शनिवार, 24 मार्च 2018

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 47 [ बह्र-ए-बसीत]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 47 [ बह्र-ए-बसीत]

Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है 

--पिछली क़िस्त में हम बह्र-ए-तवील की चर्चा कर चुके हैं। अब बह्र-ए-बसीत की चर्चा करेंगे
यह भी एक अरबी बह्र है
इस बह्र का बुनियादी रुक्न " मुस तफ़ इलुन + फ़ाइलुन" है यानी [ 2212+212]-दो रुक्न के मेल से बनता है अत: मुरक़्क़ब बह्र है
इस बह्र की कुछ प्रचलित आहंग की चर्चा कर लेते हैं

[1] बसीत मुसम्मन सालिम
 मुसतफ़ इलुन ---फ़ाइलुन---मुसतफ़ इलुन---फ़ाइलुन
2212----------212---------2212---------212-
उदाहरण-
सफ़ी अमरोहवी का एक शे’र है

नाहक़ बला में पड़ा क्यों दिल तुझे क्या हुआ
काकुल की है यार में क्या तुझ को सौदा हुआ

तक्तीअ के के देख लेते
2   2    1 2   / 2 1 2 //  2  2   1 2  / 2 1 2
नाहक़ बला/  में पड़ा/  क्यों दिल तुझे /क्या हुआ
 2    2  1   2  /  2 1 2/  2    2    1    2  / 2 1 2
काकुल की है /यार में / क्या तुझ को सौ/ दा हुआ

यह बह्र -ए-शिकस्ता भी है
इस बह्र में अरूज़/ज़र्ब मे ’फ़ाइलुन’ [212] की जगह ’फ़ाइलान’ [2121] लाया जा सकता है

[ ऐसी मुरक़्क़ब बहर जो दो अर्कान A-B  से मिलकर बनती है उन की
मुसम्मन शकल होती है      A-B--A--B और
मुसद्दस शकल  होती है      A--B--A
अत: इस बह्र की मुसद्दस शकल भी मुमकिन है
यानी मुसतफ़ इलुन---फ़ाइलुन--मुसतफ़ इलुन [ 2212---212---2212

[2] बसीत मुसद्दस सालिम
मुसतफ़ इलुन----फ़ाइलुन----मुसतफ़ इलुन
  2212-------------212--------2212
यहाँ भी ,अरूज़/ज़र्ब में - मुस तफ़ इलुन की जगह -मुसतफ़इलान [22121] लाया जा सकता है
उदाहरण :कमाल  अहमद सिद्दिक़ी साहब के हवाले से

जब तक रहे साथ ग़म आया न पास
जब हम रहे दूर तो मुज़्तर  रहे 

[मुज़्तर = परेशान ,बेचैन]
अब तक़्तीअ क्र के देख लेते हैं
  2   2    1  2/ 2 1  2   / 2  2  1 2 [1]
जब तक रहे/ साथ ग़म /आया न पास
2      2    1 2/ 2 1  2  / 2 2    1 2
जब हम रहे / दूर तो / मुज़ तर  रहे

अरूज़ के मुक़ाम पर 22121 यानी मुस तफ़ इलान लाया गया है जो लाया जा सकता है
एक बात और
आप जानते है ’मुस तफ़ इलुन ’ [2212] बह्र-ए-रजज़ का बुनियादी रुक्न है और फ़ाइलुन [212] मुज़ाहिफ़ है -मरफ़ूअ’ है मुस तफ़ इलुन का । और यह मुज़ाहिफ़ सदर /इब्तिदा/ हस्व मे लाया जा सकता है -जो ज़ेर-ए-बहस रुक्न में आ भी गया है
तो क्या यह बसीत के बजाय ’रजज़’ की बहर है ?
जी हाँ ,यह बहर -रजज़ में भी आ सकती है } आहंग तो आहंग है---बसीत की आहंग हो या रजज़ की--क्या फ़र्क़ पड़ता है --शे’र या ग़ज़ल कहने में।

[3] बसीत मुसम्मन मख़बून
हम जानते है कि मुसतफ़इलुन [2212] का म्ख़्बून मुज़ाहिफ़ मफ़ाइलुन [1212] होता है जब कि फ़ाइलुन[212] का मख़्बून मुज़ाहिफ़ ’फ़अलुन’ [112] होता है
तो बसीत मुसम्मन मख़्बून का वज़न हो जायेगा
मफ़ाइलुन-------फ़अलुन---//--मफ़ाइलुन-----फ़अलुन
1212-----------112-------//----1212-------112-
उदाहरण

दिखा  दे शक ल ज़रा सनम बराए ख़ुदा
ये है सवाल मेरा गिला रहे न  ज़रा

तक़्तीअ भी देख लेते हैं
1   2   1   2    / 1 1 2 /  1 2 1 2 / 1 1 2
दिखा  दे शक /ल ज़रा /सनम बरा/ ए ख़ुदा
1   2  1 2  / 1 1 2/ 1 2 1 2  / 1  1 2
ये  है सवा/ ल मेरा / गिला रहे  / न  ज़रा

यह बह्र भी बह्र-ए-शिकस्ता है
इस बहर में भी अरूज़/ज़र्ब में  फ़अलुन [112] की जगह ’फ़इलान [1121] [-ऐन मुतहर्रिक] या फ़अ लान [2 2 1] [-ऐन बसकून]  भी कर सकते है

[4] बसीत मुसम्मन मुतव्वी सालिम मुतव्वी सालिम
 मुस तफ़ इलुन [2212] का तय्यी ज़िहाफ़ से  मुफ़ त इ लुन [2112] हो जाता है जिस की मुज़ाहिफ़ शकल को  ’मुतव्वी’ कहते है  और जिसमें [-ते- और -ऐन -मुतहर्रिक है ] यानी 2 1 12]
तो इस बहर के अर्कान हो जायेंगे
मुफ़ त इ लुन----फ़ाइलुन---//--मुफ़ त इ लुन-----फ़ाइलुन
2 1 1 2----------2 1 2----//---2  1  1  2--------212

