

[......जारी है ]

रविवार, 21 मार्च 2010

विविध 004 :हज़ारों लब से आती है सदा ये . [पी0 के0 स्वामी ]

ग़ज़ल 004 :हज़ारों लब से आती है सदा ये ....

[यह ग़ज़ल जनाब पी०के०स्वामी ,नई दिल्ली ने मोहतरम शायर जनाब "सरवर" की शान में उनके जन्म दिन (१६-मार्च) पर कही है यह ग़ज़ल इस ब्लाग पे इस मक़्सद से लगा रहा हूँ कि अहलेकारीं भी इस ग़ज़ल की ख़्सूसियत और नाज़ुक ख़याली से लुत्फ़अंदोज़ होंगे......आनन्द.पाठक]

हज़ारों लब से आती है सदा ये
सरापा रहबरे कामिल तुम्हीं हो !

जहां नेकी के चर्चे गूंजते हैं
खुलूसे दिल से तुम शामिल वहीं हो !

फरोगे अंजुमन तुम से है सरवर
सितारों में महे कामिल तुम्हीं हो !!

दिले खस्ता है वाबस्ता तुम्हीं से
ज़ुबाने राज़ के आदिल तुम्हीं हो !!

ग़में गेती में तेरा ही सहारा
दिले सद्चाक की महफ़िल तुम्हीं हो !!

खयाले नेक के हो रूह परवर
रगे इसियाँ के इक कातिल तुम्हीं हो !

जियो तुम और हज़ारों साल जीयो
दुआए खैर के काबिल तुम्हीं हो !!

पी के स्वामी

गुरुवार, 18 मार्च 2010

ग़ज़ल 015 : खेल इक बन गया ज़माने का --

ग़ज़ल 015 : खेल इक बन गया ज़माने का ...... 

खेल इक बन गया ज़माने का
तज़करा मेरे आने जाने का

ज़िन्दगी ले रही है हमसे हिसाब
क़तरे क़तरे का ,दाने दाने का

क्या बताए वो हाल-ए-दिल अपना
"जिस के दिल में हो ग़म ज़माने का"

हम इधर बे-नियाज़-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ
शौक़ उधर तुम को आज़माने का

दिल फ़िगारी से जाँ-सुपारी तक
मुख़्तसर है सफ़र दिवाने का

ज़िन्दगी क्या है आ बताऊँ मैं
एक बहाना फ़रेब खाने का

बन गया ग़मगुसार-ए-तन्हाई
ज़िक्र गुजरे हुए ज़माने का

दिल्लगी नाम रख दिया किसने
दिल जलाने का जी से जाने का

हम भी हो आएं उस तरफ ’सरवर’
कोई हीला तो हो ठिकाने का

-सरवर-

तज़्करा = चर्चा
बेनियाज़ी-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ =हानि-लाभ से रहित
दिल फ़िगारी = ज़ख़्मी दिल
जाँ सुपारी तक =जान सौपने तक
हीला =बहाना
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शनिवार, 6 मार्च 2010

ग़ज़ल 014 : डूबता है दिल कलेजा --

 ग़ज़ल 014  : डूबता है दिल कलेजा मुँह को आया जाए है......

डूबता है दिल कलेजा मुँह को आया जाए है
हाय! यह कैसी क़ियामत याद तेरी ढाए है !

इश्क़ की यह ख़ुद फ़रेबी!अल-अमान-ओ-अल हफ़ीज़ !
जान कर वरना भला खु़द कौन धोखा खाए है

आँख नम है ,दिल फ़सुर्दा है ,जिगर आशुफ़्ता खू
लाख समझाओ वा लेकिन चैन किसको आए है ?

क्या तमन्ना ,कौन से हसरत ,कहाँ की आरज़ू ?
रंग-ए-हस्ती देख कर दिल है कि डूबा जाए है !

ऐतिबार-ए-दोस्ती का ज़िक्र कोई क्या करे ?
ऐतिबार-ए-दुश्मनी भी अब तो उठता जाए है !

इस दिल-ए-बे-मेह्र की यह कज अदायी देखिए
आप ही शिकवा करे है ,आप ही पछताए है !

बेकसी तो देखिये मेरी राह-ए-उम्मीद में
दिल को समझाता हूँ मैं और दिल मुझे समझाए है !

क्या शिकायत हो ज़माने से भला ’सरवर’ कि अब?
मैं जहाँ हूँ मुझसे साया भी मिरा कतराए है !

-सरवर-
कज अदायी = बेरुख़ी
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रविवार, 21 फ़रवरी 2010

ग़ज़ल 013 : शब-ए-उम्मीद है

ग़ज़ल 013


शब-ए-उम्मीद है ,सीने में दिल मचलता है
हमारी शाम-ए-सुख़न का चिराग़ जलता है

न आज का है भरोसा ,न ही ख़बर कल की
ज़माना रोज़ नयी करवटें बदलता है

अजीब चीज़ है दिल का मुआमला यारों !
सम्भालो लाख, मगर ये कहाँ सम्भलता है

न तेरी दोस्ती अच्छी ,न दुश्मनी अच्छी
न जाने कैसे तिरा कारोबार चलता है

सुना है आज वहाँ मेरा नाम आया था
उम्मीद जाग उठी ,दिल में शौक़ पलता है

वही है शाम-ए-जुदाई , वही है दिल मेरा
करूँ तो क्या करूँ ,कब आया वक़्त टलता है !

मिलेगा क्या तुम्हें यूँ मेरा दिल जलाने से
भला सता के ग़रीबों को कोई फलता है ?

इसी का नाम कहीं दर्द-ए-आशिक़ी तो नहीं ?
लगे है यूँ कोई रह रह के दिल मसलता है

न दिल-शिकस्ता हो बज़्म-ए-सुख़न से तू ’सरवर’
नया चिराग़ पुराने दिये से जलता है !
-सरवर
दिल-शिकस्त =दिल का टूटना

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

ग़ज़ल 012: ज़माने की अदा है काफ़िराना

ग़ज़ल 012


ज़माने की अदा है काफ़िराना
जुदा मेरा है तर्ज़-ए-आशिक़ाना

तिरा ज़ौक़-ए-तलब ना-मेह्रिमाना
न आह-ए-सुब्ह ने सोज़-ए-शबाना

शबाब-ओ-शे’र-ओ-सेहबाये-मुहब्बत
बहोत याद आये है गुज़रा ज़माना

’ चे निस्बत ख़ाक रा बाआलम-ए-पाक ?
कहाँ मैं और कहाँ वो आस्ताना

बहुत नाज़ुक है हर शाख़-ए-तमन्ना
बनायें हम कहाँ फिर आशियाना ?

मकाँ जो है वो अक्स-ए-लामकाँ है
अगर तेरी नज़र हो आरिफ़ाना !

मिरी आह-ओ-फ़ुग़ां इक नै-नवाज़ी
मिरा हर्फ़-ए-शिकायत शायराना

मैं नज़रें क्या मिलाता ज़िन्दगी से
उठीं ,लेकिन उठीं वो मुज्रिमाना

हमारी ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी है
मगर इक साँस लेने का बहाना

मुझे देखो,मिरी हालात न पूछो
मुझे आता नहीं बातें बनाना

उलझ कर रह गया मैं रोज़-ओ-शब में
समझ में कब ये आया ताना-बाना

न देखो, इस तरह मुझको न देखो
बिखर जाऊँगा होकर दाना-दाना

मुझे है हर किसू पर ख़ुद का धोका
ये दुनिया है कि है आईना-ख़ाना ?

निकालो राह अपनी आप ’सरवर’
कभी दुनिया की बातों में न आना !

