उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 45 [ मुरक़्क़ब बह्रें ]
Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है
आप जानते हैं कि उर्दू शायरी में 19-बह्रें प्रचलित है जो निम्न है
बह्र बुनियादी रुक्न
1 तवील =फ़ऊलुन+ मफ़ाईलुन
2 बसीत = मुस तफ़ इलुन+ फ़ाइलुन
3 वाफ़िर = मफ़ा इ ल तुन = 12 1 1 2
4 कामिल = मु त फ़ालुन = 1 1 212
5 मदीद =फ़ाइलातुन+फ़ाइलुन
6 हज़ज = मफ़ाईलुन =1 2 2 2
7 रजज़ =मुस तफ़ इलुन =2 2 1 2
8 रमल =फ़ाइलातुन = 2 1 2 2
9 मुन्सरिह = मुस तफ़ इलुन+ मफ़ऊलातु
10 मुज़ारे =मफ़ाईलुन +फ़ाअ’लातुन
11 मुक़्तज़िब = मफ़ऊलातु+ मुस तफ़ इलुन
12 मुजतस = मुस तफ़अ’ लुन+ फ़ाइलातुन+फ़ाइलातुन
13 सरीअ’ = मुस तफ़ इलुन+मफ़ऊलातु
14 जदीद =फ़ाइलातुन+फ़ाइलातुन+ मुस तफ़अ’ लुन
15 क़रीब = मफ़ाईलुन+मफ़ाईलुन+फ़ाअ’लातुन
16 ख़फ़ीफ़ = फ़ाइलातुन+ मुस तफ़अ’ लुन+ फ़ाइलातुन
17 मुशाकिल = फ़ाअ’लातुन+मफ़ाईलुन +मफ़ाईलुन
18 मुतक़ारिब =फ़ऊलुन =122
19 मुतदारिक = फ़ाइलुन =212
[नोट :1 हो सकता है कि अरूज़ के अन्य किताबों में यही क्रम न दिया गया हो---कोई अन्य क्रम भी हो सकता है
रुक्न के प्रयोग के आधार पर इन 19-बह्रों का वर्गीकरण दो भागों मे किया जा सकता है
[1] मुन्फ़र्द बह्रें :- वो बह्रें जिसमें ’एक ’[फ़र्द] ही क़िस्म के सालिम या उसकी मुज़ाहिफ़ रुक्न [फ़र्द रुक्न] का प्रयोग हुआ है कैसे ’फ़ऊलुन’---फ़ाइलुन----मुफ़ाईलुन---मुस तफ़ इलुन---वग़ैरह वग़ैरह --यानी एकल रुक्न का प्रयोग हुआ है} मुरब्ब:--मुसद्दस--मुसम्मन के आधार पर इनकी आवृति [4--6---8] हो सकती है पर फ़र्द रुक्न का ही प्रयोग होगा । कॄपया confuse न हों
ऐसी बह्रें संख्या में ’सात’ है जैसे -- मुतक़ारिब----मुतदारिक----हज़ज---रजज़---रमल---कामिल--- और वाफ़िर और उनकी मुज़ाहिफ़ बह्रें [ यानी 3--4--6---7--8--18--19--- = 7 सालिम बह्रें ]
इनकी चर्चा क़िस्त 1 से लेकर क़िस्त 44 तक कर चुके हैं
[2] मुरक़्क़ब बह्रें :[या मिश्रित बह्रें] यानी वो बह्रें जिसमे ’दो’ या ’तीन’ सालिम बह्र या उनकी मुज़ाहिफ़ शकल का प्रयोग हुआ हो [यानी 1--2--5--9--10--11--12--13--14-15---16---17 =(12 मुरक़्क़्ब बह्रें]
जैसे----
इसमें से कुछ तो मुसम्मन शकल में प्रयोग होता है
जब कि कुछ मुसद्दस शकल में ही प्रयोग होते है जैसे --मुजतस----जदीद---क़रीब---ख़फ़ीफ़---मुशाकिल [ यानी 12---14---15---16---17 ]