अरूज़ और ज़र्ब में फ़ाइलुन [212] की जगह ’फ़ाइलान [ 2121] [यानी मज़ाल] भी लाया जा सकता है
उदाहरण
डा0 आरिह हसन ख़ान साहब के हवाले से

ये तो मेरे भाई हैं ,कैसे इन्हें छोड़ दूँ
अहल-ए-वतन फूँक दें,घर को ख़ुशी से मेरा

अब तक़्तीअ भी कर के देख लेते हैं
2 1  1 2   /2  1 2 //  2 1 1 2 / 2 1 2
मुफ़ त इलुन/ फ़ाइलुन// मु त इलुन/ फ़ाइलुन
ये तो मिरे /भाइ हैं //,कै से इने /छोड़ दूँ

मुफ़ त इलुन/ फ़ाइलुन// मु त इलुन/ फ़ाइलुन
2  1       1  2   /  2 1 2 // 2 1  1    2   / 2 1 2
अहल-ए-वतन /फूँक दें,//घर को ख़ुशी/ से मिरे
यहाँ ध्यान दें  अह ले व तन= मुफ़ त [-ले-मुतहर्रिक] व तन [ इलुन]  हैं  यानी मुफ़ त इ लुन [2112] है
बाक़ी इसी तरह आप और हर्फ़ भी  समझ सकते हैं

यह भी बह्र-ए-शिकस्ता है
इस बह्र की मुसद्दस शकल भी हो सकती है
[5]  बसीत मुसद्दस मुतव्वी सालिम मुतव्वी
    अर्कान बहुत सीधा है 
मुफ़ त इ लुन----फ़ाइलुन-----मुफ़ त इ लुन
2 1 1 2----------2 1 2-------2  1  1  2
उदाहरण
देख के तुझ को परी एक ज़री
हो गई मुझ को वहीं  बेख़बरी

अब तक़तीअ भी देख लेते है
2 1  1  2 --/   2 1 2  / 2 1 1 2
देख के तुझ/  को परी /एक ज़री
2   1 1  2   / 2 1 2  /  2 1 1 2
हो गई मुझ /को वहीं /  बेख़बरी


अगर ध्यान से देखें तो बह्र-ए-रजज़ का बुनियादी रुक्न ’मुस तफ़ इलुन’[2212] है  और इसका मुतव्वी मुज़ाहिफ़ शकल मुफ़ त इ लुन [ 2 1 1 2 ] होता है [जिसमें  -ते-और -एन- मुतहर्रिक है] और फ़ाइलुन [212] मरफ़ूअ’ है मुस तफ़ इलुन का
तो हम कह सकते है कि यह कोई रजज़ की बहर है जिसमे दो ज़िहाफ़ -तयी का और रफ़अ’ का ज़िहाफ़ लगा हुआ है तो इस का नाम --"बह्र-ए-रजज़ मुसद्दस मुतव्वी मरफ़ूअ’ मुतव्वी " भी हो सकता है । जी हाँ बिल्कुल सही। बिलकुल हो सकता है
मगर क्लासिकल अरूज़ में इसे बह्र-ए-बसीत’ के अन्तर्गत ही लिया गया है । आप चाहे तो बह्र-ए-रजज़ के अन्तर्गत भी ले सकते है। क्या फ़र्क़ पड़ता है आहंग तो आहंग है ।आप यहाँ कहें या वहाँ कहें

[6]बसीत मुसद्दस मख़्बून सालिम मख़्लूअ’

हम जानते है कि मुस तफ़ इलुन [2212] पर ’ख़लअ’ का ज़िहाफ़ लगाया जाय तो बरामद होगा  मुज़ाहिफ़ ’फ़ऊलुन [122] जो मख़्लूअ’ कहलाता है
और अर्कान होंगे
मफ़ाइलुन----फ़ाइलुन---फ़ ऊलुन
1212----212----------122
उदाहरण:- इसका भी एक उदाहरण कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब के हवाले से देखते हैं

नज़ारा हो लाख ख़ूबसूरत
नज़र नहीं है तो कुछ नहीं है

[क्या कमाल का खुश आहंग शे’र है]

तक़्तीअ कर के देख लेते है
1 2  1   2  / 2 1  2  / 1 2 2
नज़ा र: हो / लाख ख़ू/ ब सूर त
1 2   1 2  / 2  1   2     / 122
नज़र नहीं/  है तो कुछ/ नहीं है

न ज़र = मफ़ा
न ही= इलुन
चूँकि मुरक्क़ब बह्रें दो या तीन ’सालिम’ बहरों के मेल से बनती है अत: ये सालिम बहरें[ कुछ शर्तों के साथ ] अपनी अपनी ज़िहाफ़ ले सकती है अत: कई आहंग बरामद किए जा सकते है--यह आप के मेहनत और ज़ौक़-ओ-शौक़ पर निर्भर करेगा
यहाँ उन तमाम मुमकिनात बहूर की चर्चा नहीं कर रहे हैं -मुनासिब भी नही मगर आप मश्क़ जारी रख सकते हैं
बह्र-ए-बसीत का बयान ख़त्म हुआ
अगली क़िस्त में हम  बह्र-ए-मदीद की चर्चा करेंगे
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....

एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात  और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब  सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब  , अजीज  दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  का  और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल  से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से  कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर की इतनी  बिसात कहाँ  इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में  मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस  आलिम साहिबान  के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--

न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्ब्त ,अदब आशना  हूँ

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-आनन्द.पाठक-










गुरुवार, 15 मार्च 2018

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 46 [ बह्र-ए-तवील ]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत  : क़िस्त 46 [ बह्र-ए-तवील ]

मुन्फ़र्द बह्रें या सालिम बह्रें = इन 7-बह्रों पर क़िस्त 1-से लेकर क़िस्त 44 तक चर्चा कर चुके हैं 
आप चाहें तो एक बार देख सकते हैं 

1 मुतक़ारिब =फ़ऊलुन =122

2 मुतदारिक = फ़ाइलुन =212

3 हज़ज  = मफ़ाईलुन =1 2 2 2

4 रजज़  =मुस तफ़ इलुन =2 2 1 2

5 रमल  =फ़ाइलातुन = 2 1 2 2

6 वाफ़िर  = मफ़ा इ ल तुन = 12 1 1 2

7 कामिल   = मु त फ़ालुन = 1 1 212

अब मुरक़्क़ब बह्रों पर एक एक कर के चर्चा करेंगे 
------------------------------------------------
1 तवील  =फ़ऊलुन+ मफ़ाईलुन  

2 बसीत  = मुस तफ़ इलुन+ फ़ाइलुन 

3 मदीद  =फ़ाइलातुन+फ़ाइलुन  

4 मुन्सरिह = मुस तफ़ इलुन+ मफ़ऊलातु 

5 मुज़ारे  =मफ़ाईलुन +फ़ाअ’लातुन        

6 मुक़्तज़िब = मफ़ऊलातु+ मुस तफ़ इलुन 

7 मुजतस  = मुस तफ़अ’ लुन+ फ़ाइलातुन+फ़ाइलातुन  

8 सरीअ’  = मुस तफ़ इलुन+मफ़ऊलातु 

9 जदीद  =फ़ाइलातुन+फ़ाइलातुन+ मुस तफ़अ’ लुन  

10 क़रीब  = मफ़ाईलुन+मफ़ाईलुन+फ़ाअ’लातुन   

11 ख़फ़ीफ़  = फ़ाइलातुन+ मुस तफ़अ’ लुन+ फ़ाइलातुन  

12 मुशाकिल = फ़ाअ’लातुन+मफ़ाईलुन +मफ़ाईलुन     
------------------------

अब  हम बह्र-ए-तवील  की चर्चा करेंगे
बह्र-ए-तवील का बुनियादी रुक्न है --" फ़ऊळुन+मफ़ाईलुन ’= 122+ 1222
बह्र-ए-तवील के 3-4 बह्र ही उर्दू शायरी में राइज हैं 

[क] बह्र-ए-तवील सालिम मुसम्मन 

फ़ऊलुन---मफ़ाईलुन-----फ़ऊलुन---मफ़ाईलुन
122--------1222---------122-------1222
उदाहरण -अब्दुल अज़ीज़ ’ख़ालिद’ साहब का एक शे’र है

मुझे इल्म है जानाँ इन इस्रार पर्चीं का
कि यह एक पर्दा है तेरे इश्क़ रंगीं  का

अब तक़्तीअ क्र के भी देख लेते हैं
फ़ऊलुन  / मफ़ाईलुन/ फ़ऊलुन  / मफ़ाईलुन
122-----/1222----/ 122-----/ 1 2 2   2
मुझे इल् / म है जानाँ / इ निस रा/ र पर चीं का  [ अलिफ़ का वस्ल हो गया ]

फ़ऊलुन  / मफ़ा ईलुन    / फ़ऊलुन / म फ़ा ईलुन
122-----/1222------/   1  2  2  /   12  2  2
कि यह ए/ क पर दा है / ति रे इश् /क रंगीं  का

[ख] तवील मुसम्मन सालिम मक़्बूज़ सालिम मक़्बूज़ 

फ़ऊलुन--मफ़ाइलुन---फ़ऊलुन--मफ़ाइलुन
122--------1212------122------1212
आप जानते हैं कि ’मफ़ाईलुन’  1222 [हज़ज]  का मक़्बूज़ मुज़ाहिफ़ शकल ’मफ़ा इलुन [1212] होता है 
उदाहरण  नसीम लखनवी का एक शे’र है

मुहब्बत रक़ीब से , अदावत नसीम से
किसी पर इनायतें .किसी पर ये शिद्दतें

तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
1 2  2   / 1 2 1 2 /      122    / 1212
मुहब्बत /रक़ीब से / , अदावत /नसीम से
1  2    2    / 1 2 1 2 / 1 2  2  / 1  2   1 2
किसी पर / इनायतें ./ किसी पर / ये शिद् द ते

[ग] तवील मुसम्मन सालिम मक़्बूज़ सालिम  मक़्बूज़ मुसब्बीग़
 आप जानते है है कि मफ़ाईलुन [1222] का  [क़ब्ज़+ तस्बीग़] ला ज़िहाफ़ लगाने से मक़्बूज़ मुसब्बीग़ मुज़ाहिफ़ ’ मफ़ाइलान ’ 12121 हासिल होता है
तो रुक्नी शकल होगी
 फ़ऊलुन----मफ़ाइलुन-----फ़ऊलुन--- मफ़ाइलान
122----------1212--------122--------12121
यह आहंग ग़ैर मानूस भी है और ग़ैर मामूली भी है

[घ] तवील मुसम्मन मक़्बूज़ अल आखिर
 फ़ऊलुन---मफ़ाईलुन---फ़ऊलुन---मफ़ाइलुन
122----------1222-------122-----1212
उदाहरण :- डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से

करें शम्मअ’ एक रोशन चलो इल्म की नई
उठो क़ौम की ख़ातिर करें हम भी कुछ न कुछ

 तक़्तीअ कर के देख लेते हैं
1 2  2    / 1 2     2  2 / 1 2  2   / 1 2 1 2
करें शम्/म इक रोशन /चलो इल् /म की नई
1   2   2  / 1  2   2   2   / 1 2 2    / 1  2  1   2
उठो क़ौ / म की ख़ातिर / करें हम / भी कुछ न कुछ

