शुक्रवार, 29 मार्च 2024

बेबात की बात 06: हिंदी ग़ज़लों में नुक़्ता का मसला [ क़िस्त 2]

 हिंदी ग़ज़लों में ’नुक़्ता" का मसला [क़िस्त 2 ]


पिछली क़िस्त-1 में : हिंदी ग़ज़लों में ’नुक़्ता" का मसला [क़िस्त 1] पर चर्चा की थी।

उसी सिलसिले को आगे बढाते हुए ---

 पिछली किस्त में मैने कहा था कि हिंदी ग़ज़लों में उर्दू शब्दों पर नुक़्ता लगाना क्या अनिवार्य है या वैकल्पिक है ? इस पर दो विचारधारा के लोग हैं

1- एक वो -------------[ पिछली क़िस्त देखें ]

2-- दूसरे वो -----------[ -do- ]

 और मैं ?  । मैं  तटस्थ । इससे आप लोग यह न समझ लीजिएगा कि मैं किसी विचारधार विशेष का पोषक हूँ , समर्थक या विरोधी हूँ। नुक़्ता लगा दिया तो ठीक । न लगाया तो भी ठीक । बस भाव और अर्थ 

न गड़बड़ हो जाए। मगर इस बात का ज़रूर ख़याल रखता हूँ कि हिंदी ग़ज़लों में "यथा शक्ति"- यथा संभव" -" जहाँ नुक़्ता लगना चाहिए वहाँ लगना चाहिए। बात 24 करेट की है। इसका कोई विकल्प नही।

नुक़्ता सही जगह लगाना ही श्रेयस्कर है वरेण्य है ।

अब  चन्द शायरों के शेर उदाहरण स्वरूप देखते  है।


जालिम मैं कह रहा था कि तू इस खू से दरगुजर

"सौदा" का कत्ल है ये , छुपाया न जाएगा । 

मिर्जा मुहम्मद रफी ’सौदा’


अक्ल खो दी थी जो ऎ ;नासिख’ जुनून-ए-इश्क में

आइना समझा किए इक उम्र बेगाने को हम ।

- शेख इमाम बख्श ’नासिख’


लाई हयात आए कजा ले चली चले 

अपनी खुशी से आए न अपनी खुशी चले

-इब्राहिम जौक-


नुक्ताचीं है गम-ए-दिल उसको सुनाए न बने

क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने


इश्क पर जोर नही है ये वो आतिश ’गालिब’

कि लगाए न लगे और बुझाए न बने ।

-मिरजा गालिब-


अफ्शा-ए-राज-ए-इश्क में गो जिल्लतें हुईं

लेकिन उसे जता तो दिया जान तो गया ।

- दाग देहलवी -


कभी ऎ हकीकत-ए-मुन्तजर, नजर आ लिबास-ए-मजाज में

कि हजारों सिजदे तड़प रहे हैं  मेरी जबीन-ए-नियाज में ।

-अल्लामा इकबाल--


ऐसे ही हजारों अशआर जो हम आप प्राय: पढ़ते है सुनते हैं सुनाते हैं। आप ने ऊपर के तमाम अशआर पढ़े भाव समझे और आनन्दित हुए। 

परन्तु कुछ लोगों ने  पढने और सुनने की रौ में ध्यान नहीं दिया होगा ।

मैने ऊपर के तमाम शायरों के नाम में  और अशआर के अल्फ़ाज़ में " नुक़्ता’ का प्रयोग ’जानबूझ’ कर नहीं किया । अब क्या, अब तो आप ने पढ़ ही लिया .समझ भी लिया

बिना खटक के बिना झिझक के।

अब आप चाहें तो यथास्थान नुक़्ता लगा कर भी पढ़ सकते हैं। भाव [ मफ़हूम] में आप को कोई फ़र्क़ नहीं नज़र आएगा। मगर शर्त यह कि आप तलफ़्फ़ुज़  भी वैसा ही करेंगे।