उसी प्रकार अरबी--फ़ारसी के लिहाज़ से इनका वर्गीकरण 3 भागों में किया जा सकता है
[क] शुद्ध अरबिक़ बह्र :
1 तवील
2 बसीत
3 वाफ़िर
4 कामिल
5 मदीद
इन बह्रों का प्रयोग ज़्यादातर अरबिक शायरी मे ही होता है --फ़ारसी शायरी में बहुत ही कम हुआ है
[2] शुद्ध फ़ारसी बह्र
जदीद-
-क़रीब--
मुशाकिल
[ये 3 बह्रें] -शुद्ध रूप से फ़ारसी शायरी में प्रयोग किया जाता है -अरबिक़ शायरी में नहीं प्रयोग किया जाता
[3] बो बह्रें जो दोनो ही भाषाओं में प्रयोग होता है--बाक़ी 11- बह्रें दोनो भाषाओं में Common रूप से प्रयोग होते हैं
2- यहाँ हमने मुरक्क़ब बह्र की बुनियादी रुक्न के साथ साथ नम्बर की अलामत [जैसे 2212--122---2122----} जानबूझ कर नहीं दिखाई है ।वरना क्या आर था। एक बात ध्यान रखें यह नम्बर की अलामत आजकल ’फ़ेसबुक’ व्हाटस अप’ पर शायरी की हर ग्रुप में दिखा दिखा कर या बता कर [बिना बुनियादी रुक्न का नाम बताए या लिखे ] तरही ग़ज़ल ,शे’र या गिरह आदि का प्रोग्राम चलाया जा रहा है जो मेरे हिसाब से सही नहीं है ,दुरुस्त नहीं है । ऐसी अलामत आप को बह्र की सही स्थिति नही बता सकती है ।अत: आप सभी लोगों से अनुरोध है कि अगर बह्र को सही सही समझना हो तो इन अलामत के बज़ाय ,"बुनियादी रुक्न" पर मश्क़ करें -बेहतर होगा।
जैसे पहले भी चर्चा कर चुका हूँ
रुक्न "फ़ाइलातुन " को उर्दू के रस्म-उल-ख़त [लिपि] मे दो प्रकार से लिखा जाता है
[क-1] फ़ाइलातुन -यानी हर हर्फ़ को "सिलसिलेवार" मिला कर लिखते हैं जिसे ’मुतस्सिल शकल ’ कहते है और इसे हम सब 2 1 2 2 की अलामत से दिखाते हैं यानी ’फ़ा--इला---तुन =सबब-ए-ख़फ़ीफ़+ वतद-ए-मज्मुआ+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़
[क-2] फ़ाअ’ ला तुन-यानी कुछ हर्फ़ को-’फ़ासिला’ दे कर लिखते हैं जिसे "मुन्फ़सिल शकल’ कहते है और इसे भी हम सब 2 1 2 2 की अलामत से दिखाते हैं यानी फ़ाअ’[2 1] ---ला[2]---तुन[2] यानी ’ऐन - मुतहर्रिक है यहाँ
नम्बर की अलामत में तो कोइ फ़र्क़ नहीं पड़ा--मगर रुक्न की बुनियादी शकल ही बदल गई यानी अब इसका कम्पोजिशन हो गया -- वतद-ए-मफ़रूक़ [ फ़ा अ’] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ ला ] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [तुन] जो कि पहले था -सबब-ए-ख़फ़ीफ़+ वतद-ए-मज्मुआ+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ यानी एक ही रुक्न [2122] के दो रूप !
