सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

बेबात की बात 04 : गिरते हैं शह्सवार ही मैदान-ए-जंग में

 

बेबात की बात 04 : गिरते है शहसवार ही ---


यह जुमला आप ने कई बार सुना होगा और  सुनाया होगा । यह एक शे’र के मिसरा का आधा ही भाग है --मगर यह जुमला इतना मक़्बूल हो चुका है  ,ज़र्ब उल मिस्ल [ कहावत की ] हैसियत करार पा चुका है, हर आम और ख़ास की ज़ुबान पर चढ़ चुका है कि सामने वाला शख़्स बेसाख़्ता कह उठता है --

- मैदान-ए-जंग में।  और पूरा शे’र यूँ पडः देता है

गिरते है शहसवार ही मैदान-ए-जंग में

वो तिफ़्ल क्या गिरे जो घुटनॊं के बल चले।

या 

गिरते है शहसवार ही मैदान-ए-जंग में

वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनॊं के बल चले।

सवाल यह कि यह मशहूर शे’र किसका है इसका सही ’वर्जन’ सही पाठ क्या है ?

 यह शे’र इतना घिस चुका है कि नेट पर इसके कई रूप मिलते है । एक सज्जन ने तो अपने फ़ेसबुक वाल पर -इसे नवजोत सिंह सिद्धू का ही बता दिया जो मौक़े-दर- मौक़े [ ज़ियादातर बेमौक़े ही ] ही पढ़ा करते हैं। मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि यह शे’र सिद्धू  का नहीं है ।अगर यह शे’र सिद्धू का होता तो --अन्त में यह रदीफ़ ज़रूर लगाते  --ठोकों ताली-😅😅😅 -हा हा हा हा।

ख़ैर इसका सही रूप है-

शह्ज़ोर अपने ज़ोर में गिरता है मिस्ल-ए-बर्क़

वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो  घुटने के बल चले ।

[ शह्ज़ोर =  बलवान/बलशाली , 

तिफ़्ल =बच्चा ]

रेख्ता में इसका यही रूप दिया है  सही रूप दिया है। 

यह शे’र मिर्ज़ा अज़ीम बेग ’अज़ीम’ साहब का है ।

सच तो यह है कि जो शे’र आम तौर पर प्रचलन  में है वह कहीं ज़ियादा मक़्बूल और  आमफ़हम है।

अज़ीम साहब के इस शे’र के बारे में एक दिलचस्प वाक़या भी है। उस घटना का ज़िक्र -कमाल अहमद सिद्दक़ी साहब नें अपनी किताब -’आहंग और अरूज़:-में किया है।  उस घटना का विवरण [उन्ही के पुस्तक से साभार ] आप लोगों के लिए पेश कर रहा हूँ। आप भी लुत्फ़ अन्दोज़ [ आनन्दित] हों --

एक बार जनाब अज़ीम साहब अपनी एक ग़ज़ल इन्शा साहब [ जो उस ज़माने के एक मशहूर शायर थे ] को सुनाई मगर ग़ज़ल में बह्र-ए-रमल और बह्र-ए-रजज़ का कुछ झोल था ] इन्शा साहब ने उस ग़ज़ल पर खूब दाद दी और यह भी कहा कि अगले  मुशायरे में यही ग़ज़ल सुनाना । अज़ीम साहब ने वही ग़ज़ल बड़ी शिद्दत और मुहब्ब्बत से मुशायरे में  पढ़ी। मगर इन्शा साहब ने घात कर किया और भरी महफ़िल में अज़ीम साहब को ज़लील तो नहीं किया मगर तन्जन यह मुखम्मस [ 5-मिसरे की एक विधा]

पढ़ा--

 गर तू मुशायरे में सबा आजकल चले

कहियो "अज़ीम" से कि ज़रा वो सँभल चले

इतना भी अपनी हद से न बाहर निकल चले

पढ़ने को सब जो यार गज़ल दर ग़ज़ल चले 

बह्र-ए-रजज़ में डाल कर बह्र-ए-रमल चले ।


अज़ीम साहब को भरी महफ़िल में यह तंज यह विश्वासघात बहुत नागवार गुज़रा । और उन्होने भी

उसी ज़मीन पर एक मुख़म्मस पढ़ा} । अज़ीम साहब का वह मुखम्मस तो अभी दस्तयाब नहीं है मगर उसका एक शे’र इतना मशहूर मक़्बूल हो गया कि ज़र्ब उल मिस्ल [ कहावत] की हैसियत पा गया और हर आम-ओ-ख़ास की ज़ुबान पर चढ़ गया।

वह शे’र था --

शह्ज़ोर अपने ज़ोर में गिरता है  मिस्ल-ए-बर्क़

वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटने के बल चले ।

-- मिर्ज़ा अज़ीम बेग ’अज़ीम"

[ शहज़ोर= बलवान ,

 तिफ़्ल    = बच्चा ।

मगर समय के अन्तराल से किसी ने मिसरा उला को बदल दिया । हो सकता है कि किसी गिरह लगाने के कार्यक्रम में मिसरा उला का का गिरह लगा दिया और यूँ कर दिया--

गिरते है शहसवार ही मैदान-ए-जंग में

वह तिफ़्ल क्या गिरे जो घुटनो के बल चले

अब यह शे’र न अज़ीम साहब का रहा और न उस अनाम शख़्स का रहा जिसने यह तब्दीली कर दी।

बात जो भी है। यह दूसरा वर्जन निस्बतन कही ज़ियादे मानीख़ेज़ और असरदार है।

सादर

-आनन्द.पाठक 

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