आप जानते हैं कि ’मफ़ाईलुन 1222[हज़ज] का महज़ूफ़ - फ़ऊलुन [1 2 2] होता है ।इस बात का जिक्र हज़ज के ज़िहाफ़ात के वक़्त किया था और यह भी कहा था कि यह हज़ज में सिर्फ़ ’अरूज़’ और ज़र्ब’ के मक़ाम पे आता है । मगर बह्र-ए-तवील में यह ’सदर और इब्तिदा के मुक़ाम पर आता है ।तवील-की बुनियादी रुक्न की संरचना ही ऐसी है । हस्व के मुक़ाम या अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर मुफ़ाईलुन -1222 आता है तो इस पर कब्ज़ या तस्बीग़ का या कोइ और ज़िहाफ़  लग सकता है और कई नये आहंग बनाए जा सकते हैं  ।

एक बात और
यदि तवील के बुनियादी रुक्न " फ़ऊलुन + मफ़ाईलुन "[ 122 +1222} को आपस में बदल दिया जाय-यानी मफ़ाईलुन+ फ़ऊलुन [ 1222+122] कर दिया जाय तो ?
कुछ लोगों ने इस का नाम ’बह्र-ए-अरीज़’ कहा है ।यह बह्र उर्दू शायरी में प्रचलित नहीं है

चलते चलते---
इस बह्र को ’तवील’ [ लम्बी बह्र] क्यों कहते हैं -इस बात का कोई सन्तोषजनक जवाब  कहीं लिखा नहीं मिला। अगर आप को मालूम है तो ज़रूर बताइएगा।
अस्तु
अगले क़िस्त में बह्र-ए-बसीत पर चर्चा करेंगे

--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....

एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात  और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब  सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब  , अजीज  दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  का  और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल  से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से  कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर की इतनी  बिसात कहाँ  इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में  मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस  आलिम साहिबान  के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--

न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्ब्त ,अदब आशना  हूँ

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शनिवार, 3 मार्च 2018

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 45 [ मुरक़्क़ब बह्रें

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 45 [ मुरक़्क़ब बह्रें ]

Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है 

आप जानते हैं कि उर्दू शायरी में 19-बह्रें प्रचलित है जो निम्न है
            बह्र बुनियादी रुक्न
1 तवील =फ़ऊलुन+ मफ़ाईलुन
2 बसीत = मुस तफ़ इलुन+ फ़ाइलुन
3 वाफ़िर = मफ़ा इ ल तुन = 12 1 1 2
4 कामिल = मु त फ़ालुन = 1 1 212
5 मदीद =फ़ाइलातुन+फ़ाइलुन
6 हज़ज = मफ़ाईलुन =1 2 2 2
7 रजज़ =मुस तफ़ इलुन =2 2 1 2
8 रमल =फ़ाइलातुन = 2 1 2 2
9 मुन्सरिह = मुस तफ़ इलुन+ मफ़ऊलातु
10 मुज़ारे =मफ़ाईलुन +फ़ाअ’लातुन       
11 मुक़्तज़िब = मफ़ऊलातु+ मुस तफ़ इलुन
12 मुजतस = मुस तफ़अ’ लुन+ फ़ाइलातुन+फ़ाइलातुन  
13 सरीअ’ = मुस तफ़ इलुन+मफ़ऊलातु
14 जदीद =फ़ाइलातुन+फ़ाइलातुन+ मुस तफ़अ’ लुन
15 क़रीब = मफ़ाईलुन+मफ़ाईलुन+फ़ाअ’लातुन
16 ख़फ़ीफ़ = फ़ाइलातुन+ मुस तफ़अ’ लुन+ फ़ाइलातुन
17 मुशाकिल = फ़ाअ’लातुन+मफ़ाईलुन +मफ़ाईलुन    
18 मुतक़ारिब =फ़ऊलुन =122
19 मुतदारिक = फ़ाइलुन =212

[नोट :1 हो सकता है कि अरूज़ के अन्य किताबों में यही क्रम न दिया गया हो---कोई अन्य क्रम भी हो सकता है 
रुक्न के प्रयोग के आधार पर इन 19-बह्रों का वर्गीकरण दो भागों मे किया जा सकता है
[1] मुन्फ़र्द बह्रें :- वो बह्रें जिसमें ’एक ’[फ़र्द] ही क़िस्म के सालिम या उसकी मुज़ाहिफ़ रुक्न [फ़र्द रुक्न]  का प्रयोग हुआ है कैसे ’फ़ऊलुन’---फ़ाइलुन----मुफ़ाईलुन---मुस तफ़ इलुन---वग़ैरह वग़ैरह --यानी एकल रुक्न का प्रयोग हुआ है} मुरब्ब:--मुसद्दस--मुसम्मन  के आधार पर इनकी आवृति [4--6---8] हो सकती है पर फ़र्द रुक्न का ही प्रयोग होगा । कॄपया confuse न हों
 ऐसी बह्रें संख्या में ’सात’ है जैसे -- मुतक़ारिब----मुतदारिक----हज़ज---रजज़---रमल---कामिल--- और वाफ़िर और उनकी मुज़ाहिफ़ बह्रें   [ यानी  3--4--6---7--8--18--19---             = 7 सालिम बह्रें  ]
इनकी चर्चा क़िस्त 1 से लेकर क़िस्त 44 तक कर चुके हैं
[2] मुरक़्क़ब बह्रें :[या मिश्रित बह्रें]  यानी वो बह्रें जिसमे ’दो’  या ’तीन’ सालिम बह्र या उनकी मुज़ाहिफ़ शकल का प्रयोग हुआ हो [यानी 1--2--5--9--10--11--12--13--14-15---16---17 =(12 मुरक़्क़्ब बह्रें]
 जैसे----
इसमें से कुछ तो मुसम्मन शकल में प्रयोग होता है 
जब कि कुछ मुसद्दस शकल में ही प्रयोग होते है  जैसे --मुजतस----जदीद---क़रीब---ख़फ़ीफ़---मुशाकिल  [ यानी 12---14---15---16---17 ]