इसीलिए मैं कह रहा था कि 2122 के मात्र प्रयोग से आप सही रुक्न नहीं पकड़ पायेगे
इस मुन्फ़सिल शकल की चर्चा इस लिए कर दी कि यही शकल प्रयोग होता है बह्र --क़रीब में ----मुशाकिल में मुज़ारे में यानी फ़ाइलातुन का ’वतद-ए-मफ़रूक़’ वाली शकल
[ ठीक इसी प्रकार
रुक्न "मुसतफ़इलुन " [2 2 1 2 ]को उर्दू लिपि में दो प्रकार से लिखा जाता है
[ख-1] मुतस्सिल शकल --’मुसतफ़इलुन’ के हर हर्फ़ को मिला कर लिखते है इसे हम सब 2 2 1 2 की अलामत से दिखाते हैं यानी ’मुस--तफ़--इलुन = यानी सबब-ए-ख़फ़ीफ़+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़+वतद-ए-मज्मुआ
[ख-2] मुन्फ़सिल शकल-- मुस तफ़अ’ लुन के कुछ हर्फ़ को ’फ़ासिला’ देकर लिखते हैं इसको भी हम सब 2 2 1 2 की ही अलामत से दिखाते है मुस [2] ---तफ़अ’[21 ] --लुन [2] यानी --तफ़अ’-- में ऐन मुतहर्रिक है
अत: आप देख रहे हैं कि नम्बरी अलामत में तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता मगर रुक्न की बुनियादी शकल ही बदल गई यानी अब यह सबब-ए-ख़फ़ीफ़+ वतद-ए-मफ़रूक़ + सबब-ए-ख़फ़ीफ़
वतद-ए-मफ़रूक़ तो समझते होंगे --यानी हरकत+साकिन+हरकत
इसीलिए मैं कह रहा था कि 2122 के मात्र प्रयोग से आप सही रुक्न नहीं पकड़ पायेगे
इस मुन्फ़सिल शकल की चर्चा इस लिए कर दी कि यही शकल प्रयोग होता है बह्र --
सालिम बह्रों में तो चलिए 122---नम्बरवाली अलामत से तो बहुत कुछ काम चल जाता है -कारण कि रमल और रजज़ में ’मुन्फ़सिल’ शकल का प्रयोग होता है मगर यह निज़ाम [व्यवस्था] भी मुज़ाहिफ़ शकल तक जाते जाते विफल हो जाती है अत: इसी लिए बुनइयादी रुक्न के नाम वाली व्यवस्था ज़्यादे सही और दुरुस्त है
अपनी बात की पुष्टि के लिए एक उदाहरण और लेते हैं--
एक बहर है
मुज़ारिअ’ मुसम्मन अखरब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़ जिसको हम सब इस अलामती शकल से दिखाते है
221---2121----1221----212
इससे रुक्न नही पहचाना जा सकता --जब कि इसका रुक्नी शकल है
मफ़ऊलु---फ़ाअ’लातु----मफ़ाईलु---फ़ाअ’लुन
यानी --लु---तु---अ’ [ऐन] --सब मुतहर्रिक] है यानी जब आप शेर कहेंगे तो इस इस मक़ाम पर मुतहर्रिक आना लाज़िमी है --तभी आप शे’र की तक़्तीअ से जांच पायेंगे
ख़ैर--
इस से पहले कि हम मुरक़्क़ब बह्रों पर एक-एक कर के चर्चा करें--कुछ बुनियादी बाते ज़िहाफ़ की भी कर ले जो मुरक़्क़ब बह्रों पर अमल होंगे
[1] कुछ मुरक़्क्ब बह्रों मे ’फ़ाइलातुन’ और मुसतफ़इलुन की मुन्फ़सिल शकलों वाले अर्कान प्रयोग होते है जिसमे एक टुकड़ा ’वतद-ए-मफ़रूक़’ का आता है अत: इन बह्रों पर जब ज़िहाफ़ का अमल होगा तब मफ़रूक़ पे लगने वाले ज़िहाफ़ ही लगेंगे जैसे--वक़्फ़---कस्फ़----सलम---। ध्यान रहे कहीं वतद देख कर जल्दी जल्दी में आप ’वतद-ए-मज्मुआ’ पर लगने वाले ज़िहाफ़ न लगा दें।
