ग़ज़ल 010
कहाँ से आ गए तुम को न जाने
बहाने और फ़िर ऐसे बहाने !
कोई यह बात माने या न माने
मुझे धोखा दिया मेरे ख़ुदा ने !
ज़माना क्या बहुत काफी नहीं था ?
जो तुम आए हो मुझको आज़माने !
लबों पर मुह्र-ए-ख़ामोशी लगी है
दिलों में बन्द हैं कितने फ़साने !
न मौत अपनी न अपनी ज़िन्दगी है
मगर हीले वही है सब पुराने !
ज़माने ने लगाई ऐसी ठोकर
हमारे होश आए है ठिकाने !
कहाँ तक तुम करोगे फ़िक्र-ए-दुनिया ?
चले आओ कभी तुम भी मनाने !
हवा-ए-नामुरादी ! तेरे सदक़े
बहार अपनी न अपने आशियाने !
ज़रा देखो कि डर कर बिजलियों से
जला डाले ख़ुद अपने आशियाने !
मिलेंगे एक दिन ’सरवर’ से जाकर
अगर तौफ़ीक़ दी हम को ख़ुदा ने !
-सरवर-
तौफ़ीक़ = शक्ति,सामर्थ्य
हीले =बहाने
बहुत बेहतरीन रचना है।बधाई।
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