शनिवार, 30 अगस्त 2014

उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 09


[Disclaimer clause --वही जो मज़मून क़िस्त 1- में था]

अहबाब-ए-महफ़िल !
    
बहुत दिनों बाद एक बार फिर इस ब्लाग पर हाज़िर हो रहा हूँ। ताख़ीर[विलम्ब] के लिए माज़रतख्वाह[क्षमा प्रार्थी] हूँ। दीगर कामों में मसरूफ़[व्यस्त] था। माहिया निगारी और तन्ज़-ओ-मिज़ाह को माइल [ आकर्षित] हो गया था ।मुझे लगा कि उर्दू बहर पर इस मज़्मून का कोई तलबगार नहीं है तो दीगर अक़्सात के लिए हौसला न हुआ । हमारे एक हिन्दीदाँ  दोस्त ने जब यह कहा कि इन मज़ामीन से वो काफी मुस्तफ़ीद हुए है और कुछ कुछ ग़ज़ल कहने का ज़ौक़-ओ-शौक़ पैदा हो रहा है तो मैं जज़्बाती हो गया कि कोई तो है जो इस मज़ामीन से मुस्तफ़ीद हो रहा है ,यही  सोच कर फिर आ गया हूँ अब ये सिलसिला चलता रहेगा। ख़ुदा इस कारफ़रमाई की तौफ़ीक़ अता करे।

पिछले क़िस्त -8 में मैने उर्दू शायरी में मुस्तमिल [इस्तेमाल में] 19- बहूर [ ब0ब0 बह्र] का ज़िक़्र किया था और उनके नाम और वज़न पर बातचीत की थी ।
www.urdu-se-hindi.blogspot.com पर देख सकते हैं

 इस से पहले कि हम इन बहूर पर बा तरतीब चर्चा करें उस से पहले ’ज़िहाफ़’ पे चर्चा करना मैं ज़रूरी समझता हूँ जिस से आइन्दा मुज़ाहिफ़ बहरें समझने में कारीं को आसानी होगी। 

  ज़िहाफ़....
 यह तो आप जानते है कि बहर ’रुक्न’ से बनती है और इसमे सालिम रुक्न 7- हैं । आप की सुविधा के लिए एक बार फिर दुहरा रहा हूँ
1- फ़ ऊ लुन      = 1 2 2 = बह्र मुतक़ारिब की बुनियादी और सालिम रुक्न है

2-फ़ा इ लुन   = 2 1  2 = बह्र मुतदारिक की बुनियादी और सालिम रुक्न है

3-मफ़ा ई लुन =   1 2 2 2 = बह्र हज़ज  की बुनियादी और सालिम रुक्न है

4- फ़ा इला तुन=  2 1 2 2 = बह्र रमल की बुनियादीौर सालिम  रुक्न है

5- मुस तफ़ इलुन= 2 2 1 2 = बह्र रजज़ की बुनियादी और सालिम रुक्न है

6- मफ़ा इल तुन = 1 2 1 1 2= बह्र वाफ़िर की बुनियादी और सालिम रुक्न है

7- मुत फ़ा इलुन = 1 1 2 1 2= बह्र कामिल की बुनियादी और सालिम रुक्न है

एक रुक्न " मफ़ ऊ ला तु" भी सालिम है मगर वो किसी बहर की बुनियादी रुक्न नहीं है इसका इस्तेमाल बहर-ए-मुक्तज़िब में करते है मगर मुज़ाहिफ़ शकल में करते हैं
कारण ? कारण यह कि इसका हर्फ़-उल-आखिर [यानी आखिरी हर्फ़ ’तु’ -पर हरकत है और उर्दू शायरी में शे’र का हर्फ़-उल-आखिर ’साकिन’ होता है .हरकत नहीं
जब हम  इसे किसी शे’र में इस रुक्न को बाँधेंगे -जैसे  मफ़ ऊ ला तु" -----मफ़ ऊ ला तु" ----मफ़ ऊ ला तु" ----मफ़ ऊ ला तु"  तो [अरूज़ और ज़र्ब] आखिरी हर्फ़ ’हरकत ’ ’तु’ पर गिरेगा जो शायरी में अरूज़ के लिहाज़ से जायज़ नहीं है इसी लिए इसे सालिम शकल में इस्तेमाल नहीं करते है

तो फिर?