-सरवर


मुज्रिमाना =अपराधियों जैसा
आरिफ़ाना =सूफ़ियों जैसा
आस्ताना = चौखट
आह-ओ-फ़ुँगा= विलाप
आईनाख़ाना =शीशे का घर
सोज़-ए-शबाना =रात में दिल की जलन

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

ग़ज़ल 011: दिल पे गुज़री है जो बता ही दे

ग़ज़ल 011

दिल पे गुज़री है जो बता ही दे !
दास्ताँ अब उसे सुना ही दे !

मेरे हक़ में दुआ नहीं, न सही
किसी हीले से बददुआ ही दे !

खो न जाए कहीं मिरी पहचान
तू वफ़ा का सिला जफ़ा ही दे !

शामे-फ़ुरक़त की तब सहर होगी
हुस्न जब इश्क़ की गवाही दे

बे-ज़बानी मिरी जुबाँ है अब
सोज़-ए-शब ,आह-ए-सुबहगाही दे

कौन समझाए ,किसको समझाए
अब तो ऐ दिल उसे भुला ही दे

कुछ तो मिल जाए तेरी महफ़िल से
नामुरादी का सिलसिला ही दे !

दिल ज़माने से उठ चला है अब
कब तलक दाद-ए-कमनिगाही दे

अपनी मजबूरियों पे शाकिर हूँ
इतनी तौफ़ीक़ तो इलाही ! दे !

तुझ पे ’सरवर’ कभी न यह गुज़रे
शायरी दाग़-ए-कज कुलाही दे !
-सरवर-

सोज़े-शब =रात की जलन
आहे-सुबह्गाही = सुबह की आह
शाकिर = ईश्वर का शुक्रगुज़ार
तौफ़िक़ = ताकत
दाग़-ए--कज कुलाही = घमंड का दाग़

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

ग़ज़ल 010 : कहाँ से आ गए तुम--

ग़ज़ल  010

कहाँ से आ गए तुम को न जाने
बहाने और फ़िर ऐसे बहाने !

कोई यह बात माने या न माने
मुझे धोखा दिया मेरे ख़ुदा ने !

ज़माना क्या बहुत काफी नहीं था ?
जो तुम आए हो मुझको आज़माने !

लबों पर मुह्र-ए-ख़ामोशी लगी है
दिलों में बन्द हैं कितने फ़साने !

न मौत अपनी न अपनी ज़िन्दगी है
मगर हीले वही है सब पुराने !

ज़माने ने लगाई ऐसी ठोकर
हमारे होश आए है ठिकाने !

कहाँ तक तुम करोगे फ़िक्र-ए-दुनिया ?
चले आओ कभी तुम भी मनाने !

हवा-ए-नामुरादी ! तेरे सदक़े
बहार अपनी न अपने आशियाने !

ज़रा देखो कि डर कर बिजलियों से
जला डाले ख़ुद अपने आशियाने !

मिलेंगे एक दिन ’सरवर’ से जाकर
अगर तौफ़ीक़ दी हम को ख़ुदा ने !

-सरवर-
तौफ़ीक़ = शक्ति,सामर्थ्य
हीले =बहाने

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

ग़ज़ल 009 : जब नाम तेरा सूझे--

ग़ज़ल ०९


जब नाम तिरा सूझे ,जब ध्यान तिरा आवे
इक ग़म तिरे मजनू की ज़ंजीर हिला जावे !

सब की तो सुनूँ लोहू ये आँख न टपकावे
कीधर से कोई ऐसा दिल और जिगर लावे !

जी को न लगाना तुम ,इक आन किसू से भी
सब हुस्न के धोखे हैं ,सब इश्क़ के बहलावे !

ख़ुद अपना नाविश्ता है ,क्या दोष किसू को दें
यह दिल प-ए-शुनवाई जावे तो कहाँ जावे ?

टुक देख मिरी जानिब बेहाल हूँ गुर्बत में
दीवार ! सो लरज़ाँ है साया ! सो है कतरावे !

दुनिया-ए-दनी में कब होता है कोई अपना
बहलावे से बहलावे , दिखलावे से दिखलावे !

देखो तो ज़रा उसके अन्दाज़-ए-ख़ुदावन्दी
ख़ुद बात बिगाड़े है ,ख़ुद ही मुझे झुठलावे !

सद हैफ़ तुझे ’सरवर’ अब इश्क़ की सूझी है
हर बन्दा-ए-ईमां जब काबे की तरफ जावे

-सरवर-
नविश्त: = भाग्य में लिखा
सद हैफ़ = हाय भोले-भाले !
पा-ए-शुनवाई= अपनी बात सुनाने कि लिये

-सरवर-

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रविवार, 31 जनवरी 2010

शायरी में ’ज़म(खोट) का पहलू’-----------कड़ी ३(अंतिम )

[नोट : कड़ी १ और कड़ी २ नीचे इसी ब्लॉग पर दर्ज-ए-जेल है ]

अब दो मिसाल और देखिये जिनमें यह पहलू नुमाया नहीं है.
(२) मिसाल -२
वालिद मरहूम राज़ चांदपुरी साहब ने अपनी एक किताब ’दास्तान-ए-चांद’ कानपुर (हिन्दुस्तान) में मन्क्कुरा (सन) १९२३ के एक मुशायरे का तज़करा (चर्चा) लिखा है.इसकी ज़मीन थी -" नाज़ रहने दे ,नियाज़ रहने दे".मुशायरे में बहुत से मशहूर शायरों ने शिरकत की थी जिनमें उस ज़माने के मुस्तनद और माने हुए उस्ताद हकीम’नातिक़ लखनवी’ भी शामिल थे.जब ह्कीम साहब ने अपनी तरही ग़ज़ल (मुशायरे की थीम ग़ज़ल) मुशायरे में इनायत की तो इस पर बहुत दाद मिली.एक शे’र पर कुछ शो’अरा (शायरों) ने इसके मज़्मून,रंग और हुस्न की दाद दी लेकिन कुछ लोगों ने जिनकी हकीम साहब से शायराना मुख़ासिमत ( विरोध) थी और दोनो की आपस में चश्मकशीं (नोक-झोंक) आम थी इसमे ’ज़म का पहलू" सरे मुशायरा ही निकाल लिया और ऐसे तंज़िया (व्यंगात्मक) और मज़ाहिक (हास्य) अन्दाज़ में दाद और सताइश (तारीफ़) डोंगरे बरसाए कि लोगों के कान खड़े हो गये.बेचारे हकीम साहब अपनी मासूमियत और फ़ित्री शराफ़त (स्वभावगत शराफ़त) में उनका इशारा न समझ सके और उन्होने अपना शे’र कई बार दुहराया.आख़िकार उनके एक क़रीबी दोस्त ने दबे अल्फ़ाज़ में उन्हे सूरत-ए-हाल से आगाह किया और ’नातिक़ लखनवी’ साहब आगे बढ़ गए.हकीम साहब की इस ज़मीन में पूरी ग़ज़ल नहीं मिल सकी .इस लिए इस ज़मीन दूसरे शायरों के चन्द अश’आर (शे’रों) में ’हकीम ’नातिक़ लखनवी’ साहब के शे’र भी शामिल कर दिये हैं.उन्हे नीचे लिख रहा हूं.देखिए कि कहीं आप को किसी शे’र में शे’रों में ’ज़म का पहलू’ निकलता है ?
यह शौक़े सज्दा, यह ज़ौक़े नियाज़ रहने दे
क़बूल हो चुकी , फ़िक्रे- नमाज़ रहने दे