मेरा आग्रह है कि आप यथा संभव शब्दों में नुक़्ता लगा कर ही लिखे तो बेहतर। 24 करेट सोने का कोई विकल्प नहीं। नहीं लगा सकते हैं या नहीं समझ में आ रहा है तो न लगाएँ--बेहतर\

मगर ग़लत जगह न नुक़्ता लगाए .[  न ग़लत जगह पर नुकताचीं ही करें --हा हा हा हा ।]   अर्थ का अनर्थ हो सकता है ।जैसे

अब कुछ शब्द देखते हैं --नुक़्ता सहित और नुक़्ता रहित--

जलील--ज़लील

राज --राज़

नुक्ता--नुक़्ता

कमर-क़मर 

अजल--अज़ल 

सजा--सज़ा 

अर्ज--अर्ज़

जंग--ज़ंग

अगर नुक़्ता रहित शब्द कहीं प्रयोग होता है तो वाक्य के प्रयोग और सन्दर्भ से अर्थ और मफ़हूम स्पष्ट हो जाता है। वैसे भी गद्य [ नस्र] में अब धीरे धीरे नुक़्ता लगना कम होता जा रहा है वैसे ही जैसे में कुछ तत्सम शब्दों में ’हलंत’ का लगना।

ऐसे बहुत से शब्द  जो नुक़्तायुक्त भी है और नुक़्ताविहीन भी। अर्थ भी अलग अलग है । मगर बोलने में समान  ध्वनि। किसी ग़ज़ल या शे’र में जैसे भी प्रयोग  हो भाव स्पष्ट ही रहता है।

चलने को तो  कानून--कागज- अक्ल -जैसे तमाम शब्द भी चल जाते हैं  जहाँ  हक़ीक़तन नुक़्ता लगना चाहिए--मगर लेखन में धीरे धीरे नुक़्ता लगाने का प्रचलन कम होता जा रहा है और अगर हम लोग इस तरफ़ ध्यान न देंगे तो आने वाले दिनों में नुक़्ता लगाने की प्रवृत्ति कम होती जाएगी--नुक़्ता घिसता जाएगा।

अच्छा एक बात और-- हर जगह -ज- देख कर नुक़्ता न लगा दें --जैसे

शज़र--हसरत ज़यपुरी --ज़ाने ज़ाँ--तू ज़हाँ ज़हाँ चलेगा--मेरा साया साथ होगा---हँसते गाते जहाँ से गुज़र----आज़ ज़यपुर का मौसम खराब है । आदि आदि। 

आप के लिए मैने दिल सज़ा के रखा है।

हमारी गुज़ारिश तो यही होगी --कि अगर आप शे’र-ओ-शायरी , .ग़ज़ल से जौक़-ओ-शौक़ फ़रमाते हैं तो उर्दू शब्दों की सही वर्तनी ज़रूर समझे , ज़रूर सीखें। यह आप के निरन्तर पढ़ने से

"स्वाध्याय" से आयेगा। आप की लगन से ही आयेगा।

अगर आप उर्दू रस्म उल ख़त [ लिपि ] नहीं पढ़ सकते है तो एक प्रामणिक" उर्दू हिंदी शब्द कोश"  की एक प्रति  ज़रूर रखें  अपने पास संदर्भ के लिए । रेख़्ता साइट की मदद ले सकते है ।[ ध्यान रहे रेख्ता हर समय सही नहीं होता]

आप लिखने से ज़ियादा पढ़ने पर ज़ोर दें । कोई ग़ज़ल शे’र पोस्ट करने के पहले 2-4 बार नज़र-ए-सानी ख़ुद कर लें । दूसरों के भरोसे नहीं छोड़ें। जल्द पोस्ट करें और ग़लत पोस्ट करें--उचित नहीं।

 बेहतर होगा कि ’कम पोस्ट करें और सही पोस्ट करें’। आप शायर है कवि हैं शायरा हैं कवयित्री हैं --तो आम पाठक को आप से ज़ियादा उम्मीद रहती है --कम से कम भाषा की शुद्धता के बारे में।