[2] मुरक़्क़ब बह्रें -दो या तीन रुक्न के मेल से बनते है [लाज़िमन वतद और सबब के कई टुकड़ों से मिल कर बनते हैं जिसे हम अजज़ा [जुज़ का ब0ब0] कहते है और ज़िहाफ़ भी इन्ही टुकड़ों पे लगते है और एक साथ लगते है ] अरबी के अरूज़ियों ने इन ज़िहाफ़ात पर कुछ क़ैद भी आयद की है कि किस टुकड़े पर ज़िहाफ़ लग सकता है और किस टुकड़े पर ज़िहाफ़ नहीं लग सकता या किसी टुकड़े पर ज़िहाफ़ नहीं लग सकता। वल्लाह क्या क़ैद लगाई है ---कौन मानता है यह क़ैद आजकल।
इसी क़ैद पर शकील बदायूँनी का एक शे’र बेसाख़्ता याद आ रहा है -आप ने भी सुना होगा। नहीं सुना है तो सुन लीजिये
वो निक़ाब-ए-रुख़ उठा दी ,तो ये क़ैद भी लगा दी
उठे हर निगाह लेकिन ,कोई बाम तक न पहुँचे
चलिए अब उस क़ैद की बात करते हैं जिसे अरबी अरूज़ियों ने तज़्बीज की ।
[1] मुअ’कबा
[2] मुरक़बा
[3] मुकनफ़ा
इन तीनो क़ैद की भी चर्चा कर लेते हैं
[1] मुअ’कबा : अगर किसी एक रुक्न में या दो रुक्न के बीच में दो consecutive सबब-ए-ख़फ़ीफ़ आ जाय तो उसमें से एक ही सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर ज़िहाफ़ लगेगा --दोनो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर एक साथ ज़िहाफ़ नहीं लगेगा। नहीं लगेगा तो -फिर किसी सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर नही लगेगा।ऐसी स्थिति 9-बह्रों में आ सकती है जैसे --तवील----मदीद----वाफ़िर---कामिल---हज़ज----रमल---मुन्सरिह---खफ़ीफ़---मुजतस
[2] मुरक़बा :-अगर किसी एकल रुक्न मे [ Single Rukn ] -यदि दो consecutive सबब एक साथ आ जायें तो उसमें से किसी एक सबब पर उचित ज़िहाफ़ अवश्य [must] लगेगा।या लगना चाहिए। ऐसी स्थिति दो बहर में हो सकती है ---मुज़ारे--मुक़्तज़ब
[3] मुकनफ़ा :- यह क़ैद मुरक़बा क़ैद का ही Extension है} अर्थात -अगर किसी एकल रुक्न मे [ Single Rukn ] -यदि दो consecutive सबब एक साथ आ जायें तो ज़िहाफ़ एक पर लग सकता है या दोनो पर लग सकता है या किसी पर भी नहीं लग सकता ।ऐसी स्थिति इन चार बह्रों में आ सकती हैं--बसीत----रजज़---सरीअ’---मुन्सरिह
इन तीनों परिभाषाऒ में बहुत बारीक अन्तर है -ध्यान रहे
हांलाकि इस की ज़रूरत नहीं थी --मगर जब बात निकली तो चर्चा कर ली वरना अरूज़ की किताबों मे बस इतना ही लिखा मिलता है कि अमुक बह्र में मुअ’क़्बा है या मुरक़्बा है ।
आइन्दा मुरक़्कब बह्रों की चर्चा करते समय अगर हम यह कहें कि इस बह्र में मुअ’क्बा है या मुरक़्बा है तो आप समझ जायेंगे कि मेरी मुराद क्या है और मैं क्या कहना चाहता हूँ
इस क़िस्त में बस इतना ही