उसी प्रकार अरबी--फ़ारसी के लिहाज़ से इनका वर्गीकरण 3 भागों में किया जा सकता है

[क] शुद्ध अरबिक़ बह्र :
1 तवील
2 बसीत
3 वाफ़िर
4 कामिल
5 मदीद
इन बह्रों का प्रयोग ज़्यादातर अरबिक शायरी मे ही होता है --फ़ारसी शायरी में बहुत ही कम हुआ है

[2] शुद्ध फ़ारसी बह्र
जदीद-
-क़रीब--
मुशाकिल 
[ये 3 बह्रें] -शुद्ध रूप से फ़ारसी शायरी में प्रयोग किया जाता है -अरबिक़ शायरी में नहीं प्रयोग किया जाता

[3] बो बह्रें जो दोनो ही भाषाओं में प्रयोग होता है--बाक़ी 11- बह्रें दोनो भाषाओं में Common रूप से प्रयोग होते हैं

2- यहाँ हमने मुरक्क़ब बह्र की बुनियादी रुक्न के साथ साथ नम्बर की अलामत [जैसे 2212--122---2122----} जानबूझ कर नहीं दिखाई है ।वरना क्या आर था। एक बात ध्यान रखें यह नम्बर की अलामत आजकल ’फ़ेसबुक’ व्हाटस अप’ पर शायरी की हर ग्रुप में दिखा दिखा कर या बता कर [बिना बुनियादी रुक्न का नाम बताए या  लिखे ] तरही ग़ज़ल ,शे’र या गिरह आदि का प्रोग्राम चलाया जा रहा है जो मेरे हिसाब से सही नहीं है ,दुरुस्त नहीं है । ऐसी अलामत आप को बह्र की सही स्थिति नही बता सकती है ।अत: आप सभी लोगों से अनुरोध है कि अगर बह्र को सही सही समझना हो तो इन अलामत के बज़ाय ,"बुनियादी रुक्न" पर मश्क़ करें -बेहतर होगा।
जैसे पहले भी चर्चा कर चुका हूँ
रुक्न "फ़ाइलातुन " को उर्दू के रस्म-उल-ख़त [लिपि] मे दो प्रकार से लिखा जाता है
[क-1] फ़ाइलातुन -यानी हर हर्फ़ को  "सिलसिलेवार" मिला कर लिखते हैं जिसे ’मुतस्सिल शकल ’ कहते है और इसे हम सब 2 1 2 2 की अलामत से दिखाते हैं यानी ’फ़ा--इला---तुन =सबब-ए-ख़फ़ीफ़+ वतद-ए-मज्मुआ+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़
[क-2] फ़ाअ’ ला तुन-यानी कुछ हर्फ़ को-’फ़ासिला’ दे कर लिखते हैं  जिसे  "मुन्फ़सिल शकल’     कहते है और इसे भी हम सब 2 1 2 2 की अलामत से दिखाते हैं यानी फ़ाअ’[2 1] ---ला[2]---तुन[2]  यानी ’ऐन - मुतहर्रिक है यहाँ
नम्बर की अलामत में तो कोइ फ़र्क़ नहीं पड़ा--मगर रुक्न की बुनियादी शकल ही बदल गई यानी अब इसका कम्पोजिशन हो गया -- वतद-ए-मफ़रूक़ [ फ़ा अ’] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ ला ] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [तुन] जो कि पहले था -सबब-ए-ख़फ़ीफ़+ वतद-ए-मज्मुआ+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ यानी एक ही रुक्न [2122] के दो रूप !

इसीलिए मैं कह रहा था कि 2122 के मात्र प्रयोग से आप सही रुक्न नहीं पकड़ पायेगे

इस मुन्फ़सिल शकल की चर्चा इस लिए कर दी कि यही शकल प्रयोग होता है बह्र --क़रीब में ----मुशाकिल में मुज़ारे में यानी फ़ाइलातुन का ’वतद-ए-मफ़रूक़’ वाली शकल

[ ठीक इसी प्रकार
रुक्न "मुसतफ़इलुन " [2 2 1 2 ]को उर्दू लिपि में दो प्रकार से लिखा जाता है
[ख-1] मुतस्सिल शकल --’मुसतफ़इलुन’ के हर हर्फ़ को मिला कर लिखते है   इसे हम सब 2 2 1 2 की अलामत से दिखाते हैं यानी  ’मुस--तफ़--इलुन = यानी सबब-ए-ख़फ़ीफ़+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़+वतद-ए-मज्मुआ
[ख-2] मुन्फ़सिल शकल-- मुस तफ़अ’ लुन के कुछ हर्फ़ को ’फ़ासिला’ देकर लिखते हैं इसको भी हम सब 2 2 1 2 की ही अलामत से दिखाते है  मुस [2] ---तफ़अ’[21 ] --लुन [2] यानी --तफ़अ’-- में ऐन मुतहर्रिक है
अत: आप देख रहे हैं कि नम्बरी अलामत में तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता मगर रुक्न की बुनियादी शकल ही बदल गई यानी अब यह सबब-ए-ख़फ़ीफ़+ वतद-ए-मफ़रूक़  + सबब-ए-ख़फ़ीफ़
वतद-ए-मफ़रूक़ तो समझते होंगे --यानी हरकत+साकिन+हरकत
 इसीलिए मैं कह रहा था कि 2122 के मात्र प्रयोग से आप सही रुक्न नहीं पकड़ पायेगे
इस मुन्फ़सिल शकल की चर्चा इस लिए कर दी कि यही शकल प्रयोग होता है बह्र --