नियाज़-ओ-नाज़ में कुछ इम्तियाज़ रहने दे
रुख़-ए-जमील पर रंगे-ए-मजाज़ रहने दो

नया है ज़ख़्म अभी तीर-ए-नाज़ रहने दे
ख़ुदा के वास्ते ऐ जल्दबाज़ रहने दे

तसर्रूफ़ात की दुनिया तो है बहुत महदूद
तख़्लुयात को अफ़सानासाज़ रहने दे

जो कुछ हुआ वो हुआ अब तो फ़र्ज़ है सजदा
हिकायत-ए-रह-ए- दुर्र-ओ-दराज़ रहने दे



रुख़-ए-जमील पर =सुन्दर हसीन चेहरे पर
तसर्रूफ़ात की दुनिया = मतलब की दुनिया
तख़्लुयात =ख़यालात
महदूद = सीमित
हिकायत =कथा-कहानी/हाल-चाल

मिसाल -३ मिर्ज़ा अस्दुल्लाह खां ’गा़लिब’ की एक मशहूर ग़ज़ल दर्ज-ए-ज़ेल (नीचे दर्ज है).इस ग़ज़ल से उर्दू का हर आशिक़ खूब ही तो वाकि़फ़ है.हम हज़ारों मर्तबा इसको पढ़ चुके हैं और बेतबाज़ी और ख़तूत वगै़रह में इसके अश’आर भी लिखते रहते हैं लेकिन कभी आप का ख़याल इस जानिब नहीं गया होगा कि मिर्ज़ा गा़लिब के इस ग़ज़ल में भी यार लोगों ने ’ज़म का पहलू" ढूँढ निकाला है.कज फ़हमी और कम सवादी की ऐसी मिसालें कम ही देखने में आती हैं .ब-हर-कैफ़(बहर हाल ,जो भी हो) ग़ज़ल पेश-ए-ख़िदमत है .पढ़िए औए लुत्फ़ अन्दोज़ होइए.अगर कोशिश से हो सके तो इसमें ’ज़म के पहलू’ की निशानदेही कीजिए

बाज़ीचा-ए-अफ़्ताल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे

होता है निहाँ गर्द में सहरा मिरे आगे
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मिरे आगे

मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तिरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मिरे आगे

फिर देखिए अन्दाज़े-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना-ओ-सहबा मिरे आगे

इमां मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे

गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी सागरो मीना मिरे आगे

हमपेशा-ओ-हममशरब-ओ-हमराज़ है मेरा
’ग़ालिब’ को बुरा क्यों कहो अच्छा मिरे आगे

अब यह बात ख़त्म होती है.आप के सवालात का इन्तेज़ार रहेगा.एक मर्तबा फिर आप से दस्त-बस्ता (हाथ जोड़ कर ) इस्तदा है कि ’ज़म के पहलू’ की निशानदेही सिर्फ शे’र या अश’आर का नं० दे कर फ़र्माए किसी तफ़्सील या तशरीह में न जाएं.अगर आप किसी क़िस्म की वज़ाहत या तशरीह ऐसी ही ज़रूरी समझते हैं तो मुझको ’इ-मेल’ कर दीजिए.मेरा ’इ-मेल’ का पता मेरे नाम के बाद दर्ज है.
इस में दो-चार बड़े सख़्त मक़ाम आते हैं

आप की तवज्जो का मम्नून-ओ-मुतशक्किर (आभारी व शुक्र गुजार ) हूँ.
यार ज़िन्दा ,सोहबत बाक़ी
(समाप्त)
----सरवर आलम ’राज़’ सरवर’
Email sarwar­_raz@hotmail.com

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

मज़मून : शायरी में ’ज़म(खोट) का पहलू’-----------कड़ी २

शायरी में ’ज़म(खोट) का पहलू’-----------कड़ी २
---सरवर आलम राज़ ’सरवर’(नोट : स्रोत -यह लेख इन्टरनेट साईट "उर्दू अन्ज़ुमन.काम से लिया गया है।जो उर्दू स्क्रिप्ट में लिखा हुआ है इसके मूल लेखक जनाब ’सरवर आलम राज़ ’सरवर’ साहिब है । यहाँ पर मैने हिंदीदाँ दोस्तों की सहूलियत के लिए सिर्फ़ हिंदी में नक़्ल-ए-तहरीर (ट्रान्सलिट्रेशन) किया है।) -आनन्द.पाठक
[इस मज़्मून की कड़ी -१ इसी ब्लाग पर दर्ज-ए-ज़ैल है.(नीचे दर्ज है)...............]

लुग़त (शब्दकोश) में ’ज़म’ के मानी ’मलामत’मज़्ज़मत.निंदामत,बुराई करने में है.शायरी में ’ज़म’ का पहलू ऐसी सूरत या नशिस्त या अल्फ़ाज़ की बन्दिश की वजह से पैदा होता है जो किसी वजह से क़ाबिले ऐतिराज़ (आपत्ति करने योग्य) समझी जा सके.कभी-कभी कोई शायर दानिस्ता (जान बूझ कर) भी ऐसी सूरत अख़्तियार करता है लेकिन फिर इसकी उस इरादी ग़लतनोशी का कोई जवाज़ (औचित्य) नहीं रह जाता है.और शे’र के साथ शायर को भी मा’तूब (कोप भाजन) क़रार देना ऐन इक़्तजाए इन्साफ़ (मौक़े पर इन्साफ़ वक़्त की ज़रूरत ) होता है.
ऐसे शे’र जिसमें ’ज़म का पहलू’ दर (बीच) में आता है आम तौर पर साफ़ सुथरे बेदाग़ नज़र आते हैं और फ़िल हक़ीक़त शायर का मुद्दआ यह होता भी नहीं है कि उनमें इरादतन ’ज़म का पहलू’ रखा जाए.यह ऐब तक़रीबन हमेशा ही बिल्कुल गै़र इरादी तौर पर सादिर(चलन में ) होता है और शायर इस जिम्न में मुत्तलिक़ मासूम और बेगुनाह हुआ करता है.चूँकि ’शे’र में ’ज़म का पहलू" ऐसी जगह ढूढ निकालने के लिए जहाँ एक आम ज़ेहन की रसाई (पहुँच) न हो एक ख़ास क़िस्म के दिमाग़ और ज़ेहन की ज़रूरत होती है.(आप इसको कज फ़हमी या कज दिमाग़ी कह सकते हैं) जो हर एक को फ़ितरत फ़ैयाज़ की तरफ़ से बदी’अत नहीं होता है.इस लिए शायर को खु़द भी इल्म नहीं होता कि इसके किसी शे’र में "ज़म का पहलू" मौजूद है.ज़ाहिर है कि अगर उसको ऐसे ऐब का एहसास हो जाए तो वह इसका इर्तिकाब(बुरे काम) की शुरुआत हर्गिज़ कहीं करेगा.
जैसे कि मैनें ऊपर अर्ज़ किया बाज़ औक़ात शायर अपने किसी मुख़ालिफ़ (विरोधी) शायर की तौहीन करने की गरज़ से इरादतन ’ज़म का पहलू’ अख़्तियार करता है और चूँकि यह फ़ेल अख़्तियारी (बुरे कर्म को अपनाना) होता है इस लिए बहुत ज़ाहिर भी होता है और लायक़-ए-निदामत (निन्दनीय) भी.ऐसा शे’र ’जम के पहलू’ के बजाय ’फक्कड़’ या लाग़्वा-गोयी (बकवास) के तहत किया जाना चाहिए.मैं ऐसी इरादी हरकत को एक मिसाल से वाजे़ह (स्पष्ट) करता हूँ