या तो इसे शे’र के  दर्मियान [ इब्तिदा--हश्व..-सदर ] में इस्तेमाल कर सकते है -अरूज़ और ज़र्ब में नहीं। और अगर अरूज़ और ज़र्ब में इस्तेमाल करना ही है तो इस सालिम रुक्न की सालिम शकल के बज़ाय ’ मुज़ाहिफ़ शकल [ इस पर ज़िहाफ़ लगा कर कि आखिरी हर्फ़ साकिन हो जाय ] में इस्तेमाल करेंगे।
 आप ऊपर देखेंगे कि मैने रुक्न के सामने ’बुनियादी और सालिम’ लिखा है । मतलब यह कि इस रुक्न की "ज्यों की त्यों’ [ बिना किसी काट छांट के या रद्द-ओ-बदल के] करते है तो उसे सालिम बहर कहते है 
जैसे - बहर-ए-मुतक़ारिब मुसद्दस सालिम’ या  बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम 
या बहर-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम .... वग़ैरह वग़ैरह

आप अगर ग़ौर से देखे तो रुक्न -1 और रुक्न-2 ,पाँच हर्फ़ी [122 या 212] है जिसे ख़्म्मासी अर्कान कहते है  जब कि बाक़ी रुक्न 7-हर्फ़ी है जिसे सुबाई अर्कान[ब0ब0 रुक्न] कहते हैं । दिलचस्प बात यह है कि उर्दू शायरी में सुबाई [7-हर्फ़ी] अर्कान पहले आया जब कि ख़्म्मासी अर्कान [5-हर्फ़ी] बाद में आया । कहते है 5-हर्फ़ी अर्कान हिन्दी छन्द से आया ।

देखिये कैसे?

हिन्दी छन्द शास्त्र में गण की गणना के लिए ’दशाक्षरी सूत्र है -" यमाताराजभानसलगा" । यह आप सब जानते होंगे
यगण   = यमाता = 1 2 2 = फ़ ऊ लुन
रगण   = राजभा  = 2 1 2 = फ़ा इ लुन  

क्लासिकी अरूज़ की किताबों में यही सालिम रुक्न दिया हुआ या बताया गया है  
मगर
कमाल अहमद सिद्दक़ी साहब [ अरूज़ के उस्ताद माने जाते हैं ] ने अपनी किताब "आहंग और अरूज़" में कहा है तकीनिकी रूप से 8-हर्फ़ी बहुर भी मुमकिन है और उन्होने उस का बाक़यादा नाम भी दिया है जिसकी यहाँ पर चर्चा करना ग़ैर मुनासिब है

बहर बज़ाहिर [स्पष्ट है] रुक्न से बनते है ,रुक्न पर ज़िहाफ़ के अमल से बनते है और कभी कभी तखनीक की अमल से भी बनते हैं यह स्वयं में अलग विषय है

मुरब्ब:---मुसम्मन---मुसद्दस...मुज़ाहिफ़..किसे कहते है -पिछले अक़सात [ब0ब0 क़िस्त ] में बताया जा चुका है। एक बार फिर याद दिहानी करते हुए
मुरब्ब:  =अगर किसी मिसरा में 2-रुक्न [शे’र मे 4-रुक्न ] आते हैं तो उसे मुरब्बा: कहते हैं।[मुरब्ब: माने ही होता है वो समकोण चतर्भुज[4] जिसकी सब रेखायें बराबर हो यानी वर्गाकार
मुसद्दस = अगर किसी मिसरा में 3-रुक्न [शे’र में 6-रुक्न] आते हैं तो उसे मुसद्दस कहते हैं [मुसद्दस माने ही होता 6-पहलू वाला षट्कोण]
मुसम्मन= अगर किसी मिसरा में 4-रुक्न [शे’र में 8-रुक्न] आते है तो उसे मुसम्मन कहते है[ मुसम्मन मानी ही होता है 8-पहलू वाला यानी अष्ट्कोण]

अगर किसी शेर में 8-12-16 रुक्न आये तो? 

तो नाम तो वही रहेगा मुरब: ...मुसद्दस.....मुसम्मन   मगर उसके आगे एक शब्द ’मुज़ाअफ़’ जोड़ देते  है [मुज़ाअफ़ माने ही होता है दो-गुना करना]
अर्थात अगर किसी शे’र में 16-रुक्न है तो उसे कहेंगे -’ बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन मुज़ाअफ़ सालिम’ -या 16-रुक्नी बहर

अब सामने एक दिलचस्प पहलू आया -आप ने ध्यान नहीं दिया !
अगर किसी शे’र में 8 रुक्न है तो?