अगली क़िस्त में मुरक्क़ब बह्रों के एक-एक कर के चर्चा करेंगे
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब , अजीज दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब का और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर की इतनी बिसात कहाँ इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस आलिम साहिबान के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--
न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्ब्त ,अदब आशना हूँ
www.urdu-se-hindi.blogspot.com
or
www.urdusehindi.blogspot.com
-आनन्द.पाठक-
Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है
आप जानते हैं कि उर्दू शायरी में 19-बह्रें प्रचलित है जो निम्न है
बह्र बुनियादी रुक्न
1 तवील =फ़ऊलुन+ मफ़ाईलुन
2 बसीत = मुस तफ़ इलुन+ फ़ाइलुन
3 वाफ़िर = मफ़ा इ ल तुन = 12 1 1 2
4 कामिल = मु त फ़ालुन = 1 1 212
5 मदीद =फ़ाइलातुन+फ़ाइलुन
6 हज़ज = मफ़ाईलुन =1 2 2 2
7 रजज़ =मुस तफ़ इलुन =2 2 1 2
8 रमल =फ़ाइलातुन = 2 1 2 2
9 मुन्सरिह = मुस तफ़ इलुन+ मफ़ऊलातु
10 मुज़ारे =मफ़ाईलुन +फ़ाअ’लातुन
11 मुक़्तज़िब = मफ़ऊलातु+ मुस तफ़ इलुन
12 मुजतस = मुस तफ़अ’ लुन+ फ़ाइलातुन+फ़ाइलातुन
13 सरीअ’ = मुस तफ़ इलुन+मफ़ऊलातु
14 जदीद =फ़ाइलातुन+फ़ाइलातुन+ मुस तफ़अ’ लुन
15 क़रीब = मफ़ाईलुन+मफ़ाईलुन+फ़ाअ’लातुन
16 ख़फ़ीफ़ = फ़ाइलातुन+ मुस तफ़अ’ लुन+ फ़ाइलातुन
17 मुशाकिल = फ़ाअ’लातुन+मफ़ाईलुन +मफ़ाईलुन
18 मुतक़ारिब =फ़ऊलुन =122
19 मुतदारिक = फ़ाइलुन =212
[नोट :1 हो सकता है कि अरूज़ के अन्य किताबों में यही क्रम न दिया गया हो---कोई अन्य क्रम भी हो सकता है
रुक्न के प्रयोग के आधार पर इन 19-बह्रों का वर्गीकरण दो भागों मे किया जा सकता है
[1] मुन्फ़र्द बह्रें :- वो बह्रें जिसमें ’एक ’[फ़र्द] ही क़िस्म के सालिम या उसकी मुज़ाहिफ़ रुक्न [फ़र्द रुक्न] का प्रयोग हुआ है कैसे ’फ़ऊलुन’---फ़ाइलुन----मुफ़ाईलुन---मुस तफ़ इलुन---वग़ैरह वग़ैरह --यानी एकल रुक्न का प्रयोग हुआ है} मुरब्ब:--मुसद्दस--मुसम्मन के आधार पर इनकी आवृति [4--6---8] हो सकती है पर फ़र्द रुक्न का ही प्रयोग होगा । कॄपया confuse न हों
ऐसी बह्रें संख्या में ’सात’ है जैसे -- मुतक़ारिब----मुतदारिक----हज़ज---रजज़---रमल---कामिल--- और वाफ़िर और उनकी मुज़ाहिफ़ बह्रें [ यानी 3--4--6---7--8--18--19--- = 7 सालिम बह्रें ]
इनकी चर्चा क़िस्त 1 से लेकर क़िस्त 44 तक कर चुके हैं
[2] मुरक़्क़ब बह्रें :[या मिश्रित बह्रें] यानी वो बह्रें जिसमे ’दो’ या ’तीन’ सालिम बह्र या उनकी मुज़ाहिफ़ शकल का प्रयोग हुआ हो [यानी 1--2--5--9--10--11--12--13--14-15---16---17 =(12 मुरक़्क़्ब बह्रें]