(१) मिसाल -१
आप लोगों में से कुछ लोग जरूर वाक़िफ़ होंगे कि दिल्ली के मशहूर उस्ताद शायर शाह मुबारक "आबरू" की एक आँख बेकार थी और इसमें ’फ़ुल्ला’ (आँख का एक दोष) पड़ा हुआ था.शाह साहब की मिर्ज़ा जान जानाँ ’मज़हर’ से मुख़ासमत (आपस में द्वेष भाव) थी और दोनो की शायराना चश्म्कीं (नोंक-झोंक)ज़माने भर में मशहूर थी."आबरू’ की कानी आँख का निशाना बना कर मिर्ज़ा जान जानाँ ने एक शे’र कहा जिसका पहला मिस्रा लिखता हूँ दूसरे मिस्रे से आप वाक़िफ़ ही होंगे
’आबरू की आँख में इक गाँठ है’
यह शे’र यकी़नन मिर्ज़ा साहिब जैसे कामिल फ़न शायर और दिल्ली तह्ज़ीब के एक नामलेवा को हरगिज़ ज़ेब (शोभा) नही देता था लेकिन वह अपने किसी बहुत ही कमज़ोर लमहे में ब-हर-कैफ़ यह शे’र कह गये होंगे.ज़ाहिर है कि इससे शाह ’आबरू’ साहब की काफी जग-हँसाई हुई क्योंकि ऐसी बातों से लुत्फ़ लेने वाले तो हर ज़माने में रहे हैं लेकिन शाह आलम कब चूकने वाले थे !उन्होने भी पलट कर मिर्ज़ा जान जाना ’मज़हर’ की तारीफ़ में इसी का़बिल का एक शे’र कह दिया जो यक़ीनन आप ने सुना होगा
क्या करूँ रब के किए को ,कोर मिरी चश्म है (कोर=अन्धा)
’आबरू जग में रहे तो जान जाना पश्म है
इन दोनो बुज़र्गों के अश’आर में ’ज़म का पहलू’ है और वह ढँका-छुपा नही है बल्कि बहुत ही वाज़ेह (साफ़) है क्यों कि यह अश’आर दोनों शायरों ने इरादतन एक दूसरे को ज़क ( अपमान) पहुँचाने की ग़रज़ से और तौहीन -ओ-तज़हीक (अपमान और हँसी उड़ाने) की नियत से कहे हैं .इस वाक़या का ज़िक्र मौलाना मुहम्मद हुसेन आज़ाद ने अपने किताब’ ’आबे-हयात’में तफ़्सील (विस्तार ) से किया है,यक़ीनन ऐसे बड़े शायरों को इतने गिरे हुए शे’र कहना (और वह भी अपने दिल की भड़ास निकालने केलिए) उन्हें किसी सूरत में ज़ेब (शोभा) नहीं देता. यह सोच कर ही इस दिल को समझाना पड़ता है कि ये बुज़ुर्ग भी आख़िर इन्सान ही थे और इन्सान ख़ता का पुतला है.अपने किसी कमज़ोर लम्हे में इनसे ऐसे शे’र सर-ज़द (सबके सामने) हो गये होंगे.यूँ भी हमारे यहाँ कहते हैं कि ’खता-ए-बुज़ुर्गां गिरिफ़्तां ख़ता अस्त’-( बुज़ुर्गो की ख़ता पर अंगुश्तनुमाई ( उँगली उठाना) ख़ुद एक ख़ता है)
-----------(अभी जारी है).......----

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

एक मज़मून : शायरी में ’ज़म(खोट) का पहलू’-----------कड़ी १

---सरवर आलम राज़ ’सरवर’

(नोट : स्रोत -यह लेख इन्टरनेट साईट "उर्दू अन्ज़ुमन.काम से लिया गया है।जो उर्दू स्क्रिप्ट में लिखा हुआ है इसके मूल लेखक जनाब ’सरवर आलम राज़ ’सरवर’ साहिब है । यहाँ पर मैने हिंदीदाँ दोस्तों की सहूलियत के लिए सिर्फ़ हिंदी में तहरीर-ए-नक़्ल (ट्रान्सलिट्रेशन) किया है।) -आनन्द.पाठक