क्या यह "मुरब्ब: मुज़ाअफ़"[4x2=8]  कहलायेगा या  मुसम्मन [8] कहलायेगा?
वो तो शे’र की बुनावट देखने के बाद ही कहा जा सकता है
मुरब्ब: में हश्व नहीं होता सिर्फ़ इब्तिदा-अरूज़ और सदर-ज़र्ब होता है जब कि मुसम्मन के एक मिसरा में 2-हश्व [शे’र में 4-हश्व होते हैं]
अब आप पूछेंगे कि यह सदर----हश्व-----अरूज़---इब्तिदा----ज़र्ब क्या बला है?
जनाब ये बला नहीं हैं शे’र के हुस्न है और ये  शे’र में रुक्न के ख़ास  मुकाम के नाम है
एक मुसम्मन शे’र पढ़ता हू‘ तो ये मकामात वाज़ेह [स्पष्ट] हो जायेंगे

जिगर मुरादाबादी  का एक शे’र है

इक लफ़्ज़-ए-मुहब्बत है , अदना सा फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़, फ़ैले तो ज़माना  है

अब इसकी तक़्तीअ करते है 

221---1222   //221---1222
 सदर    / हश्व        // हश्व      / अरूज़
इक लफ़्ज़/-ए-मुहब्बत है //, अदना  ए’/ फ़साना है

  इब्तिदा  /हश्व       //  हश्व    /  ज़र्ब 
सिमटे तो/ दिले आशिक़ //,फ़ैले तो/ ज़माना  है

इस शे’र की बह्र का नाम है "हज़ज मुसम्मन अखरब’ और बीच में जो // लगाया है उसे अरूज़ी वक्फ़ा कहते है । अरूज़ी वक्फ़ा के बारे में कभी विस्तार से और अलग से बात करेंगे

मिसरा उला में 4-रुक्न है और मिसरा सानी में भी 4-रुक्न है अत: कुल मिला कर 8-रुक्न हुए तो बज़ाहिर मुसम्मन है। रुक्न 1 2 2 2 [मफ़ा ई लुन ] है जो बह्र-ए-हज़ज का बुनियादी रुक्न है तो हज़ज मुसम्मन हुआ और रुक्न 221 जो सदर और इब्तिदा के मुकाम पर है और [1 2 2 2 पर ख़र्ब का ज़िहाफ़ लगा तो शकल 2 2 1 में बदल गई यानी मुज़ाहिफ़ बहर हो गई] 

सदर और अरूज़ /या इब्तिदा और ज़र्ब के बीच जो रुक्न है वो हश्व के मुकाम  है 

अर्थात मुसम्मन बहर के एक मिसरा में 2 हश्व ,मुसद्दस बहर में 1 हश्व और मुरब्ब: बहर मे वो भी नहीं यानी कोई हश्व नहीं ।
अच्छा ,कभी आप ने सोचा है बहर में रुक्न 2..4...6....8...16 ही क्यों होते हैं  5....7....9. .रुक्न क्यों नहीं होते?? कारण आप जानते हैं । भाई शे’र में 2- मिसरा जो होते है तो 5--7--9 को कैसे divide करेंगे। हम ने तो ऐसी कोई बह्र देखी नहीं है .आप की नज़र से कभी कोई गुज़री हो तो बताईयेगा। 
 मैं इन मकामात का नाम इस लिए लिख रहा हूँ कि जब हम ज़िहाफ़ की चर्चा करेंगे तो इन का ज़िक़्र आयेगा क्योंकि कुछ ज़िहाफ़ इब्तिदा और सदर मुकाम पर आने वाले रुक्न के लिए मख़्सूस [ख़ास तौर से निर्धारित हैं] जब कि कुछ ज़िहाफ़ अरूज़ और ज़र्ब मुकाम के लिए मख़्सूस होते है\य़ानी हर ज़िहाफ़ हर मुकाम पर नहीं लगते 

एक बात और

ज़िहाफ़ सिर्फ़ रुक्न पर लगते है और रुक्न की शकल [वज़न ] बदल जाती है
आप तो जानते ही है कि रुक्न - सबब [2-हर्फ़ी लफ़्ज़ जैसे..फ़ा....लुन..मुस..मुत तफ़ ..आदि.]और वतद[ 3-हर्फ़ी लफ़्ज़ जैसे..फ़ऊ..मफ़ा..इला..इलुन.........] के combination & permutation से बनते हैं तो ज़िहाफ़ भी इन्ही सबब और वतद  [जिसकी चर्चा हम पिछले क़िस्त में कर चुके हैं ] पर ही अमल आते है और रुक्न की शकल बदल जाती है ।

