शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

ग़ज़ल 012: ज़माने की अदा है काफ़िराना

ग़ज़ल 012


ज़माने की अदा है काफ़िराना
जुदा मेरा है तर्ज़-ए-आशिक़ाना

तिरा ज़ौक़-ए-तलब ना-मेह्रिमाना
न आह-ए-सुब्ह ने सोज़-ए-शबाना

शबाब-ओ-शे’र-ओ-सेहबाये-मुहब्बत
बहोत याद आये है गुज़रा ज़माना

’ चे निस्बत ख़ाक रा बाआलम-ए-पाक ?
कहाँ मैं और कहाँ वो आस्ताना

बहुत नाज़ुक है हर शाख़-ए-तमन्ना
बनायें हम कहाँ फिर आशियाना ?

मकाँ जो है वो अक्स-ए-लामकाँ है
अगर तेरी नज़र हो आरिफ़ाना !

मिरी आह-ओ-फ़ुग़ां इक नै-नवाज़ी
मिरा हर्फ़-ए-शिकायत शायराना

मैं नज़रें क्या मिलाता ज़िन्दगी से
उठीं ,लेकिन उठीं वो मुज्रिमाना

हमारी ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी है
मगर इक साँस लेने का बहाना

मुझे देखो,मिरी हालात न पूछो
मुझे आता नहीं बातें बनाना

उलझ कर रह गया मैं रोज़-ओ-शब में
समझ में कब ये आया ताना-बाना

न देखो, इस तरह मुझको न देखो
बिखर जाऊँगा होकर दाना-दाना

मुझे है हर किसू पर ख़ुद का धोका
ये दुनिया है कि है आईना-ख़ाना ?

निकालो राह अपनी आप ’सरवर’
कभी दुनिया की बातों में न आना !

-सरवर


मुज्रिमाना =अपराधियों जैसा
आरिफ़ाना =सूफ़ियों जैसा
आस्ताना = चौखट
आह-ओ-फ़ुँगा= विलाप
आईनाख़ाना =शीशे का घर
सोज़-ए-शबाना =रात में दिल की जलन

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