जैसा कि हम सब जानते हैं ,इन्टरनेट की दुनिया में तमाम महफ़िलों में ग़ज़ल का इस कदर जोर है कि हर शख्स सिर्फ़ ग़ज़ल कहने और दूसरों की ग़ज़लों पर लिखने को ही इब्तिदा और इन्तिहा (आदि और अन्त) समझता है।अगर कभी किसी की कोई नज़्म नज़र आ जाती है तो मसर्रत ( खुशी) के साथ हैरत भी होती है कि यह बदी’अत (अज़ीबो गरीब स्थिति) कैसी?दरअस्ल (वास्तव में) यह भी उर्दू के ज़वाल (क्षरण) की निशानी है कि इसमें संजीदा (गंभीर) शायरी व अदबी काम नापैद (गायब) होता जा रहा है।तन्क़ीद-ओ-तहकी़क़ (समीक्षा व आलोचना) तो अब बराए नाम (नाम मात्र) ही रह गई।किसी रिसाले (पत्रिका) को उठा कर देख लीजिए। चन्द बहुत कम म’आर(स्तरीय) की आज़ाद नज़्में ,चन्द औसत और दूसरे दर्ज़े की ग़ज़लें, चार-छ्ह दूसरे या तीसरे दर्ज़े की अफ़्सानों के अलावा कुछ और हाथ नही आएगा।अगर क़िस्मत की खूबी से किसी माहिर-ए-फ़न की कोई अच्छी ग़ज़ल नज़र आ गई या म’आरी (स्तरीय)तन्क़ीद-ओ-तह्क़ीक़ पर कोई मज़्मून (लेख) दिखाई दे जाए तो इसे मक़ाम-ए-शुक्र (भला) समझिए। मीर तक़ी ’मीर’,मिर्ज़ा रफ़ी ’सौदा’,मिर्ज़ा ’गा़लिब’मौलाना ’हाली’,मोमिन खाँ ’मोमिन’,अमीर मिनाई वगै़रह क ज़िक्र छोड़े कि ये बुजु़र्ग तो दूसरे अहद(दुनिया) से ताल्लुक़ रखते हैं। अब तो वह ज़माना भी ख्वा़बो ख़याल होकर रह गया है जब नवाब मिर्ज़ा खाँ ’दाग़ देहलवी,अल्लामा इक़्बाल ,जिग़र मुरादाबादी, फ़िराक़ गोरखपुरी,हसरत मोहानी,फ़ानी बदायूनी,असगर गोंडवी,सीमाब अकबराबादी,आनन्द नारायण मुल्ला,जगन्नाथ आज़ाद,मुल्कराज़,रासिद हुसेन खां,खलीलुर्रहमान आज़मी ,नियाज़ फ़तेहपुरी,ताजवर नजीबा बादी,,मुंशी प्रेमचन्द,कॄशन चन्दर,फ़िराक़ गोरखपुरी अमीन हैदर,खदीजा मस्तूर (छिपा हुआ) हाजिरा(उपस्थित) फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ,शकील बदायूनी,एह्सान मारहरवी,,नशूर वाहिदी,नातिक़ लखनवी,,यास अज़ीमाबादी, अज़ीम बेग़ चुगताई,रासिद अहमद सिद्दीक़ी,कैप्टन सफ़ीकुर्रहमान,कर्नल मुहम्मद खाँ,ऐसे ही ,खु़दा जाने कितने शायर ,अदीब,अफ़सानानिगार(कहानीकार),नक्का़द(समालोचक),मिज़ाहनिगार(हास्य-व्यंग्य के लेखक)बज़्मे उर्दू को गरमाते रहते थे। अगर हम चिराग़-ए-रुखे ज़ेबा (चिराग-ए-रोशन)) लेकर ढूढने भी निकलें तो मुश्ताक़ यूसूफ़,कलीम अहमद अज़ीज़,शम्सुल रहमान फ़ारुक़ी,और २-३ मजीद (अतिरिक्त) नामोंके अलावा आप किसी बन्दपा(पूज्य) शायर,अदीब ,नक़्क़ाद या अफ़सानानिगार का नाम नहीं ले सकेंगे।’ " ब-बीं तफ़ावुत-ए-रेह-अज़ कुजा अस्त ता ब कुजा" (देखो तो सही कि रास्ता का फ़र्क़ कहाँ से कहाँ पहुँच गया है )"
आज बैठे बैठे मुझे ख्याल आया कि मैं चन्द सतूर (पंक्तियाँ) उर्दू ग़ज़ल के एक ऐसे ऐब के बारे में कारीं (पाठकों की) महफ़िल की खि़दमत में पेश करूँ।जिसके नाम से बेशीतर अह्बाब(दोस्त लोग) नाआशना होंगे।अब इस तरह की मालूमात आहिस्ता-आहिस्ता किस्स-ए-पारीन( पुरानी बातें) ही नहीं होती जा रही है बल्कि दुनिया से उठती जा रही है।और वह वक्त दूर नहीं कि अहले उर्दू (उर्दू वाले)इन बातों से नावाक़िफ़ और लाइल्म हो जायेंगे।अफ़्सोस कि अमेरिका में वह किताबें और वसाईल (साधन) द्स्त्याब(हस्तगत) नहीं हैं जो ऐसे मज़ामीन की तैयारी में कमा हक़्कू (जैसा कि इनका हक़ है) मदद दे सकें और न ही ऐसे लोग मौज़ूद हैं जिनसे इस्त्फ़ादा (फ़ायदा ले) कर कर के उन्हे ज्यादा मुक़म्मिल (पूरा) मुस्तनद और जामे (पूरा) बनाया जा सके।इसलिए आज का मौज़ूँ (विषय) नसिर्फ़ मुख्तसर (संक्षिप्त) होगा बल्कि बड़ी हद तक तश्ना (प्यास जगाने वाली) भी। शायद कहीं कोई ऐसा दोस्त मौजूद हो जो इस मज़ामीन में मुनासिब इज़ाफ़े (बढ़ोत्तरी) कर सके। अगर ऐसा हो सके तो मै बहुत ही मम्नून (आभारी) हूँगा। मुमकिन है कि मज़ामीन देख कर आप को भी कोई शे’र ऐसा याद आ जाए जो इस ऐब की तारीफ़ में आता है.आप से गुज़ारिश है वह शे’र मुझको इ-मेल से भेंज दे ताकि मुनासिब इह्तिसाब -ओ- इन्तिकाद (देख-भाल) के बाद आप ही के नाम से यहाँ पेश किया जा सके।यह दरख्वास्त इसलिए कर रहा हूँ कि मामला निहायत नाज़ुक है और इस मंज़िल में ऐहतियात निहायत ज़रूरी है।आप को मेरी इस बात की अहमियत का अन्दाज़ा पढ़ कर हो जाना चाहिए।
हमारे उस्तादों ने सदियों के तद्ब्बुर (सोच विचार) तदबीर(उपाय) सख़्त मेहनत के बाद शायरी के अ’ऊब(एबों) की फ़ेहरिस्तसाज़ी और हदबन्दी कर दी है।इस तरह उन्होने शायरी के मुहासिन( खूबियों)सनाए-ओ-बदा’अ(नई नई चामत्कारिक अलंकारों) को भी बहुत तफ़्सील व वज़ाहत से क़लमबन्द कर रखा है।आप इनमें से चन्द अऊ’ब(दोषों) और चन्द मुहासिन (खूबियो)से ज़रूर ही वा्क़िफ़ होंगे।मिसाल के तौर पर मुहासिन में फ़साहत-ओ-बलाग़त(सीधा सादा लेखन और चामत्कारिक लेखन) अश्र पज़ीरी(प्रभावकारी लेखन) मुख़्तलिफ़ सन’अती(विभिन्न प्रकार की शैल्पिक कारीगरी) वगै़रह ,और अ’ऊब (दोषों ) में शुतुर्गर्वा (ऊँट के गले में बिल्ली, बेमेल) हरूफ़ का गिरना या दबना,मुहावरों का ग़लत इस्तेमाल,हमारी आम मालूमात का हिस्सा है।अ’ऊब की फ़ेहरिस्त में एक नाम आता है ’ज़म का पहलू"(खोट का पहलू) । मसलन हम कहेंगे इस शायरी में "ज़म का पहलू"निकलता है।ऐसे बयान देखते ही ज़ेहन में एक सवाल फ़ितरी (स्वाभाविक ) तौर पर पैदा होता है कि यह ’ज़म का पहलू ’क्या होता है ? और यह किस चिड़िया का नाम है? आज की मुख़्तसिर गुफ़्तगू ’जम के पहलू’ पर ही होगी.....................................................(जारी)

सोमवार, 25 जनवरी 2010

ग़ज़ल 008 आ भी जा कि इस दिल की शाम

ग़ज़ल 008

आ भी जा कि इस दिल की शाम होने वाली है
दिन तो ढल गया ज्यों त्यों, रात अब सवाली है !

इक निगाह के बदले जान बेच डाली है
इश्क़ करने वालों की हर अदा निराली है !

हर्फ़-ए-आरज़ू लब पर आए भी तो क्या आए
नाबकार यह दुनिया किसकी सुनने वाली है ?

कोई क्या करे तकिया दूसरों की दुनिया पर
हमने ख़ुद ही इक दुनिया ख़्वाब में बसा ली है !

आब आब आईना ख़्वाब ख़्वाब उम्मीदें
रू-ए-ज़िन्दगानी का नक़्श भी ख़याली है !

फ़िक्र-ओ-फ़न की दुनिया पर वक़्त कैसा आया है
फ़न है बे-सुतून यारो ! फ़िक्र ला-उबाली है !

कोई क्या करे शिकवा वक़्त की खुदाई का
बज़्म-ए-मय हुई वीराँ और जाम खाली है

इश्क़ में बता ’सरवर’! क्या मिला तुझे आखिर
तूने ये मुसीबत क्यूँ अपने सर लगा ली है ?

-सरवर-
रू-ए-ज़िन्दगानी =ज़िन्दगी का चेहरा
नाबकार =नालाईक़
बेसुतून =बिना स्तम्भ के/बिना खम्बा के
ला-उबाली =मस्त

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

विविध 003 : एक ग़ज़ल :गुरूर-ए-हुस्न के मंज़र ... [ पी0 के0 स्वामी ]

[पिछली बार इस साईट पर एक ग़ज़ल " शौक़ है उनको मुस्कराने का......" चस्पा की थी .इस पर कुछ अहलेकारीं (पाठक गण) ने गुज़ारिश की कि राक़िम-उल-हरूफ़ (लेखक) का एक मुख़्तसर तार्रुफ़ (संक्षिप्त परिचय) भी पेश किया जाय तो रवा (उचित) होगा.इसी के मद्द-ए-नज़र उनकी एक और ग़ज़ल मुख़्तसर तार्रुफ़ के साथ पेश की जा रही है

पी०के०स्वामी (प्रभात कुमार स्वामी) की पैदाईश 1947 ,कलकत्ता (कोलकोता) में हुई. आपकी graduation और law की तालीम वहीं से हुई जहां आप ३१ साल तक मुकीम रहे. मौसूफ़ पिछले बत्तीस सालों से देलही में कयाम रखते हैं और दीगर मुलाज़मत के बाद एक MNC से बतौर मुन्ताजिम.ए आला रिटायर हुए.उर्दू से बेहद मुहब्बत है. इन्हों ने उर्दू ज़बान और ग़ज़ल की रहनुमाई अमेरिका में बसे मोहतरिम उस्ताद सरवर आलम राज़ "सरवर" से हासिल की और सीखने का ये सिलसिला जारी है.
(email ; pkswami1@gmail.com)
चलते-चलते अहले-कारीं को आग़ाह कर दें
"स्वामी" के नाम से यह भरम न हो कि जनाब दक्षिण भारत से या किसी भगवाधारी से रब्त रखते है.लोग मोहब्बत से इन्हें ’स्वामी’से याद करते हैं.आप बड़ी शिद्दत से शे’र-ओ-शायरी का शौक़ फ़र्माते है. जब आप से तार्रुफ़ पूछा गया तो फरमाया के :

यह और बात है कि तार्रुफ़ न हो सका
हम ज़िन्दगी के साथ बहुत दूर तक गये !