जैसे----
इसमें से कुछ तो मुसम्मन शकल में प्रयोग होता है
जब कि कुछ मुसद्दस शकल में ही प्रयोग होते है जैसे --मुजतस----जदीद---क़रीब---ख़फ़ीफ़---मुशाकिल [ यानी 12---14---15---16---17 ]
उसी प्रकार अरबी--फ़ारसी के लिहाज़ से इनका वर्गीकरण 3 भागों में किया जा सकता है
[क] शुद्ध अरबिक़ बह्र :
1 तवील
2 बसीत
3 वाफ़िर
4 कामिल
5 मदीद
इन बह्रों का प्रयोग ज़्यादातर अरबिक शायरी मे ही होता है --फ़ारसी शायरी में बहुत ही कम हुआ है
[2] शुद्ध फ़ारसी बह्र
जदीद-
-क़रीब--
मुशाकिल
[ये 3 बह्रें] -शुद्ध रूप से फ़ारसी शायरी में प्रयोग किया जाता है -अरबिक़ शायरी में नहीं प्रयोग किया जाता
[3] बो बह्रें जो दोनो ही भाषाओं में प्रयोग होता है--बाक़ी 11- बह्रें दोनो भाषाओं में Common रूप से प्रयोग होते हैं
2- यहाँ हमने मुरक्क़ब बह्र की बुनियादी रुक्न के साथ साथ नम्बर की अलामत [जैसे 2212--122---2122----} जानबूझ कर नहीं दिखाई है ।वरना क्या आर था। एक बात ध्यान रखें यह नम्बर की अलामत आजकल ’फ़ेसबुक’ व्हाटस अप’ पर शायरी की हर ग्रुप में दिखा दिखा कर या बता कर [बिना बुनियादी रुक्न का नाम बताए या लिखे ] तरही ग़ज़ल ,शे’र या गिरह आदि का प्रोग्राम चलाया जा रहा है जो मेरे हिसाब से सही नहीं है ,दुरुस्त नहीं है । ऐसी अलामत आप को बह्र की सही स्थिति नही बता सकती है ।अत: आप सभी लोगों से अनुरोध है कि अगर बह्र को सही सही समझना हो तो इन अलामत के बज़ाय ,"बुनियादी रुक्न" पर मश्क़ करें -बेहतर होगा।
जैसे पहले भी चर्चा कर चुका हूँ
रुक्न "फ़ाइलातुन " को उर्दू के रस्म-उल-ख़त [लिपि] मे दो प्रकार से लिखा जाता है
[क-1] फ़ाइलातुन -यानी हर हर्फ़ को "सिलसिलेवार" मिला कर लिखते हैं जिसे ’मुतस्सिल शकल ’ कहते है और इसे हम सब 2 1 2 2 की अलामत से दिखाते हैं यानी ’फ़ा--इला---तुन =सबब-ए-ख़फ़ीफ़+ वतद-ए-मज्मुआ+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़
[क-2] फ़ाअ’ ला तुन-यानी कुछ हर्फ़ को-’फ़ासिला’ दे कर लिखते हैं जिसे "मुन्फ़सिल शकल’ कहते है और इसे भी हम सब 2 1 2 2 की अलामत से दिखाते हैं यानी फ़ाअ’[2 1] ---ला[2]---तुन[2] यानी ’ऐन - मुतहर्रिक है यहाँ
नम्बर की अलामत में तो कोइ फ़र्क़ नहीं पड़ा--मगर रुक्न की बुनियादी शकल ही बदल गई यानी अब इसका कम्पोजिशन हो गया -- वतद-ए-मफ़रूक़ [ फ़ा अ’] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ ला ] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [तुन] जो कि पहले था -सबब-ए-ख़फ़ीफ़+ वतद-ए-मज्मुआ+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ यानी एक ही रुक्न [2122] के दो रूप !