चलते चलते एक बात और कह दें कि अगर इन सालिम बहर ,मुरक्क़ब बहर ,मुज़ाहिफ़ बहर ,बहर जो तखनीक के अमल से बरामद होती हैं फिर मुसम्मन...मुसद्दस..मुरब्ब; को भी जोड़ लें फिर सदर ---अरूज़--इब्तिदा--अरूज़ को भे जोड़ लें तो इन बहरों की संख्या लगभग 200 के आस पास बैठती है
कोई भी शायर इतने बहर में शायरी नहीं करता ।वो तो चन्द मक़्बूल बहर में ही शायरी करता है । कहते हैं ग़ालिब ने अपने दीवान में 19-20 किस्म के बहूर ही इस्तेमाल किए है जब कि मीर तक़ी मीर ने 28-30 क़िस्म के बहूर इस्तेमाल किए हैं

शायरी में सिर्फ़ बहर और वज़न ही नहीं ’कथन ’[content]   भी मानी रखता है 

[ नोट : और अन्त में 
--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उन से मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत ख़यालबन्दी या ग़लत बयानी हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।
अस्तु

अब ज़िहाफ़ात [ब0ब0 ज़िहाफ़] के बारे में अगले क़िस्त में चर्चा करेंगे]
जारी है...... 

-आनन्द.पाठक-
09413395592
  
 

बुधवार, 6 अगस्त 2014

ग़ज़ल 046:हिकायत-ए-ख़लिश-ए-जान-ए-बेकरार...

ग़ज़ल 046

हिकायत-ए-ख़लिश-ए-जान-ए-बेक़रार न पूछ !
शुमार-ए-शाम-ओ-सहर ऐ निगाह-ए-यार! न पूछ !

हमारे दिल की ख़बर हम से बार बार न पूछ !
जो सच कहेंगे तो गुज़रेगा ना-गवार ! न पूछ !

जो आ रही है शब-ए-ग़म वो कैसे गुज़रेगी ?
गुज़र चुकी जो मिरी शाम-ए-इन्तिज़ार, न पूछ!

शराब-ओ-शे’र-ओ-ग़ज़ल,नग़्मा-ओ-रबाब-ओ-चंग
रम-ए-नफ़स का ये सामान-ए-ऐतिबार! न पूछ !

मैं अपने सामने हूँ और नज़र नहीं आता !
गु़बार-ए-ख़ातिर-ए-हस्ती-ए-नाबकार न पूछ !

कहाँ कहाँ न मिला हम को दाग़-ए-रुस्वाई ?
दराज़-दस्ती-ए-दामान-ए-तार-तार न पूछ !

शिकस्तगी ही ता’रुफ़ को मेरे काफी है
मेरे नुमूद-ओ-हक़ीक़त ,मिरा दयार न पूछ !

विसाल हिज़्र-ए-मुसलस्सल का इस्तिआरा है
मआल-ए-वस्ल! ज़हे-रंग-ए-ख़ू-ए-यार न पूछ !

हम अह्ल-ए-दिल हैं समझते हैं राज़-ए-हस्त-ओ-बूद
खिज़ां के भेष में रंगीनी-ए-बहार ? न पूछ !

मक़ाम-ए-शौक़ में किन मंज़िलों से गुज़रा है !
ये तेरा अपना ही "सरवर"!ये जाँनिसार ! न पूछ

-सरवर
हिकायत =हाल-चाल
रबाब-ओ-चंग =साज/वाद्य यंत्र यानी ख़ुशियां
रम-ए-नफ़स =सांसों की भाग-दौड़ यानी ज़िन्दगी
नाबकार =व्यर्थता
नुमूद =धूम-धाम/शान-ओ-शौक़त/तड़क-भड़क
इस्तिआरा =मूर्त रूप/बा शक्ल
हस्त-ओ-बूद = जीवन का अस्तित्व




प्रस्तुताकर्ता
-आनन्द पाठक-
09413395592

क़िस्त 006 : चन्द माहिए : डा0 आरिफ़ हसन ख़ान के

    26
तनहा ही रहना है
जीवन भर मुझ को
अब दर्द ये सहना है
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27
दुशवार हुआ जीना
इश्क़ न हो रुसवा
आसान नहीं मरना
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28
मेरा क्या जीना है
तुझ को ख़ुश देखूँ
बस एक तमन्ना है
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29
तू ख़ूब फले-फूले
दर्द उठाऊँ मैं
तू ख़ुशियों में झूले
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30
आँसू क्यों बहते हैं
हम तो तेरा हर ग़म
चुप रह कर सहते हैं
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प्रस्तुतकर्ता

-आनन्द.पाठक
09413395592