24 कैरेट की शुद्धता। बाक़ी आप की मरजी। चलने को तो सब कुछ चलता है विशेषत: फेसबुक पर ह्वाट्स अप पर।


--आनन्द.पाठक -


सोमवार, 25 मार्च 2024

बेबात की बात 05 : हिंदी ग़ज़लों में नुक़्ता का मसला [ क़िस्त 1]

 

बेबात की बात : हिंदी ग़ज़ल में ’नुक़्ता" का मसला [क़िस्त 1]


"नुक़्ते के हेर फ़ेर से ख़ुदा जुदा हो गया"--यह जुमला आप ने कई बार सुना होगा। जो लोग उर्दू के ’हरूफ़-ए-तहज़्ज़ी’ [ उर्दू वर्णमाला ] से परिचित हैं वह इस जुमले का अर्थ अच्छी तरह जानते होंगे।और जो सज्जन नहीं जानते होंगे उनके लिए स्पष्ट कर देता हूँ ।

उर्दू में ख़ुदा “ख़े” (خ) से लिखा जाता है, जिसमे नुक़्ता ऊपर होता है। लेकिन अगर यही नुक़्ता ख़ुदा लिखते वक़्त नीचे लग जाये तो ये “ख़े” की जगह जीम (ج) हो जाता है और इस तरह “ख़ुदा” (خدا) “जुदा” (جدا) हो जाता है। “जुदा होना” का मतलब है “अलग होना ’ । ख़ुदा का मतलब तो आप जानते ही होंगे। ख़ैर।

 जब से उर्दू ग़ज़लॊ का लिप्यन्तरण हिंदी के देवनागरी लिपि  में होने लगा उससे एक तो फ़ायदा यह हुआ कि उर्दू ग़ज़लों को एक विस्तार मिला, श्रोता गण मिले , हिंदी वाले उर्दू शायरी के  शे’र-ओ-सुख़न ्से परिचित हुए ।फलत: हिंदी में ग़ज़ल कहने वाले और लिखने वालॊं में आशातीत वृद्धि हुई। अब तो फ़ेसबुक पर  हर  दूसरा व्यक्ति  ग़ज़ल लिख रहा है। उसमे कितनी  "ग़ज़ल’ है और  कितनी फ़कत  "तुकबन्दी"  इस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करूँगा। 

मगर इस वाक़िया से  उर्दू गज़ल से हिंदी ग़ज़ल में कुछ  समस्याएँ  भी आईं,  सौती क़ाफ़िया का मसला आया , प्रतीकों का मसला आया  जिसमे से एक "मसला" हिंदी में नुक़्तों का भी आया। । सौती क़ाफ़िया या अन्य  मसाइल  पर कभी  बाद में बात करेंगे। आज की चर्चा -हिंदी ग़ज़ल में ’नुक़्ता" का मसला- तक ही सीमित रखेंगे।

उर्दू में नुक़्ते का कोई मसला नहीं । अगर होगा भी तो वह उनकी  लापरवाही का सबब होगा ।यह उनकी "वर्तनी" [इमला]  और इल्म का हिस्सा है। उर्दू [ अरबी , फ़ारसी में भी ]जहाँ नुक़्ता लगाना है वहाँ नुक़्ता लगाना ही लगाना होगा । कोई विकल्प नहीं कोई छूट नहीं। वरना उनका इमला ग़लत माना जाएगा--जो सही नहीं होगा। मूलत:  हिंदी में --नुक़्ता- हमारे वर्णमाला का हिस्सा नहीं है ।नुक़्ते का कोई ’कन्सेप्ट [ Concept]’ नहीं । मगर अरबी -फ़ारसी--उर्दू--तुर्की- शब्दों को कुछ हद तक हिंदी में समायोजित [ accomodate  ] करने के लिए ’नुक़्ते; का कन्सेप्ट लाया गया ।