इसीलिए मैं कह रहा था कि 2122 के मात्र प्रयोग से आप सही रुक्न नहीं पकड़ पायेगे
इस मुन्फ़सिल शकल की चर्चा इस लिए कर दी कि यही शकल प्रयोग होता है बह्र --क़रीब में ----मुशाकिल में मुज़ारे में यानी फ़ाइलातुन का ’वतद-ए-मफ़रूक़’ वाली शकल
[ ठीक इसी प्रकार
रुक्न "मुसतफ़इलुन " [2 2 1 2 ]को उर्दू लिपि में दो प्रकार से लिखा जाता है
[ख-1] मुतस्सिल शकल --’मुसतफ़इलुन’ के हर हर्फ़ को मिला कर लिखते है इसे हम सब 2 2 1 2 की अलामत से दिखाते हैं यानी ’मुस--तफ़--इलुन = यानी सबब-ए-ख़फ़ीफ़+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़+वतद-ए-मज्मुआ
[ख-2] मुन्फ़सिल शकल-- मुस तफ़अ’ लुन के कुछ हर्फ़ को ’फ़ासिला’ देकर लिखते हैं इसको भी हम सब 2 2 1 2 की ही अलामत से दिखाते है मुस [2] ---तफ़अ’[21 ] --लुन [2] यानी --तफ़अ’-- में ऐन मुतहर्रिक है
अत: आप देख रहे हैं कि नम्बरी अलामत में तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता मगर रुक्न की बुनियादी शकल ही बदल गई यानी अब यह सबब-ए-ख़फ़ीफ़+ वतद-ए-मफ़रूक़ + सबब-ए-ख़फ़ीफ़
वतद-ए-मफ़रूक़ तो समझते होंगे --यानी हरकत+साकिन+हरकत
इसीलिए मैं कह रहा था कि 2122 के मात्र प्रयोग से आप सही रुक्न नहीं पकड़ पायेगे
इस मुन्फ़सिल शकल की चर्चा इस लिए कर दी कि यही शकल प्रयोग होता है बह्र --
सालिम बह्रों में तो चलिए 122---नम्बरवाली अलामत से तो बहुत कुछ काम चल जाता है -कारण कि रमल और रजज़ में ’मुन्फ़सिल’ शकल का प्रयोग होता है मगर यह निज़ाम [व्यवस्था] भी मुज़ाहिफ़ शकल तक जाते जाते विफल हो जाती है अत: इसी लिए बुनइयादी रुक्न के नाम वाली व्यवस्था ज़्यादे सही और दुरुस्त है
अपनी बात की पुष्टि के लिए एक उदाहरण और लेते हैं--
एक बहर है
मुज़ारिअ’ मुसम्मन अखरब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़ जिसको हम सब इस अलामती शकल से दिखाते है
221---2121----1221----212
इससे रुक्न नही पहचाना जा सकता --जब कि इसका रुक्नी शकल है
मफ़ऊलु---फ़ाअ’लातु----मफ़ाईलु---फ़ाअ’लुन
यानी --लु---तु---अ’ [ऐन] --सब मुतहर्रिक] है यानी जब आप शेर कहेंगे तो इस इस मक़ाम पर मुतहर्रिक आना लाज़िमी है --तभी आप शे’र की तक़्तीअ से जांच पायेंगे
ख़ैर--
इस से पहले कि हम मुरक़्क़ब बह्रों पर एक-एक कर के चर्चा करें--कुछ बुनियादी बाते ज़िहाफ़ की भी कर ले जो मुरक़्क़ब बह्रों पर अमल होंगे
[1] कुछ मुरक़्क्ब बह्रों मे ’फ़ाइलातुन’ और मुसतफ़इलुन की मुन्फ़सिल शकलों वाले अर्कान प्रयोग होते है जिसमे एक टुकड़ा ’वतद-ए-मफ़रूक़’ का आता है अत: इन बह्रों पर जब ज़िहाफ़ का अमल होगा तब मफ़रूक़ पे लगने वाले ज़िहाफ़ ही लगेंगे जैसे--वक़्फ़---कस्फ़----सलम---। ध्यान रहे कहीं वतद देख कर जल्दी जल्दी में आप ’वतद-ए-मज्मुआ’ पर लगने वाले ज़िहाफ़ न लगा दें।
[2] मुरक़्क़ब बह्रें -दो या तीन रुक्न के मेल से बनते है [लाज़िमन वतद और सबब के कई टुकड़ों से मिल कर बनते हैं जिसे हम अजज़ा [जुज़ का ब0ब0] कहते है और ज़िहाफ़ भी इन्ही टुकड़ों पे लगते है और एक साथ लगते है ] अरबी के अरूज़ियों ने इन ज़िहाफ़ात पर कुछ क़ैद भी आयद की है कि किस टुकड़े पर ज़िहाफ़ लग सकता है और किस टुकड़े पर ज़िहाफ़ नहीं लग सकता या किसी टुकड़े पर ज़िहाफ़ नहीं लग सकता। वल्लाह क्या क़ैद लगाई है ---कौन मानता है यह क़ैद आजकल।