सालिम बह्रों में तो चलिए 122---नम्बरवाली अलामत से तो बहुत कुछ काम चल जाता है -कारण कि रमल और रजज़ में ’मुन्फ़सिल’ शकल का प्रयोग होता है मगर यह निज़ाम [व्यवस्था] भी मुज़ाहिफ़ शकल तक जाते जाते विफल हो जाती है अत: इसी लिए बुनइयादी रुक्न के नाम वाली व्यवस्था ज़्यादे सही और दुरुस्त है
अपनी बात की पुष्टि के लिए एक उदाहरण और लेते हैं--
एक बहर है
मुज़ारिअ’ मुसम्मन अखरब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़ जिसको हम सब इस अलामती शकल से दिखाते है
221---2121----1221----212
इससे रुक्न नही पहचाना जा सकता --जब कि इसका रुक्नी शकल है
मफ़ऊलु---फ़ाअ’लातु----मफ़ाईलु---फ़ाअ’लुन
यानी --लु---तु---अ’ [ऐन] --सब  मुतहर्रिक] है यानी जब आप शेर कहेंगे तो इस इस मक़ाम पर मुतहर्रिक आना लाज़िमी है  --तभी आप शे’र की तक़्तीअ से जांच पायेंगे
ख़ैर-- 
इस से पहले कि  हम मुरक़्क़ब बह्रों पर एक-एक कर के चर्चा करें--कुछ बुनियादी बाते ज़िहाफ़ की भी कर ले जो मुरक़्क़ब बह्रों पर अमल  होंगे

[1] कुछ मुरक़्क्ब बह्रों मे ’फ़ाइलातुन’ और मुसतफ़इलुन  की मुन्फ़सिल शकलों वाले अर्कान प्रयोग होते है जिसमे  एक टुकड़ा ’वतद-ए-मफ़रूक़’ का आता है अत: इन बह्रों पर जब ज़िहाफ़ का अमल होगा तब मफ़रूक़ पे लगने वाले ज़िहाफ़ ही लगेंगे जैसे--वक़्फ़---कस्फ़----सलम---। ध्यान रहे कहीं वतद देख कर जल्दी जल्दी में आप ’वतद-ए-मज्मुआ’ पर लगने वाले ज़िहाफ़ न लगा दें।
[2] मुरक़्क़ब बह्रें -दो या तीन रुक्न के मेल से बनते है [लाज़िमन वतद और सबब के कई टुकड़ों से मिल कर बनते हैं जिसे हम अजज़ा [जुज़ का ब0ब0] कहते है और ज़िहाफ़ भी इन्ही टुकड़ों पे लगते है और एक साथ लगते है ] अरबी के अरूज़ियों ने इन ज़िहाफ़ात पर कुछ क़ैद भी आयद की है कि किस टुकड़े पर ज़िहाफ़ लग सकता है और किस टुकड़े पर ज़िहाफ़ नहीं लग सकता या किसी टुकड़े पर ज़िहाफ़ नहीं लग सकता। वल्लाह क्या क़ैद लगाई है ---कौन मानता है यह क़ैद आजकल।
इसी क़ैद पर शकील बदायूँनी  का एक शे’र बेसाख़्ता याद आ रहा है -आप ने भी सुना होगा। नहीं सुना है तो सुन लीजिये

वो निक़ाब-ए-रुख़  उठा दी ,तो ये  क़ैद भी लगा दी
उठे हर निगाह लेकिन ,कोई  बाम तक न पहुँचे   

चलिए अब उस क़ैद की बात करते हैं जिसे अरबी अरूज़ियों ने तज़्बीज की ।
[1] मुअ’कबा 
[2] मुरक़बा
[3] मुकनफ़ा

इन तीनो क़ैद की भी चर्चा कर लेते हैं
 [1] मुअ’कबा : अगर किसी एक रुक्न में  या दो रुक्न  के बीच में  दो consecutive सबब-ए-ख़फ़ीफ़ आ जाय तो उसमें से एक ही सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर ज़िहाफ़ लगेगा --दोनो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर एक साथ ज़िहाफ़ नहीं लगेगा। नहीं लगेगा तो -फिर किसी सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर  नही लगेगा।ऐसी स्थिति 9-बह्रों में आ सकती है जैसे --तवील----मदीद----वाफ़िर---कामिल---हज़ज----रमल---मुन्सरिह---खफ़ीफ़---मुजतस

[2] मुरक़बा :-अगर किसी एकल रुक्न मे [ Single Rukn ] -यदि दो consecutive सबब एक साथ आ जायें तो उसमें से किसी एक सबब पर उचित ज़िहाफ़ अवश्य [must] लगेगा।या लगना चाहिए। ऐसी स्थिति दो बहर में हो सकती है ---मुज़ारे--मुक़्तज़ब

[3] मुकनफ़ा :- यह क़ैद मुरक़बा क़ैद का ही Extension है} अर्थात -अगर किसी एकल रुक्न मे [ Single Rukn ] -यदि दो consecutive सबब एक साथ आ जायें तो ज़िहाफ़  एक पर लग सकता है  या दोनो पर लग सकता है  या किसी पर भी नहीं लग सकता ।ऐसी स्थिति इन चार बह्रों में आ सकती हैं--बसीत----रजज़---सरीअ’---मुन्सरिह

इन तीनों परिभाषाऒ में बहुत बारीक अन्तर है -ध्यान रहे
हांलाकि इस की ज़रूरत नहीं थी --मगर जब बात निकली तो चर्चा कर ली वरना अरूज़ की किताबों मे बस इतना ही लिखा मिलता है कि अमुक बह्र में मुअ’क़्बा है या मुरक़्बा है ।

आइन्दा मुरक़्कब बह्रों की चर्चा करते समय अगर हम यह कहें कि इस बह्र में  मुअ’क्बा है या मुरक़्बा है तो आप समझ जायेंगे कि मेरी मुराद क्या है और मैं क्या कहना चाहता हूँ

इस क़िस्त में बस इतना ही

अगली क़िस्त में मुरक्क़ब बह्रों के एक-एक कर के चर्चा करेंगे
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....

एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात  और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब  सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब  , अजीज  दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  का  और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल  से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से  कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर की इतनी  बिसात कहाँ  इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में  मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस  आलिम साहिबान  के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--

न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्ब्त ,अदब आशना  हूँ

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-आनन्द.पाठक-




शुक्रवार, 2 मार्च 2018

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 44 [ बह्र-ए-वाफ़िर की मुज़ाहिफ़ बह्रें]

उर्दू  बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 44 [ बह्र-ए-वाफ़िर की मुज़ाहिफ़ बह्रें]

Disclaimer Clause--वही जो क़िस्त 1 में हैं---

पिछली क़िस्त में वाफ़िर कि सालिम बह्रों पर चर्चा कर चुका हूँ । अब हम इसकी मुज़ाहिफ़ बह्रों पे चर्चा करेंगे।
जब ज़िहाफ़ात की चर्चा कर रहा था तो कहा था कि उर्दू शायरी में इन ज़िहाफ़ात की संख्या लगभग 48-50 के आस-पास है जिसमे से 11-जिहाफ़ तो मात्र बहर-ए-कामिल और बह्र-ए-वाफ़िर पर लगते हैं
इन ज़िहाफ़ात के नामों को जानने की ज़रूरत नहीं है कारण कि लोग बह्र-ए-वाफ़िर में कम ही शे’र कहते है तो फिर ज़िहाफ़ात के नाम जानने की ज़रूरत ही कहां ? ख़ैर  आप Academic Discussion के लिए जानना चाह्ते हैं तो जान लें-कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब ने इनके नाम भी लिख दिए हैं
1-अस्ब ---2- अज़ब---3-अक़्ल----4-नक़्स----5-क़तफ़---6-क़सम---7-हज्म---8-अ’क़्स---9-इज़्मार---10-वक़्स---11-ख़ज़ल   

आप जानते हैं कि हर ज़िहाफ़ एक निश्चित नियम के तहत ही सालिम रुक्न पर अमल करता हैं। कभी ये ज़िहाफ़ अकेले ही सालिम रुक्न पर अमल करते है ,कभी कभी दो-दो से अधिक  ज़िहाफ़ [मुरक़्कब] एक साथ मिल कर  सालिम रुक्न पर अमल करते है
हम यहाँ उन प्र्चलित ज़िहाफ़ की ही चर्चा करेंगे जो वाफ़िर की बुनियादी रुक्न " मफ़ा इ ल तुन ’ [12 11 2] पर लगते है [मालूम है न कि यहाँ -ऐन- और लाम- मुतहर्रिक है ]

मफ़ा इ ल तुन [ 12 1 1 2] +अस्ब = मअ’सूब  =मफ़ाईलुन [ 12 2 2 ] 
मफ़ा इ ल तुन [ 12 1 1 2] +क़तफ़ = मक़्तूफ़  = फ़ऊलुन  [ 1 2 2  ]
मफ़ा इ ल तुन [ 12 1 1 2] +अक़्ल =मअ’क़ूल = मफ़ा इलुन [ 12 12]
मफ़ा इ ल तुन [ 12 1 1 2] +नक़्स =मन्क़ूस = मफ़ाईलु     [ 12 2 1 ]
मफ़ा इ ल तुन [ 12 1 1 2] + अज़ब =अज़ब = मुफ़ त इलुन [ 2 1 12 ] 
मफ़ा इ ल तुन [1 2 1 1 2] + क़सम =अक़सम        = मफ़ ऊ लुन  [2 2 2]
क़सम -एक मुरक़्कब ज़िहाफ़ है जो दो ज़िहाफ़ से मिल कर बना है यानी  अस्ब+अज़ब से 
इसी प्रकार और भी ज़िहाफ़ का अमल हो सकता है जो यहां पर नहीं दिया जा रहा है मगर आप चाहें तो मश्क़ कर के और भी मुज़ाहिफ़ शकल बरामद कर सकते है ।

एक बात ध्यान रखें -वाफ़िर का बुनियादी रुक्न ’म फ़ा इ ल तुन ’ [12 1 1 2] है जिसमें 3- मुतहर्रिक [ ऎन---लाम --तुन ] एक साथ आ रहे है  तो तस्कीन-ए-औसत की अमल से इसे मफ़ा-इल्-तुन् [ 12 2 2 ] न् बना दीजियेगा और कहिएगा कि यह तो मुज़ाहिफ़ महसूब है । नहीं ।ग़लत होगा। पहली बात तो यह कि अहल-ए-अरब तस्कीन-ए-औसत की अमल से नावाक़िफ़ थे [ये तो अहल-ए-फ़ारसी की देन है] अत: उन्होने एक ज़िहाफ़ का तसव्वुर किया इसके लिए और वो था ’अस्ब’ ज़िहाफ़।
दूसरी बात -तस्कीन-ए-औसत का अमल कभी भी ’सालिम’ रुक्न पर नहीं लगता -जब भी लगेगा तो मुज़ाहिफ़ शकल पर ही लगेगा ।
अब वाफ़िर की मुज़ाहिफ़ बह्रों की चर्चा करते है

[1-क] बह्र-ए-वाफ़िर मुरब्ब: सालिम मअ’सूब 
    मफ़ा इ ल तुन-----मफ़ाईलुन 
    1 2    1 1  2------1 2 2 2 
उदाहरण = आप चाहें तो इस वज़न पर एक शे’र कह सकते हैं। चलिए कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब के हवाले से दे देते है

न पीते शराब क्या कर ते 
ये ख़ाना खराब क्या करते

तक़्तीअ’ कर के देखते हैं
1  2  1 1 2  / 1 2    2  2
न पीते शरा/ ब क्या कर ते
1   2   1  1 2  / 1 2   2    2
ये ख़ा न: ख रा/ ब क्या कर ते