जैसे---क/क़--ख/ख़--ग/ग़-- ज/ज़---फ/फ़  या फिर अ/ ’अ आदि

  कुछ हद तक इसलिए कि हिंदी में नुक़्ते लगे वर्ण ’पूरी तरह’ से उर्दू हर्फ़ के ’तलफ़्फ़ुज़’ [ उच्चारण ] हू-ब-हू नुमाइंदगी नही करते है Exact Mapping  नहीं करते।  जैसे ज-/ज़

उर्दू में ज़ के  5- हर्फ़ [ जे--झे--जाल--जोए---जुवाद---  ] प्रयोग होते हैं जिनके उच्च्चारण [ तलफ़्फ़ुज़] मुख़्तलिफ़ होते हैं बारीक सा ही सही मगर अलग अलग होता है । और इतना बारीक होता है कि आम मुसलमान भी बोलने में फ़र्क़ नहीं कर पाता , अगर वह मदरसा से तालीमयाफ़्ता [प्रशिक्षित  या तालिब  न हो। तो हम हिंदी वालों की क्या बात--सब ज/ज़ एक समान। लिखने में भी और बोलने में भी।

तो क्या हिंदी ग़ज़लों में  वर्ण पर "नुक़्ता’ लगाना ज़रूरी है? या बिना लगाए काम चल जाएगा? न लगाएँ तो क्या होगा? क्या यह वैकल्पिक [ obligatory  ] है ?  या आवश्यक हैं [ mandatory  ]--ऐसे बहुत से सवाल  समय समय पर बहुत से मंचों पर उठते रहते है। बहस चलती रहती है । आज भी यह मुद्दा ज़ेर-ए-बहस  है। 


इस प्रश्न पर दो विचार समूह [school of thought] हैं-


1- एक  तो वह  जो भाषा की शुद्धता के लिहाज़ से उर्दू शब्दों को नुक़्ता लगाने का आग्रह करते हैं । उनका मानना है कि आम जनता को /जन साधारण को/ श्रोता को  एक ’साहित्यकार [ कवि लेखक शायर ] से भाषा की अपेक्षाकृत अधिक शुद्धता की आशा रहती है। 24-कैरेट की आशा। सोना जितना शुद्ध हो उतना है वैल्यू उतनी ही कीमत। 

जो काशी तन तजै कबीरा--रामहि कौन निहोरा । जब नुक़्ता लगाना ही है तो फिर बहस की गुंजाइश कहाँ ?


2- दूसरे वह  जिनका मानना है कि चूँकि हिंदी में नुक़्ते का कॊई कन्सेप्ट [concept ]नहीं है अत: -हमारी वर्तनी का हिस्सा नहीं है-लगा दिया तो ठीक--नहीं लगाया तो भी ठीक-। नहीं लगाया तो कौन सी आफ़त आ जाएगी। सोना 24 करेट का नही तो 18-20 करेट का ही --कहलाएगा तो सोना ही । कोई पूर्वाग्रह नहीं।  प्रसंग और संदर्भ के अनुसार श्रोताओं को भाव स्पष्ट  हो ही जाता है । जैसे 

वह  हमारे यहाँ खाने पर आया -- वह मयख़ाने से आया/ बुतख़ाने में आया । अगर मयखाने / बुतखाने में -ख- पर नुक़्ता नहीं लगाया तो भी अर्थ/ भाव स्पष्ट ही है प्रसंगानुसार।

उसी प्रकार 

रूस युक्रेन में "जंग" जारी है / आप के दिमाग़ में ’ज़ंग’ लगा हुआ है । अगर -ज- पर नुक़्ता लगा हो, न लगा हो भाव समझने में कोई फ़र्क नही पड़ेगा।लगा दिया तो ठीक -नहीं लगा तो भी ठीक। हम में से अधिकांश  हिंदी भाषी उतनी बारीकी से उच्चारण भी नहीं कर पाते हैं  और न उच्चारण के भेद ही  पकड़ पाते हैं। लिखने में भले ही थोड़ा  फ़र्क पड़े  तो पड़े, बोलने में तो कत्तई नहीं।