इसी क़ैद पर शकील बदायूँनी का एक शे’र बेसाख़्ता याद आ रहा है -आप ने भी सुना होगा। नहीं सुना है तो सुन लीजिये
वो निक़ाब-ए-रुख़ उठा दी ,तो ये क़ैद भी लगा दी
उठे हर निगाह लेकिन ,कोई बाम तक न पहुँचे
चलिए अब उस क़ैद की बात करते हैं जिसे अरबी अरूज़ियों ने तज़्बीज की ।
[1] मुअ’कबा
[2] मुरक़बा
[3] मुकनफ़ा
इन तीनो क़ैद की भी चर्चा कर लेते हैं
[1] मुअ’कबा : अगर किसी एक रुक्न में या दो रुक्न के बीच में दो consecutive सबब-ए-ख़फ़ीफ़ आ जाय तो उसमें से एक ही सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर ज़िहाफ़ लगेगा --दोनो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर एक साथ ज़िहाफ़ नहीं लगेगा। नहीं लगेगा तो -फिर किसी सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर नही लगेगा।ऐसी स्थिति 9-बह्रों में आ सकती है जैसे --तवील----मदीद----वाफ़िर---कामिल---हज़ज----रमल---मुन्सरिह---खफ़ीफ़---मुजतस
[2] मुरक़बा :-अगर किसी एकल रुक्न मे [ Single Rukn ] -यदि दो consecutive सबब एक साथ आ जायें तो उसमें से किसी एक सबब पर उचित ज़िहाफ़ अवश्य [must] लगेगा।या लगना चाहिए। ऐसी स्थिति दो बहर में हो सकती है ---मुज़ारे--मुक़्तज़ब
[3] मुकनफ़ा :- यह क़ैद मुरक़बा क़ैद का ही Extension है} अर्थात -अगर किसी एकल रुक्न मे [ Single Rukn ] -यदि दो consecutive सबब एक साथ आ जायें तो ज़िहाफ़ एक पर लग सकता है या दोनो पर लग सकता है या किसी पर भी नहीं लग सकता ।ऐसी स्थिति इन चार बह्रों में आ सकती हैं--बसीत----रजज़---सरीअ’---मुन्सरिह
इन तीनों परिभाषाऒ में बहुत बारीक अन्तर है -ध्यान रहे
हांलाकि इस की ज़रूरत नहीं थी --मगर जब बात निकली तो चर्चा कर ली वरना अरूज़ की किताबों मे बस इतना ही लिखा मिलता है कि अमुक बह्र में मुअ’क़्बा है या मुरक़्बा है ।
आइन्दा मुरक़्कब बह्रों की चर्चा करते समय अगर हम यह कहें कि इस बह्र में मुअ’क्बा है या मुरक़्बा है तो आप समझ जायेंगे कि मेरी मुराद क्या है और मैं क्या कहना चाहता हूँ
इस क़िस्त में बस इतना ही
अगली क़िस्त में मुरक्क़ब बह्रों के एक-एक कर के चर्चा करेंगे
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूं ।मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अभी बह्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....
एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब , अजीज दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब का और कुछ दीगर दोस्तों का तह-ए-दिल से मम्नून-ओ-मश्कूर हूँ जिनकी किताबों से कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर की इतनी बिसात कहाँ इतनी औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस आलिम साहिबान के अरूज़ पर किए गए कामों का फ़क़त हिन्दी तर्जुमा समझिए बस ........
एक बात और--
न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्ब्त ,अदब आशना हूँ
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-आनन्द.पाठक-
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