[1-ख] बह्र-ए-वाफ़िर मुरब्ब: मअ’सूब सालिम  -कुछ नहीं , बस ऊपर [1-क] के दोनों रुक्न की पोजीशन आपस में बदल दें
मफ़ाईलुन----मफ़ाइलतुन
1222--------12 1 1 2
उदाहरण आप बताएं तो अच्छा । आसान है

 जो मेरी बा त मान गए
सभी इसरार जान  गए

चलिए तक़्तीअ भी कर के देख लेते हैं
1   2  2 2  / 1 2 1 1 2
जो मेरी बा/त मान गए
1  2  2   2 / 1 2 1 1 2
सभी इसरा/र जान  गए
नोट - इसे आप  1 2 2 2 के गिर्दान से मत देखियेगा यानी ज़्यादा भरोसा मत रखियेगा  --सही तभी होगा जब इसे ’रुक्न’ के अनुसार चेक करेंगे जैसे --- मफ़ाईलुन या मफ़ा इ ल तुन यानी कहां सबब है कहाँ वतद है और वो सही है भी कि नहीं।
समझने के लिए और प्रैक्टिस के लिए आप ऐसे अश’आर कहते रहे --शे’रियत या तग़ज़्ज़ुल पर मत जाइएगा अभी तो वज़न और बह्र ही का पास [ख़याल] रखियेगा

नीचे सिर्फ़ कुछ और मक़्बूल बह्र का नाम लिख रहा हूँ अगरचे इस में तब’अ आज़माई तो कम ही हुई है --आप शौक़-ओ-ज़ौक़ के लिए चाहें तो कर सकते है

2 - बह्र-ए-वाफ़िर मुसद्दस सालिम मअ’सूब सालिम
 मफ़ा इ ल तुन  -मफ़ाईलुन---मफ़ाइलतुन 
12 1 1 2   ----1 2 2 2 -------1 2 1 1 2

3- बह्र-ए-वाफ़िर मुसद्दस सालिम मअ’सूब मक़्तूफ़ ;_ आप जानते हैं कि ’मफ़ा इ ल तुन’ [12 11 2] का मक़्तूफ़ -’फ़ऊलुन’ [1 2 2] होता है अत:
     मफ़ा इ ल तुन ----मफ़ाईलुन---फ़ऊलुन
      1 2 1 1   2-------1 2 2 2 ------1 2 2
4- बह्र-ए-वाफ़िर मुसद्दस सालिम मअ’क़ूल मक़्तूफ़  ; आप जानते है कि ’मफ़ा इ ल तुन’ [12 112] का  ’मअ’कूल’ -मफ़ा इलुन [12 12] होता है
मफ़ा इ ल तुन----मफ़ाइलुन----फ़ऊलुन
1 2   1 1  2-------1 2 1 2-----1 2 2
5- बह्र-ए-वाफ़िर मुसद्दस सालिम मन्क़ूस मक़्तूफ़ :आप जानते है कि ’मफ़ाइलतुन’ [12 1 1 2] का मन्क़ूस-मफ़ाईलु  [1 2 2 1] -[यानी लाम मुतहर्रिक है यहाँ ] होता है
मफ़ा इ ल तुन -----मफ़ाईलु-------फ़ऊलुन
1 2  1  1  2--------1 2 2 1 ------1 2 2 
6-  बह्र-ए-वाफ़िर मुसद्दस मक़्तूफ़
मफ़ा इ ल तुन --मफ़ा इ ल तुन---फ़ऊलुन
1 2  1 1    2-----1 2 1 1 2---- 1 2 2 
7- बह्र-ए-वाफ़िर मुसम्मन सालिम  मअ’सूब सालिम मअ’सूब 
मफ़ा इ ल तुन-----मफ़ाईलुन----मफ़ा इ ल तुन---मफ़ाईलुन
1  2  1 1   2--------1 2 2 2-----1 2 1 1 2-----1 2 2 2
हमने कुछ बह्र-ए-वाफ़िर की चर्चा कर दी मगर ज़िहाफ़ के combination & permutation [ समुच्चय और विमुच्चय]  से और भी मुज़ाहिफ़ वज़न /बहर बरामद किए जा सकते है या बनाए जा सकते है यह आप के ज़ौक़-शौक़ पर निर्भर करेगा --मैदान खुला है

उदाहरण इसलिए नहीं दिया कि जब वाफ़िर के सालिम बह्र में ही शायरों न कम अश’आर कहें हैं तो फिर मुज़ाहिफ़ बह्रों में शायरी की बात कौन करे
हाँ समझाने के लिए अरूज़ की किताबों में कुछ लेखकों ने खुद्साख्ता अश’आर दिये गए हैं --वैसा तो  आप भी कह सकते है इन औज़ान में ] बस एक कोशिश करें । और हां अगर आप ऐसे अश’आर कहें तो मुझे  ईमेल ज़रूर कीजियेगा ,इन्शाअल्लाह , कभी  इन मज़ामीन को किताब की शकल  दे सकूँ तो आप के इन अश’आर को मय आप के नाम से उदाहरण स्वरूप दे सकूँ 

ग़ज़ल कहने के लिए बह्र की कमी नही है --तमाम बह्र हैं आप के सामने --सालिम बह्रें भी हैं --मुज़ाहिफ़ बह्रे भी हैं---मुरक़्क़ब बह्रें भी है ---तस्कीन और तख़्नीक़ से बरामद होने वाली बह्रें भी है  --खुला मैदान है सामने --बस आप की एक कोशिश की ज़रूरत है--

खुदा ख़ुदा कर के - 7-सालिम बह्रों और उनकी मुज़ाहिफ़ बह्रों के बयान ख़त्म हुआ

अब अगले अक़सात  में  उर्दू की [12] मुरक़्क़ब की चर्चा करुँगा

--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....

एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात  और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब  सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब  , अजीज  दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  का  और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल  से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से  कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर की इतनी  बिसात कहाँ  इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में  मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस  आलिम साहिबान  के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--

न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्ब्त ,अदब आशना  हूँ

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