ऐसे हज़ारो उदाहरण आप को मिल जाएंगे। जैसे इन्साफ़/इन्साफ --शरीफ़/शरीफ़-- दाग/दाग़--गम/ग़म -ख़्वाब/ख्वाब-ग़ालिब/गालिब---इक़बाल/इकबाल --खयाल/ख़याल - --हज़रत/हजरत 

नुक़्ता लगे ना लगे क्या फ़र्क पड़ता है। प्रसंगानुसार  भाव और अर्थ स्पष्ट रहता है

हाँ नुक़्ताचीं करने वाले --बेग़म/ बेगम पर आप को ज़रूर टोकेंगे। अज़ल/अजल पर ज़रूर टोकेंगे।

प्र्श्न यह है कि हम आप कहाँ खड़े है ? 

 मैं तो भाई इन दोनॊ के बीच खड़ा हूँ  । 

[1] यदि आप आश्वस्त हैं कि अमुक हर्फ़ पर  नुक़्ता लगेगा ही लगेगा --तो आप नुक़्ता लगाएँ

[2] यदि आप आश्वस्त नहीं हैं , दुविधा में हैं  कि वहाँ नुक़्ता लगेगा कि नहीं लगेगा तो बेहतर है कि नुक़्ता न  लगाएँ।

अब कुछ दिलचस्प बातें कर लेते हैं--

उर्दू के हर शब्द के मूल  [ Root word] में  3-हर्फ़ [ मस्दर ]  होता  जिसे हम ’धातु’ कह सकते है 

 जैसे ’क़त्ल {[ क़-त-ल ] --यानी -क- नुक़्तायुक्त  --क़- 

क़त्ल से बने जितने भी शब्द होंगे सबमें क- पर ; नुक़्ता ’ यानी -क़-आएगा  जैसे

क़त्ल--क़ातिल--मक़्तूल--क़तील--मक़तल --या इसे बने यौगिक शब्द  --जैसे क़ातिल नज़र--क़त्लगाह --क़तील सिफ़ाई

जैसे --नज़र -- [ न--ज़--र  ] से बने शब्द

नज़र--नज़री--नज़रीया--नज़ाइर---नज़ीर-- नज़्ज़ारा--मनाज़िर --या इसे बने यौगिक शब्द जैसे --नज़र अन्दाज़--नज़र-ए-बद --ख़ुशनज़र

ऐसे ही अन्य  बहुत से शब्द।

चलते चलते एक बात और

नुक़्ता के खुद ही दो शकल है--


नुक़्ता [ -क-बिन्दु युक्त ] === बिन्दी, जो उर्दू के किसी हर्फ़ पर लगाते हैं [ नुक़्त-ए-नज़र 

नुक्ता [-क-  बिना बिन्दु के ] ===  गूढ बात [  नुकते की बात यह  कि-----।

ऐसे बहुत से शब्द --अजल--अज़ल आदि आदि

अब आप यह स्वयं  तय करें कि आप किस तरफ़ खड़े हैं।   24 केरेट वाले के साथ [ first school of thought } या 20 केरेट वाले के साथ [ second school od thought] ?

चलते चलते किसी का एक शे’र आप के चिन्तन के लिए छोड़ जाता हूँ 

हम ’दुआ’ लिखते रहे, वह ’दग़ा’ पढ़ते रहे

एक ’नुक़्ते’ ने हमें महरम से मुजरिम बना दिया।


अब आप सोचिए शायर ने ’दुआ" लिखा मगर मगर महबूबा ने ’ दग़ा’ पढ़ा। क्यों ?

[ जवाब --आप उर्दू स्क्रिप्ट में -’दुआ’- और -’दग़ा"-लिख कर देख लीजिएगा---बात साफ़ हो जाएगी।

[ आज इतना ही --बाक़ी अगले अंक में ---अगली क़िस्त में--]

सादर


-आनन्द.पाठक-