इनकी एक और ग़ज़ल दर्ज-ए-ज़ैल (नीचे दर्ज) है आप भी लुत्फ़-अन्दोज़ होइए.

ग़ज़ल ०२
गुरुर-ए- हुस्न के मंज़र जहां मालूम होते हैं
हसीं कुछ वार खंज़र के वहां मालूम होते हैं

निगाह-ए- शौक़ के जलवे जहां मालूम होते हैं
ये जितने हों निहां उतने अयाँ मालूम होते हैं

तबस्सुम ज़ेर-ए-लब है और पेशानी पे बल तौबा
मेहरबाँ हैं मगर ना-मेहरबाँ मालूम होते हैं

अजब नाज़ -ओ -अदा -ए -दिलनवाज़ी हुस्न वालों की
के ज़ालिम रूठ कर भी जान-ए- जां मालूम होते हैं

न जाने वक़्त-ए-आख़िर किस लिए अहसास होता है
लुटे हम जिन के हाथों पासबां मालूम होते हैं

मेरा फैज़ -ए-तख़य्युल है कि मेराज -ए-मुहब्बत है
नज़र से दूर हैं वो पर यहाँ मालूम होते हैं

बहार आयी है जिन पर और रानाई चमकती है
दिल -ए-पामाल गुलशन के निशाँ मालूम होते हैं

हमारे मैकदे के रिंद गिरते और संभलते हैं
ये क़ैफ़ -ए-बेख़ुदी के राजदां मालूम होते हैं

वो भूले से जो आ जाए कभी दाम-ए-तसव्वर में
निशात -ए-दीद के दरया रवां मालूम होते हैं

हसीनों कि परस्तिश में गवां दी जां ’स्वामी’ ने
फरिश्तों ने कहा ये तो जवां मालूम होते हैं !!!

-- PK Swami

निहाँ =छुपे हुए
अयाँ =जाहिर तौर पर, स्पष्ट
फ़ैज़-ए-तख़य्युल= सोच के फ़ायदे
मेराज-ए-मुहब्बत= मुहब्बत की सीढ़ी
दिल-ए-पामाल =पैरों से कुचला हुआ दिल
दाम-ए-तसव्वुर = कल्पना की जाल में

शनिवार, 16 जनवरी 2010

ग़ज़ल 007 : यूँ अहल-ए-दिल में मेरा --

ग़ज़ल 007

यूँ अहले-दिल में मेरा इलाही ! शुमार हो
मेरी जबीं पे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा-ए यार हो

इतना असर तो तुझ में ग़मे-यादे-यार हो
मैं बे-सुकूँ इधर वो उधर बे-क़रार हो !

शाम-ए-ख़िज़ाँ बा-रंगे-जमाल-ए-बहार हो
गर ज़िन्दगी पे अपनी कोई इख़्तियार हो

दामन है चाक मेरा,गिरेबाँ भी तार-तार
कोई तो हो जो इश्क़ का आईनादार हो !

मैं हूँ ,ख़्याल-ए-यार हो,शाम-ए-उमीद हो
यूँ ख़ातिमा हयात का पायानेकार हो !

अफ़्सोस अब सज़ा के भी का़बिल नही रहा
मेरी तरह ख़ुदा न करे कोई ख़्वार हो !

गुम हूँ मैं इस तरह खु़द अपनी ही जात में
जैसे वह मौज ,बेह्र की जो राज़दार हो !

हुस्ने-ख़ुदी में रंग हो ऐसा कि हमनशीं
आईना जिसको देख के ख़ुद शर्मसार हो !

जैसा कि मेरे साथ राह-ए-दर्द में हुआ
वैसा ही तेरे साथ हो और बार-बार हो !

’सरवर’ दुआ हमारी तिरे हक़ में है यही
ये बज़्म-ए-शे’र तेरे लिए साज़गार हो !

-सरवर-

जबीं पे =माथे पर
कफ़े-पाए =पाँव के तलुवे
बेह्र =समुन्द्र
पायानेकार = आख़िरकार

ग़ज़ल 006 : मेरे जब भी करीब आई बहुत

ग़ज़ल 006

मेरे जब भी क़रीब आई बहुत है
ये दुनिया मैने ठुकराई बहुत है !

मै समझौता तो कर लूँ ज़िन्दगी से
मगर ज़ालिम यह हरजाई बहुत है !

तुम्हें सरशारी-ए-मंज़िल मुबारक
हमें ये आबला-पाई बहुत है !

कहाँ मैं और कहाँ मेरी तमन्ना
मगर यह दिल ! कि सौदाई बहुत है

बला से गर नहीं सुनता है कोई
मजाल-ओ-ताब-ए-गोआई बहुत है

मैं हसरत-आशना-ए-आरज़ू हूँ
मिरी ग़म से शनासाई बहुत है !

मैं ख़ुद को ढूँढता हूँ अन्जुमन में
मुझे एहसास-ए-तन्हाई बहुत है

ना आई याद तो बरसों न आई
मगर जब आई तो आई बहुत है

मिरी रिंदी बा-रंग-ए-पार्साई
हरीफ़े-खौफ़-ए-रुस्वाई बहुत है

ज़माने को शिकायत है यह ’सरवर’
कि तुझ मे बू-ए-खुदराई बहुत है

-सरवर-

आबला-ए-पायी =पाँवों के छाले
सरशारी-ए-मंज़िल = मंज़िल की पहुँच
मजाल-ओ-ताब-ए-गोआई = मेरी बोलने की ताकत और क्षमता
शनासाई =जान-पहचान
रिंदी बा-रंग-ए-पार्साई = मेरा शराबीपन और संयम
हरीफ़े-खौफ़-ए-रुस्वाई =रक़ीब की बदनामी का डर
रक़ीब = एक प्रेमिका के दो परस्पर प्रेमी
बू-ए-खुदराई = स्वेच्छाचारिता की गंध

विविध 002 :एक ग़ज़ल :शौक़ है उन को मुस्कराने का..[ पी0 के0 स्वामी ]

एक ग़ज़ल : शौक़ है उनको मुस्कराने का--

शौक़ है उन को मुस्कराने का
नीम-जानों को आजमाने का

तेरी आँखों से बर्क़ कहती है
दर्स दे बिजलियाँ गिराने का 

हर जगह अब है जुस्तजू मेरी
सिलसिला है मुझे मिटाने का

इससे बेहतर है क़त्ल ही कर दे
फ़ायदा क्या मुझे सताने का

जब क़दम कू-ए-यार में बहके
लुत्फ़ आया फ़रेब खाने का

फ़स्ल-ए-गुल हुस्न की नुमायश है
है यह मौसम बहार आने का

हुस्न फितरत से है जफ़ा परवर
इश्क़ तो नाम है निभाने का

हर सदा पर गुमां ये होता है
जैसे मुज़्दा हो तेरे आने का

ज़ेब जो तुमको है किए जाओ
हश्र देखेंगे दिल लगाने का

हाय! क्या क्या वो दिल में रखता है
जिसके दिल में है ग़म ज़माने का

--- पी०के० स्वामी


नीमजान =- कच्चे ह्रदय वाला
दर्स =- सबक
कू-ए-यार =- माशूक की गली
फ़स्ल-ए-गुल =-बहार का मौसम
मुज़्दा =- खुश खबरी

हश्र =- परिणाम

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

ग़ज़ल 005 : दिल को यूँ बहला रख्खा है ---

ग़ज़ल :005

दिल को यूँ बहला रखा है
दर्द का नाम दवा रखा है !

आओ प्यार की बातें कर लें
इन बातों में क्या रखा है !

झिलमिल-झिलमिल करती आँखें
जैसे एक दिया रखा है !

अक़्ल ने अपनी मजबूरी का
थक कर नाम ख़ुदा रखा है !

मेरी सूरत देखते क्या हो ?
सामने आईना रखा है !

राहे-वफ़ा के हर काँटे पर
दर्द का इक क़तरा रखा है

अब आए तो क्या आए हो ?
आह ! यहाँ अब क्या रखा है !

अपने दिल में ढूँढो पहले
तुमने खु़द को छुपा रखा है

अब भी कुछ है बाक़ी प्यारे?
कौन सा ज़ुल्म उठा रखा है !

’सरवर’ कुछ तो मुँह से बोलो
यह क्या रोग लगा रखा है ?

-सरवर-

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

ग़ज़ल 004 : दिल दुखाए कभी, जाँ जलाए कभी--

ग़ज़ल ०४

दिल दुखाए कभी ,जाँ जलाए कभी, हर तरह आज़माए तो मैं क्या करूँ ?
मैं उसे याद करता रहूँ हर घड़ी , वो मुझे भूल जाए तो मैं क्या करूँ ?

हाले-दिल गर कहूँ मैं तो किस से कहूँ,और ज़बाँ बन्द रखूँ तो क्यों कर जियूँ ?
यह शबे-इम्तिहां और यह सोज़े-दुरूं ,खिरमने-दिल जलाए तो मैं क्या करूँ ?

मैने माना कि कोई ख़राबी नहीं , पर करूँ क्या तबियत ’गुलाबी’ नहीं
मैं शराबी नहीं ! मैं शराबी नहीं ! वो नज़र से पिलाए तो मैं क्या करूँ ?

सोज़े-हर दर्द है , साज़े-हर आह है , गाह बे-कैफ़ हूँ सरखुशी गाह है
मेरी हर आह में इक निहाँ वाह है ,इश्क़ जादू जगाए तो मैं क्या करूँ ?

कुछ ये खुद-साख़्ता अपनी मजबूरियाँ ,कुछ ज़माने की सौगा़त मेह्जूरियाँ
और उस पर कि़यामत कि ये दूरियाँ,चैन एक पल न आए तो मैं क्या करूँ ?

मुझको दुनिया से कोई शिकायत नहीं , झूठ बोलूँ मिरी ऐसी आदत नहीं
ये हक़ीक़त है यारो ! हिकायत नहीं ,बे-सबब वो सताए तो मैं क्या करूँ ?

ज़हमते - ज़ीस्त है ,दौर-ए-अय्याम है , ना-मुरादी मिरा दूसरा नाम है
क्यों ग़मे-मुस्तक़िल मेरा अन्जाम है,जब क़ियामत ये ढाए तो मैं क्या करूँ ?

ख़ुद ही मैं अक़्स हूँ ,ख़ुद ही आईना हूँ ,मैं बला से ज़माने पे ज़ाहिर न हूँ
हाँ ! छुपूँ गर मैं ख़ुद से तो कैसे छुपूँ यह ख़लिश जो सताए तो मैं क्या करूँ ?

शायरी मेरी ’सरवर’ ये तर्ज़े-बयाँ ,यह तग़ज़्ज़ल , तरन्नुम ,यह हुस्ने-ज़बाँ
सब अता है ज़हे मालिक-ए-दो जहाँ! गर किसी को न भाए तो मैं क्या करूँ ?
-सरवर-

ज़हमते-ज़ीस्त =ज़िन्दगी के झमेले सोज़े-दुरूँ =दूरियों की तपिश/जलन
नामुरादी =असफलताएँ ख़िरमन-ए-दिल = दिल का पैदावार
बेसबब =बिना मतलब बे-कैफ़ = चिन्ता ग्रस्त
ग़मे-मुस्तक़िल = स्थाई ग़म सरखुशी =हलका नशा
निहाँ =छिपा हुआ ख़ुद-साख़्ता= अपनी बनाई हुई
महजूरियाँ =वियोग/विरह हिकायत = कथा-कहानी
दौर-अय्याम = समय का फ़ेर तग़ज़्ज़ल =ग़ज़लीयत

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

एक ज़मीन तीन शायर : ’ग़ालिब’ ’दाग़’ और ’अमीर’ मिनाई

एक ज़मीन तीन शायर : ’ग़ालिब’ ’दाग़’ और ’अमीर’ मिनाई
-सरवर आलम राज़ ’सरवर’


हम सब मिर्ज़ा ’ग़ालिब’ की मशहूर ग़ज़ल " ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता’ से बाख़ूबी वाक़िफ़ हैं.न सिर्फ़ इस को सैकड़ो बार पढ़ चुके है बल्कि कितने ही गुलू-कारों ने अपनी आवाज़ के जादू से इस को जाविदां बना दिया है.ये ग़ज़ल अपने ज़माने में भी काफी मक़्बूल हुई थी."अमीर" मिनाई के शागिर्द मुमताज़ अली ’आह’ने अपनी किताब
"सीरत-ए-अमीर अहम्द ’अमीर’ मिनाई " में लिखा है कि गो मिर्ज़ा का कलाम जिन अनमोल जवाहरों से मलामाल है उन के सामने ये ग़ज़ल कुछ ज़ियादा आब-ओ-ताब नहीं रखती मगर इस का बहुत चर्चा और शोहरत थी.अमीर’ मिनाई उस ज़माने में(लगभग १८६० में) नवाब युसुफ़ अली ख़ान’नाज़िम’ वाली-ए-रामपुर के दरबार से मुन्सलिक थे.नवाब साहेब की फ़रमाईश पर उस ज़माने एमं उन्होने भी एक ग़ज़ल कही थी.जो ग़ज़ल-१ के तहत नीचे दी गई है."अमीर’मिनाई बहुत बिसयार-गो थे(यानी लम्बी लम्बी ग़ज़लें लिखा करते थे).उन्होने इसी ज़मीन में एक और ग़ज़ल भी कही थी.जो यहाँ "ग़ज़ल-२" के नाम से दी जा रही है.मिर्ज़ा ’दाग़’ ने भी नवाब रामपुर की फ़रमाईश पर इसी ज़मीन में ग़ज़ल कही थी.वो भी पेश-ए-ख़िदमत है. !उम्मीद है कि यह पेश-कश आप को पसन्द आयेगी.

मिर्ज़ा अस्दुल्लाह खान ’ग़ालिब’
यह न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तिज़ार होता !

तिरे वादे पे जिए हम तो यह जान झूट जाना
कि खु़शी से मर न जाते अगर ऐतिबार होता

तिरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था अह्द बूदा
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तवार होता

कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीमकश को
यह ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता ?

यह कहाँ कि दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारा साज़ होता, कोई ग़म गुसार होता !

रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो वो अगर शरार होता

ग़मअगर्चे जां गुसल है पे कहाँ बचें कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ,ग़म-ए-रोज़गार होता !

कहूँ किस से मैं कि क्या है,शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता !

हुए मर के हम जो रुस्वा,हुए क्यों न ग़र्क़-ए-दर्या
न कभी जनाज़ा उठता ,न कहीं मज़ार होता

उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकता
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़ ,ये तिरा बयान ’ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता

विसाले-ए-यार = प्रेमिका से मिलन तीरे-ए-नीमकश = आधा खिंचा हुआ तीर
अह्द = प्रतिग्या ख़लिश = दर्द
उस्तुवार = पक्का चारासाज़ =उपचार करने वाला
ग़मगुसार =ग़म में सहानुभूति दिखाने वाला रग-ए-संग =पत्थर की नस
जां गुसिल = जान लेने वाला यगाना/यकता = एक ही ,अद्वितीय
मसाइल-ए-तसव्वुफ़= अध्यात्मिकता की समस्यायें
बादाख़्वार =शराबी नासेह =प्रेम त्याग का उपदेश देने वाला
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नवाब मिर्ज़ा ख़ान "दाग़’ देहलवी
अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता

कोई फ़ित्ना ता-क़ियामत ना फिर आशकार होता
तिरे दिल पे काश ज़ालिम मुझे इख़्तियार होता

जो तुम्हारी तरह हमसे कोई झूटे वादे करता
तुम्हीं मुन्सिफ़ी से कह दो ,तुम्हें ऐतिबार होता

ग़म-ए-इश्क़ में मज़ा था जो उसे समझ के खाते
ये वो ज़हर है कि आख़िर मय-ए-ख़ुशगवार होता

न मज़ा है दुश्मनी में ,न ही लुत्फ़ दोस्ती में
कोई गै़र गै़र होता ,कोई यार यार होता !

ये मज़ा था दिल लगी का,कि बराबर आग लगती
न तुझे क़रार होता ,न मुझे क़रार होता

तिरे वादे पर सितमगर ! अभी और सब्र करते
अगर अपनी ज़िन्दगी का हमें ऐतिबार होता

ये वो दर्द-ए-दिल नहीं है कि हो चारासाज़ कोई
अगर एक बार मिटता तो हज़ार बार होता

गये होश तेरे ज़ाहिद !जो वो चश्म-ए-मस्त देखी
मुझे क्या उलट न देता जो न बादा-ख़्वार होता ?

मुझे मानते सब ऐसा कि उदू भी सजदा करते
दर-ए-यार काबा बनता जो मिरा मज़ार होता

तुझे नाज़ हो ना क्योंकर कि लिया है ’दाग’ का दिल
ये रक़म ना हाथ लगती,ना ये इफ़्तिख़ार होता !
फ़ित्ना = फ़साद उदू =बड़े लोग भी
आशकार = जाहिर होना रक़म =धन-दौलत
इफ़्तिख़ार = मान-सम्मान
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अमीर अहमद ’अमीर’ मिनाई


ग़ज़ल - १
मिरे बस में या तो यारब ! वो सितम-शि’आर होता
ये न था तो काश दिल पर मुझे इख़्तियार होता !

पस-ए-मर्ग काश यूँ ही मुझे वस्ल-ए-यार होता
वो सर-ए- मज़ार होता ,मैं तह-ए-मज़ार होता !

तिरा मयक़दा सलामत ,तिरे खु़म की ख़ैर साक़ी !
मिरा नश्शा क्यूँ उतरता मुझे क्यूँ ख़ुमार होता ?

मिरे इत्तिक़ा का बाइस तो है मेरी ना-तवानी
जो मैं तौबा तोड़ सकता तो शराब-ख़्वार होता !

मैं हूँ ना-मुराद ऐसा कि बिलक के यास रोती
कहीं पा के आसरा कुछ जो उम्मीदवार होता

नहीं पूछता है मुझको कोई फूल इस चमन में
दिल-ए-दाग़दार होता तो गले का हार होता

वो मज़ा दिया तड़प ने कि यह आरज़ू है यारब !
मिरे दोनो पहलुओं में दिल-ए-बेक़रार होता

दम-ए-नाज़ भी जो वो बुत मुझे आ के मुँह दिखा दे
तो ख़ुदा के मुँह से इतना न मैं शर्मसार होता

जो निगाह की थी ज़ालिम तो फिर आँख क्यों चुरायी?
वो ही तीर क्यों न मारा जो जिगर के पार होता

मैं ज़बां से तुमको सच्चा कहो लाख बार कह दूँ
उसे क्या करूँ कि दिल को नहीं ऐतिबार होता

मिरी ख़ाक भी लहद में न रही ’अमीर’ बाक़ी
उन्हें मरने ही का अब तक नहीं ऐतिबार होता !

सितम-शि’आर =जुल्म करने की फ़ितरत पस-ए-मर्ग = मरने के बाद
इत्तिक़ा =संयम बाइस =वज़ह ,कारण
मलक =फ़रिश्ते लह्द-फ़िशार= मुसलमानों के धर्म के अनुसार पापी
मनुष्यों को क़ब्र बड़े ज़ोर से खींचती है


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ग़ज़ल - २

नयी चोटें चलतीं क़ातिल जो कभी दो-चार होता
जो उधर से वार होता तो इधर से वार होता

तिरे अक्स का जो क़ातिल! कभी तुझ पे वार होता
तो निसार होने वाला येही जाँ निसार होता

रही आरज़ू कि दो-दो तिरे तीर साथ चलते
कोई दिल को प्यार करता,कोई दिल के पार होता

तिरे नावक-ए-अदा से कभी हारता न हिम्मत
जिगर उसके आगे होता जो जिगर के पार होता

मिरे दिल को क्यूँ मिटाया कि निशान तक न रख़्खा
मैं लिपट के रो तो लेता जो कहीं मज़ार होता !

तिरे तीर की ख़ता क्या ,मिरी हसरतों ने रोका
ना लिपटतीं ये बलायें तो वो दिल के पार होता

मैं जियूँ तो किसका होकर नहीं कोई दोस्त मेरा
ये जो दिल है दुश्मन-ए-जां यही दोस्तदार होता

मिरे फूलों मे जो आते तो नये वो गुल खिलाते
तो कलाईयों में गजरे तो गले में हार होता

तिरे नन्हें दिल को क्यों कर मिरी जान मैं दुखाता
वो धड़कने क्या न लगता जो मैं बेक़रार होता ?

मिरा दिल जिगर जो देखा तो अदा से नाज़ बोला
यह तिरा शिकार होता ,वो मिरा शिकार होता

सर-ए-क़ब्र आते हो तुम जो बढ़ा के अपना गहना
कोई फूल छीन लेता जो गले का हार होता

दम-ए-रुख़्सत उनका कहना कि ये काहे का है रोना ?
तुम्हें मिरी क़समों का भी नहीं ऐतिबार होता ?

मैं निसार तुझ पे होता तो रक़ीब जान खोता
मैं तिरा शिकार होता ,वो मिरा शिकार होता

शब-ए-वस्ल तू जो बेख़ुद नो हुआ ’अमीर’ चूका
तिरे आने का कभी तो उसे इन्तिज़ार होता !

नावक-ए-अदा =तीर चलाने का अंदाज़

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समाप्त
प्रस्तुतकर्ता : आनन्द.पाठक

रविवार, 3 जनवरी 2010

ग़ज़ल 003 : दिल ही दिल में डरता हूँ

ग़ज़ल ०३


दिल ही दिल में डरता हूँ कुछ तुझे ना हो जाए
वरना राह-ए-उल्फ़त में जाए जान तो जाए

मेरी कम नसीबी का हाल पूछते क्या हो
जैसे अपने ही घर में राह कोई खो जाए

गर तुम्हे तकल्लुफ़ है मेरे पास आने में
ख़्वाब में चले आओ यूँ ही बात हो जाए

झूठ मुस्कराए क्या आओ मिल के अब रो लें
शायरी हुई अब कुछ गुफ़्तगू भी हो जाए

ये भी कोई जीना है?खाक ऐसे जीने पर
कोई मुझ पे हँसता है ,कोई मुझको रो जाए

मेरे दिल के आँगन में किस क़दर अँधेरा है
काश ! चाँदनी बन कर कोई इसको धो जाए

याद एक धोखा है ,याद का भरोसा क्या
तुम्ही खु़द यहाँ आकर ,याद से कहो जाए

देख कर चलो ’सरवर’! जाने कौन उल्फ़त में
फूल तुमको दिखला कर ,ख़ार ही चुभो जाए

-सरवर-
तकल्लुफ़ =तकलीफ़
खार = काँटा